Shakunpankhi - 21 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 21 - दिए जले

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शाकुनपाॅंखी - 21 - दिए जले

29. दिए जले

'कला भारती' से प्रतिष्ठित रानी शुभा देवी ने देखा कि राज प्रासाद गोधूलि होते ही जगमगा उठा । दीपमालिकाएँ सजाई जा रही हैं। दीपोत्सव का हेतु क्या है? उसने कारु से पूछा। 'पता करती हूँ स्वामिनी', कहकर कारु दौड़ गई। शुभा अलिन्द में टहलने लगी ।
दौड़ती हुई कारु लौटी। कुछ कहने के पहले वह फफक पड़ी, शुभा ने पूछा, "क्या हुआ कारु ।' कारु बोल न पाई । सिसकियां रुक न सकीं। 'स्वामिनी,' बड़ी मुश्किल से कह पाई कि सिसकियाँ फिर तेज़ हो गई। 'कुछ तो बता । बात क्या है? रो क्यों रही है?' शुभा देवी स्वयं चकित थीं। 'स्वामिनी, चाहमान नरेश गज़नी के सुल्तान से पराजित हुए ।' कहकर कारु फिर रो पड़ी। 'इसमें दीपोत्सव का औचित्य?’ शुभा देवी आहत हुई । 'चाहमान नरेश की पराजय में दीपोत्सव ? संयुक्ता का कोई ध्यान नहीं उसने स्वेच्छा से वर क्या चयन किया कान्यकुब्ज से बहिष्कृत हो गई। उसकी क्या दशा होगी? कुशल से है या नहीं? उसने सम्मानपूर्वक जीना सीखा था। उसी का प्रतिदान कान्यकुब्ज दे रहा है। उसकी विपत्ति में दीपोत्सव ? ईर्ष्या क्या न करा ले? मुझे महाराज से पूछना है। आपको चाहमान पराजय से प्रसन्नता हो रही है और संयुक्ता की कोई चिन्ता नहीं । नारी केवल सेविका बनने के लिए है? वह शृंगार की वस्तु है। यदि वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो जाए तो पुरुष का अहं आहत होता है।'
शुभा देवी जलते हुए दीप देखती रहीं । दीपों की काँपती लौ में उन्हें कान्यकुब्ज का भविष्य भी काँपता दिख रहा है।
'महामात्य विद्याधर ने महाराज को परामर्श क्यों नहीं दिया? क्या उन्हें भी उचित अनुचित का भान नहीं रह गया है? क्या सम्पूर्ण जन-मानस सहजता से दीपोत्सव मना रहा है?" देवी विचार करती रहीं । कारु अब भी किनारे खड़ी सिसक रही है। चाहमान नरेश का मुखमण्डल उसके मस्तिष्क में उभर आता है। 'पराजय के बाद महाराज का क्या हुआ होगा?' वह सोचती रही।
'कारु', शुभा ने पुकारा ।
'स्वामिनी' कहकर कारू सामने थी ।
'देख, महामात्य विद्याधर हैं? यदि हों तो कहना महारानी मिलना चाहती हैं।' कारु दौड़ गई । वह भी और कुछ जानना चाहती है। महाराज किस स्थिति में हैं? रानी जू का क्या हुआ? प्रजा का क्या हाल है? तुरुष्क मंदिरों को तोड़ देते हैं। क्या अजयमेरु के मंदिर सुरक्षित हैं? क्या दिल्लिका की मिहिरपल्ली, वेधशालाएँ बच पाई? पर कौन बताए? जब तक चाहमान नरेश का कोई भट न मिले, ये सूचनाएँ कैसे मिल सकेंगी? उड़ती सूचनाएँ तिल का ताड़ बना देती हैं। किवदंतियों से तथ्य का पता कहाँ चल पाता है ? पर पता चले तो कैसे? वह दौड़ती हुई जा रही थी। कंचुकी से पूछ बैठी, 'महामात्य हैं?"
'नहीं, वे कांपिल्य गए हैं', कंचुकी ने बताया। 'आपने कुछ सुना?' वह फिर बोल पड़ी।
“क्या?' कंचुकी ने उसे देखते हुए कहा । 'महाराज चाहमान नरेश के संबंध में कोई सूचना?"
" हार गए हैं, यही सुना है ।'
"और कुछ ?"
'कुछ भी नहीं ।' कारु उलटे पावों लौट पड़ी। शुभा देवी को बताया कि महामात्य कांपिल्य गए हैं। वे चिन्तित हो उठीं। सूचनाएँ किससे मिल सकेंगी। वे विचार करती रहीं । | शुभा प्रासाद के अन्तिम खण्ड पर चढ़ गई। पीछे पीछे कारु भी । दोनों ने गंगा की ओर निहारा । नील लोहित आकाश में प्रकाश कम होता जा रहा है। पक्षी जल्दी अपने घोंसलों की ओर भाग रहे हैं।
गंगापार का वन प्रदेश चिड़ियों की चहचहाहट से गुंजायमान है। गंगा का शुभ जल वेग से हरहराता बह रहा है। उसमें नावों पर चढ़े लोग गंतव्य तक पहुँचने की जल्दी में हैं। नदी तट पर बने भवनों से दीपोत्सव की छाया जल में पड़ती है। लगता है नदी में असंख्य दीप जल उठे हों। मछुवारे नावें लेकर नदी में कूद पड़े हैं, अथाह जल में मछलियों को ढूंढ़ने । नदी का जल बढ़ गया है। घाट की अधिकांश सीढ़ियाँ डूब गई हैं। उत्तर पश्चिम दिशा की ओर दृष्टि जाती है तो जल का ओर-छोर नहीं दिखता । घाट पर अपनी पताका फहराने वाले पंडे और ऊपर खिसक आए हैं।
नगर की वीथियों में लोग आ जा रहे हैं। शुभा और कारु देर तक गंगा की अगाध जलराशि को निहारती रही। उन्हें प्रकृति के सान्निध्य ने थोड़ी राहत दी । पर मन 'रानी जू' और पृथ्वीराज के संदेशों में लगा है। दोनों उतरीं। आकर अलिन्द में टहलने लगीं।
नगर वीथियों में दीप तो जल गए थे पर लोग अक्सर पूछते, 'क्या हुआ भइए?” ‘महाराज की आज्ञा है', कहकर लोग पिंड छुड़ाते । न चाहते हुए भी लोग दीप जला रहे थे। कुछ लोग दीपोत्सव का विरोध करना चाहते थे पर महाराज से पंगा लेना विपत्ति मोल लेना था । एक अर्द्धपागल व्यक्ति ज़रूर चिल्ला रहा था, 'चाहमान की हार पर कैसा दीपोत्सव ?' नगर में कुछ चाहमान परिवार भी थे ।
वे बहुत दुःखी थे, पर कुछ भी करना अपने को विस्थापित करना था। सावन और कजरी का गायन नहीं हुआ। रात्रि में नारियाँ झूले पर नहीं बैठीं। बच्चों की किलकारियाँ नहीं गूंजी। तुरुष्कों से यह नगर भी पीड़ित रहा है। जिनके घर लुटे थे, उसमें बहुत से अभी जीवित थे। दीप तो जले पर मन भारी रहा। कइयों के घर तो चूल्हे नहीं जले । राजा की अवज्ञा नहीं हो सकती थी। पर हर्ष और विषाद प्रकट करने पर तो उनका अधिकार है। कल जाने क्या हो यह संकट कान्यकुब्ज पर न टपक पड़े।
जनता तुरुष्क दण्ड भरती है। पर आज तुरुष्क विजय पर दीपोत्सव ? कहीं जन सहमति नहीं दीखती । यह तो कहिए विद्याधर कांपिल्य में थे, नहीं तो उन्हें अपार कष्ट होता । वे राजकुल के कलह से अपने को दूर ही रखना चाहते पर महामात्य थे, कब तक बचते?
महाराज कान्यकुब्ज नरेश अत्यन्त प्रसन्न थे । दीप जलने के बाद उनके पांव शुभा के अन्तःकक्ष की ओर बढ़ गए। प्रतिहारी ने रानी को महाराज के आगमन की सूचना दी। वे महाराज का स्वागत कर कक्ष में ले आई। महाराज आसन्दी पर बैठे, एक दूसरी आसन्दी पर वे भी बैठ गई।
'आज प्रसन्नता का दिन है । तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए।'
'क्या इसलिए कि तुरुष्क शासक की जीत हुई?"
'नहीं, इसलिए कि पृथ्वीराज की हार हुई ।'
'पृथ्वीराज के प्रति इतनी वितृष्णा ।'
'वह तो होना ही था । यदि तुम प्रशासक होती तो समझ सकती ?”
"क्या प्रशासक के पास हृदय नहीं होता?"
'होता है पर भावनाओं से प्रशासन नहीं चलता ।'
‘क्या संयुक्ता के प्रति कोई ममत्व नहीं?"
'मैं उसे भूल चुका हूँ। तुम उसका स्मरण मत कराओ।'
"क्या इसलिए कि आपके अहं को ठेस लगती है?"
‘अवश्य।’
“एक पिता इतना निर्मम हो सकता है यह आज जान सकी', शुभा की पीड़ा झलक उठी ।
'प्रिये, तुम्हारे दुःखी होने का कोई कारण नहीं है। आज तो मैं तुम्हारें नूपुरों की ध्यनि सुनने आया हूँ ।'
'यह संभव नहीं है महाराज । अशान्त मन से सुर ताल की साधना संभव नहीं हो पाती। क्षमा करें।’
'मेरे हृदय में भी झांक कर देखो प्रिये! मेरे दग्ध हृदय को जो शान्ति मिली है, उसका मैं वर्णन नहीं कर सकता। वह दीपोत्सव तो उसका एक बिम्ब है।'
'पर मेरा मन इस दीपोत्सव को भी स्वीकार नहीं कर पा रहा।'
'क्योंकि तुम संयुक्ता से अपने को अलग नहीं कर पा रही।'
'महाराज को संभवतः यह जानने की भी इच्छा नहीं कि उसका क्या हुआ ?" '
कहा न, उसका स्मरण मत कराओ। उस अध्याय को मैं समाप्त कर चुका हूं।’
‘एक महाराज अपने को पुत्री से अलग कर सकता है पर माँ?’
'माँ के लिए भी कान्यकुब्ज का हित सर्वोपरि होना चाहिए। उठो कान्यकुब्ज की ओर देखो ।' महाराज ने ताली बजा संकेत किया। सेविका ने आकर माथ नवाया ।
'कादम्ब', महाराज के मुख से निकला। सेविका दो पात्रों में कादम्ब लेकर उपस्थित हुई। महाराज ने एक पात्र उठाकर शुभा के ओठों पर लगाना चाहा पर शुभा की ओर से कोई पहल न होने पर उन्हें झटका लगा। उन्होंने स्वयं एक पात्र खाली कर दिया। शुभा उठ पड़ी, उसने दूसरा पात्र भी महाराज के ओठों पर लगा दिया। उस पात्र का कादम्ब भी वे गटागट पी गए ।
'मुझे नृत्य देखना है । तुम दुःखी हो, ठीक है', उनकी ज़बान लड़खड़ाने लगी । ‘कारु को बुलाओ। आज मैं उसका नृत्य देखूँगा । उसे तो आज नाचना ही पड़ेगा ।' ‘कारु?” उन्होंने स्वयं ही पुकार लिया। सेविका दौड़कर कारु को बुला लाई । कारु माथ नवाकर खड़ी हो गई। ‘कारु आज हम तुम्हारा नृत्य देखेंगे। नाचो, मेरे सामने नाचो ।' 'कारु के लिए इन्कार का कोई प्रश्न ही नहीं था । उसके दुःख की कोई सीमा नहीं थी । महाराज पृथ्वीराज और संयुक्ता दोनों से वह गहरे जुड़ी थी ।
उनकी विपत्ति उसकी अपनी विपत्ति थी पर वह तो सेविका थी। सेविका का दर्द कोई अर्थ नहीं रखता। उसे नाचना है, नाचेगी, शुभा ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। महाराज, महाराज हैं। उनका आदेश..... । कारु वस्त्र बदल घुंघरू बांध उपस्थित हुई । हृदय की पीड़ा फूट पड़ी। वह गीत रचती थी । गा उठी-
रैन अंधेरी बादर बरसै कैसे दिया जलै गिरधारी ?
महाराज ताल देने लगे। उसके पांव थिरक उठे। आज बहुत दिन बाद उसने घुँघरू बांधा था। हृदय की अथाह पीड़ा घुंघरूओं के माध्यम से झनझना उठी। जब उसके पांव रुके, महाराज को नींद आ चुकी थी। उसने महारानी को शीश नवाया । अपने कक्ष में आ गई। आते ही वह फूटकर रो पड़ी। आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। सावन की रात, धारासार वर्षा शुरू हो गईं।