Prem Gali ati Sankari - 77 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 77

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प्रेम गली अति साँकरी - 77

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उद्विग्न, विचलित मन का नक्शा जिसमें न जाने कौन कौन से अनजाने शहर, गाँव, गलियों का बसेरा था | जिनमें बंद होते, खुलते दरवाज़े थे, जिनमें प्यार की कोमल संवेदनाएं थीं और कुछ ऐसी फुलझड़ियाँ जिन्हें ज़रा सी आँच मिली नहीं कि फटने को बेकरार थीं लेकिन सब कुछ ऐसे हालत में तब्दील होता जा रहा था जो मूक दर्शक सा बन अपने आपको समर्पित कर रहा था विश्व के उस उलझाव में जिसे विधाता ने गडा था और जो शायद -----नहीं, शायद नहीं, सच ही अपनी ही बनाई कठपुतली यानि इंसान को एक ऐसा पाठ पढ़ाना चाहता था जो किसी डंडे की चोट से या किसी धारदार नुकीले हथियार से भी अधिक पीड़ादायक था | 

19-20 में शुरू होने वाले इस वायरस की लहर  ने कैसा हा-हाकार मचाया कि पूरे विश्व का नक्शा ही बदल गया | भारत में सभी पर्यटक वीज़ा निलंबित कर दिए गए | इसका कारण था कि अधिकतर मामले अन्य देशों से लौटने वाले लोगों में पाए गए थे | जो लोग भारत से बाहर घूमने अथवा किसी काम से गए हुए थे उनके व उनके परिवार वालों की मानसिक स्थिति बहुत शोचनीय थी | 

हमारे संस्थान में एक जापानी लड़का चिकाओ कई माह से सितार सीख रहा था | वह हर वर्ष आता और लगभग तीन माह भारत में ही शोध करता था | परिवार जापान में ही था और जैसे हमारे परिवार से लोगों का जुड़ाव सहज रूप से हो जाता है, इससे भी हो गया था | लगभग पाँच वर्षों से हर वर्ष वह तीन माह संस्थान में सितार की प्रेक्टिस करता | अम्मा ने उसे आचार्य प्रमेश के हवाले कर रखा था और इसमें कोई संशय नहीं था कि प्रमेश बहुत अच्छे अध्यापक सिद्ध हुए थे | चिकाओ हिन्दी बहुत अच्छी तरह बोलता और अपने गुरु प्रमेश से बंगला में भी बातें कर लेता | अपने पंजाबी दोस्तों के साथ पंजाबी में बातें कर लेता | एक बार वह गुजरात और साउथ गया, वहाँ से उन भाषाओं के कुछ ऐसे शब्द सीखकर आ गया जो हमें भी समझ में नहीं आते थे | सरल स्वभाव के इस लंबे जापानी लड़के की इच्छा जैसे सबकी भाषाएं और बोलियाँ सीखने की होती | सब भाषाओं की प्राइमरी किताबें उसने लाकर जमा कर ली थीं और उन्हें अपने साथ जापान ले गया था | 

इस बार शायद उसे मुंबई में कुछ काम था इसलिए अपनी जापान लौटने की फ़्लाइट उसे मुंबई से लेनी थी | जब उसके लौटने के दिन करीब आने लगे, कोरोना के कारण उसे दिल्ली से मुंबई की कोई उड़ान ही नहीं मिल रही थी | उसका जापान लौटना भी ज़रूरी था और उसकी उड़ान मुंबई से थी | जब तीन महीने पहले वह आया था तभी रिटर्न टिकट लेकर हर बार की तरह ही आया था | इस अचानक बंदिश से वह परेशान हो गया और उसने अम्मा से बात की | अब वह संस्थान भी नहीं आ पा रहा था | अम्मा-पापा से फ़ोन पर बात करके उसने रिक्वेस्ट की कि उसके लिए कोई गाड़ी व ड्राइवर का इंतज़ाम कर दिया जाए जिससे वह मुंबई से अपनी फ़्लाइट पकड़ सके | दिल्ली से मुंबई की फ़्लाइट्स रद्द हो गईं थीं | वह ऐसा समय था कि कोई फ़्लाइट जाती तो पता चलता कि अगले दिन वही फ़्लाइट बंद हो गई है | अम्मा ने संस्थान की ज़रूरत के अनुसार गाड़ियों की व्यवस्था का पूरा भार उत्पल पर ही छोड़ा हुआ था | उसके पास इतनी गाड़ियों की व्यवस्था रहती कि जितने भी विदेशी डेलीगेट्स संस्थान में आते-जाते सबके आने-जाने की व्यवस्था उत्पल चुटकियों में कर लेता | अम्मा ने चिकाओ के मुंबई जाने की व्यवस्था करने के लिए उत्पल से कहा लेकिन संभव ही नहीं हो पाया | इतने लंबे रास्ते के लिए कोई भी खतरा उठाकर ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ | दुगना, तिगना –कितना भी अधिक पैसे का लालच देने पर भी | वैसे तो सरकारी आज्ञा मिलनी ही मुश्किल थी और यदि किसी कारण मिल भी जाती तो जान जोखिम में डालने के लिए कोई भी तैयार नहीं था, जो बड़ी स्वाभाविक सी बात थी | 

चिकाओ बहुत ऊपर-नीचे हो रहा था | उसकी वहाँ की यूनिवर्सिटी में शोध सबमिट करने का समय पास आ रहा था, जिसकी उम्मीद थी कि संभवत:जापान में भी अभी काम-काज बंद होने के समाचार आ गए थे क्योंकि वहाँ भी काफ़ी केसेज़ आ चुके थे लेकिन उसकी परेशानी यह थी कि उसकी पत्नी गर्भवती थी जिसे छोड़कर वह आया था और अब उसे चिंता थी कि वह अकेले उस स्थिति को कैसे संभालेगी क्योंकि उसकी माँ और भाई दूसरे शहर में रहते थे और उनका उसकी पत्नी के पास आना संभव नहीं था | बेचारा चिकाओ बड़ी चिंता में था और किसी न किसी प्रकार अपने घर पहुँचने की कोशिश करने के युद्ध में लगा हुआ था | 

अम्मा ने एम्बेसी में बात की, पता चला दिल्ली में ही लगभग 120 जापानी ऐसे अटके हुए हैं जिनके परिवार जापान में हैं और जिन्हें अपने घरों में पहुँचने की जल्दी है | यूँ तो पूरे विश्व में ही इस प्रकार की समस्याएं थीं लेकिन इनमें कुछ जापानी ऐसे थे जो सरकारी योजनाओं के लिए आए थे और यहाँ पर आकर अटक गए थे, जिन्हें किसी न किसी कारण विशेष से अपने घरों में पहुंचना बेहद जरूरी था | यह काम बड़ी टेढ़ी खीर था लेकिन जब सर्वे के बाद पता चला कि इतने जापानी यहाँ अटके हैं और उन्हें किसी न किसी कारण से मुंबई से वापिस जाना था जो परिस्थिति को देखते हुए अब जाना संभव नहीं था लेकिन एम्बेसी ने उन सबकी मुंबई की टिकिट्स कैंसिल करके यहीं दिल्ली से उनके लिए एक ‘सेनेटाइज़ प्लेन’ की व्यवस्था की और दिल्ली से ही उन सभी जापानियों की उड़ान का इंतजाम कर दिया गया | चिकाओ को भी इन जापानियों के साथ जापान पहुँचने का मौका मिल गया | अम्मा ने एम्बेसी में उसके लिए बात कर ही ली थी | जापान पहुँचकर उसने अम्मा को धन्यवाद किया व यहाँ से जापान पहुँचने की यात्रा का जैसे आँखों देखा हाल, सब कुछ साझा किया कि सभी जापान जाने वाले यात्रियों को ले जाने के लिए एक सेनेटाइज़ बस भेजी गई थी और पूरे एहतियात के साथ उन्हें जापान ले पहुंचाया गया था | वह भारतीय सरकार की प्रशंसा कर रहा था और अम्मा को बार-बार धन्यवाद देता रहा था कि यदि वे एम्बेसी में बात न करतीं तो उसका जापान पहुंचना मुश्किल ही नहीं असंभव ही था | 

चिकाओ के सही-सलामत अपने घर पहुँचने पर अम्मा-पापा कितने संतुष्ट हुए जैसे उनका अपना बच्चा ठीक-ठाक अपने घर पहुँच गया हो | इस प्रयास में उत्पल भी अम्मा के साथ लगातार बना रहा | उसका दूसरों के लिए मुस्कुराते हुए कुछ भी कर जाना, उसके ब्यक्तित्व का बहुत अहम् हिस्सा था | जहाँ कुछ लोग किसी ‘इमर्जेंसी’के काम के आ जाने से छिटकने लगते थे, वहीं उत्पल सामने आकर डट जाता और किसी भी काम के लिए अपना दिलोजां लगाने केलिए तत्पर रहता | पहले मुझे लगता था कि वह ऐसा व्यवहार दिखाने के लिए करता है किन्तु धीरे-धीरे उसका मूल स्वभाव सबको पता चल गया | हमें, दरसल अपने से जुड़े हुए लोगों पर दिल से गर्व था कि आज की दुनिया में हमारे पास सच्चे हीरे से लोग थे | वह मेरे पास भी आ जाता था और अपनी शैतानियों से कभी-कभी ऐसी ही कोई हरकत करता कि मुस्कान आ ही जाती | 

सबका भाई से मिलने का बहुत मन था, उसने बताया था कि यू.के में मास्क लगाने पर इतना ज़ोर नहीं था जितना डिस्टेनसिंग पर | हम यहाँ कुछ भी चीज़ बाज़ार से लेने नहीं जाते थे, सब कुछ ऑन लाइन आ जाता था | यहाँ काफ़ी लोग थे जो सारा काम बड़ी सावधानी से हाथों हाथ संभाल लेते लेकिन भाई बताता था कि वे लोग सुपर मार्केट सामान खरीदने जाते हैं और डिस्टेनसिंग के लिए दूर-दूर बनाए गए खानों में खड़े रहकर अपना नं आने के बाद सामान लेते थे | उसी प्रकार पेमेंट के लिए भी लोग काफ़ी दूर-दूर खड़े हुए मिलते | अम्मा-पापा को, विशेषकर अम्मा को भाई की अधिक चिंता होती और वे कहतीं कि क्या अच्छा होता अगर उनका बेटा  उनके पास ही रहता | कभी-कभी तो वे बहुत चिंता में डूब जातीं | तब उनका दूसरा सो कॉल्ड बेटा उत्पल उनका मन बहलाने की कोशिश करता | 

उत्पल उनका बेटा था लेकिन मेरा भाई नहीं था जो केवल वह और मैं ही जानते थे लेकिन वह जितना मेरे पास आने की कोशिश करता, मैं उससे दूर जाने की कोशिश में लगी रहती | परिस्थिति कठिन थी, सबके लिए थी लेकिन मन में केवल भय के और क्या बदलाव थे?बेशक इस समय में भयभीत मनुष्य अपने भविष्य के बारे में सोचने से भी घबरा रहा था लेकिन मन का तंबूरा तो भीतर ही भीतर बज ही रहा था | इंसान की मानसिक और शारीरिक तृष्णा में समय के अनुरूप बदलाव आ सकता है लेकिन संवेदनाएं बिलकुल मर जाएं ऐसा तो हो ही नहीं सकता | न जाने उस ईश्वर नामक, क्या कहूँ उसे न तो बंदा और न ही और कुछ---खैर, जो भी है उसने हमारे शरीरों में ऐसी क्या संवेदनाएं जोड़कर हमें तैयार किया है कि हर स्थिति, परिस्थिति में वे जमी ही तो रहती हैं | 

उत्पल आ ही जाता मेरे सामने और मुझे ऐसी दृष्टि से देखता कि चुप हो गया मेरा मन फिर से मुझसे गुफ्तगू करने लगता | इतना सब कुछ जानने के बाद भी मैं उससे बिलकुल विमुख क्यों नहीं होने पाई थी? उसे देखती, मन भ्रमित होता लेकिन फिर उसके प्रति संवेदना से भर उठता | सोचती, चलो ---जो भी कुछ उसके साथ हुआ, उसने मुझसे ईमानदारी से शेयर कर दिया लेकिन पहले भी मैं उसे बता चुकी थी कि मेरा और उसका भविष्य साथ में तो चल ही नहीं सकता था | मैं और वह रेल की दो ऐसी पटरियाँ थे जो एक-दूसरे को देख तो सकते थे लेकिन मिलना संभव ही नहीं था इसीलिए तो मैं अपनी डगर बदलने के लिए तत्पर थी लेकिन समय के बदलाव ने मुझे जकड़ रखा था | 

इस महामारी ने और भी मुझे और उत्पल को सामने रखने के कारण तैयार कर लिए थे | वैसे तो इस महामारी की दरें घटती, बढ़ती रहती थीं | विश्वस्त सूत्रों द्वारा बताया गया था कि 12 मार्च को सऊदी अरब से लौटने वाले एक 76 वर्षीय की मृत्यु को देश में होने वाली पहली मृत्यु थी | इस तारीख के बाद तो न जाने कितने लोग हर दिन जान गँवा रहे थे | 1अप्रैल से 31 मई तक सबसे कठिन समय रहा | 22 मार्च को काफ़ी प्रदेशों में लॉक डाउन लगाने से मानसिक रूप से लोग और भी अशक्त पड़ने लगे थे | इन दिनों उत्पल हर दिन मेरे पास आकर बैठता, वैसे तो सब यही कोशिश करते थे कि थोड़ी दूरी रखकर ही सब बैठें |