Shakunpankhi - 29 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 29 - आओ चलें

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शाकुनपाॅंखी - 29 - आओ चलें

41. आओ चलें
कान्यकुब्ज को दूसरा काशी कहा जाता था। जयचन्द्र के वीरगति पाने की सूचना मिलते ही पूरे नगर में हाहाकार मच गया। 'माँ, यह संकट का समय है । मुदई की ओर निकल चलने का ही एक विकल्प है।' जाह्नवी जैसे अपनी चेतना खो बैठी हैं। उनकी ओर से कोई आवाज़ नहीं आई।
'माँ', हरि ने माँ के कन्धे पर हाथ रखा।
'समय बहुत कम है माँ। तनिक भी असावधानी हमें विपत्ति में डाल देगी।'
'ऐं.... वे कहाँ गए ? महाराज को सूचित करो न संकट है तो महाराज....।' जाह्नवी का विचारक्रम टूट चुका था। ऐसी आपदाओं में यह असामान्य नहीं है।
"माँ को शिविका में बिठाओ।' हरि ने निर्देश दिया।
'चलो, महाराज से भी मिल लेते हैं।' शिविका में बैठते हुए जाह्नवी के मुख से निकला ।
शुभा चन्दावर की सूचना पर अचेत हुईं तो उनकी चेतना ही नहीं लौटी। कारु ने दौड़कर कंचुकी को बताया। वैद्य बुलाए गए। अभी चेतना लौटने के कोई चिह्न नहीं । नाड़ी में गति तो है पर कौन जाने? चारों ओर अफरा-तफरी । राजकुमार हरि के निर्देश पर शुभा को भी शिविका में लिटा दिया गया। कारू साथ में। सभी काली नदी के किनारे से मुदई की ओर निकले।
कान्यकुब्ज के बहुत से नागरिक इधर-उधर के ग्रामों में चले गए। सभी का जाना संभव नहीं। अनेक मंदिरों के पुजारी अपने इष्टदेव का ध्यान करने में मग्न । 'कैसे अपने आराध्य को छोड़कर जा सकूँगा मैं?" वे कहते ।
पर जिनकी आस्था डगमग थी, वे अपनी मुटरी लेकर चल पड़े। ‘राजधानी में रहना सबसे कष्ट कर है', चतुष्पथ पर बैठे एक नागरिक ने कहा ।
'पर सुविधाएँ भी तो सबसे अधिक यहीं उपलब्ध होती हैं', दूसरा कुनमुनाया। 'तो कष्ट भी झेलो भाई, लूट-पाट राजधानियों की ही अधिक होती है। पर लोग हैं कि भागे चले आते हैं।'
'आना ही पड़ता है भाई। गांवों में काम ही कहाँ मिल पाता है? यहाँ तो ताम्बूलिक भी महल बनवा लेता है। ताम्बूल पैदा करने वाले किसान छोटा घर कठिनाई से बना पाते है। ताम्बूल बेचकर सुख का जीवन जीते हैं।'
'तभी तो राजधानी खींचती है। उसका आकर्षण आदमी को खींच लेता है ।'
'महत्तर से विवाद न हो गया होता तो मैं अपना गाँव न छोड़ता।'
'पर तब यह कौशेय उत्तरीय भी न मिल पाता।'
'सच कहते हो भाई । खेती में लगा होता तो धूलिकणों से लथपथ रहता।
इतनी सुन्दर पत्नी भी न मिलती। मेरी पत्नी थोड़ी ज्यादा बोलती है। कहती है, 'मैं तो किसी किसान के बेटे से विवाह कदापि न करती।'
'यहाँ क्या करते हो अब?"
'सुवर्ण गलाने का काम सीख गया हूँ। कमा लेता हूँ । गृहस्थी चल जाती है।'
'तब तो किसी दिन बड़े संभ्रान्त श्रेष्ठी बन जाओगे।'
'आशा तो यही करता हूँ ।'
'कान्यकुब्ज छोड़ने का विचार है क्या?"
'छोड़ने का विचार तो नहीं था पर सुरक्षा का कोई उपाय तो करना ही होगा।'
"तुर्क सेना केवल लूट-पाट ही नहीं करती। वह इस्लाम भी कबूल करवाती है।'
'यही बड़ा संकट है।'
'सुनता हूँ जो इस्लाम कबूल नहीं करते, उन्हें मार दिया जाता है।'
"यह तो और भी कष्टप्रद है ।'
'पर कौन सुनता है?"
'मैं शिव का उपासक हूँ। तुर्क शिवलिंगों को तोड़कर मार्ग में फेंक देते हैं। जो भी सोना, चाँदी पाते है मंदिरों से निकाल ले जाते हैं। वे कहते हैं कि हमारा धर्म ही सही है इसे ही मानो, नहीं तो...।' 'यह नहीं तो' ही आदमी को जीने नहीं देगा। व्यक्ति को इतनी स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म का पालन कर सके।'
'पर लोग अपना धर्म दूसरों पर लाद देना चाहते हैं । धर्मयुद्ध लड़े जाते हैं । कहाँ ले जाएंगे हमें ये धर्मयुद्ध?"
'अंधेरी गुफाओं के अतिरिक्त और कहाँ ?'
'मुझे अपना सहायक बना सकते हो? मैं राजमहल में सेवक था । अब राजा ही नहीं रहे तो.... ।'
'सुवर्ण गलाने का काम सीखना होगा।' 'सीखूंगा।'
'मुझे एक सहायक की आवश्यकता भी थी। तुम्हारा परिवार?” 'मैं अकेला हूँ। परिवार अभी नहीं बसाया।'
'इस चतुष्पथ पर क्या किसी काम की खोज में ही बैठे थे?"
'हाँ ।'
'तो आओ चलें । मध्याह्न हो गया है। पत्नी प्रतीक्षा कर रही होगी।' दोनों चल पड़े।
'देख रहे हो, कितना सन्नाटा पसरा है? पण्यशाला में कहीं इतना.... ।'
‘क्या करें? लोग आतंकित हैं। इधर-उधर सुरक्षित जगह की तलाश में .... ।'
‘जाना ही पड़ेगा।' दोनों गौरीशंकर मंदिर के निकट पहुँचे । पुजारी क्लान्त मन बैठे थे ।
'पुजारी जी, आप कहीं गए नहीं?"
'गौरीशंकर को छोड़कर कहाँ जाऊँ? जो उनकी इच्छा होगी, करेंगे।'
एक आदमी दौड़ता हुआ आया। तुर्क सेना निकट ही है। बस पहुँची ही समझो। दोनों व्यक्ति तेजी से घर की ओर बढ़ गए। घर का कुछ हल्का सामान उठाया। पत्नी को साथ ले तीनों गंगा तट पर आ गए। यात्रियों से भरी नावें उस पार जाने के लिए तैयार थीं। तीनों एक पर चढ़ गए। नावें छूटीं। सबने राहत की सांस ली। वरुण के बेटों ने पतवार थाम लिया। नावें थोड़ी दूर तक गईं, तब तक तुर्क अश्वारोहियों की टाप सुनाई पड़ने लगी।
जो नगर में रह गए थे, उनके लिए संकट का कोई अन्त नहीं। सैनिकों ने सबसे पहले मंदिरों और राजमहल पर अधिकार करने की चेष्टा की। मंदिरों की मूर्तियां तोड़ी जाने लगीं। सोना, चाँदी, रत्न जो भी मिला, इकट्ठा किया जाने लगा। गौरीशंकर के पुजारियों को खड़ा किया गया। उनके मस्तक पर तलवार की नोक लगाकर एक अश्वारोही ने सोना, चांदी के संबंध में पूछताछ की। सब कुछ मालूम करने के बाद छपाक से उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। एक अश्वारोही ने भाले की नोक पर सिर को टांग लिया। पूरे रास्ते उसे लेकर चलता रहा। जो भी उसे देखता भय से काँप उठता।
इजुद्दीन की सेना नगर में लूटपाट करती रही। मंदिर ध्वस्त किए गए। जो भी नर, नारी मिले, दरबों में बंद पंछी की तरह काटे जाते रहे। कुछ को कैद कर गुलाम और बांदियों की भांति काम करने के लिए विवश किया गया। घंटियों की ध्वनि नहीं, केवल 'अल्लाहो अकबर' । इत्मीनान से लोग लूटते रहे।
असनी के ख़ज़ाने को ग़ज़नी भेजकर शहाबुद्दीन और कुतुबुद्दीन की सेनाएँ भी आ गई। कान्यकुब्ज की बैठक के सामने ही लूट का माल रखा गया। उसे देखकर गोरी का मन फड़फड़ा उठा। उसके मुख से निकल गया, 'या खुदा ।' उसने जयचन्द्र के सभा कक्ष के सामने अलिन्द में अपनी बैठक की। अलिन्द के सामने महावतों ने उन हाथियों को खड़ा किया जिन्हें तुर्क सेना ने हस्तगत किया था। हाथी शाह को सलाम करते । तालियां बजतीं। अल्लाहों अकबर के नारे लगते। यही क्रम चलता रहा। महाराज का श्वेत गजराज अन्त में सामने लाया गया। महावत ने अंकुश लगाया। गजराज हिला तक नहीं। महावत ने कसकर अंकुश मारा। हाथी चिंघाड़ उठा पर शाह को सलाम नहीं किया। महावत आग बबूला हो उठा। उसने पूरी शक्ति से अंकुश का प्रहार किया। गजराज रुष्ट हो गया उसने महावत को खींचकर पटक
दिया। दूसरे महावत दौड़ पड़े तब तक गजराज महावत को चीर चुका था । गजराज को सामने से हटाया गया। शाह ने कुतुबुद्दीन से कहा, 'बहुत जज़्बाती हाथी है। इसे सँभाल कर रखना।'
कान्यकुब्ज और आसपास के शूरवीर, वणिक एक घने जंगल में गंगा तट पर इकट्ठा हुए। उनके साथ उनके परिवार के लोग भी थे । अनुभवों से तपे एक शूर की अध्यक्षता में सभा हुई। नर-नारी सभी सम्मिलित हुए। क्या किया जाए? यह प्रश्न सभी के सामने था। अधिकांश सम्पत्ति लुट चुकी थी। 'सुल्तान की अधीनता में रहने का प्रश्न ही नहीं है' एक ने कहा ।
'तब?” दूसरे ने पूछा। सभा में कुछ देर तक कोई न बोला ।
'यदि अपनी प्रतिष्ठा के साथ रहना है तो कान्यकुब्ज छोड़ देना पड़ेगा,' एक व्यक्ति ने सुझाव दिया। 'अपनी धरती छोड़ देना क्या इतना सहज है?"
एक महिला ने प्रतिप्रश्न किया।
'छोड़ना ही पड़ेगा', एक वृद्ध ने कहा।
'ऐसे किसी क्षेत्र को खोजना पड़ेगा जहाँ तुरुष्कों की पहुँच न हो', दूसरे वृद्ध ने अपना सुझाव रखा।
'पर वह क्षेत्र है कहाँ?' एक नवयुवक ने पूछा।
'उर्वरा भूमि पर तो तुरुष्क सेनाएं कब्जा जमाने के लिए दौड़ रही हैं।
चाहमान सत्ता गई । कान्यकुब्ज भी तुरुष्कों के हाथ में आ गया। केवल चन्देल बच रहे हैं। कब वे भी काल के गाल में समा जाएँ? गंगा की ऊपरी घाटी में शरण पाने की कोई संभावना नहीं है। अब तो काशी से अजयमेरु तक तुरुष्क अश्वारोही दौड़ लगा रहे हैं। सिन्ध और पंजाब पहले ही उनके खुरों के नीचे आ चुके हैं। अब प्रश्न यही है कि एक दुष्कर जीवन जीना चाहते हो या दासता का।' जनमत जानने के लिए वृद्ध ने प्रश्न उछाला ।
'दासता हमें स्वीकार नहीं है।' जनसमूह ने हुंकार भरी। 'तो कठिन जीवन ही एक मार्ग है, ' वृद्ध ने कहा। ' स्पष्ट बताइए । बुझौवल से काम न चलेगा', एक युवक ने कहा। ‘बता रहा हूँ। धैर्य रखो। हमें ऐसी जगह खोजनी होगी, जहाँ तुरुष्क हमें तंग न कर सकें।'
'कौन सा स्थान है वह ?' दूसरे ने पूछा।
‘मेरी दृष्टि में थार का रेगिस्तान ही वह जगह है, जहाँ हम सुरक्षित रह सकते हैं।' ‘थार का रेगिस्तान!” सभी एकदम चौंक पड़े । 'हाँ' वृद्ध ने विश्वास पूर्वक कहा । 'क्या वहाँ तुरुष्क नहीं पहुँच सकेंगे?" एक ने पूछा। 'हाँ, वे वहाँ पैर नहीं जमा सकेंगे।' वृद्ध ने बताया । 'महमूद गज़नवी सोमनाथ से लौटते हुए किसी प्रकार थार को पार कर पाया। अब दूसरी बार थार में घुसने का साहस कौन करेगा?" पर हमारा व्यवसाय ?" वणिकों ने प्रश्न किया। 'अपना अपना आवास थार में बनाइए, भले ही व्यवसाय कहीं कीजिए । व्यवसाय के लिए धरती का कोई बन्धन तो नहीं।' वृद्ध समझाता रहा । 'अब कोई दूसरा विकल्प नहीं है । भलीभांति विचार कर लीजिए।' सभा में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। कुछ खुसुर-फुसुर भी हुई। अन्ततः सभी की सहमति बननी ही थी । कुछ ही दिन में सभी राजस्थान के मारवाड़ जोधपुर क्षेत्र में जा बसे ।