एपीसोड----3
“आज इशिता को सारे शहर के बैंक की टेबल टेनिस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला है,” उन्होंने कनखियों से देखा कि उर्मिला के कमरे के पर्दे बिना हिले बेजान पड़े थे ।
उन की कोशिश ज़ारी रही । बैंक से लौट कर वह मीता को इशिता का कोई न कोई किस्सा सुनाते रहते। कुछ दिनों बाद उन्होंने बहुत रस ले कर जरा ऊँची आवाज़ में बताया, “आज तो इशिता ने पार्टी दी।”
“अच्छा? आप ने क्या क्या खाया ?”
“गुलाबजामुन, समोसे । इशिता यह सब स्वयं घर से बना कर लाई थी । इतने स्वादिष्ट थे कि अभी तक मुंह में पानी आ रहा है.” कहते हुए उन्हें लगा उर्मिला अपने कमरे के पर्दे के पीछे खड़ी हो गई है । वह उत्साहित हो कर कहने लगे, “इशिता की एक और तारीफ है ।”
“वह क्या?” मीता ने पूछा ।
“वह सलवार सूट पहने या साड़ी या जींस या फिर झालर वाला फ्राक, सभी पोशाकें उस पर बहुत सुंदर लगती हैं, बेहद ख़ूबसूरत ।”
पर्दे के पीछे खड़ी उन की पत्नी से रहा नहीं गया । वह पर्दा हटा कर तेजी से बाहर निकल आई, “जब एक युवा लड़की आधी नंगी टांगें दिखाये घूमेगी तो सुंदर लगेगी ही ।”
उन्होंने चौंकने का अभिनय किया, “शाम का समय तो तुम्हारे संध्या जाप का है । तुम अपने कमरे से बाहर कैसे आ गई?”
“मैं बाहर इसलिये आ गई हूँ कि इस नाम को सुनते सुनते मेरे कान पक गये हैं ।”
“कौन से नाम को सुन कर?”
“इशिता...इशिता...।”
“लेकिन तुम्हें दुनियाँदारी की बातों से क्या मतलब है? न तुम्हें मुझ से मतलब है । पूजापाठ करते समय भी दुनियाँदारी की बातें सुनती रहती हो ?”
“जब आप रोज़ ही एक नाम की माला जपोगे तो कैसे आवाज़ कान में नहीं जायेगी ?”
“इशिता है ही ऐसी लड़की की कोई भी उस के नाम की माला जपने लगेगा.” वह शरारत से मुसकराये, ``क्या तुम्हें उससे जलन हो रही है ?``
“मुझे क्यों जलन होगी?” पत्नी ने बेवजह सफाई दी, “मुझे क्या लेनादेना, तुम किसी की भी तारीफ करो,” वह फिर अपने क्रोध को नियंत्रित करती अपने कमरे में जा कर ज़ोर ज़ोर से “श्रीराम, सियाराम” का जाप करने लगी । उसकी अस्थिर आवाज़ बता रही थी कि उस का चित्त शांत नहीं है ।
नरेन ने अपनी आदत नहीं छोड़ी । रोज़ घर आते ही इशिता की बात करने लगते । वह चुपचाप नोट कर रहे थे कि मनु भी पास की कुर्सी पर बैठा उन की एक एक बात ध्यान से सुनता रहता है और जैसे ही उन की बात समाप्त होती है , वह तुरंत मां के कमरे में चला जाता है । वह मन ही मन मुस्कराते हैं, ‘`अच्छा, तो उन के पीछे यह नन्हा जासूस लगा दिया गया है ।’`
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जब एक दिन मनु बहुत ध्यान से उन की बात सुन रहा था तो उन्होंने जानबूझ कर कहा, “मनु! मेरी पैंट की जेब में से रूमाल निकाल कर बाथरूम में धुलने डाल आना। ”
मनु नें हैंगर से पैंट उतारी और जेब में हाथ डाला तो उस में से दो रूमाल एकसाथ निकल आये । वह उन्हें देखकर चीखा, “मां....मां...पापाजी की पैंट की जेब से एक लड़की का में से सेंट में भीगा रूमाल निकला है ।”
अपने कमरे में बैठी उर्मिला फफक पड़ी । मनु के हाथ से रूमाल ले कर वह उन्हें दिखा कर बोली, “तो अब आप की जेब से लड़कियों के रूमाल भी निकलने लगे हैं ?”
“तुम जोगन बन गई हो लेकिन मैं तो जोगी नहीं बना,” वह ढीठ हो कर मुसकराये ।
एक दिन सच ही इशिता घर पर टपक पड़ी। उर्मिला ने आँखों से ही प्रश्न किया ,``ये कौन है ?``
``नरेन ने व्यंग से मुस्करा कर कहा ,``वही सेंट में भीगे रुमाल वाली। ``
“शिव...शिव...” उर्मिला “राम सियाराम” भूल कर सिसकने लगी, “ तुम मेरा घर बरबाद करने क्यों चली आई हो?”
“आप का घर? नरेनजी तो कह रहे थे आप तो घर में रह कर भी नहीं रहती ।”
“क्या मतलब?”
“मतलब आप ने संन्यास ले लिया है घर में ही ।”
“संन्यास ही तो लिया है, कोई मर तो नहीं गई जो यह बाहर की लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाते फिरें.” वह चीखी ।
“नरेन जी !, आज इन का मूड ठीक नहीं है, मैं चलती हूँ । कल का कार्यक्रम तो आप को याद है न?”
“कौन सा? अच्छा, वह..याद है । चिंता मत करो ।”
इशिता नजाकत से अपना पर्स उठा कर वहां से चल दी । उस के जाते ही उर्मिला मेज पर तरह तरह की मिठाई को देख कर बिफर उठी, “कभी इतना बढ़िया नाश्ता हम लोगों के लिये भी लाये हो?”
“अरे! संन्यासिनीजी, इतनी अशुद्ध भाषा मत बोलिये । आप संसार के मायाजाल से अपने को बचा कर कमरे में भजन कीजिये ।” कहते हुए नरेन सीटी बजाते हुए तौलिया ले कर बाथरुम में घुस गये व वहाँ से उस की सिसकियों का मजा लेते रहे ।
थोड़ी ही देर में उर्मिला दरवाजा खटखटाने लगी, “सुनिए...सुनिए ।”
“क्या?”
“वह कल के कार्यक्रम के बारे में क्या कह रही थी ?”
“कौन?”
उसे उस का नाम लेने में भी घृणा हो रही थी, “वही, लाल कपड़ों वाली चुड़ैल ।”
“कौन सी चुड़ैल?”
“वही ।”
“पानी की आवाज़ में कुछ सुनाई नहीं दे रहा,” नरेन पानी की बौछार में मस्ती में गुनगुनाते रहे और उर्मिला अपने कमरे में कुढ़ती हुई रोती रही ।
“अब?” नरेन ने बैंक में इशिता से पूछा ।
“आज आप जरा देर से घर जाइएगा । हम दोनों के संबंधों को ले कर उर्मिलाजी को जरा और भड़कने दीजिये ।”
नरेन उस शाम राहुल के यहाँ चले गये । वहीं से खाना खा कर रात को दस बजे घर पहुंचे । देखा पत्नी राम नाम भूल कर बाहर के कमरे में ही बदहवास सी घूम रही थी । बच्चे अंदर कमरे में पढ़ रहे थे । उन्हें देख कर वह चिल्लाई, “इस समय आप घर आये हैं ? इतनी जल्दी क्या थी ?”
“ओह , ज़रा देर हो गई ।”
“कहाँ गये थे?”
“हमारे बैंक के पास एक बहुत अच्छा होटल खुला है । उस में जाने का मूड आ गया ।”
“ओह, तो इस का मतलब आज खाना भी घर पर नहीं खाओगे?”
“हाँ, वह क्या है कि इशिता ने इज़हार कर के इतना कुछ खिला दिया कि पेट पूरी तरह से भर गया है । तुम आराम से रात के अपने ध्यान पर बैठ जाओ, मेरी चिंता छोड़ दो ।”
“तुम्हारी चिंता कैसे छोड़ दूँ ? आखिर पत्नी हूँ तुम्हारी ।”
“पत्नी ? हा...हा....हा... इतने वर्षों बाद आज कैसे याद आ गया ?”
“याद आने की क्या बात है ? और हाँ, होटल में खाना खाने के बाद कहाँ गये थे?”
“खाना खाने के बाद सीधे घर आ रहा हूँ ।”
“तो कहीं और भी जा सकते थे?”
“हाँ, मूड का और भविष्य का क्या ठिकाना?” वह आँखें झपका कर बोले ।
“मतलब यदि मूड हो तो तुम इशिता को ले कर होटल में भी ठहर सकते हो ?” उस ने लगभग रुंआंसे हो कर पूछा ।
“हो सकता है, लेकिन इशिता माने तो सही ।”
सुन कर उर्मिला का मुँह खुला का खुला रह गया, “मतलब तुम किसी भी हद को जा सकते हो?”
“जोगनजी ! आप अपना जोग धारण कीजिये । यह रोमांस, होटल में रुकने की बात आप के पवित्र मुख से शोभा नहीं देती ।”
“मेरे मुख से क्या शोभा देता है वह मुझे देखना है । पत्नी के होते हुए भी तुम किसी भी लड़की से संबंध बनाने को उत्सुक हो?”
“यार ! छोड़ो इस बहस को । अभी संबंध बने तो नहीं है, जब बन जाएंगे तो बता दूँगा,” वह कपड़े बदल कर अपने बिस्तर पर लेट गये । वह पीछे बकती, कुढ़ती रह गई । वह चादर ओढ़े चुपचाप मन ही मन मुसकरा रहे थे कि इशिता की दादी का बताया तीर सही निशाने पर लगा है ।
इशिता के निर्देशानुसार वह अगले दिन समय से ही घर पहुँचे । दरवाजा खुलते ही आश्चर्यचकित रह गये । पत्नी दरवाजा खोल रही थी । आज उस ने लाल रंग की सुनहरी पतली बॉर्डर वाली साड़ी पहन रखी थी । सूनी कलाइयां चार चार लाल रंग की चूड़ियों और कंगन से सजी हुई थीं । माथे पर चंदन के टीके के स्थान पर बड़ी लाल व सुनहरी बिंदी थी । गरदन में तुलसी की माला के स्थान पर सोने की चेन चमक रही थी । उस की सिंदूर से भरी मांग व दमकते हुए चेहरे को देख कर मुग्ध हुए बिना न रह सके वह । लेकिन अनजान बने उसे अनदेखा कर आगे निकल गये और रोज़ की तरह पुकारने लगे, “मीता...मीता...”
दरवाजा बंद करते हुए पत्नी ने कहा, “मीता और मनु को दो दिन के लिये उनकी मौसी ले गई है, दीपू की वर्षगांठ है ।”
“अच्छा ।” कह कर वह हाथ मुँह धो कर रसोई में जाने लगे ।
“आप रसोई में क्यों जा रहे हैं ?”
“चाय बनाने ।”
“नहीं, आप बैठिये, चाय मैं बनाऊँगी ।”
“लेकिन तुम्हारा तो संध्या जाप का समय है ।”
“वह तो बाद में भी हो सकता है ।”
उर्मिला चुपचाप चाय बना कर ले आई । वह यह देख कर अवाक् रह गए कि चाय के साथ घर की बनी मठरियां भी हैं ।
“आज तो मेरी मेहमानों जैसी खातिर हो रही है.” वह उस के बनाये नाश्ते को चखते हुए बोले ।
“कैसी बनी है ?”
“वाह, लाजवाब ।”
“सच कहिये, कल जिस होटल में खाना खाया था उस से अच्छा है ?” वह उन्हें सजल आँखों से देखते हुए बोली ।
“हाँ, सच ही बहुत अच्छा है ।”
नाश्ता करने के बाद वह उठते हुए बोले, “तुम ने इतना पेट भर दिया है अब मैं वहाँ क्या खाऊँगा ?”
“कहाँ ?”
“अब तुम से क्या छिपाना । इशिता को चाइनीज़ खाने का बहुत शौक है । आज उसे चाइनीज़ खिलाने का वादा किया है । बच्चे घर पर नहीं हैं । मैं बाहर खा लूँगा । आज तुम खाना बनाने के झंझट से मुक्त हो । आज तुम अपने वेद पुराण आराम से पढ़ सकती हो । एकांत में जाप कर सकती हो । चाहो तो अपनी मंदिर वाली सहेलियों को घर पर बुला कर कीर्तन कर लो ।”
“क्यों मजाक उड़ा रहे हैं ? हर समय इशिता का ही नाम लेते रहते हैं । कभी मेरी परवाह करते हैं ?” पत्नी की आँखें डबडबा आईं ।
“तुमने कभी मेरे बारे में गंभीरता से सोचा है ? ख़ैर ---अब तो हमारे रास्ते अलग हो चुके हैं...मैं तो जा रहा हूँ ...”
“मैं आप को आज कहीं नहीं जाने दूँगी,” कहते हुए उस ने अपनी दोनों बाँहें उन के गले में डाल कर कस दीं ।
बरसों बाद स्त्री देह की मादक गंध उन के इतनी निकट थी । उन की देह थरथरा उठी । उन्हें लग रहा था बरसों जिस रेगिस्तान की तपन में अकेले झुलसते रहै हैं, इस गंध को पा कर वह उस के खुमार में डूबे जा रहे हैं । उन्होंने कसी भुजाओं से अलग होने की कोशिश की लेकिन उस गिरफ़्त से निकल नहीं पाए । उर्मिला ने उन की आँखों में आँखें डाल कर कहा, “मैं ने कहा न, मैं आज आप को कहीं भी नहीं जाने दूँगी ।”
सुबह उर्मिला ने कमरे की खिड़कियों पर से पर्दे हटाए, हलकी सुनहरी आभा ने जैसे उन की पलकों पर दस्तक दी, उर्मिला वापस आ कर उन के पास बैठ गई । फिर मीठी मुसकराहट से उन से बोली, “सुनिये, क्या बैंक से दो दिन की छुट्टी नहीं ले सकते हैं?”
“सोचेंगे,” ऊपर से बनते हुए उन्होंने कहा, वरना मन तो हुआ कि कहें दो दिन तो क्या यदि कहो तो एक महीने की छुट्टी ले लूं ।
“सोचने की बात नहीं है । अभी ‘हाँ’ कहिए ।”
“अच्छा, तो चलो दो दिन की छुट्टी ले ही लेंगे ।” उन्होंने उसे अपने पास खींचते हुए कहा ।
“सच?” पत्नी का चेहरा खुशी से चमक उठा । उधर वह सोच रहे थे कि जिस इशिता के चंगुल से उन्हें बचाने के लिये पत्नी जी जान से जुट गई है, वह तो एक नाटक भर था, यह जान कर वह कितनी खुश होगी. पर इस बात की गवाही उर्मिला को इशिता की दादी ही देंगी । साथ ही राहुल भी आकर बतायेगा कि उस दिन वे इशिता के साथ होटल नहीं गए थे बल्कि उसके यहाँ डिनर लेकर आये थे।
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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