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विक्टर, कार्लोस की स्थिति सुधर रही थी और पापा-अम्मा और संस्थान के सभी लोग जो उनकी तीमारदारी करते थे, विशेषकर उनको जैसे चैन की साँस आने लगी थी | कुछ ही दिनों में दोनों का स्वास्थ्य काफ़ी अच्छा हो गया था | फिर भी अभी उन्हें यहाँ संस्थान में वापिस लाने की कोई बात या विचार नहीं था | उन्हें पहले स्वस्थ होना था फिर कहीं यहाँ लाने की बात सोची जाती |
संस्थान में एक बात बहुत ही कमाल की हुई कि कोविड के दो चरणों में कोई भी बीमार नहीं पड़ा | सब स्वस्थ रहे, वहाँ बेशक जगह काफ़ी बड़ी थी, साथ ही इन दिनों वहाँ क्लासेज़ बंद थीं किन्तु वैसे काफ़ी लोग आ भी तो गए थे | किसी एक को भी कोविड होने से कैंपस में खतरा हो सकता था | इसलिए और भी अधिक ध्यान रखे जाने की आवश्यकता थी |
इस संक्रामक रोग की दूसरी लहर ने किस प्रकार अपनी पूरी पीक पर पहुँचकर लोगों को क्या क्या नज़ारे दिखा दिए थे कि पहली लहर के एक साल पर दूसरी लहर के चार महीने भयंकर भारी पड़े थे | इस दूसरी लहर ने भारत में इतनी तबाही मचाई कि लोगों का ज़िंदगी से विश्वास उठ ही गया लेकिन कहते हैं न ‘जाको राखे साईंया मार सके न कोय’ ! लोगों को ज़िंदगी की असलियत समझ में आई कि जीवन वास्तव में एक पानी का बुलबुला ही तो है बल्कि एक हवा का ऐसा झौंका जो कभी भी कठपुतली से इंसान को समाप्त कर सकता है |
हम सब ही लोगों पर जैसे ईश्वर की कृपा रही थी कि इस भयानक स्थिति से सभी सुरक्षित निकल रहे थे फिर भी एक भय तो था ही भीतर कहीं यह भी पिघलने लगा था कि जैसे पहली लहर सबके लिए एक नया अनुभव था, दूसरी लहर के चित्र इतने भयानक थे कि इंसान का विश्वास ही टूटने लगा था | इंसान ने महसूस किया कि वह कभी भी, कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में सुरक्षित नहीं है चाहे कितने ही यत्न क्यों न कर ले | एक बात और थी कि कोरोना की दूसरी लहर जितनी जल्दी से बढ़ी थी, उसी तेज़ी से समाप्त भी होने लगी थी, यह ज़रूर एक राहत की बात थी | कोरोना की लहर कमज़ोर पड़ रही थी लेकिन मृत्यु दरों में कोई कमी नहीं हो रही थी |
पता चला उत्पल की एक मौसी कलकत्ता में रहती थीं, वे कोविड की चपेट में आ गईं | वह काफ़ी विचलित हो गया था | परिवार के नाम पर उसके पास कुछेक लोग ही थे | उसका मन था कि वह कलकत्ता जाकर आए किन्तु पापा ने उसे समझाया और उदास होते हुए भी वह पापा की बात को टाल नहीं सका, समझ गया | वह पापा, अम्मा का बहुत सम्मान करता था | मैं उसके लिए दुखी थी लेकिन मेरे पास उसे सांत्वना देने के लिए कोई विशेष शब्द नहीं थे |
संस्थान में से बारी-बारी से सब लोग टीका लगवाने जाते | पापा ने सब जरूरी फॉर्मैलिटीज़ पूरी कर ही दी थीं | वे अम्मा को साथ जाकर टीका लगवा आए थे | संस्थान के आगे साइड की ओर अतिथियों के लिए कमरे बने हुए थे | इस समय वहाँ कोई अतिथि नहीं था | अत:जो कोई भी टीका लगवाकर आता पहले अतीथि गृह के किसी भी कमरे में जाकर स्नान करके ही अंदर के भाग में प्रवेश करता | लगभग सबके टीके लग चुके थे | सब ड्राइवर के साथ जाकर बारी-बारी से टीके लगवा आए थे |
अम्मा-पापा ने उत्सव से कहा कि वह मुझे लेकर कोविड का टीका लगवा आए | वह उदास भी था और शायद बाहर निकलने पर वह मुझसे कुछ और बात करके अपने मन को खोल सकता था |
कोविड की दूसरी लहर में ऐसी खतरनाक स्थिति को देखकर सबके मन इतने उदास हो चुके थे कि बार-बार वही दृश्य देखकर हम सबने संस्थान के टी.वी बंद कर दिए थे जिनमें पहले समाचार चलते ही रहते थे लेकिन पापा के कहने से समाचारों की जगह कुछ अच्छा सकारात्मक संगीत या कुछ भी क्लासिकल चीज़ चलता रहता | कभी कोई फ़िल्म ही लगा लेते | पिछले दिनों सबने संस्थान के बड़े से ऑडिटोरियम में दूर-दूर बैठकर ‘पड़ौसन’ फ़िल्म देखी | एक बार ‘थ्री इडियट्स’ देखी | ऐसे ही कभी कोई फ़िल्म या मज़ेदार से कोई सीरियल देखते | गाने भी ‘दुखी मन मेरे’जैसे नहीं होते थे |
महाराज और उनके परिवार का तो अब भी काफ़ी काम था क्योंकि तीसरी लहर में कुछ कम केसेज़ होने के बावज़ूद भी पापा अभी चाहते थे कि सड़क पार के लोगों को जितनी सहायता दी जा सकती है, देनी चाहिए | हमारे अपने ही विक्टर, कार्लोस की शारीरिक हालत कैसी खराब हो गई थी जबकि हम कहीं से भी मंहगी से मंहगी फल, सब्जियाँ, दवाइयाँ मँगवाने में सक्षम थे फिर वह मुहल्ला तो---शीला दीदी और रतनी व उनके परिवार के कारण हम बरसों से वहाँ की परिस्थितियों से वकिफ़ थे ही |
यह बात और थी कि जगन नाम का बंदा कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही असभ्य और खोआ-खेड़ी था, और लोग उससे आधे होंगे लेकिन कुछ न कुछ तो गड़बड़ी उस मुहल्ले में होती ही रहती थीं | पापा-अम्मा तो सच में ही उस मुहल्ले के लिए बहुत दुखी रहते और सोचते न जाने क्या कर दें उसके लिए लेकिन सबकी एक सीमा होती है, उनकी भी सीमाएं थीं | उनके लिए दरसल करने की नहीं, वहाँ के लोगों की सोच में सुधार की अधिक आवश्यकता थी | वहाँ के लोगों के लिए इतने खराब समय में पापा ने जो किया था उसमें कितने लोग तो पापा-अम्मा को ही मूर्ख समझते थे कि आखिर कौन दूसरों के लिए इतना पैसा और ऊर्जा फूंकता है ! जैसे श्रेष्ठ को तो बहुत ही बेवकूफी लगती यह सब ! शीलादीदी और रतनी व उनके परिवार के लोगों को हमारे परिवार के लिए जितना सम्मान था, उतना ही प्रेम भी | अब तो दिव्य और डॉली भी अम्मा-पापा व हम सबकी बहुत इज़्ज़त व मान सम्मान करते थे | वे बड़े और समझदार हो चुके थे और दुनिया की अच्छाइयों, बुराइयों से परिचित भी !