Shakunpankhi - 40 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 40 - आहत मन

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शाकुनपाॅंखी - 40 - आहत मन


59. आहत मन


जल्हण कालिन्दी तट पर रुके। अश्व को थोड़ी दूर पर उगे एक शहतूत के पेड़ से बाँध दिया। वस्त्र उतार कर स्नान के लिए नदी में उतर गए। स्नान किया। अर्यमा का अर्घ्य देकर निकले। तट पर ही बैठ गए। यमुना की लहरों को देखते रहे । लहरें उनके मन को उद्वेलित करने लगीं। जीवन अब लहरों की थपेड़ों में ही बीतना है। महाराज पृथ्वीराज भी नहीं रहे। शहाबुद्दीन ने उनकी आँखें निकलवा ही ली थी। महाराज पेट चाककर चल बसे। जल्हण राय पिथौरा दुर्ग को देखते रहे। कभी इस पर चाहमान नरेश का ध्वज लहराता था आज उनकी आँखों से अश्रु की बूंदें ढरक पड़ीं। पिता भी धरती नापते गज़नी तक गए। उनका 'रासउ' लिए मैं घूम रहा हूँ। दिन एक समान किसके बीतते हैं? कभी राजतिलक तो कभी वनवास। कभी जन्म, कभी मृत्यु। यही तो जीवन है। शाह के जीवन में उतार क्यों नहीं आता? यदि उत्थान पतन साथ साथ चलते हैं तो गोरी के साथ ऐसा क्यों नहीं घटता? क्या पृथ्वीराज के लिए ही यह नियम है? अन्य के लिए नहीं। पिता द्वारा अर्जित सम्पत्ति पर कब तब पल सकूँगा?..... जीविका के लिए कोई प्रयास तो करना ही होगा। छन्द मैं भी लिखता हूँ 'रासउ' का अन्तिम अंश पूर्ण किया है। पर पिता जैसा सम्मान सभी को कहाँ मिल पाता है? जिस परिवेश में पला हूँ वैसा परिवेश मिलना कठिन है। उनकी आँखें पुनः यमुना की लहरों पर टिक गईं। चार बच्चे दो छोटी नावों में प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। नावें लहरों के साथ ही ऊपर-नीचे होती हैं। लगता है उलट जाएँगी पर बच्चे बड़ी कुशलता से उन्हें सँभालते हैं। एक नाव पर दो बच्चे। सरसराती हुई नावें भागती हैं। नदी तट पर जो भी बैठा या खड़ा है, सभी की दृष्टि नावों की दौड़ पर ही है। बच्चों के तन पर सिर्फ लँगोटी, पर उत्साह आकाश छूने वाला। चेहरे पर बाल सुलभ मुस्कराहट । दो बड़ी नावें उस पार से आ रही हैं। उन पर नर-नारी हैं ही, घोड़े भी नदी उतर रहे हैं। नावें क्रमशः तट की ओर आ रही हैं। नावों के तट के निकट आते ही लोग दौड़ पड़े। नाव खूँटे में बाँध दी गई। कुछ पटरे नाव से तट तक बिछाए गए। उस पर होते 'हुए स्त्री-पुरुष उतरे। सबसे बाद में घोड़े और सामान। आचार्य प्रवर केदार भट्ट भी उसी दल में थे। जल्हण ने उन्हें पहचाना। आगे बढ़कर प्रणाम किया।
'कहो जल्ह?' उन्होंने समाचार पूछा।
'कुशल है', जल्हण ने कहा।
'माता जी ?"
'आपको ज्ञात ही है ।'
'ज्ञात तो है पर अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।'
'समझ नहीं सका आचार्य प्रवर।'
'समय शाह के पक्ष में है तुम्हें उनके साथ..........।'
'कैसे हो सकेगा? जो हमें काफिर कह रहे हैं, इस्लाम में दीक्षित करना चाहते हैं। न स्वीकार करने पर कत्ल कर देते हैं उनके साथ।' 'तुम अभी बच्चे हो । सत्ता का लाभ लेने के लिए अपनी ऐंठन थोड़ी कम करनी पड़ेगी। मुझको ही देखो 'जयचन्द्र प्रकाश' लिखकर मैं जो न पा सका, शहंशाह ने मुझे वह सभी कुछ दिया। मेरी पत्नी सुवर्ण से बोझिल रहती है। दास-दासियों की गिनती नहीं। शाह की बंदगी कर लेने से न जाने कितने लोग मुझे बंदगी करते हैं। अखरोट और बादाम से जलपान होता है। पगभर भी पैदल नहीं चलना पड़ता है। अश्व हैं, अश्वपाल है, किस किस को गिनाऊँ? शाह की प्रशंसा में चार छन्द लिख देने से यदि मुझे सभी सुविधाएँ उपलब्ध हो रही हों तो क्यों न लिखूँ? इसलिए कहता हूँ अवसर की नब्ज़ पहचानो।'
'और अपने को कलम कर लो।'
'ऐ! पागल तो नहीं हो गए हो जल्ह?"
'पागलों की दुनिया अलग नहीं बसती आचार्य प्रवर। हम ही आप पागलों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। जो शाह हमारी आस्था पर चोट करता है। बहनों, बेटियों को बँधवा कर ग़ज़नी भेज देता है। बालिकाओं के अपहरण पर प्रसन्न होता है। लूटकर जन सामान्य को कंगाल बना देता है उसकी प्रशंसा में......।' केदार भट्ट ठठाकर हँस पड़े।
' सचमुच बहुत भोले हो जल्ह! धरती किसकी होकर रही? अपनी कला का मूल्य ले सकते हो तो चूको मत। हम लोग भट्ट हैं। स्तुतिगान करना हमारा पारिवारिक व्यवसाय है। इसमें अत्युक्ति, अतिशयोक्ति को अनुचित नहीं माना जाता । पिद्दी जैसे राजाओं का विरुद बखानते हम लोग उन्हें आकाश तक चढ़ा देते हैं। उनकी छाती फूल जाती है। प्रशंसा सुनकर वे दक्षिणा देते हैं। हम द्रव्य लेते हैं, तो प्रशंसा करते हैं। इसमें आस्था, ईमान जैसे शब्दों को क्यों टपका रहे हो?"
'आचार्य प्रवर, मैं अल्पज्ञ हूँ पर आस्था और ईमान बेचकर व्यवसाय नहीं कर सकता? हृदय के तार जहाँ न जुड़तें हों, वहाँ रचना कैसे संभव है? किसी शिव, विष्णु या शारदा मंदिर को ध्वस्त होते देखकर आपको पीड़ा नहीं होती?"
'अपने व्यवसाय को देखते हुए मैं तटस्थ हो जाता हूँ।'
'मंदिर ढहते देखकर तटस्थ हो जाना क्या उसका समर्थन नहीं है?"
'तुम खींच कर यह अर्थ निकाल रहे हो।'
'पर इसका यह अर्थ निकलता है, इसे अस्वीकार कैसे किया जा सकेगा?
कवि पुंगव, यदि शाह की सेनाएँ आपके गाँव पर आक्रमण कर दें तो क्या उन्हें प्रोत्साहित कर सकेंगे?"
'ऐसा संभव नहीं है जल्ह। शाही सेनाएँ मेरे गाँव की रक्षा करेंगी, विध्वंश नहीं ।'
"हर गाँव आप का है, क्या आप ऐसा नहीं सोच सकते? कवि संवेदनशील होता है। उसकी संवेदना का विस्तार जीवन-जगत के कण कण में होता है। किसी भी प्राणी का दुःख दर्द उसका अपना बन जाता है। ऐसी स्थिति में ..... ।'
'यह सब सिद्धान्त की बातें हैं जल्ह । प्राणिमात्र को अपना मान लेने पर कोई युद्ध क्यों करेगा? पर युद्ध होते हैं। पक्ष और विपक्ष बनते हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि व्यवहार में प्राणिमात्र को अपना मानने का भाव नहीं पनप पाता है। इसीलिए कहता हूँ आदर्श में नहीं व्यवहार में जियो।' 'व्यवहार और स्वाभाविकता का सहारा लेकर हम अपने को खुंखार पशु बनाते जा रहे हैं। क्या यही मानवता का अभीष्ट है विप्रवर?"
'अभीष्ट और वास्तविकता का अन्तर समझते हो न? अभीष्ट लक्ष्य है और वास्तविकता प्राप्ति । दोनों के बीच का द्वन्द्व समझना होगा जल्ह । नाक की सीध में चलना ही लक्ष्य के लिए पर्याप्त नहीं है। सोचो, अच्छी तरह सोचो।'
'जिधर पग नहीं उठ सकते, उधर सोचना भी किस काम का ?"
'अल्हड़ों की तरह मन को दौड़ाओ नहीं, स्थिर करो। शाह बहुत दयावान है।'
'दया की भीख पर जीना नहीं चाहता?"
'तुमने अभावग्रस्त जीवन देखा नहीं है। मुझसे सुनो। मेरे पिता पैतृक व्यवसाय छोड़ व्याकरण के आचार्य बने। माँ साध्वी । जंगल में कुटी बनाकर रहते। कुछ थोड़े से शिष्य पढ़ने के लिए आते । पिता उन्हें स्नेह से पढ़ाते। एक एक सूत्र की व्याख्या विस्तार से बताते । शिष्य मंत्र मुग्ध हो ग्रहण करते। जो कुछ भी मिल जाता, मेरे पिता-माता उसी में संतुष्ट रहते । पर मेरा मन कुलांचे भरता। एक शिष्य अश्व पर आता। उसके वस्त्र भी मूल्यवान होते। मेरा मन भी मूल्यवान उत्तम वस्त्रों की ओर आकर्षित होता पर वीतरागी पिता मेरी आकांक्षाओं की अनदेखी करते। वे मुझे निस्स्वार्थ कर्म का पाठ पढ़ाते। जितना ही वे मुझे निस्पृह बनाने का प्रयास करते उतना ही मेरी मनोकामनाएँ भड़क उठतीं। पिता ने पिंगल पढ़ा दिया था। मैं छन्द रचने लगा। एक दिन एक प्रशस्तिगान सुनकर मेरे पिता ने सिर पीट लिया। माता ने पूछा, 'क्या हुआ ?"
'पुत्र द्रव्य के लिए छन्द रचेगा।'
'पैतृक व्यवसाय से पिंड छुड़ाना क्या सरल है?" माँ ने अधिक चिन्ता नहीं की, पर पिता चिन्तित रहने लगे। प्रशस्ति में छन्द रचता और लोगों को सुनाता। लोग मेरी प्रशंसा करते। घर के बाहर मेरा सम्मान बढ़ गया था पर घर के अन्दर पाँव रखते डर लगता। कई राजाओं का प्रशस्तिगान कर मैं द्रव्य अर्जित कर रहा था पर पिता को न बताता। माँ को कभी कभी एक दो दम्म पकड़ा देता । वे प्रसन्न हो उठतीं पर कहतीं, 'पिता से न बताना।' मुझे द्रव्य मिल रहा था पर उससे सन्तोष नहीं हो रहा था। एक दिन शाह के नाज़िम के सामने मैंने प्रशस्तिगान किया। वे बहुत कुछ समझ नहीं सके पर एक दुभाषिए ने जब उन्हें समझाया, वे फड़क उठे । उन्होंने मुझे शाह के सम्मुख प्रशस्तिगान का आमंत्रण दिया। मैंने शाह की उपलब्धियों पर अत्युक्ति पूर्ण दस छन्द रचा। पर इतने से ही मन को तृप्ति नहीं मिली। प्रयास करके पन्द्रह छन्द रचा। अब एक अच्छी पूँजी हो गई थी, मैं प्रसन्न था । नाज़िम ने सूचना भिजवाई। मैं शाह के सामने उपस्थित हुआ। शाह ने बड़े ध्यान से मुझे देखा । मैंने स्तुतिपाठ किया। पर वे समझ नहीं सके। जब दुभाषिए ने समझाया तो बाग़ बाग़ हो उठे। अपनी प्रशंसा सुनकर किसे खुशी नहीं होती? मैंने उसे इन्द्र के समान बताकर उपमाओं की झड़ी लगा दी थी। उसे विष्णु के समान बलशाली, धरती का उद्धारक चित्रित कर मैं मग्न था। शाह मुझसे भी अधिक प्रसन्न हुआ। उसने उठकर मुझसे हाथ मिलाया । कहा..... 'आज से मेरे लिए शाइरी करो। सोना चाँदी जो भी चाहिए ले जाओ। सारे खर्च खजाने से मिलते रहेंगे।' पिता को पता चला। मेरे घर पहुँचने के पहले ही उन्होंने इसी कालिन्दी में जलसमाधि ले ली। जब मैं घर पहुँचा, माँ रो रही थी। मैं बहुत समझाता रहा पर उसका दुःख कम नहीं हुआ। थोड़े ही दिन बाद वह भी चल बसी । अब मैं शाही शाइर तो हूँ पर माता पिता की स्मृति मन को कचोट जाती है। इससे यह न समझ लो कि मैं अपने पद से असंतुष्ट हूँ? जो मैंने चाहा उसे प्राप्त किया । इसमें किसी प्रकार के असंतोष का कोई कारण नही हैं।' केदार यह कह तो रहे थे पर उनका हृदय कहीं पीड़ा का अनुभव कर रहा था। हिन्दू शासकों के पराभव ने उन्हें शाह की गोद में बिठा दिया। अब वहाँ से लौटने का न कोई मार्ग है, न प्रश्न ही । जल्हण बात सुन रहे थे। पर मन उसके अन्दर की पर्तों को भी खोजने लग जाता । 'विचार कर लो जल्हण। अभी समय है। सेवक अश्व सहित प्रतीक्षा कर रहे हैं। मुझे शाह के नाज़िम से भेंट करनी है।' जल्हण ने चरण स्पर्श किया। 'सुखी रहो' कहकर केदार भट्ट उठ पड़े। अश्वपाल अश्व ले आया। वे रिकाव पर पैर रख चढ़ गए। जल्हण भी कूद कर अश्व पर चढ़े और अपने रास्ते चल पड़े।