बात गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों की है...
और तसवीर मधुशाला की। अजीब लगेगा आपको। मुझे भी लगा, जब मैंने अपने पिता को मधुशाला सुनते देखा।
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उन्हें कविताओं का शौक था। दूर दूर कवि सम्मेलन सुनने जाते। घर पर भी सैंकड़ो कैसेट। अक्सर बजाए जाते।
मेरे लिए सबसे असहनीय था- मधुशाला सुनना। समझ न आता कि मेरे पिता, जो अदरवाइज, बड़े बौद्धिक प्राणी हैं, भला "बेवड़ों की कविता" क्यो सुनते है।
प्याला, हाला, मधुसाकी बाला.. उफ्फ!!
मगर उनसे बोले कौन। और वो सुनते, रिपीट कर करके सुनते..
हाथ पकड़ लज्जित साकी का,
हाय नही जिसने खींचा
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की
उसने मधुमय मधुशाला
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शर्मिंदगी पर माता ने भी मुहर लगा दी। जब एक बार उनके पीठ पीछे कहा- "ई दिनभर का सुने'लन, पड़पड़ करते मधुसाला"
सब खिसियानी हंसी हंसे। बात पक्की थी, कुछ गड़बड़ है। और इसी मानसिकता के साथ 15 बीस साल गुजर गए। पिता भी न रहे।
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दिल्ली एयरपोर्ट पर, एयरपोर्ट शॉप में मधुशाला की सीडी दिखी। पापाजी की बुरी वाली याद ताजी हो गई। मैनें उस सीडी को नही देखा। बिल्कुल नही देखा।
आगे बढ़ गया। फिर लौटा।
लेट्स फेस इट।
तो 2005-06 में 500 रुपये की सीडी खरीदी। घर लाया, सुना। पहली 15 रुबाइयाँ, पापाजी के कैसेट का A साइड थी।
ऐसी भी बुरी नही थी।
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दूसरी 15, B साइड था। ट्यून अलग, मूड अलग। मन्ना डे की आवाज,अलग ही स्पेस पर थी।
यम आयेगा साकी बनकर
साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा
सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंतिम बेहोशी,
अंतिम साकी,
अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको
फिर न मिलेगी मधुशाला।
दिमाग मे एक विस्फोट हुआ। नही, कोई बेवड़ेबाजी का विमर्श नहीं। यहां तो शराब की बात नही हो रही।
प्याला, कुछ और है। हाला का मतलब अलग है। ये तो गहरा दर्शन है, अनुभूति है, शब्दातीत है। मैनें स्टॉप किया।
पहली रुबाई से फिर सुना। अबकी बार उन्ही रुबाइयों को, एक नई दृष्टि से, जो मिनटों पहले हासिल ही मिली थी। पहली रुबाई बजी..
मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीने वाला
किस पथ से जाऊं असमंजस
में है वो भोला भाला
अलग अलग पथ बतलाते सब
पर मैं ये बतलाता हूँ
राह पकड़ तू एक चलाचल
पा जाएगा मधुशाला..
अबकी कोई शराबी, शराबखाना खोजता नही दिखा। मुझे ईश्वर की खोज में निकला श्रमण दिखा, जो असमंजस में है,
किस राह से जाऊं???
उसे बताया गया- कोई भी राह पकड़। लगातार चल। ईश्वर मिलेगा.. ब्रह्म मिलेगा, अनलहक, कैवल्य, निर्वाण मिलेगा।
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आज मैं समझ पा रहा था, कि मेरे पिता दरअसल, उन पंक्तियों में सुनते क्या थे।
आज उनकी पसन्द पर मै गर्वित था। उनकी गहराई समझ सका। उसमे डूब सका, उनके पास पहुँच सका।
अंत आते-आते बदन में झुरझुरी होने लगी। लगा, ये उनकी आवाज है। कह रहे है- पितृ पक्ष में मुझसे..
तर्पण, अर्पण करना मुझको
पढ़ पढ़ कर के मधुशाला
पढ़ पढ़ कर के मधुशाला
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मैं धन्य हुआ। किताब खरीदी। उसमे 127 रुबाइयाँ है, सीडी में सिर्फ 30। सारी रुबाइयों को समझने के लिए धर्म, दर्शन, और हमारे रिचुअल्स का ज्ञान होना चाहिए।
प्याला बदन है, हाला ईश्वर है, बाला प्रेम है, जीवन है, लालसाएं है। लेकिन हर रुबाई में एक अलग मतलब है।
उस छायावाद को समझने के लिए परिपक्वता का एक स्तर चाहिए। शरीर, जीवन, ईश्वर, प्रेम, कर्तव्य, धर्म, निराशा और उम्मीद के हर अनुभव से गुजर चुका व्यक्तित्व चाहिए।
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सम्भोग से समाधि में ओशो पोर्न नही लिखते। वे एक दर्शन बता रहे है। दृष्टांत दे रहे है।
गांधी उससे आगे जाते है। वासना, शरीर, पाशविक भाव, किसी को जीत लेने औऱ भोग लेने के भाव से ऊपर उठते जाने का दर्शन देते हैं। और खुद के दृष्टांत देते हैं।
तो ब्रह्मचर्य के प्रयोग को लेकर उन्होंने क्या लिखा है, उसे मेरी या किसी की पोस्ट, व्हाट्सप फार्वर्ड, और ट्विटर के कमेंट से न जानिए। स्वयं खोजिए, पढिये।
मगर पोर्न तलाशने वालो को चेतावनी-
निराशा मिलेगी।
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सोशल मीडिया पर गांधी पर कीचड़ उछालने का यह सबसे सस्ता, सबसे हीन तर्क है।
यह अविकसित मन की, गांधी को उनके बिस्तर पर झाँक कर, नग्न देख लेने की ख्वाहिश है। जैसे किसी आम नेता की वाइरल सीडी, वीडीओ मांगते लोग हैं। वही उस किताब में भी चटकारों की आशा करते हैं।
उन्हें उबाऊ दर्शन मिलना है।
पर रुचि है, तो खोजकर "पूरा" पढिये। बापू ने तो खुद लिखा, लोगो के पढ़ने को पब्लिश किया।उसे पढ़ने में दिक्कत नही होनी चाहिए।
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मगर कम उम्र, वासनामयी बुद्धि, राजनीतिक कीचड़ उछालने के भाव से पढ़ेंगे तो बात कभी समझ न आएगी।
आप अपने बापू की "पड़पड़ करती मधुशाला" के लिए शर्मिंदा होंगे। और अगर बापू आपके नही हैं, तो फिर खिल्ली उड़ाएंगे।
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और वही हंसी, "आपके" और "गांधी" हो जाने के बीच "फर्क की द्योतक" होगी।