Shakunpankhi - 27 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 27 -मन बहुत अशान्त है महाराज

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शाकुनपाॅंखी - 27 -मन बहुत अशान्त है महाराज

37. मन बहुत अशान्त है महाराज

'मुझे आजीवन कंटकों से ही जूझना पड़ेगा? कान्यकुब्ज में पैर रखते ही एक विरोधी परिवेश क्या विकसित हुआ, जीवन भर के लिए काँटा बो गया। पर मैं भी दिखा दूँगी कि जीवट किसे कहते हैं। मैं विधवा होकर इस परिवार में आई। महाराज की पत्नी बनी। पुत्री चाहमान पराभव के साथ ही स्वर्ग चली गई। एक पुत्र राज्याभिषेक के लिए पूरी तरह सक्षम पर प्रारंभिक वैधव्य का टीका वहाँ भी बाधक । जैसे वैधव्य का वरण मेरे अधिकार में था। जिस शुचिता की बात पंडितों ने उठाई है उस पर क्या प्रश्न चिह्न नहीं लग सकता? तुम्हारे संस्कारों में क्या मिलावट का कोई अंश नहीं है?" महारानी शुभा टहलती रहीं। 'शुद्धता का दर्प ओढ़ने वाले स्वयं कितने शुद्ध हैं? कौन शुद्ध है यहाँ ? सृजन ही जब दो के संयोग से होता है, दो भिन्न गुणों का संगम । पर रूढ़ियों के चाकर इसे क्यों समझें? राज्याभिषेक के लिए कितनी पीढ़ियाँ देखोगे ? राजा जिस नारी पर मुग्ध हो जाए, उपयोग करे पर राज्याभिषेक जैसे पवित्र कर्म में उसे अपात्र बनाते देर नहीं लगती। मेरे बच्चे का दोष यही तो है कि उसकी माँ कभी विधवा हो चुकी थी । विधवा के पुनर्विवाह के बाद भी दंश । उस दंश को पीढ़ियों तक झेलना है। यही समरसता का बिम्ब ! सत्ता को जकड़ बैठने वाले परम पावन, मुझे तुम्हारा निर्णय स्वीकार नहीं है। एक-एक अवरोध हटाती रही मैं। पर अवरोधों का अन्त ही नहीं आता। कुछ भाँपकर ही मैंने श्री हर्ष को हटाया था। पर अभी न जाने कितने श्री हर्ष राह रोके खड़े हैं। क्या सभी हट सकेंगे ? महामात्य विद्याधर से लेकर कंचुकी तक सभी जाह्नवी पुत्र के गुण गा रहे हैं। राजकुमार निष्कलंक होना ही चाहिए।' शुभा विचार तरंगों में खो गईं। कारु ने आकर दीप स्तम्भों पर दीप रखा तब उसे भान हुआ कि दिन डूब गया है। उसने पुकारा, 'कारु ।'
'स्वामिनी', कहकर कारू सामने आकर खड़ी हो गई।
'वीणा के तार कस दे ।' शुभा आदेश दिया।
कारु वीणा के तार कसने लगी। शुभा घुंघरुओं को हाथ में लेकर बजाने लगी। छूम छनन.... छूम छनन की ध्वनि गूंज उठी।
'तू भी बजा कारु । कारु की उंगलियाँ वीणा के तारों से खेलने लगीं।
'वही बन्नी तो सुना', शुभा ने कहा। कारू गुनगुना उठी-
नदिया तीरे सारस बोलई, इक बगुला इक आम रे ।
नग्र अजुध्या दुइ वर सुन्दर, इक लछमन इक राम रे ।
सम्पूर्ण कक्ष संगीतमय हो उठा। कक्ष के बाहर भी स्वर लहरी गूँज उठी। महाराज जयचन्द्र के पग शुभा के अन्तः कक्ष की ओर बढ़ गए। प्रतिहारी ने आकर माथ नवा कहा, 'महाराज पधार रहे हैं।' कारु वीणा एक किनारे रख बग़ल में चली गई। शुभा भी महाराज के स्वागत हेतु उठ पड़ी।
घुंघरुओं को आले में रख आगे बढ़ी।
'संगीत की ध्वनि क्यों बन्द हो गई?' महाराज ने पूछा।
'महाराज के पदचाप का संगीत सुन वह ध्वनि दुबक गई', कहते हुए शुभा हँस पड़ी ।
'क्या मेरा पदचाप संगीत के लिए घातक है?"
'नहीं महाराज, आपके पदचाप में भी संगीत उभरता है। वह अवरोधी कैसे हुआ?"
'तो जिस संगीत को मैं सुन रहा था, वह सुनना चाहता हूँ।'
'आसन ग्रहण करें।' महाराज विशिष्ट आसन पर बैठे। सेविका दो पात्रों में मधुपर्क रख गई। महाराज ने एक पात्र उठा शुभा के ओठों पर लगा दिया। शुभा पात्र पकड़ लिया। दूसरा पात्र उठा महाराज ने एक घूँट पिया।
'आज का मधुपर्क तो विशिष्ट है।' महाराज कह उठे ।
'मधु की विशिष्टता ने पेय को विशिष्ट बना दिया है।' शुभा ने जोड़ा। मधुपर्क पीकर महाराज ने संगीत सुनने की इच्छा व्यक्त की। महारानी ने वीणा महाराज के सम्मुख रख दिया। उनके हाथ तारों पर चलने लगे। शुभा ने घुंघरूओं को हाथ में ले लिया। गीत के बोल निकल पड़े। पर महाराज महारानी का नृत्य देखना चाहते थे। महाराज का इंगित समझ उन्होंने अपने पैरों में घुंघरू बांध लिया। महाराज ने वीणा से स्वर निकाला, महारानी के पैर थिरक उठे। महाराज के हाथ वीणा पर और दृष्टि महारानी की बलखाती भंगिमाओं पर समय बीतता रहा।
पग स्थिर होते ही महाराज की उंगलियाँ भी रुक गई। महाराज उठे और महारानी को अपने पार्श्व में बिठा लिया। उनका मन मयूर नाच उठा।
'तुम्हारा सान्निध्य कितना सुखकर है प्रिये ? तुम्हारा साथ होने पर मैं सभी चिन्ताओं से मुक्त हो जाता हूँ।'
'यह आपकी महानता है। मेरे क्रिया कलाप आपको आनन्दित कर सकें इससे अधिक प्रसन्नता की बात मेरे लिए क्या हो सकती है? मैं एक सामान्य नारी हूँ।'
'नहीं, तुम विशिष्ट हो, अतिविशिष्ट । कला की साधना सबके बस की बात नहीं है प्रिये । तुम्हारी प्रतिभा का आकलन कोई कलाकार ही कर सकता है।'
'पर महाराज....।' कहते हुए शुभा रो पड़ी।
'क्या हुआ प्रिये ? तुम्हारे इन नयनों में अश्रु ! कौन सा संकट आ पड़ा? मुझे स्पष्ट बताओ । आदेश दो कौन सा हित करूँ?"
'महाराज', निकलते ही पुनः शुभा फफक पड़ी।
“बताओ प्रिये, किसने अनिष्ट किया है? तुम्हें कष्ट पहुँचाने वाला कौन है ?"
'महाराज, जो स्थितियाँ बन रही हैं। मैं समझती हूँ मेरा मेघ अपने प्राप्य से वंचित हो जायेगा।
'यह तुमने कैसे सोच लिया प्रिये ? मेरे लिए मेघ और हरि दोनों समान हैं। उनके प्राप्य से वंचित होने का प्रश्न ही नहीं उठता।'
'जब कभी युवराज पद का प्रश्न उठेगा तो मेघ को इस लिए दण्ड भोगना पड़ेगा क्यों कि उसकी माँ.....।' कहते हुए शुभा अपने को रोक नहीं सकी ।
'समझ गया प्रिये, तुम्हारी आशंका निर्मूल नहीं है पर मैं हूँ न, विश्वास करो मेघ के साथ कोई अन्याय नहीं होगा।'
'न्याय करते हुए माँ के अपराध का दण्ड बालक को दिया जा सकता है न । शुचिता का सहारा लेकर मेघ को प्राप्य से वंचित कर देना कठिन नहीं होगा महाराज !"
'प्रश्न विचारणीय है पर याद रखो, मेघ मेरा बेटा है। उसका अहित साधने का प्रयास नहीं होगा ।'
'मन बहुत अशान्त है महाराज ।'
'चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं।'




38. कलंक कथा

मेघ ने आकर माँ का चरण स्पर्श किया पर बोला नहीं। उसके चेहरे पर प्रसन्नता का नहीं, रोष का भाव था ।
'माँ, आज ही आया हूँ मैं और यह क्या सुन रहा हूँ?' उसकी आँखें भर आई थीं।
'वत्स, तुम रोष में क्यों हो? क्या कोई अप्रिय घटना घट गई? क्या सुना है तूने?' माँ ने पूछा ।
'नगर में प्रवेश करते ही जो चर्चा मैंने सुनी उसे कहना कठिन हैं माँ ?' मेघ ने उत्तर दिया।
'कौन सी चर्चा सुनी है? कुछ तो बता ?' माँ स्वयं चिन्तित हो उठी।
'माँ, लोग कहते हैं कि आपने सुल्तान को निमंत्रित किया है।'
मैंने और सुल्तान को निमंत्रण? किसने कहा इसे ? कौन है वह ?
कान्यकुब्ज में कितना दंश मिलेगा मुझे?' शुभा उठ पड़ी। उसने पुकारा 'कारू?' पर कारु उस समय वहाँ नहीं थी । शुभा देवी व्यग्र हो उठीं ।
'वत्स, तू अभी सब कुछ नहीं समझता इसीलिए माँ पर आक्रोश प्रकट कर रहा है। जान लेगा तो तेरी दृष्टि बदल लाएगी।' शुभा कहती रही ।
" क्या जान लूँगा माँ ? मुझे बताओ न ।' लगभग ठुनकते हुए मेघ ने कहा । ‘बताऊँगी। सब कुछ बताऊँगी, बेटे ।' शुभा का चेहरा भी तमतमा उठा। 'लोग जाने क्या क्या कहेंगे? अभी न जाने क्या क्या सुनना पड़े ।..... मैं तेरी माँ हूँ। मैं चाहती हूँ कि युवराज पद पर तेरा अभिषेक हो जाए। महाराज भी सहमत हैं पर मंत्रियों की परिषद नहीं चाहती कि तू युवराज के रूप में अभिषिक्त हो ।'
'युवराज बनने की इच्छा नहीं रखता मैं बहुत दुःखी हूँ माँ । मेरा कष्ट भी समझो।'
'बहुत अच्छी तरह समझ रही हूँ। यह षड्यंत्र किया गया है वत्स जिससे जनमानस में मेरी छवि विकृत हो। मैं मौत का वरण कर लूँगी पर ऐसा निकृष्ट कार्य कभी नहीं कर सकती । विश्वास करो वत्स ।'
"माँ..... माँ मेरे विश्वास करने से क्या होगा? प्रजा कैसे विश्वास करेगी? वीथिकाएं और चतुष्पथ जो कथा कह रहे हैं, सामान्य जन तो उन्हें ही सुनता है। जन समूह इन कथाओं को लेकर उड़ चलता है ।'
'सच है वत्स । यह सोची समझी रणनीति के अनुसार फैलाई गई कलंक कथा है।' इसी बीच कारु दौड़ती हुई आई।
'महादेवी, गालियारों में बड़ी अशुभ कथाएँ कही जा रही हैं। महामात्य विद्याधर ने कान्यकुब्ज छोड़ दिया। वे कहीं चले गए।'
“क्या?' महारानी चौंक पड़ीं।
'चर्चा है वे राजकुमार हरिश्चन्द्र का राज्यभिषेक कराना चाहते थे। पर महाराज तैयार नहीं हुए।'
'मैं बड़ा हूँ माँ। मैं अभिषेक नहीं कराना चाहता। भाई हरि के अभिषेक में अब किसी को आपत्ति क्यों हो माँ?"
'महाराज विचारवान हैं, न्यायप्रिय हैं। वे नहीं चाहते कि तेरे साथ अन्याय हो ।' ' पर कलंक का टीकाजोहम पर थोपा जा रहा है माँ, इससे कभी मुक्ति नहीं मिलेगी ।
माँ.....विचार करो..... सुल्तान को आमंत्रण, सम्पूर्ण कान्यकुब्ज हमारे विरोध में खड़ा हो जाएगा माँ। कौन जाँच करेगा कि आपने आमंत्रित किया या नहीं।'
'तुम्हारी शंका सच है। जो लोग हरि को युवराज पद पर बिठाना चाहते हैं उन्हें यह प्रचार करते रहना है। कितना आश्चर्यजनक है? मुझे तेरे लिए महाराज से कहना पड़ा पर जानवी केवल मुस्कराती है। हरि के लिए लोग दौड़ रहे हैं और दौड़ते रहेंगे।' 'अच्छी तरह विचार लो माँ.... मैं.....' कहते हुए मेघ अपने कक्ष की ओर चला गया। शुभा देवी चिन्तित हो उठीं। 'किसने रचा होगा यह षड्यंत्र ? कोई भी हो सकता है जो हरि के पक्ष में हो। महामात्य भी हो सकते हैं। कान्यकुब्ज छोड़कर भी वे अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेना चाहते हैं। मेरे जीवन में क्या केवल......।'
कारु चुपचाप खड़ी थी। वह भी इस प्रचार से दुःखी है पर निदान की बात आते ही कोई विकल्प नहीं सूझता। राज गृह षड्यंत्रों के केन्द्र होते हैं, यह वह सुनती आई है। आज एक प्रारूप सामने है।