Prem Gali ati Sankari - 82 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 82

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प्रेम गली अति साँकरी - 82

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टीका लगवाने तो जाना ही था सो मैं उत्पल के साथ एक दिन टीका-सेंटर पर जाने के लिए निकली | पापा ने कहा कि ड्राइवर रामदीन को साथ ले जाएँ | वह ही सबको ले जाता था और बड़ी सावधानी से ले आता था | वैसे इन दिनों तो संस्थान के कई ड्राइवर्स खाली ही थे जो पीछे की ओर उनके लिए बनाए गए क्वार्टर्स में रहते थे | 

संस्थान क्या था एक पूरा सिटी बन चुका था जिसमें सिवा बाज़ार व स्कूलों के सब कुछ ही तो था | एक छोटी सी कुछ कमरों की कोठी इतने बड़े लंबे-चौड़े संस्थान में बरसों में कैसे परिवर्तित हुई थी !आश्चर्य ही था, वैसे ईश्वर की अनुकंपा के बिना कुछ नहीं होता | हर साल संस्थान के पास का कोई न कोई प्लॉट या मकान बिक जाता जो संस्थान का एक हिस्सा बन जाता | यह सब बिना किसी योजना के ही बना था | कहते हैं न कि हममें से कोई नहीं जानता कि हमारे हाथ की और माथे की लकीरों में क्या लिखा रहता है | अपने आप हमारे सामने सब कुछ आकर ऐसे खड़ा हो जाता है और हमें अपने साथ ले चलने के लिए बाध्य कर देता है | मना करने का कोई प्रश्न ही नहीं होता, हम चलते चले जाते हैं साथ में | ग्रीष्म में लू के थपेड़े और शीत में शीतल, बर्फीली झन्नाटेदार झंझावातों के झौंके! जीवन का यह खेल या तमाशा सहना तो हम सबको पड़ता ही है | 

उत्पल का मन नहीं था कि वह किसी को साथ लेकर जाए वैसे ही वह बहुत दिनों से कहीं निकला नहीं था | वह क्या कोई भी बिना किसी बहुत अधिक ज़रूरत के बिना संस्थान से नहीं निकला था और उत्पल तो वैसे भी आजकल उदास चल रहा था | मैंने भी कुछ अधिक ज़िद नहीं की और जैसा उसका मन था कि हम दोनों ही साथ जाएं और किसी को हमारे साथ जाने की ज़रूरत न हो | हमने ऐसे ही किया, मैं अकेली उसके साथ कार-पार्किंग में उसी जगह पर आ गई जहाँ हमेशा ही फूलों वाले पेड़ के नीचे वह अपनी कार खड़ी करता था | 

मैंने आगे बढ़कर कार का आगे वाला गेट खोल लिया था और अंदर पैर रखने ही वाली थी | मेरा ख्याल था कि वह दूसरी ओर से जाकर ड्राइविंग सीट पर बैठने के लिए मुड़ चुका होगा लेकिन मेरा ख्याल गलत था | हर बार की तरह जाने वह कहाँ से उसका हाथ नमूदार हो गया और मेरे गाड़ी में बैठने से पहले ही उसने फूलों से लदे हुए पेड़ की टहनी हिला दी और गाड़ी के साथ ही मुझ पर फूलों की वर्षा हो गई | उसकी गाड़ी वैसे ही फूलों से नहाई रहती थी, अब और भी नहा गई थी, मैं तो पूरी तरह से फूलों से जैसे तरबतर हो गई थी | एक चिरपरिचित सुगंध मुझे फिर से पीछे बहाकर ले गई | मेरी धड़कनें जैसे अचानक फिर से जैसे सरगोशियां करने लगीं | प्रेम का बंध जैसे खुलने के लिए मन में एक अंगड़ाई सी लेने लगा | कितना कठिन होता है, ऐसे समय में खुद को संभालना ! मेरी धड़कनें मुझसे पूछ रही थीं, बहुत कुछ लेकिन न प्रश्न स्पष्ट थे, न ही उत्तर !हौले से कदमों से अपने धड़कते दिल को संभालते हुए मैं गाड़ी में बैठ गई | 

मैंने पीछे देखा, तब तक वह दूसरी ओर मुड़ चुका था | इधर से जैसे मैंने अपना पैर रखा, वह भी ड्राइविंग सीट पर आ बैठा | मुझे लग रहा था कि वह गमगीन मूड में था, सो कम से कम आज शांति से ड्राइव करेगा लेकिन नहीं, वही पुरानी हरकत ! एक प्रकार से अच्छा भी था कि वह अपनी गमगीन मानसिकता से निकलने की कोशिश कर रहा था | गाड़ी में बैठते ही हम दोनों के मास्क चढ़े हुए मुखों से हँसी फूट पड़ी---यह हँसी उसकी फूलों वाली टहनी हिलाने की हरकत के लिए थी | उसने मुस्कराते हुए गाड़ी चला दी, हम आगे बढ़ने लगे | 

संस्थान में जो लोग भी टीके लगवाकर आते थे, सब ही वहाँ से आकर जैसे पूरे वातावरण का आँखों देखा हाल बयान करते | कितनी दूरी पर कुर्सियाँ हैं जिन पर टीके लगवाने वाले बैठकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं | कैसे वहाँ के सब कर्मचारी पूरी तरह पी.पी.ई से ढके रहते हैं | कितने प्रिकॉशन लिए जाते हैं?जैसे ही कोई टीका-सेंटर से आया कि सारी की सारी बातें बिना पूछे ही ऐसे चित्रित करने लगता जैसे कोई एक्साइटिंग फ़िल्म देखकर आ रहा हो | अत:सब सेंटर जाने से पहले ही वहाँ का चित्र अपनी पुतलियों में बसा लेते थे इसलिए जब वहाँ पहुंचते, कुछ भी नया न लगता | 

“क्या सुनेंगी ?” उत्पल ने म्यूज़िक सिस्टम की ओर हाथ बढ़ाते हुए पूछा | 

“कुछ भी लगा लो----”अनमने मन से मैंने उत्तर दिया | 

“आपको तो वही पसंद है ---रंजिश ही सही---”

“हर समय एक ही चीज़ खिलाओगे तो बोर नहीं होंगे क्या?” धड़कते अंतर से मैं उससे थोड़ी सी चुहल करके उसका मूड जल्दी ठीक करना चाहती थी | 

“हा—हा---”अपने स्वभाव के अनुरूप वह हँसा और जैसे कुछ-कुछ पहले जैसा लगने लगा | 

मुझे वह पहले जैसा चुहलबाज़ उत्पल ही तो प्यारा लगता था बेशक मैं उससे दूर-दूर रहने की कोशिश करती थी लेकिन ये मन है न ----बड़ा चितचोर होता है, बहका हुआ | अंदर कुछ, बाहर कुछ !चाहता कुछ है, करता कुछ है!

“छोड़िए न, बातें करते हैं | कितने दिन हो गए हमें बातें किए हुए---” उसने शरारत से कहा और मैं मन ही मन मुस्करा दी | वही रागिनी छेड़ देगा ये जिसको मैं सुनना भी चाहती थी और जिससे बचना भी चाहती थी लेकिन उस दिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया | अपनी मौसी के बारे में बताता रहा कि वे उसकी अच्छी दोस्त थीं जबकि उनके परिवार से मौसी का कोई संबंध नहीं रह गया था क्योंकि वे एक अपने मित्र के साथ घर से चली गईं थीं और नाना जी व और परिवार वाले उन्हें माफ़ नहीं कर पाए थे | उनकी उम्र उत्पल से बहुत अधिक नहीं थी और बालपन में वे दोनों भाई-बहन की तरह झगड़कर बड़े हुए थे | 

मौसी का भाग्य बड़ा खराब निकला | वे अपने उस प्रेमी के साथ चली तो गईं थीं जो उन्हें संगीत सिखाते थे | परिवार में पता चला तो उनके साथ उनके प्रेमी को भी आड़े हाथ लिया गया लेकिन दोनों ने एक-दूसरे का हाथ नहीं छोड़ा | उन दिनों आर्यसमाज का काफ़ी प्रचार शुरू हो चुका था | मौसी ने अपने प्रेमी से आर्यसमाज मंदिर में विवाह कर लिया लेकिन छह महीने भी नहीं हुए थे कि उनके पति सड़क-दुर्घटना में चल बसे | परिवार वालों ने उन्हें फिर से वापिस बुलाने की बहुत कोशिश की लेकिन मौसी को अपने मृत पति का वह अपमान याद आता रहा जो परिवार वालों ने किया था | फिर वे लौटकर कभी अपने घर नहीं गईं | वहीं संगीत की अध्यापिका बन गईं जहाँ वे सीख रही थीं | उत्पल के अलावा उन्होंने किसी से भी संबंध नहीं रखा था | 

उत्पल ये ही सब बातें करता हुआ कार ड्राइव करता रहा | हम दोनों जल्दी सेंटर पहुँच गए थे, ज़्यादा दूर तो था नहीं टीका-सेंटर | वहाँ बिलकुल वही स्थिति थी जैसी हमारे सामने न जाने कितनी बार प्रस्तुत कर दी गई | हम दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कराते हुए काफ़ी दूर-दूर कुर्सियों पर बैठ गए और अपने नंबर की प्रतीक्षा करने लगे |