Shakunpankhi - 38 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 38 - अन्दखुद

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शाकुनपाॅंखी - 38 - अन्दखुद

57. अन्दखुद
अन्दखुद में शहाबुद्दीन गोरी छिपा तो, पर बचाव की कोई उम्मीद नहीं थी । उसकी सेना नष्ट हो चुकी थी। जो बचे थे उसमें से अधिकांश तितर बितर हो गए थे। गोरी को लगा कि उसकी मौत निश्चित है। उसके साथ जो थोड़े से सैनिक थे, वे भी पराजय से हताश थे। अन्दखुद का किला बहुत सुरक्षित नहीं था । युद्धभूमि से ही किले पर पत्थर फेंका जा सकता था। ख्वारिज्म समरकन्द और कर खिताइस की फ़ौजों से वह घिर गया।
ख्वारिज्म़ के शाह को मैदानी जंग में उसने हरा अवश्य दिया था पर ख्वारिज्म़ का किला पूरी तरह सुरक्षित था। उस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं हो सका। उसने घेरा अवश्य डाला पर ख्वारिज्म़ के शाह ने समरकन्द के शहंशाह और खिताइस के सुल्तान से मदद माँगी। उनकी सेनाएँ ख्वारिज्म़ की ओर चल पड़ीं। गोरी को अपने गुप्तचरों से पता चला तो उसने घेरा उठा, लौटने की योजना बनाई। यह ग़ज़नी की ओर प्रस्थान कर ही रहा था कि समरकन्द, खिताइस एवं ख्वारिज्म़ की सेनाओं से घिर गया। उसे बाध्य होकर युद्ध करना पड़ा जिसमें उसकी करारी हार हुई। अन्दखुद जिसमें गोरी ने शरण लिया था केवल तात्कालिक राहत दे सकता था।
गोरी की सेना से भागने वाले सैनिकों ने यही समझा कि गोरी का कत्ल हो गया होगा। उन्हीं के द्वारा यह ख़बर उड़ी कि सुल्तान अब नहीं रहे। सेनाधिपति ऐबक बक पवन की गति से अपने घोड़े को भगाता हुआ मुलतान पहुँच गया। प्रशासक अमीर दाद हसन से मिला। उसने बताया कि वह शाह का जरूरी फर्मान लाया है। शाह का आदेश है कि उसे एकान्त में बताया जाए। अमीर दाद हसन जब उसे एकान्त में मिला तो ऐबक बक ने उसका कत्ल कर दिया और सत्ता हथिया ली। प्रचार करवा दिया कि अमीर को बन्दी बना लिया गया है। पर अमीर के कत्ल की बात बहुत दिन छिप न सकी। शहाबुद्दीन गोरी के कत्ल की अफवाह उड़ती रही। खोख्खर स्वतंत्र होने के लिए कसमसा उठे। बाकन और सरकी के नेतृत्व में चिनाब और झेलम के बीच के लोग उठ खड़े हुए। संगवन के शासक बहाउद्दीन मुहम्मद ने खोख्खरों को दबाने का प्रयास किया पर वे सफल नहीं हुए। घर घर आज़ादी के गीत गाए जाने लगे। खोख्खरों ने लाहौर पर भी अधिकार कर लिया। गोरी के समर्थक मारे गए। गोरी का सैन्यनायक सुलेमान भाग कर ग़ज़नी आ गया।
अन्दखुद में घिरे हुए शहाबुद्दीन ने अपने प्राण बचाने के लिए विपक्षियों को धन का लालच दिया। धन के बदले उसके प्राण बचे। वह ग़ज़नी लौटा तो उसके मौत की अफवाह उड़ी हुई थी । यल्दौज़ भी अपने को स्वतंत्र मान रहा था। सामने गोरी को पाकर वह चकित हो उठा। उसने सुल्तान से टक्कर लेना चाहा पर सफल नहीं हुआ। ग़ज़नी पहुंचकर सुलेमान ने सुल्तान को बताया कि ऐबक बक ने मुलतान पर अधिकार कर लिया है और खोख्खरों ने चिनाब और झेलम के बीच के भूभाग को हथिया लिया है। लाहौर पर भी वे काबिज हो चुके हैं।
शहाबुद्दीन यद्यपि अन्दखुद की पराजय से बहुत व्यथित था पर मौत की अफवाह ने उसकी नींद छीन ली। सिन्ध और पंजाब से मिलने वाली सूचनाएं उसको बेध रही थीं। वह तमतमा उठा 'गोरी अभी जीवित है, मरा नहीं। जो मुगालते में हैं; उन्हें सबक सिखाना होगा।' वह महल से लगे उपवन में टहलने लगा। अफवाहें भी कैसी कैसी स्थितियाँ पैदा कर देती हैं? वह सोचता रहा। उसने मौत को बहुत निकट से देखा है। यदि धन के लालच में न आ गए होते वे लोग, तो उसकी मौत निश्चित थी। फिर इतनी बड़ी सल्तनत किस काम की? पर यह सब सोचना व्यर्थ है। इस समय सबसे ज़रूरी है ऐबक बक और खोख्खरों को यह एहसास कराना कि गोरी अभी जीवित है। उसकी मौत इतनी जल्दी नहीं आएगी। उसने ताली बजाई। सेवक उपस्थित हुआ। 'अमीर', सुल्तान के मुँह से निकला। सेवक अभ्यस्त था सिर झुका बुलाने चला गया। थोड़ी देर में अमीर हाजिब सिराजुद्दीन अबू बक्र के साथ उपस्थित हुआ। अमीर के आदाब से सुल्तान की नज़र घूमी। 'तुम्हें कुतुबुद्दीन ऐबक तक पैग़ाम पहुँचाना है।'
'पहुँचेगा जहाँपनाह ।'
'तो तुम तैयारी करो तब तक मैं क़ातिब से चिट्ठी लिखवा देता हूँ।' अमीर माथ नवा कर चला गया।
सेवक कातिब को बुलाने चला गया। शहाबुद्दीन ने सेना इकट्ठी करना शुरू किया। अन्दखुद का दंश उसे बार बार कचोटता। ग़ज़नी और ख्वारिज्म की प्रतिद्वन्द्विता चलती। ग़ज़नी द्वारा खुरासान, मेरु, निशापुर, तुस पर अधिकार कर लिया गया था। ख्वारिज्म़ का शाह भी मौके की तलाश में था। अवसर पाकर उसने निशापुर जीत लिया, हेरात भी । गोरी ने ख्वारिज्म़ के शाह को रौंदना चाहा पर ऐसा नहीं हो सका। अब खोख्खर ने पंजाब और सिंध में अपना राज्य कायम कर लिया है। खोख्खर अपनी आज़ादी के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते हैं। उन्हें हराना नहीं, नेस्तनाबूद करना है। उन्हें गोरी की सैन्य टुकड़ियों को खदेड़ने का मज़ा चखाना है। आसान नहीं होगी यह मुहिम, वह सोचता रहा।
शहाबुद्दीन भी हार मानने के लिए तैयार नहीं है। खोख्खरों में कोई चिराग़ जलाने वाला नहीं बचेगा। गेहूँ के साथ घुन भी पिसेंगे ही विचार मन को मथते रहे। सेनाध्यक्ष को बुलाना ही चाहता था कि सेवक उपस्थित हुआ, 'जहाँपनाह, एक फ़कीर भेंट करना चाहता है।'
'फ़कीर !' वह चौका । 'बुला लो', उसने कहा। सेवक के साथ फ़क़ीर उपस्थित हुआ । सुल्तान को देखकर फकीर हँस पड़ा। गोरी ने भी मुस्कराने का प्रयास किया। 'तुम हँस नहीं पा रहे हो, बात क्या है? फकीर ने पूछा ।
'क्या एक फकीर को भी बताने की जरूरत पड़ती है?' सुल्तान ने दाँव फेंका। 'तुम्हारी चुनौती है सुल्तान । मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं है। तुम फिक्र में हो यह मुझे मालूम है। पर, फिक्र का कारण भी तुम ही हो ।' 'क्यों?' सुल्तान ने पूछा ।
'और कौन है? लूट पाट ही जब किसी का मकसद बन जाए तो.....।'
'क्या?' 'हाँ सुल्तान, निशापुर में मेरी एक झोपड़ी थी। इधर-उधर से आकर कभी वहाँ आराम कर लेता था। वह झोपड़ी भी तुम लोगों से न देखी गई।'
'झोपड़ी के लिए फिक्रमंद हो उठे।' 'मैं अपने लिए फिक्रमंद नहीं हूँ, मेरे साथ न जाने कितने घर जला दिए गए? क्या बिगाड़ा था उन लोगों ने? तुम कहते हो इस्लाम के लिए जंग करता हूँ, पर वे सब तो खुदा के बन्दे थे । इस्लाम के मानने वाले थे। उनकी रोटियाँ छीनकर तुम्हें सुकून मिला होगा। दूसरों का घर जलाने वाले अपना घर कैसे आबाद कर सकेंगे? कोई भी मज़हब अगर दूसरों का कत्ल करना सिखाता है तो वह मज़हब नहीं है। कत्ल करने वाला इन्सान मज़हबी कैसे हो सकता है?"
'फ़कीर होकर इतनी तल्खी?' 'फ़कीर हूँ तो आँखें बन्द कर लूँ? आप लोग इन्सानियत का कत्ल करें, मैं सिर्फ देखता रहूँ । फ़कीर केंचुआ नहीं है, सुल्तान इसी समाज का अंग है वह । सुना है सिन्ध- पंजाब में फिर खून की दरिया बहाओगे? मैं उधर से ही आ रहा हूँ। किसी क़ौम का आज़ादी पसन्द होना गुनाह है क्या?" फ़क़ीर क्या तुम वही हो जो तराइन की जंग के पहले मिले थे?"
'हाँ, मैं वही हूँ । तराइन की जंग के बाद भी मिला था और.....।'
'हाँ, याद आया । तुमने जो कुछ कहा था याद आ रहा है मुझे पर मैं कर नहीं सका, जो तुम चाहते थे।'
'वह तो अब भी नहीं करोगे। पर सचेत करना मैं अपना फर्ज समझता हूँ।'
'फकीर तुम बहुत तल्ख बातें कहते आए हो, पर सभी सुल्तानों से ऐसी बातें मत करना।'
फ़कीर ठठाकर हँस पड़ा। 'झोपड़ी जल ही गयी है, कत्ल होना ही बाकी है।' कह कर फ़क़ीर ठठाकर फिर हँस पड़ा।
'खुदा जल्दी बुलाना चाहेगा तो कत्ल हो ही जाएगा।' फकीरों, सन्तों के बार बार सचेत करने पर भी समाज एक कत्लगाह बन गया है। सोचो सुल्तान गर फकीरों, सन्तों की बानियाँ न होतीं तो समाज कहाँ खड़ा होता? तुम खोख्खरों को नेस्तनाबूद करने का मन बना चुके हो पर तुम्हारा यह कदम ठीक नहीं है। मैं उनका मेहमान रहा हूँ। वे इज्जत पसंद लोग हैं।' 'तुम हिन्द के लोगों की हिमायत करते आए हो।' 'मैं इन्सान की हिमायत करता हूँ, हिन्द वासियों की नहीं। मैं कई बार मिला हूँ। फिर कहता हूँ नफ़रत का रास्ता छोड़ो। बख्तियार को तुम लोगों ने बिहार, बंगाल को लूटने का हुक्म दे दिया। वह जगह, हाँ जिसे उदन्त पुरी कहते हैं जलाकर खाक कर दिया लोगों ने। महात्मा बुद्ध के बन्दों का बिहार था वह इबादत में लगे लोग कत्ल कर दिए गए। उनका कुतुबखाना जिसमें बेशुमार किताबें थीं, जला दिया गया। सिवा नफ़रत के और क्या मिलेगा इससे ? यहीं बामियान में उस महात्मा की ऊँची मूरत देख आओ । उनकी आँखों से रहम टपकता है। मैं खुद वहाँ था जब कुतुबखाना जला है। अब भी वक़्त है....। अच्छी तरह सोचकर कदम उठाओ सुल्तान । मैं चला।' कहकर फ़कीर चल पड़ा। सुल्तान सोचविचार करने लगा। जब भी वह जंग की तैयारी करता, मन कई तरह की उधेड़-बुन में लग जाता है पर खोख्खरों ने चुनौती दी है। गर मैं उन्हें सबक नहीं सिखाता तो दुनिया यही जानेगी कि गोरी डर गया है। कितना शर्मनाक होगा यह..? खोख्खरों के खिलाफ जंग करना ही है।