खूबसूरत, गहरा नीला रंग..
कपड़े रंगने के काम आता, मगर बंगाल- बिहार के किसानों के गले का हलाहल था।
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एक बीघा जमीन में तीन काठी पर, नील उगाना जरूरी था। नील जहां लगती, वो जमीन बेकार हो जाती। सरकारी अफसर, ठेकेदारों के गुमाश्ते उसे अगली बार अच्छी जमीन पर उगवाते।
खाने के लिए अनाज की खेती न हो पाती। नील को ठेकेदार, कौड़ियों के दाम ले जाते।
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आसपास फैक्ट्री होती, जहाँ अर्क निकाला जाता, सुखाकर यूरोप भेजा जाता। किसान बदहाल, व्यापारी-सरकार मालामाल थे।
ये सौ सालों से चल रहा था।तीनकठिया प्रथा किसान की धीमी, तयशुदा मौत थी।
राजकुमार शुक्ला से देखा न जाता। कई बार कांग्रेस के बड़े नेताओं से अनुरोध किया, कि वे चंपारण आएं ..नील किसानों की सुध लें। तिलक, मालवीय ने बात सुनी, लेकिन वे बड़े मसलों में मसरूफ थे।
चंपारण,किसी मसीहा की बाट जोहता रहा।
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1916 के लखनऊ अधिवेशन में शुक्ला जी की बात उस वकील से हुई, जो अफ्रीका से मशहूर होकर लौटा था।
शुक्ला को उम्मीद तो थी नही, पर बात छेड़ दी। आग्रह किया कि कांग्रेस नील के किसानों की सुध ले।
चंपारण- हम्म!!!
गांधी ने बाद में लिखा- चंपारण भारत के नक़्शे में कहां पड़ता था, उन्हें नही पता था। मगर शुक्ला को वादा कर दिया। क्योकि कि गांधी को खुद एक चंपारण की तलाश थी।
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अप्रैल 1917 की एक दुपहरी, गांधी के कदमो ने चंपारण की धरती को छुआ। वकील गांधी के साथ और भी वकील थे।
बृजकिशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, मजहरुल हक, अनुग्रह नारायण सिन्हा। सबने कानून का अध्ययन किया। कांट्रेक्ट देखे। फिर जमीनी हकीकत देखने भी निकल पड़े।
लोग जुटे, तो प्रशासन को भनक लगी। तत्काल सबको चंपारण छोड़ने का आदेश दिया। आश्चर्य, "कांग्रेसी गैंग" ने तो ठसके से इनकार कर दिया।
जो होना था, वही हुआ।
गिरफ्तारी, पेशी,जज ने जिलाबदर करने के साथ 100 रुपये की जमानत मांगी। गांधी ने इनकार कर दिया।
न चंपारण छोडूंगा,
न आंदोलन छोडूंगा।
कचहरी के बाहर किसानों की भारी भीड़ थी। मौके की नजाकत देख जज ने सबको छोड़ दिया। गांधी विजेता की तरह बाहर आये।
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इस किस्से ने गांधी की चमक बढ़ा दी। अब उनकी बातें, बेहद गम्भीरता से सुनी जाती। जहां जाते, हुजूम इंतजार करता।
धीमी, महीन आवाज में यह इकहरे बदन का शख्स मजबूती से कहता- "आवाज उठाओ। नील उगाना बन्द करो, अनाज उगाओ। एक रहो,मिलकर लड़ो।"
गांधी के अनुयायी बढ़ रहे थे। बात फैलाने वालों की संख्या बढ़ रही थी। गांधी सिर्फ नील के राजनैतिक आंदोलन तक सीमित न थे। वे सफाई, अस्पृश्यता, शिक्षा और निर्भय होकर जीने की बात कहते।
बातें सीधी सच्ची, और बेहद सरल थी। आपको ताकतवर सरकार,जमींदार, ठेकदार और गुमाश्तों से नही, बल्कि अपने गिर्द के भय से, वातावरण से, औरो के साथ मिलकर लड़ना था। बस, सहने से इनकार करना था।
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सरकार ने दबाव महसूस किया।
विश्वयुद्ध जारी था, रूस में क्रांति हो रही थी, जर्मन चढ़े आ रहे थे। तो भारत मे बवाल नही चाहिए था। कृषि रिफार्म कमेटी बनी। गांधी को भी रखा गया।
कमेटी की अनुशंसा पर तीनकठिया सिस्टम खत्म हुआ। नील उगाना अनिवार्य न रहा। कीमत तय की गई, टैक्स हटाये-घटाए गए। ठेकेदारों पर नियंत्रण हुआ। फैक्ट्री वेजेस बढ़े। चंपारण सत्याग्रह, कांग्रेस और गांधी की शानदार जीत थी।
और ब्रिटिश अकड़ की भारत मे पहली हार ..
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भारत को पता चला कि अंधेरे में रोशन खिड़की खोलने वाला आ गया है।
गांधी को पता चला की हिंदुस्तान के मुंह मे जुबान है। उनका सत्याग्रह हिंदुस्तान में भी कारगर है।
कांग्रेस को पता चला कि निवेदन-दरख्वास्त की राजनीति से अलग भी रास्ता है।
युवाओ को पता चला कि हिंसात्मक क्रांतिकारी गतिविधियों से हटकर भी एक मार्ग है। वह मार्ग जिसमे पूरा भारत जुड़ सकता था।
गांधी इसके प्रणेता थे।
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चंपारण एक प्रयोग था।
सत्याग्रह की थ्योरी, जो अब तक कांग्रेस के भीतर भी सीमित लोगो का समर्थन ले पाती थी, अब जमीन पर सत्यापित हो चुकी थी। गांधी रातोरात देश के जाने माने लीडर हो गए।
आगे खेड़ा सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन के साथ वे देश की राजनीतिक चेतना के केंद्र हो गए। चंपारण में कुछ लोग उन्हें बापू कहने लगे थे। वहीं सन्त राउत ने एक सभा मे गांधी "महात्मा" कहकर पुकारा।
बैरिस्टर गांधी, चंपारण से बापू और महात्मा बनकर लौटा। बापू सम्बोधन तो उन्होंने खुशी से ग्रहण किया, पर महात्मा का नाम ...??
यह सम्बोधन, चंपारण का यह नील, गांधी की ग्रीवा में वैसे ही तरह ठहर गया, जैसे शिव की ग्रीवा में हलाहल ठहर गया था।
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चंपारण की जमीन को गांधी का स्पर्श हुए सौ साल गुजर चुके हैं।
राष्ट्र आज फिर पीड़ा में है। एक अदद गांधी की फिर तलाश है। कितने ही चंपारण बाट जोह रहे हैं।
हर चंपारण को गांधी की तलाश है।