Jivan @ Shutduwn - 9 in Hindi Fiction Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | जीवन @ शटडाऊन - 9

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जीवन @ शटडाऊन - 9

फिर से वहीं तक

नीलम कुलश्रेष्ठ

रिसेप्शन के कांच के दो दरवाज़ों के पार एक परछाईं उभरी, उन्हें लगा कि उन के खून का बहाव अपनी जगह थम गया है । साड़ी का वही केसरिया रंग, उस पर सुर्ख लाल रंग का पतला बार्डर और उस में लिपटी गोरी कमनीय देह । वह धुंधली सी परछाईं उन के करीब आती जा रही है, चाल में भी वही अकड़, वही आत्मविश्वास, दूसरों से अपने को थोड़ा ऊपर समझने वाला अहं, जिस पर कभी वह बरसों पहले रीझ उठे थे ।

रिसेप्शन में खुलने वाला कांच का दरवाजा आहिस्ता से खुला और वह धुंधली सी परछाईं एकदम सामने आ कर खड़ी हो गई । कटे हुए फड़फड़ाते बाल और खुलीखुली सी मुस्कराहट, “नमस्ते, क्या आप ही डी के यानी दिनेश अंकल हैं ?”

“हां, लेकिन तुम मुझे कैसे पहचान सकी?” वह हतप्रभ और अवाक थे कि उन्हें वह कैसे पहचान गई । रिसेप्शन में तो और भी कई लोग मौजूद हैं ।

“केवल इंट्यूशन  से ।” फिर वही खुलीखुली सी हंसी ।

“मैं ने तो तुम्हें इसलिये पहचान लिया क्योंकि...”

“.....क्योंकि मैं बिंदु बुआ से बहुत मिलती जुलती हूँ ।”

“और तुम्हारा वह इंट्यूशन  मेरे खयाल से तो तुमने मेरी तसवीर भी नहीं देखी होगी ?”

“सच बताऊँ, इतने देशों में आप रहे हैं, शायद इसी लिये आप के व्यक्तित्व में विदेशी आभिजात्य समा गया है और जिस तरह आप मुझे गौर से देख रहे थे उसी से मैं समझ गई थी कि आप ही दिनेश अंकल हैं, आप का सामान कहाँ है ?”

“सामान मैं ने स्टेशन के समीप एक होटल में रख दिया है ।”

“क्षमा करें अंकल, मैं आप को लेने नहीं आ पायी, सुबह ही मेरी एक शूटिंग थी । विजय भी टूर पर गये हुए थे, शायद अब तक वापस आ गये होंगे ।”

वह कुछ आहत हुए, उन के होटल में सामान रखने की बात उस ने एकदम उड़ा दी थी । एक बार भी अपने घर पर रुकने को नहीं कहा ।

“चलिये, अब घर चलें ।” वह आग्रह करते हुए उन्हें दूरदर्शन केंद्र से बाहर ले आई ।

दरवाजा विजय ने ही खोला, “नमस्ते अंकल !क्षमा करें, मैं बाहर गया हुआ था । इसलिये स्टेशन नहीं पहुंच सका ।”

“कोई बात नहीं ।” उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया । सीधे ही खाने की मेज के पास ही बैठा दिया । विजय उन से बातें करने लगा । विनि ढ़ेर सा नाश्ता और चाय बना कर ले आई । चाय पीने के बाद विजय दाढ़ी बनाने में व्यस्त हो गये । विनि ने मुंह धो कर साड़ी बदली और हाऊस ह कोट पहन लिया । बिखरे बालों को रबड़बैंड से बांध लिया और फ्रिज में से एक थाली में आलू और गाजर निकाल कर उन से बोली, “अंकल आप ड्राइंगरूम में चल कर आराम से बैठिये । मुझे तो विजय के लिये खाना तैयार करना है । आप क्या खाना पसंद करेंगे ?”

“कुछ भी ।” उठते हुए वह बोले ।

ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठ कर उन्होंने पास वाली रैक पर से पत्रिका उठा ली । उस के अंदर विनि का छोटा सा साक्षात्कार व फोटो छपा हुआ था । उन्होंने कनखियों से इधर उधर निगाह दौड़ाई, तीन कमरों का फ़्लैट, वही सुरुचि, वही सुघड़ता, जिस ने वर्षों पहले उन्हें मोह लिया था । और उस सब के बीच विनि...बिंदु ....विनि...नहीं नहीं, बिंदु नहीं, विनि एक घरेलू साधारण सी गृहिणी, जो इस समय उस `कॉलगर्ल’ से कितनी अलग लग रही थी, जिसे उन्होंने कसी हुई स्कर्ट में सिगरेट का धुंआ उड़ाते हुए, किसी के घर दूरदर्शन पर एक धारावाहिक में देखा था । उस की बेबाकी, उस की चपलता, उस की सुंदरता से वह कितने उद्वेलित हो उठे थे ।

उन के आश्चर्य का एक दूसरा कारण भी था । उन्हें लग रहा था कि इतने वर्षो बाद बिंदु ही उन के सामने आ खड़ी हुई है । उन का चोट खाया अहं जाग उठा । बिंदु न सही, इतने वर्षों बाद उस का प्रतिरूप ही सही, जिस का साथ न मिलने पर तड़पते हुए वह विदेशों में कागज़ कलम उठाए, नए नए समाचार खोजते भटकते रहे हैं । उस बेबाक, बेशर्म लड़की से ही उस तड़प का शायद वह प्रतिशोध ले सकें। उस लड़की को प्रभावित करने के लिये उन के पास ‘हथियारों’ की कोई कमी नहीं थी । विदेशों में अर्जित किया ढ़ेर सा पैसा, हाथ की कागज़ कलम, विदेशी पत्रिकाओं में उस का साक्षात्कार आदि प्रकाशित कराने का प्रलोभन इस से ज्यादा किसी आधुनिक लड़की को चाहिये भी क्या ?

“ एक्सक्यूज़ मी अंकल ! मैं तो चलता हूँ, आज की छुट्टी नहीं मिल पायेगी ।”

विनि रसोई में ही बोली, “आप का खाना तैयार है ।”

विजय अपने ब्रीफकेस में खाने का डब्बा रख कर बाहर निकल गया ।

ड्राइंग रूम में वह पत्रिका पलटते हुए, अपने ही विचारों में खो से गये । उस धारावाहिक की वह कॉलगर्ल उन की आंखों से ओझल नहीं हो रही थी ।

दूरदर्शन केंद्र से उन्होंने उस का पता मंगा कर, भावुकता में एक पत्र लिखा था, “बरसों पहले भारत में मेरी एक मित्र थी बिंदु, जो जिंदगी के सफर में कहीं पीछे छूट गई है । मैं तुम से मिलना चाहता हूं ।क्योंकि तुम्हारा चेहरा उस से बहुत मिलताजुलता है ।”

लौटती डाक से उन्हें उत्तर मिला था, “मैं उसी बिंदु की भतीजी हू, मिलने के लिये चले आइये ।”

उन की उड़ान से एक दिन पहले मिलने का समय तय हो गया था, उस के शहर से अपनी वापसी की बात जानबूझ कर उन्होंने नहीं लिखी थी। उन की खुशी का ठिकाना नहीं था कि वह लड़की और कोई नहीं बल्कि बिंदु की भतीजी है । अब जमाना कितनी तेजी से आगे बढ़ रहा है । वह लड़की तो बिंदु से भी चार कदम आगे होगी ।

विनि का काम समाप्त हो गया । वह नैपकिन से हाथ पोंछते हुए, उन के सामने वाले सोफे पर पालथी मार कर बैठ गई, “अब सुनाइये, अंकल ।”

वह उस के इस तरह बैठने पर कुछ असहज हो उठे । बिंदु के सामने एक बार जब वह ऐसे ही बैठ गये थे तो वह कैसी तुनक गई थी, “इतना पढ़लिख कर भी तुम गंवार के गंवार रहे । अब तक सामान्य शिष्टाचार नहीं सीख पाये ।”

अंगरेजों द्वारा छोड़े गये जिस शिष्टाचार को बिंदु जैसी लड़कियों के परिवार वाले घुट्टी की तरह उन्हें पिलाते रहे थे, उन को विनि की पीढ़ी ने किस तरह उतार फेंक दिया है, एक नैसर्गिक उन्मुक्त जीवन जीने की कोशिश सी करते हुए ।

विनि अपनी ही रौ में कहती चली जा रही थी, “मुझे तो अब फुरसत मिली है । आप के लेख वगैरह तो पत्रिकाओं में प्रायः पढ़ती ही रहती हूँ और साथ ही आप के बारे में कुछ न कुछ सुनते ही रहते हैं ।”

“किस से?”

“आप के पुराने साथियों से आप की खबरें मिलती रहती हैं ।”

“कैसी खबरें ?” उन की मुस्कराहट गहरी हो गई थी ।

“हम क्या बताएं? आप खुद ही समझ लीजिये ।” विनि के होंठों पर भी रहस्यमय मुस्कान थिरक उठी ।

उन की एक अमरीकन, फिर एक स्वीडिश लड़की से शादी और तलाक, नीग्रो सेक्रेटरी से उन का एक बेटा एवं अन्य कई लडकियों से उन के संबंधों की बातें विदेशी सीमाएं लांघ कर, किसी न किसी तरह यहाँ पहुँचती ही रही हैं ।

खैर, सब चलता है । इन बातों की परवाह उन्हें नहीं । उन्होंने जिस तरह चाहा है, अपने जीवन को भोगा है । खूब जी भर कर जिया है । फिर भी न जाने क्यों मन भटकता ही रहा है । वह सोचने लगे, अपनी मिट्टी से जुड़ी कौन सी कशिश शेष रह गई थी, जो उन्हें विनि तक खींच ले आई है ।

“आप क्या सोचने लगे?”

“हूं...मैं यह सोच रहा था कि उस धारावाहिक वाली लड़की व तुम में कितना अंतर है ।”

वह फिर हंस पड़ी, “वह तो थोड़ी देर का नाटक था । मेरा असली जीवन तो यही है ।”

“तुम दूरदर्शन से कैसे जुड़ गई?”

“बस ऐसे ही, कालिज का एक नाटक देखने के बाद दूरदर्शन के निदेशक को मेरा अभिनय बहुत पसंद आया । कुछ नाटकों में उन्होंने काम दिलवा दिया । बाद में मैं ने सोचा, इसे ही अपना कैरियर बना लूं । पिताजी की मृत्यु के बाद हम लोग रवि चाचा के पास रहने लगे थे, उन्होंने भी प्रोत्साहित किया ।”

“तब तो काफी व्यस्त दिनचर्या होगी ।”

“हाँ, पर कभीकभी ही । अभी मेरी बिटिया छोटी है, इसलिये अभिनय से बहुत ज्यादा नहीं जुड़ पाती ।”

“अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारे मन में मेरी क्या छवि थी?”

“दरअसल हम लोग तब बहुत छोटे थे जब बूआ के नाम के साथ कभीकभी घर में आप की भी चर्चा होती थी ।”

“फिर भी मेरी कुछ तो छवि रही होगी । विदेशों में भटकते हुए भी अपने पीछे छोड़े गये लोगों में अपनी परछाई ढूँढ़ने का न जाने कैसा मोह होता है । मैं सोचता था कि उन की स्मृतियों में मेरा नाम जिंदा भी है या मिट गया ।”

“सच बताऊँ, कुछ कुछ कृष्ण जैसी ।”

“सच,” एक गर्वोक्ति के साथ वह उसी मीठी, गहरी मुसकान से मुसकरा दिये, जिस के कारण न जाने कितनी विदेशी लड़कियाँ उन पर फिदा होती रही हैं। कहीं दिल में उम्मीद भी थी कि हो सकता है, उम्र से थकी मुस्कराहट का जादू कुछ असर कर ही जाये ।

“अरे, आप खुश हो रहे हैं । मेरा मतलब तो कृष्ण के रूप के उस पहलू से था जो न जाने कितनी नारियों की भावनाओं से क्रूर खिलवाड़ करता रहा ।”

वह सन्न से रह गये । उन्हें बेहद गुस्सा भी आया, लेकिन साथ ही विनि ही बेबाकी पर प्यार भी उमड़ पड़ा । बिंदु भी तो ऐसी ही बेबाक थी । उस जमाने में शहर की पहली महिला एडवोकेट । काला गाउन पहने व सफेद ‘बो’ लगाये कचहरी में जिधर से भी निकल जाती, सब देखते रह जाते । उसके गोरे रंग पर काला गाउन फबता भी बहुत था । कुछ देहाती तो भौंचक्क से उठ कर खड़े हो जाते । किसी स्त्री को इस रूप में देखने की किसी की आदत जो नहीं थी । कचहरी में पहली बार उसे देख कर ही वह अपने होश गंवा बैठे थे ।

एक क्षण चुप रहने के बाद वह बोले, “तुम्हें शायद मालूम होगा, बिंदु ने ही शादी करने से इनकार कर दिया था ।”

“हाँ, सुना तो मैं ने भी ऐसा ही था लेकिन उस के बाद का आप का जीवन?”

“देखो, जीवन का पहला प्यार कोई नहीं भूल पाता । बाद में तो कोई भी आताजाता रहे फर्क नहीं पड़ता ।”

“उन महिलाओं को तो फर्क पड़ा ही होगा ।”

इस बारे में शायद वह कोई बहस नहीं करना चाहते थे, धीरे से बोले, “आजकल बिंदु कहाँ है ?”

तभी घंटी बजी । विनि झटपट उठते हुए बोली, “अरे, ध्यान ही नहीं रहा । आशी के आने का वक्त हो गया ।” वह दरवाजे की तरफ दौड़ी ।

“मम्मी, मुझे भूख लगी है ।” नन्ही आशी विनि की गरदन से झूल गई ।

“अभी खाना देती हूँ । देखो तो बेटे, कौन आये हैं ।”

“नमस्ते अंकल ।” आशी ने मुस्करा कर उन की ओर देखा ।

“मैं जरा इस के कपड़े बदल दूँ ।” कहते हुए विनि दूसरे कमरे में चली गई ।

उन्होंने फिर वही पत्रिका उठा ली, लेकिन कान पास वाले कमरे की तरफ ही लगे थे, जहाँ विनि, आशी के कपड़े बदल रही थी । साथ ही यह उस से बतियाती भी जा रही थी ।

मां और बेटी के वार्तालाप को सुन कर, उन्हें बहुत खीज हो रही थी । सोचने लगे, विजय को खाने का डब्बा पकड़ाती विनि और बेटी के स्नेह में सुधबुध खोई इस विनि के पास किस उम्मीद से आए हैं ?

हर समय सुंदर साड़ियों में नयेनये केशविन्यास में सजी रहनेवाली खुशनुमा एडवोकेट बिंदु । एक ही व्यवसाय में होने के कारण उन की आपस में शीघ्र ही मित्रता हो गई थी । दोनों कभीकभी एकदूसरे के घर भी आतेजाते रहते थे । कुछ दिनों बाद ही वह बिंदु को ले कर बहुत भावुक रहने लगे थे ।

एक दिन उन्होंने सहमते सहमते उस के समक्ष शादी का प्रस्ताव रख ही दिया । लेकिन बिंदु एकदम भड़क उठी, “शादी और मुझ से? आप ने यह कैसे सोच लिया कि मैं शादी करूंगी ? मैं तो दृढ़ निश्चय कर चुकी हूँ कि कभी शादी नहीं करूंगी । हमारी दादी और मां ने भी यही सब किया था । उन्हें क्या मिला? हर समय घर के कामों में चक्की की तरह पिसते रहना व साल दर साल बच्चे पैदा करते चले जाना ।”

“मैं तो कानून की दुनिया में तहलका मचाना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ कि लोग मेरे काम से मुझे पहचानें। ”

“और मेरे व तुम्हारे बीच गुजरे वो भावुक क्षण?”

“ऐसी छोटी मोटी बातें तो जिंदगी में आतीजाती ही रहती हैं ।”

वाकई बिंदु ने अपना जीवन अपने कैरियर से बांध लिया था । इस दंश से उन्होंने भी अपनी राह बदल ली थी । एक बार अपने मामा के पास अमरीका गये तो फिर वहीं के हो कर रह गये । वहाँ पर ही उन्होंने अपना कैरियर बदला था । पत्रकारिता के नशे में जैसे डूब जीना चाहते थे, लेकिन पूरे डूब कहाँ पाये थे । बिंदु के हाईकोर्ट के वकील बन जाने की खबर और समय समय पर उस के बदलते हुए दोस्तों की खबरें । उन तक पहुंच ही जाती थीं । उन्हों ने भी नारी को ले कर अपने जीवन में एक नया खेल शुरू कर दिया था ।

“चलिये अंकल ! खाना लग गया है ।” विनि की आवाज सुनाई दी । सलीके से सजी खाने की मेज पर वह विनि और आशी के सामने बैठ गये । विनि का ध्यान उन की बातों पर कम, आशी खाना ठीक से खा रही है या नहीं, इस पर अधिक था ।

खाना खाने के बाद विनि ने औपचारिकतावश पूछा, “आप यहीं आराम कर लीजिये ।”

उकताए स्वर में उन्होंने मना कर दिया, “नहीं, मैं होटल चलता हूँ । कल दूरदर्शन केंद्र के पास ही मुझे कुछ काम है, क्या तुम दो बजे मिल सकोगी?”

वह कुछ सोचते हुए बोली, “जरूर, दो बजे मेरा काम खत्म हो जायेगा । मैं वहां की कैंटीन में आप का इंतजार करूंगी ।”

दूसरे दिन, दो बजे दोपहर को कैंटीन के दरवाजे पर जैसे ही उन्होंने कदम रखा, कोने की मेज पर से विनि ने हाथ हिलाया । उन के पास आते ही बैरा पानी के गिलास वहाँ रख आर्डर ले गया ।

“आप का काम पूरा हो गया?”

“हाँ, लगभग हो ही गया है और तुम्हारी आज की शूटिंग कैसी रही ?”

“एकदम बढ़िया ।”

गिलास मुंह से हटा कर उन्होंने विनि से पूछा, “आजकल बिंदु कहाँ है?”

“वह तो असंतुलित जीवन जी रही हैं ।” विनि के स्वर में उदासी घुल गई ।

“मैं ने तो सुना था कि उस ने बहुत पैसा कमाया है ।”

“पैसों की तो उन के पास अब भी कमी नहीं है, लेकिन पता नहीं, कुछ सालों से उन में कड़वाहट भरती चली जा रही है ।”

“अब वह कहाँ है?”

“हरिद्वार के एक आश्रम में रह रही हैं ।”

“क्यों ? ऐसी क्या मजबूरी है ? तुम्हारे तो दो चाचा भी हैं । वह उन के पास भी रह सकती थी ।”

“उन का स्वभाव बहुत चिड़चिड़ा हो गया था । घर के बच्चों से भी झगड़ पड़ती थीं । दोनों चाचा के परिवारों से उन की बनी नहीं । इसी कारण कोई नौकर भी उन के पास नहीं टिकता था । बाद में वकालत छोड़ कर हरिद्वारा चली गईं । सुनते हैं, वहाँ आश्रम के लोगों से भी लड़ती ही रहती हैं ।”

“ओह,” वह भीगे स्वर में बोले, “तुम उस से मिलने जाती हो?”

“हाँ, कभीकभी ।”

“बिंदु को मेरे बारे में बता देना ।” उन्हें अपने स्वर पर स्वयं ही आश्चर्य हो रहा था । क्यों इतने वर्षों बाद वह अपना संदेशा उस तक पहुँचाना चाहते हैं ।

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं ।”

अब वह एक आखिरी, बस आखिरी कोशिश कर के देखना चाहते हैं । अगर सफल रहे तो आज की उड़ान की टिकट रद्द करवा देंगे । वह सीधे विनि की आँखों में झांकते हुए बोले, “तुम में एक विशेष गुण है । मैं चाहता हूँ कि अमरीकन पत्रिका के लिये तुम्हारा साक्षात्कार लूं । होटल में मेरे साथ एक फोटोग्राफर भी ठहरा हुआ है । कल सुबह तुम वहाँ आ जाना और हाँ अपनी वह पोशाक लाना न भूलना, जिस में मैं ने तुम्हें पहली बार दूरदर्शन पर देखा था ।”

“मैं तो न आ सकूंगी ।”

“क्यों?” वह चौंक उठे । अमरीका की किसी पत्रिका का तो नाम लेते ही कितनी लड़कियाँ उन के पीछे पड़ जाती हैं ।

“बस ऐसे ही ।”

“क्यों ? क्या विजय यह सब पसंद नहीं करेगें?”

“नहीं ऐसी बात नहीं है । मैं स्वयं ही उन्हें कोई मौका देना नहीं चाहती कि वह मेरी कोई बात नापसंद करें । वैसे आप साक्षात्कार के लिये घर पर आ जाइये ।”

“ठीक है ।” हताश स्वर में वह इतना ही कह पाये मन ही मन इस लड़की का जवाब सुन कर उन का खून खौल उठा । आखिर है तो बिंदु की ही भतीजी । अपने मन की ही करेगी । वह थोड़ा चकित हैं । इस स्त्री ने कितनी होशियारी से अपने को गढ़ा है । कभी इसे देख कर लगता था कि कलफ लगी साड़ी में खटखट करती, अकड़ कर चलती बिंदु प्रतीत हो रही है । इस से भी अधिक कभीकभी अपनी ही सीमा में बंधी, घरभर के कामकाज समेटती, सब की सुविधाओं का खयाल रखती बिंदु की सीधीसादी मां की छवि उस में झलक उठती है। इस बात से उन का मन बेहद आहत भी है और मुग्ध भी । वह यह बात उस से कहना भी चाहते हैं, लेकिन कहने के लिये उन के पास समय नहीं है । उड़ान में सिर्फ एक घंटा शेष है ।

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