Shakunpankhi - 33 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 33 - लौहभित्ति को लौटाना ही होगा

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शाकुनपाॅंखी - 33 - लौहभित्ति को लौटाना ही होगा

48. लौहभित्ति को लौटाना ही होगा

तुर्क सीमाएँ जब चन्देलों से मिलीं, वे भी खटकने लगे । कुतुबुद्दीन चन्देलों को घेरने चल पड़ा। कालपी के निकट दोनों सेनाएं भिड़ीं पर परमर्दिदेव को लगा कि कालिंजर दुर्ग से युद्ध करना अधिक सुविधा जनक होगा। अपनी सेना को उन्होंने कालिंजर में व्यवस्थित किया। दुर्ग कालिंजराद्रि पहाड़ी पर बना है जिसे सतयुग में रत्नकूट, त्रेता में महागिरि, द्वापर में पिंगालु तथा कलयुग में कालिंजराद्रि कहा गया । पहाड़ी सप्तभुजी हैं तथा दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार, सभी उत्तर पूर्व की ओर । पहाड़ी की चोटी पर बने दुर्ग के तीन ओर पहाड़ी सीधी, सपाट, ऊपरी भाग चौरस । दुर्ग की प्राचीर पचहत्तर हाथ ऊँची तथा कहीं कहीं तेरह हाथ मोटी । खड़ी पहाड़ी की तरह नोक दार होने के कारण दुर्लघ्य। कुतुबुद्दीन ने घेर तो लिया पर उसमें प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन |
चन्देल सैनिक प्राणों का मोह छोड़कर रक्षा के लिए सन्नद्ध हैं। अजयदेव का नेतृत्व कौशल चन्देलों में नया उत्साह पैदा कर रहा है। कुतुबुद्दीन की अपेक्षा चन्देलों की सेना कम है पर उत्साह में कमी नहीं । परमर्दिदेव, मृणालदे और महामात्य अजयदेव मंत्रणा कक्ष में बैठे हैं। 'युद्ध लम्बा खिंच सकता है', महाराज ने कहा । 'पर हमारी तैयारी में कोई कमी नहीं है। हमारे सैनिक हर स्थिति से निबटने के लिए तत्पर हैं।' महामात्य ने जानकारी दी । 'युद्ध का अधिक लम्बा खिंचना क्या हमारे हित में होगा?” महाराज ने बात रखी। 'हमारी स्वतन्त्रता दाँव पर लगी है। हमें हर तरह से अपनी अस्मिता की रक्षा करनी है। दुर्ग को भेद पाना तुर्कों के बस में नहीं है । आप निश्चिन्त रहें महाराज ।'
'मंत्रिवर का सुझाव उचित है स्वामी । अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं', मृणालदे ने भी कहा ।
‘यदि तुम्हारी भी इच्छा यही है तो कोई बात नहीं किन्तु मैं संधि करने के पक्ष में हो गया हूँ।'
'धैर्य रखें महाराज', अजयदेव बोल पड़े। महारानी ने भी उनका समर्थन किया ।
बैठक समाप्त हुई पर महाराज चिन्तित ही दिखे। वे मृणालदे के साथ नीलकंट की आराधना के लिए चल पड़े। अजयदेव आयुधागार का निरीक्षण करने निकल गए।
कुतुबुद्दीन और इल्तुतमिश दोनों कालिंजर दुर्ग को भेदने का उपाय ढूँढ़ते रहे पर कहीं कोई सुराग नहीं लगा। दुर्ग के द्वार चन्देल सैनिकों द्वारा पूरी तरह सुरक्षित हैं। कमन्द का भी उपयोग नहीं किया जा सकता। दुर्ग के अन्दर जलकुण्डों- पाताल गंगा, पाण्डुकुण्ड, मृगधारा, कोटतीर्थ से जलापूर्ति चन्देलों को निश्चिन्त बनाए हुए है। नीलकंठ महादेव का उद्घोष कर वे किसी भी संकट का सामना करने के लिए प्रस्तुत हैं। पर महाराज परमर्दिदेव की चिन्ता कम नहीं हो पा रही है। चाहमान युद्ध का परिणाम वे देख चुके हैं। महारानी मृणालदे से उन्होंने विचार विमर्श किया। महारानी भी महामात्य अजयदेव के विचारों से सहमत दिखीं। 'तुम लोग दूरगामी परिणाम की चिन्ता नहीं कर रहे हो । दुर्ग के अन्दर कब तक बैठ सकेंगे? यदि हम सन्धि प्रस्ताव करते हैं तो हमारी प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आएगी। इस बात पर गम्भीरता से सोचो। अभी त्रैलोक्य बहुत छोटा हैं। उसका भविष्य भी हमें देखना है।'
'हमारे मंदिर ध्वस्त हो रहे हैं। प्रजा को दास बनाया जा रहा है ऐसे में.......।' मृणालदे का मुखमण्डल कठोर हो गया।
'तुम्हारी बात सच है पर मंदिरों को सुरक्षित रखने का यही एक उपाय है अन्यथा पराजय होने पर मंदिरों को ध्वस्त होना ही है ।'
गोपाद्रि नरेश की संधि का परिणाम हम देख चुके हैं। एक बार संधि की गई। कुछ दिन बाद आक्रमण कर दुर्ग को हथिया लिया गया। जब हमें कभी न कभी संघर्ष करना ही है, बीच में अन्तराल का उपक्रम किस लिए? हमारी सेना में उत्साह है। वे हर बलिदान के लिए तत्पर हैं।' महारानी कहती रहीं । 'पर बलिदान के बाद भी पराजय हुई तो ?' 'इस 'तो' का उत्तर किसी के पास नहीं है । युद्ध में जय पराजय का पूर्व ज्ञान अत्यन्त कठिन है । ऐसे समय में सन्धि का प्रस्ताव करना जब हमारे सेनाधिपति हर ओर से सुदृढ़ स्थिति में हैं, संगत नहीं लगता।'
'यही राजनीति है प्रिये । सबल स्थिति में ही सन्धि का कोई अर्थ है। दुर्बल होने पर कौन सन्धि करेगा?"
'पर हमारे महामात्य सहमत नहीं होंगे।'
'महामात्य ही शासक हैं क्या? जो महामात्य चाहेंगे क्या वही होगा ?"
'पर परस्पर सहमति होती तो अच्छा होता।'
'यह तुम्हारी चिन्ता का विषय हो सकता है। मैं इतनी चिन्ता करके शासन नहीं चला सकता।' महाराज का पारा गर्म हो उठा। वे उठ पड़े। उन्हीं के साथ महारानी भी उठ पड़ीं।
'महाराज ने यह क्या कर दिया? सबल स्थिति में सन्धि प्रस्ताव । हम लोग प्राण देकर भी कालिंजर की सुरक्षा के लिए सन्नद्ध हैं और महाराज....।' महामात्य अजयदेव पीड़ा से कराह उठे । 'यदि यही करना था तो सहस्रों सैनिकों का रक्त क्यों बहाया गया?" सैनिक भी उत्साह से भरे थे। उन्हें महाराज का सन्धि प्रस्ताव अनुचित लगा ।
महारानी मृणालदे भी चिन्तित हो उठीं । महाराज परमर्दिदेव जो ठान लेते हैं, करके ही दम लेते हैं। महामात्य का विरोध भी उन्हें विचलित नहीं कर सकता। वे महाराज हैं। सब कुछ करने में समर्थ । अजयदेव ने महादेवी मृणालदे के आवास पर दस्तक दी। महादेवी के अतिथिकक्ष में आते ही अजयदेव ने प्रणाम किया।
'महादेवी, महाराज को मनाइए। यह चंदेल सत्ता का ही प्रश्न नहीं हैं, समाज की अस्मिता का भी प्रश्न है। ग़ज़नी के सिपहसालारों पर हम विश्वास नहीं कर सकते। एक नहीं अनेक बार उन्होंने भारतवासियों को धोखा दिया है । मुलतान और उच्च से लेकर गोपाद्रि तक हमें परखने का अवसर मिला है।' 'मैं आपकी बात से सहमत हूँ महामात्य ? पर महाराज को मनाना कितना कठिन है? आप भी जानते हैं ।’
'तब ?"
“मैं स्वयं कोई निर्णय नहीं ले पा रही हूँ।'
'पर निर्णय लेना ही पड़ेगा महादेवी । क्या आप चाहती हैं कि चन्देल नारियाँ गज़नी के नख्ख़ास में बिकें?”
'कौन चाहेगा इसे ?"
‘जलापूर्ति के लिए हमारे नवजवान निरन्तर लगे हैं। ऐसी आशंका नहीं है कि जल की कमी हो जाए। ऐसी स्थिति में महाराज का निर्णय ।'
“मैं भी प्रयत्न करूँगी। हम, आप और मंत्रिगण बैठकर महाराज की सहमति प्राप्त करने का प्रयास करेंगे।
'यही आवश्यक है। आप प्रयास करेंगी तो.....'
“हम लोग मिलकर प्रयास करेंगे, ' कहते हुए महादेवी उठीं। उन्हीं के साथ अजयदेव भी उठ पड़े ।
उषः काल । कुतुबुद्दीन ने फज़िर की नमाज़ अदा की। उठते ही उसकी नज़र कालिंजर दुर्ग पर पड़ी।
दुर्ग पर श्वेत ध्वज लहराते देखकर कुतुबुद्दीन उछल पड़ा। 'या खुदा' उसके मुख से निकला । सम्पूर्ण सेना में खुशी की लहर दौड़ गई। घेरा डाले बहुत दिन बीच चुके थे। सैनिकों का धैर्य जवाब दे रहा था। कुतुबुद्दीन और इल्तुतमिश उनमें साहस भरने का प्रयास करते रहे । इल्तुतमिश भी कुतुब के शिविर में आ गए। चन्देल महामात्य अजयदेव संधि के पक्ष में नहीं थे, यह सूचना कुतुबुद्दीन को मिल चुकी थी । इसीलिए वह चकित हुआ। वह इल्तुतमिश से चर्चा कर ही रहा था कि प्रहरी ने आकर आदाब किया।, “जहां पनाह कालिंजर से क़ासिद आया है ।'
'हाज़िर करो', कुतुबुद्दीन ने कहा । प्रहरी अश्वारोही के साथ उपस्थित हुआ । माथ नवाया । 'महाराज ने पत्र दिया है', अश्वारोही ने पत्र बढ़ा दिया । कातिब ने पत्र पढ़ा । 'हम पूरी तरह सहमत है', कुतुबुद्दीन का चेहरा चमक उठा। 'हम शर्तें तय कर लेंगे।' अश्वारोही ने सिर झुकाकर प्रणाम किया और चल पड़ा।
दूसरा दिन । अजय देव नीलकंठ मंदिर में बैठकर स्तुति कर रहे हैं। स्तुति करते अपनी व्यथा कह उठे । 'नीलकंठ, देवों के देव, क्या यही आपकी इच्छा है? क्या कहते हो भोले शंकर ? घंटों की यह ध्वनि क्या बन्द नहीं हो जाएगी? विचार करो विषपायी।' अजयदेव की आँखें भरी हुई हैं । वे भूमिष्ठ हो प्रणाम करने के लिए झुके ही थे कि महादेवी मृणालदे की सेविका दौड़ती हुई आई। अजयदेव भी राजमहल की ओर भागे। पुजारी तथा शिवभक्त चकित । महामात्य की तेज़ी ने जो रहस्य उगाया था थोड़ी ही देर में उससे परदा उठ गया, जब एक नागरिक दौड़ते हुए आया । 'महाराज नहीं रहे ।' उसने रोते हुए कहा। पुजारी तथा अन्य भक्तगण भी अवाक् ।' 'क्या चाहते हो भोले शंकर ?" पुजारी व्याकुल हो उठे । भक्तगण भी विहल । कुतुबुद्दीन का यह घेरा और महाराज का निधन ! पर अचानक कैसे हो गया?' एक ने कहा। नागरिक कुछ भी बता नहीं सका।
महामात्य अजयदेव महादेवी मृणालदे को देखते ही रो पड़े। 'महामात्य यह निर्णय लेने का समय है, आँसू बहाने का नहीं। महाराज सब कुछ अधर में छोड़कर चले गए। त्रैलोक्य अभी बालक है।' महादेवी कह गई ।
'महादेवी त्रैलोक्य अभी बालक हैं तो क्या हुआ? महाराज के उत्तराधिकारी तो वही हैं। तत्काल उनका राज्याभिषेक होना चाहिए।'
कुल पुरोहित से सम्पर्क कर तत्काल राज्याभिषेक का समय निर्धारित किया गया। दुर्ग के अन्दर उपस्थित सामन्तों, सभासदों की उपस्थिति में त्रैलोक्य का संक्षिप्त राज्याभिषेक हुआ। मृणालदे राजमहिषी से राजमाता हुईं। दुःख के पारावार में प्रसन्नता का एक क्षण भी कितना कठिन लगता है । मृणालदे को कई बार ऐसे अवसरों से दो चार होना पड़ा है।
राज्याभिषेक होते ही महाराज की अर्थी उठी। पूरा राजपरिवार रो उठा । पुरवासी, सैन्यकर्मी, भृत्य सभी दुःखी थे। पर दुःख में भी उन्हें अनुशासित रहना है। त्रैलोक्य द्वारा मुखाग्नि देते ही सभी सिसक उठे ।
मृणालदे की अध्यक्षता में महामात्य ने बैठक आहूत की। बाल नृप त्रैलोक्य भी सम्मिलित हुए। विचार विमर्श प्रारंभ हुआ। प्रश्न था कि महाराज द्वारा घोषित सन्धि प्रस्ताव का क्रियान्वयन किया जाए या युद्ध की घोषणा कर दी जाए। सभी संधि प्रस्ताव का विरोध करने को उद्यत दिखे। महामात्य पहले भी सन्धि के पक्ष में नहीं थे पर आज वे अत्यन्त संयत ढंग से बात कर रहे थे। राजमाता भी आमात्य के विचारों से सहमत थीं। निश्चय किया गया कि सन्धि प्रस्ताव को निरस्त कर युद्ध का उद्घोष किया जाए।
प्रातःहुई। कौए इधर-उधर आकाश में दौड़ते दिखाई पड़ रहे थे । फज़िर की नमाज़ पढ़कर सैनिक अपने कार्यों में लग गए। एक सैनिक की नज़र दुर्ग के ऊपर पड़ी। दुर्ग पर श्वेत के स्थान पर रक्तवर्णी ध्वज फहरा रहा था। उसने दूसरे से कहा। दूसरे से तीसरे और फिर बात कुतुबुद्दीन तक पहुँची। उसने भी दुर्ग की और दृष्टि घुमाई | रक्तवर्णी झंडा देख चौंका गुप्तचरों की शिथिलता पर उसने नाराज़गी जताई।
दुर्ग के अन्दर जल एवं अन्न का अभाव न था । सैनिक उत्साह से भरे थे । मृणालदे और अजयदेव का नेतृत्व उनमें नई ऊर्जा भर रहा था । त्रैलोक्य अभी किशोर था। उसे निहार कर लोग युद्ध में कूदने को तैयार रहते । अजयदेव योजनाएँ बनाते । सैन्यकर्मियों को उत्साहित करते। उन्हें क्षणभर का भी अवकाश नहीं था। उनकी यही पटुता उन्हें कुशल महामात्य बनाती। हर व्यक्ति उनमें विश्वास करता । जल का अभाव नहीं था पर एक नए झरने की खोज ने लोगों का उत्साह बढ़ा दिया था ।
कुतुबुद्दीन को सूचना मिली। सन्धि प्रस्ताव निरस्त हो गया। संधि करने वाले महाराज भी नहीं रहे। उसने अपने सिपहसालारों से विमर्श किया। युद्ध प्रारंभ हो गया। दुर्ग की सुरक्षात्मक स्थिति से चन्देल अत्यन्त उत्साहित थे ।
कुतुबुद्दीन दुःखी थे । तुर्क सैनाएं कालिंजर को घेरे हुए थीं, पर चन्देलों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। घेरा कब तक चलेगा? लोग पूछते । पर कुतुबुद्दीन मौन लगा जाते ।
जब तक आपूर्ति नहीं कटती, कोई परिणाम आने से रहा। कुतुबुद्दीन सोचते । अजयदेव कुतुबुद्दीन को टक्कर देने के लिए नित नई योजनाएं बनाते । दुर्ग के अभेद्य कवच को भेद पाना तुर्क सेना के लिए सम्भव नहीं था ।
क्या जलापूर्ति में बाधा नहीं दी जा सकती ? कुतुबुद्दीन ने आपस में विमर्श किया। ‘रसद और पानी काटना ही एक रास्ता है।' कुतुबुद्दीन ने सुझाया। रणनीति बनी। खोजी टोलियाँ तैयार हुईं। जल स्रोत काटने की युक्ति ढूँढ़ने लगीं। कुछ दिन प्रयास करने पर उन्हें एक जल स्रोत का पता चला। बिना समय गँवाए उन्होंने खुदाई कर जल स्रोत का मार्ग बदल दिया। दुर्ग में झरने में आने वाला जल बाधित हो गया। अजयदेव तक सूचना पहुँची। राजमाता मृणालदे और अजयदेव ने स्वयं निरीक्षण किया। तुरन्त आपात बैठक हुई। राजपरिवारों को अजयगढ़ पहुँचाने की समस्या थी । दोनों पक्षों के सहस्रों लोग युद्ध भूमि में काम आ गए थे। सैनिक अजयदेव के नेतृत्व चन्देल अस्मिता के लिए लड़ते रहे। पर धीरे-धीरे पानी का अभाव बढ़ता गया। जब पीने के लिए भी पानी का अभाव होने लगा, अजयदेव चिन्तित हो उठे। उन्होंने रात्रि में बैठक की। पूरा सैन्यबल जलाभाव से त्रस्त था। तय हुआ कि कालिंजर छोड़कर दस कोस दक्षिण अजयगढ़ की शरण ली जाए। दुर्ग छोटा अवश्य था पर इस अवसर पर वही सुरक्षा कवच था जिसमें जल की समुचित व्यवस्था थी । गुलाबी ठंड थी। दिन में फगुनहट की तेज़ हवाएं चलतीं पर रात में भीनी सुगन्ध के बीच हवा बिल्कुल शान्त । अगला दिन सोमवार था । सूर्योदय के पूर्व ही अजयदेव के नेतृत्व में बची सेना दुर्ग छोड़कर राज परिवार की सुरक्षा करते अजयगढ़ के लिए निकल पड़ी। द्वार खोल दिए गए। युद्ध करते हुए चन्देल सैनिक अजयगढ़ की ओर बढ़ते गए। तुर्क सेनाएँ कालिंजर खाली पाकर प्रसन्न हो उठीं। उन्हें बिना किसी अवरोध के दुर्ग के अन्दर प्रवेश कर अवसर मिल गया। कुतुबुद्दीन ने राहत की साँस ली। कालिंजर का दुर्ग जो अपनी दृढ़ता के कारण लौह भित्ति कहलाता था, तुकों के कब्जे में आ गया। मंदिर तोड़े जाने लगे। उनके बदले मस्जिदें बननी शुरू हो गईं। कारीगर दिन रात काम करते रहे । सहस्रों लोग कत्ल कर दिए गए। बहुतों को गुलाम बना दिया गया । जापकों तथा उपासकों की वाणी का अन्त हुआ। तुर्क सैनिक लूट में लग गए। हाथी, घोड़े अस्त्र मिले ही, सोने, चांदी, हीरे, जवाहरात जहाँ भी दिखे तोड़कर निकाले जाने लगे ।
कुतुबुद्दीन चिन्तित हो उठे थे । बयाना से विद्रोह की ख़बर थी । कालिंजर अधिकार में आ जाने पर उनके चेहरे पर रौनक लौटी। उन्होंने इल्तुमिश से विमर्श किया। ‘पर कालिंजर ?" इल्तुमिश ने पूछ लिया।
'सोचता हूँ कालिंजर, महोबा, खजुराहो, की देख रेख का काम हज़बवरुद्दीन हसन अर्नाल को दे दिया जाए।' इल्तुमिश ने एक क्षण विचार किया। 'ठीक है', उनके मुख से निकला। तुरन्त अर्नाल को बुलाया गया । उन्होंने आकर आदाब किया।
‘आप कालिंजर महोबा, खजुराहो देखिए ।' कुतुबुद्दीन अर्नाल को देखते हुए बोले ।
‘जो हुक्म', कहकर अर्नाल ने पुनः आदाब किया । 'हमें बयाना की ओर कूच करना है । मुस्तैदी से आप...... ।' कहते हुए कुतुबुद्दीन उठ पड़े साथ में इल्तुतमिश भी ।