Shakunpankhi - 16 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 16 - आग रात भर जलती रही

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शाकुनपाॅंखी - 16 - आग रात भर जलती रही

23. आग रात भर जलती रही
तराइन के मैदान में पानी की सुविधा देखकर सेना के शिविर लगने लगे। भण्डारी अपने अपने सैन्य दलों के लिए भोजन की व्यवस्था में लग गए। शिविर पाल शिविर को व्यवस्थित करने में व्यस्त हो गए। घोड़ों की काठी खुल गई। अश्वारोही रक्षाकवच उतारकर समूहों में बैठकर विश्राम करने लगे। सरसुती नदी के किनारे कोसों तक सैन्य शिविर ही दिखाई पड़ने लगे ।
महाराज ने सायंकाल सामन्तों एवं सेनाध्यक्षों को बुलाकर मंत्रणा की । राजकवि चन्द का अभाव उन्हें खटकता रहा। तब तक चन्द के सहयोगी आ उपस्थित हुए। उन्होंने महाराज से कहा 'महाराज, आचार्य चन्द को रावल हाहुलीराय ने जालपा देवी के मंदिर परिसर में बन्दी बना लिया है। उनके प्रहरी वहाँ सुरक्षा पर नियुक्त हैं।' उन्होंने सम्पूर्ण विवरण ब्यौरेवार कह सुनाया। महाराज को बहुत दुःख हुआ । 'हाहुलीराय स्वयं तो गया ही, आचार्य चन्द को भी हमसे अलग कर गया।' महाराज के मुख से सहसा निकल गया। राजर्षि सामन्त सिंह ने प्रस्ताव रखा, 'शाह को यह सन्देश भेजा जाय कि यदि वह अब भी ग़ज़नी लौट जाता है तो हम उसका पीछा नहीं करेंगे।'
'पर हाहुलीराय का प्रतिशोध,' अनेक सामन्त बोल उठे।
'उससे बाद में निबटा जाएगा, राजर्षि ने कहा। एक चर ने आकर बताया कि शाह की सेनाएँ सरस्वती के उस पार अपना शिविर लगा रही हैं। अनुमान है कि उनकी सेना सवा लाख के आसपास होगी। अधिकतर अश्वारोही तीर-कमान वाले हैं। घुड़सवारों की संख्या अधिक है। राजर्षि सामन्त सिंह चामुण्डराय, जैतराव परमार और महाराज पृथ्वीराज देर तक चर की सूचना का विश्लेषण करते रहे। एक शक्तिशाली हम्ज़ा के ही कदकाठी के दाहिमा अश्वारोही को संदेशवाहक का काम सौंपा गया। यह भी संकेत किया गया कि शाह की सेना और उसकी रणनीति के बारे में जो जानकारी उपलब्ध हो सके, उसे प्राप्त कर शीघ्र लौटे ।
प्रातः पत्र लेकर अश्वारोही उड़ चला। कोसों निकल जाने पर शाह के खल्जी प्रहरी दिखाई पड़ने लगे। मार्ग के निकट एक अश्वारोही खड़ा था। दाहिमा को देखकर उसने पूछा, 'कहाँ जा रहे हो?"
'सुल्तान को महाराज पृथ्वीराज का संदेश देने,' दाहिमा अश्वारोही ने उत्तर दिया।
अश्वारोही ने सरसरी नज़र दौड़ाई।
'जाओ' उसने कहा। दाहिमा वीर ने एड़ लगा दी। कुछ ही समय में दाहिमा अश्वारोही सुल्तान के शिविर के सम्मुख पहुँच गया। सुल्तान के प्रहरियों ने उसे घेर लिया। 'मैं महाराज, पृथ्वीराज का दूत हूँ। सुल्तान के लिए संदेश लाया हूँ।' प्रहरी उसे सुल्तान के शिविर में ले गए।
सुल्तान अपने शूरों, अमीरों के साथ बैठक कर रहा था। प्रतिहारी ने आकर सिर झुकाया और कहा, 'हिन्द के राजा पृथ्वीराज का कासिद आया है।' 'हाज़िर करो', सुल्तान ने कहा।
दाहिमा वीर, प्रहरी के साथ हाज़िर हो सुल्तान को सिर झुका अभिवादन किया।
'तो तुम राजा पृथ्वीराज का पैग़ाम लाए हो?" सुल्तान ने पूछा।
'हाँ', कहते हुए दाहिमा वीर ने पत्र आगे बढ़ा दिया। हाहुलीराय भी सभा में बैठे थे। सुल्तान ने हाहुली की तरफ पढ़ने के लिए इशारा किया। हाहुली ने पत्र लिया, खोलकर पढ़ने लगे,..... 'तुम अपने देश को लौट जाओ, हम पीछा नहीं करेंगे.....।'
पत्र सुनते ही सुल्तान ठठाकर हँस पड़ा। सुल्तान के हँसते ही पूरी सभा हँसने लगी। सुल्तान देर तक हँसता रहा.... हँसता रहा। अचानक गंभीर हो कर सुल्तान ने दाहिमा की ओर मुखातिब हो कहा, 'बहादुर घुड़सवार! तुम जा सकते हो। हम इसका जवाब अपने घुड़सवार से भेजेंगे।' दाहिमा सुल्तान की सेना का आकलन करते हुए लौट पड़ा।
सुल्तान ने बैठक बर्खास्त की। अपने प्रकोष्ठ में आ गया। गुप्तचरों से उसे मालूम हुआ कि पृथ्वीराज के पास अभी सेना एक लाख से कम होगी, पर ज्यों-ज्यों देर होगी अन्य सामन्तों के आने से संख्या बढ़ सकती है। 'तो?' उसने स्वयं से प्रश्न किया। 'अभी फैसला करना है। यही वक़्त है, यही उसने मुट्ठी हवा में लहराई।
उसने कातिब को बुलाया। पृथ्वीराज के नाम एक चिट्ठी लिखवाई। चिट्ठी को एक रेशमी खरीते में बंद कराया। किसे भेजा जाए, इस पर सोचने लगा। हम्जा को ही दुबारा भेजना ठीक नहीं है। उसे शमसुद्दीन का ध्यान आया। चोबदार को इशारा किया। शमसुद्दीन को बुलाने कि लिए कहा। कुछ ही क्षण में शमसुद्दीन हाज़िर हुआ । 'तुम्हें हिन्द के राजा पृथ्वीराज को एक ख़त देकर आना है। यह भी पता करना है कि ख़त का असर उनकी फौज पर क्या पड़ता है?' बा-अदब शमसुद्दीन ने सिर झुकाया और ख़त लेकर चल पड़ा।
पृथ्वीराज अपने शिविर में सामन्तों के साथ बैठे हुए भावी रणनीति पर विचार कर रहे थे। सामन्त सिंह भी एक ऊँचे आराम दायक आसन पर बैठे थे। चामुण्ड, गुरुराम पुरोहित और जामराय व्यूह रचना की बात कर रहे थे। अग्र सेना का नेतृत्व किसे दिया जाए, इसी पर विचार हो रहा था। श्रावण का महीना, हवा एकदम बन्द थी। उमस से लोगों के चेहरों पर पसीने की बूंदें झलमला रही थीं। सामन्त सिंह ने चामुण्ड को ही अग्रभाग का नेतृत्व करने के लिए कहा। चामुण्ड ने कहा, 'मैं अग्र भाग में रहूँगा।' उनके साथ भारतराय, तिया परिहार, पुंज पहार, भीमराय सोलंकी, ठंटर राय और जंगली दाहिमा को लगाया गया। बाएं पक्ष में सामन्त सिंह ने स्वयं रहने का मन बनाया। उनके साथ मदन परिहार, कूरम्भ, पावस पुण्डीर, जामराय यादव ने अपनी सहमति दी।
दाएं पक्ष का नेतृत्व जैत परमार को सौंपा गया। उनके साथ अचलेश खींची, धीर परमार, चन्द्र सेन बड़गुज्जर, वीर सिंह, विजय बघेला, तेजल डोपिया अपने दलबल सहित रहेंगे।
यह निश्चित हुआ कि पृष्ठ भाग में गुरुराम पुरोहित के साथ महाराज स्वयं रहेंगे। उनके साथ गहलौतों का सैन्य दल रहेगा। महाराज को चन्द का अभाव खटक रहा था पर अब क्या किया जा सकता था?
सेना की संख्या जोड़ने पर तिरासी हजार हो रही थी। अग्रदल में चामुण्डराय के साथ उन्नीस हजार, बाएँ पार्श्व में राजर्षि सामन्त सिंह के साथ तेइस हजार और दाएँ पार्श्व में जैतराय परमार के साथ उन्नीस हजार तथा शेष बचे बाइस हजार को गुरुराम पुरोहित और महाराज के साथ पृष्ठ भाग में रखने की योजना बनी।
'क्या सेना का कुछ भाग सुरक्षित भी रहेगा? 'पावस ने पूछा।
'अभी नहीं। सामन्त निरन्तर आ रहे हैं। हमारी सैनिकों की आपूर्ति बन्द नहीं होगी। इस लिए सुरक्षित सैन्य बल की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।' चामुण्डराय ने अपना मन्तव्य प्रकट किया। सभी ने अपनी सहमति जताई।
'शाह इस बार शपथ लेकर आए हैं। हमें पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करना होगा।’ जैत परमार ने कहा।
‘परमार का आकलन सही है गुप्तचर भी यही सूचनाएं दे रहे हैं', सामन्त सिंह ने एक नज़र सभी पर डालते हुए संकेत किया।
"माँ शारदा की कृपा से हम विजयी होंगे,' चामुण्ड ने आश्वस्त किया। 'हर बार हार कर शाह अधिक तैयारी के साथ आए हैं। पहले हम उन्हें कई बार हरा चुके हैं, इसी से इस बार भी आसानी से हरा देंगे ऐसा सोचना ठीक नहीं है। हमें अपनी तैयारी चौकस रखनी चाहिए। जो सामन्त नहीं आ पाए हैं उन्हें थावक भेजकर सूचित किया जाए कि वे शीघ्र दल में शामिल हो।' जैत ने पुनः अपनी बात रखी। महाराज पृथ्वीराज अभी तक सबकी बातें सुन रहे थे। उन्होंने गुरुराम पुरोहित से कहा कि सामन्तों को आहूत करने के लिए तुरन्त धावक भेज दिए जाएं। गुरुराम ने यह उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। श्लोक पाठ से सभा समाप्त होने जा रही थी कि प्रतिहारी ने आकर माथ नवा कहा, 'महाराज, सुल्तान का संदेशवाहक चिट्ठी लिए द्वार पर खड़ा है।'
'उसे शीघ्र ले आओं,' महाराज ने कहा।
शमसुद्दीन ने आकर अदब के साथ झुककर प्रणाम किया।
'कहो, कैसी चिट्ठी लाए हो?" गुरुराम पुरोहित ने पूछा।
'शहंशाह का ख़त महाराज के नाम है।' खरीता निकालते हुए शमसुद्दीन ने कहा । महाराज के संकेत पर गुरुराम पुरोहित ने पत्र लिया। उसे कातिब को दिया। महाराज ने कातिब से पढ़ने के लिए कहा। पत्र पढ़ा गया।
'..... मैं अपने मालिक बड़े भाई के हुक्म से यहाँ इतनी तकलीफ सहते आया हूँ। मुझे मौका दीजिए जिससे किसी दानिशमंद को अपने भाई तक भेजूँ और उनसे इस शर्तनामा पर रजामन्दी हासिल करूं जिसमें सरहिन्द, पंजाब और मुल्तान हमारे कब्जे में रहे और बाकी आपके.....।'
पत्र सुनते ही सभा का वातावरण बदल गया। लोगों को लगा अब युद्ध करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। सबके चेहरे पर इत्मीनान की रौनक लौट आई। वातावरण का तनाव गायब हो गया। शमसुद्दीन सभी के हावभाव देखता रहा।
'ठीक है, अपने भाई से पूछ लें। इसमें हमें क्या आपत्ति हो सकती है।' महाराज ने उत्तर दिया। शमसुद्दीन ने सिर झुका प्रणाम किया और शिविर के बाहर हो गया।
विद्युत् की भांति सभी शिविरों में यह बात फैल गई। सैनिक आनन्द विभोर हो नाच उठे । शमसुद्दीन देखता गया। घोड़े को एड़ लगाई और कुछ समय पश्चात् सुल्तान के सामने उपस्थित हुआ।
चाहमान शिविर के आश्वस्ति भाव को सुल्तान से निवेदित किया। सुल्तान ने केवल 'हूँ' कहा और चुप हो गए। कुछ क्षण बाद शमसुद्दीन से कहा, 'तातार खां को भेजो।' शमसुद्दीन आदाब कर लौट पड़ा। सुल्तान शिविर में अकेला टहलता रहा। उसने अपनी योजना को अन्तिम रूप दिया। 'ठीक है दुश्मन इत्मीनान में है और मैं....... मेरे लिए सोना हराम है।' सुल्तान टहलता रहा।
'अपनी सेना को भी आज सोना नहीं है। यही मौका है.... अहम मौका ! ओ सूफी फकीर, तू ठीक कहता था, मैं अल्लाह की ख़ातिर जंग नहीं छेड़ता अपनी ख्वाहिश पूरी करने के लिए जंग छेड़ता हूँ या खुदा मुझे माफ़ करना। मैं तेरा नाम लेकर इस्लाम के सहारे अपनी नाव पार करना चाहता हूँ। तू बड़ा रहम दिल है। रहमाने रहीम है। मैंने जाल फेंका है अपने लिए..... अपनी जीत के लिए आज चौहान की फ़ौज आराम से सोएगी और मेरी फौज जगेगी..... रात भर जगेगी.... बुजुर्ग कहते आए हैं जो सोता है, वह खोता है, जो जगता है, वही पाता है। मैंने चौहान सेना को एक लोरी सुना दी है। वे आज रसरंग में डूबे खुशी मनाएंगे कि जंग टल गई और मैं रात भर जंग को धार देने में लगा रहूँगा।....... इसे दग़ा मत कहना मेरे रब....वे ग़ाफ़िल हैं तो मैं क्या करूँ?........ मैं अपना भला करने मैदान में उतरा हूँ, चौहान का नहीं.... यह जंग है मेरे मौला, मुझे मुआफ करना.....।
वह सूफी भी अजीब है..... हमेशा भाईचारे की बात करता है..... प्यार मुहब्बत की बात करता है....अब बताओ उसकी मान लें तो जंग ही न करें...सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात सब यहीं छोड़ दें। मुझे खजाना चाहिए मेरे मौला....कभी न चुकने वाला खज़ाना। पर इस जंग में सिर्फ खज़ाना ही नहीं.......चौहान को अपना ताबेदार भी बनाना है........कई बार हारा हूँ पर.....इस बार जिता दे मौला........मैं और कुछ नहीं चाहता........एक बार भी चौहान को बांध पाता.........मेरा दिल बाँसो उछल जाएगा, मेरे मालिक........रहम कर........यह आखिरी अर्ज है.......मुझे उस सूफी फकीर की बात कचोटती है, वह मुझे गुनहगार साबित करता है.... तू तो रहमाने रहीम है........ मैं बहुत नहीं जानता...बस इस बार फ़तह दिला दें.......तराजू की डंडी मेरी तरफ झुका दे मौला.... तू तो ऐसा कर सकता है...तू ही कर सकता है। मैं काफिरों को तेरी ख़िदमत में लिटा दूँगा....मेरी मदद कर मालिक......या खुदा...... रहम कर.... । सुल्तान ने खुदा की इबादत में घुटने टेके......। कुरान पाक की कुछ आयतें पढ़ी। पर मन अब भी सोच विचार में लगा रहा। हिकमत से फ़तह हासिल करनी है.....जंग में सब कुछ जायज़ है....है न? न भी जायज़ हो तो भी मुझे फतह के लिए यह सब नहीं देखना है..... लीक पर चलेंगे तो न जाने कितने दिनों तक ही भटकना पड़ेगा.....जो कुछ अपने हक में है वही ठीक है... सब कुछ अपने लिए करना है...... फतह के लिए.......देखो, मैंने थपकी देकर चौहानों को सुला दिया है या खुदा...।" सुल्तान को टहलते देख तातार खां ठिठका पर सुल्तान आहट पा चुके थे, पुकारा, 'तातार।'
'हाँ, मैं ही हूँ मालिक', तातार खां ने कहा 'आ जाओ' सुनते ही तातार खां अन्दर आ गया। दोनों मोढ़ों पर बैठ गए। धीमी आवाज़ में सुल्तान ने कहना शुरू किया, 'देखो तातार, हमें फतह हासिल करनी है। हमने चौहान को दांव दे दिया है। वे आज रात सोकर बिताएंगे और हम जगकर' सुल्तान ने तातार को पूरी योजना समझाई पर निर्देश दिया किसी को कानों कान खबर न हो। फौज को यही बताना है कि वह पूरी तरह चौकस रहे । जब भी उसे हुक्म मिले, कूच करे। आधी रात के बाद कोई सोता न मिले। उसी वक्त उन्हें ज़रूरी हुक्म दिया जाएगा। जिसको नींद लेनी हो, आधी रात के पहले ही पूरी कर ले। 'तातार खां पूरी फौज में ख़बर करा दो। तम्बुओं के आगे आग रात भर जलती रहे। कुछ लोगों को लगाओ जो इस काम को अंजाम दें।' तातार खां निकल कर सुल्तान के हुक्म की तामील में लग गया। जंगजू आपस में पूछते पर कोई बता न पाता। कुछ कहते हमें क्या? जंग करने आए हैं जो कहा जाएगा करेंगे।
सावन की रात, वह भी अमावस्या की । दस कदम पर भी साफ नहीं दिखता था। दादुरों की टर्र-टर्र और झींगुरों की झंकार से वातावरण में अजीब वहशीपन व्याप्त था आकाश में कुछ बादल थे पर चुप से शायद वे भी तराइन के मैदान की छानबीन कर रहे हों। शाह के शिविरों के आगे लकड़ी के कुन्दे जल रहे थे। कुछ लपट, कुछ धुवां, कुछ खटखट, खनखन की आवाज़। कोई तेगा ठीक कर रहा है कोई तीर, तरकश ।
सुल्तान अपने शिविर में प्रतीक्षारत बैठे हैं। थोड़ी देर होने पर वह उठकर टहलने लगे। पर तभी तातार खां के साथ चाहमान नरेश के मंत्री सोमेश्वर और प्रताप सिंह आ गए। तीनों ने सुल्तान को सिर झुका आदाब किया।
'क्या ख़िदमत की जाए?' सुल्तान ने मुस्कराते हुए पूछा। 'महाराज पृथ्वीराज के साईस को पटा लिया गया है। पहले तो वह बहुत ना नुकुर करता रहा पर थैली का असर हुआ। अब वह मदद करेगा। हाथी का महावत जरूर कब्जे से बाहर है पर इससे बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। महाराज अगर चंगुल में आ गए तो फिर कहना क्या?' सोमेश्वर ने बात पूरी की।
'लेकिन दगा न हो', सुल्तान ने कुछ तल्ख आवाज़ में कहा।
"हम आपसे दगा करेंगे! हम लोग कौल के पक्के हैं। आप देखेंगे कि कैसे हम आपकी मदद करते हैं? चाहमान नरेश को पकड़वाने में हम पूरी मदद करेंगे।' सोमेश्वर ने आँखें नचाते हुए कहा ।
"क्या ही अच्छा हो गर चौहान को हम जिन्दा पकड़ सकें। यही तो मेरी दिली ख्वाहिश है। मुझे भी उसके ऊपर आँख तरेरने का मौका मिलता या खुदा।' 'मिलेगा.... आप जिन्दा उन्हें पकड़ सकेंगे।' सोमेश्वर ने उचकते हुए कहा।
'काश, ऐसा हो पाता ! हिन्द के चौहान बड़े खुद्दार होते हैं। किसी का गुलाम बनने के पहले ही वे मौत को कुबूल कर लेते हैं। जिन्दा पकड़ना कितना मुश्किल है?" सुल्तान की आँखें चढ़ गईं। पर इस बार चौहान जिन्दा पकड़े जाएंगे। सूरज पश्चिम में उगेगा।' सोमेश्वर जैसे भविष्यवाणी कर रहे हों।
'गर तुम्हारी बात सच हुई तो मन मांगी मुराद मिलेगी', सुल्तान ने अपना दांव फेंका। "मैं खुद यह जिम्मा लेता हूँ', सोमेश्वर कहते हुए उठ पड़े। प्रताप सिंह भी खड़े हो गए। दोनों ने सुल्तान से हाथ मिलाया और शिविर से बाहर हो गए। तातार खां उन्हें भेजने कुछ दूर तक गए।
'चाहमान नरेश की मूँछ नीची होने में ही अपना भविष्य दिखता है....हमें पूरी शक्ति लगाकर शाह की मदद करनी चाहिए।' 'सोमेश्वर ने अश्व पर सवार होते प्रताप सिंह से कहा ।
'जो स्थितियाँ बन गई हैं, उसमें हमारा हित तो शाह की जीत में ही है', प्रताप सिंह ने भी घोड़े की रास खींचते हुए उत्तर दिया।
'हम चाहमान मंत्री हैं पर हमारी शक्ति कितनी है? राजा जो चाहे कर लेता है। हम देखते रह जाते हैं। हम अपने लिए कुछ करना चाहें तो सौ बाधाएँ। राजा को महत्त्व देना मेरी दृष्टि में बहुत ठीक नहीं है। पर चल रहा है। राजा को देवता बना दिया गया और मंत्री कहने को आठ-दस होते हैं पर कुछ ही राजा की गोद में बैठ कर सब कुछ निबटा देते हैं। चाणक्य भी एक मंत्री था। शासन का पत्ता भी उसके बिना नहीं हिलता था। राजा स्वयं उसका अनुगत था।' सोमेश्वर बोलते गए । 'पर चाणक्य स्वयं कैसे रहता था इसका वर्णन तो पढ़ा होगा। ऐसे निस्पृही आमात्य अब कितने हैं? स्खलन सभी में हुआ है।' प्रताप सिंह बोल उठे। 'हम लोगों को अपना हित साधना है।' सोमेश्वर के मुख से निकल गया ।
"पर देश और समाज में हमारी किरकिरी अवश्य होगी।' प्रताप ने जोड़ा।
'जो जीत जाता है जनता उसके साथ भागने लगती है, जानते हो।'
'पर कहीं नीति- अनीति का भी प्रश्न उठता है?"
“छोड़ो इसे। नीति-अनीति जाए भाड़ में' कहते हुए सोमेश्वर ने एड़ लगा दी। प्रताप का अश्व भी बढ़ चला ।
चाहमान शिविर आश्वस्त होकर रस रंग में लग गया। गुप्तचर भी शिथिल हो गए। सैनिक खा पीकर गोल बना ढोलक के साथ कजरी-
माइ तलवा मा बोले तलमोरवा
कि सावन दुइ रे दिना ।
माइ तोरी बेटी कुहुकै ससुरवा
कि सावन दुइ रे दिना ।
कहीं देवी गीत गा लोगों का मनोरंजन करने लगे। कहीं झूमर से लोग झूम उठे -
यहि ठइयां टिकुली हेराइ गइ गोंइयां ।
कुअना प हेरउ, जगतिया प हेरेउ,
महरा से पूछत, लजाय गइउं गोइयां ।
कहीं रसिया के बोल लोगों को अभिभूत कर उठे-
जल भरहु झकोरि झकोरी,
कहीं भोजपुरी, अवधी, कौरवी के गीत, कहीं स्वांग सब कुछ रसपूर्ण, सहज ।
महाराज भी जगते रहे। संयुक्ता के संवाद उन्हें याद आते- मैं भी साथ चलूँ...... मुझे भी.....' बीच बीच में सैनिकों के भजन कीर्तन भी सुनाई पड़ जाते पर मन में आश्वस्ति भाव न आ पाता। उन्हें ध्यान आया कि शाह बिल्कुल चुप बैठ गया है, यह सूचना उन लोगों ने दी जिन पर चन्द ने अविश्वास व्यक्त किया था। क्या यह सूचना कपटपूर्ण हो सकती है? मन थोड़ा ठिठका। इसकी परख होनी चाहिए। उन्होंने चामुण्ड को बुलवाया। अपनी आशंका व्यक्त की। चामुण्ड ने घुड़सवारों के एक दल को पता लगाने के लिए भेजा। दल तुरन्त चल पड़ा। चामुण्ड राय भी अपने शिविर की ओर चल पड़े। महाराज कुछ आश्वस्त हुए। उन्हें झपकी लग गई। टोही अश्वारोही दल शाह के शिविर के कुछ पहले की रुक गया एक झुरमुट की आड़ से आहट लेने लगा। दल ने देखा कि शिविरों के आगे आग जल रही है सैनिक जहाँ-तहाँ विश्राम कर रहे हैं। कहीं लोग कुछ भून रहे हैं। दल वहीं खड़ा रह कर टोह लेता रहा। आगे बढ़ने पर वेश बदल कर ही कुछ ज्ञात किया जा सकता था। इस तरह की कोई तैयारी थी नहीं। इसीलिए दल वहीं से अपने अनुमान को पक्का करता रहा। आधी रात हो चुकी थी शिविर में कोई हलचल नहीं थी। टोही दल आश्वस्त होकर लौट पड़ा।
सैन्य शिविर के लोग सो चुके थे। महाराज और चामुण्डराय को भी झपकी लग गई थी। टोही दल ने महाराज या चामुण्डराय को जगाना उचित नहीं समझा। दल के अश्वारोही भी विश्राम करने लगे।
दिल्लिका में संयुक्ता का मन उचट जाता। वे बार बार सोने का प्रयास करतीं पर नींद कोसों दूर थी। वे उठ पड़ीं। प्रतिहारी को पुकारा। वह सामने आकर माथ नवा खड़ी हो गई, 'आज्ञा स्वामिनी ?"
'अच्छा जाओ' संयुक्ता के मुख से निकल गया। प्रतिहारी लौट पड़ी। संयुक्ता की दृष्टि सामने ही सोती लतिका पर पड़ी। कितनी मग्न है लतिका? कितनी मीठी नींद? एक मैं हूँ जिसकी नींद को ग्रहण लग गया है। महाराज की क्या स्थिति होगी? यदि उन्हें कोई कष्ट हो तो? मुझे नहीं ले गए। लोग क्या कहेंगे? यही भय था न? परम्पराएं जकड़ती हैं। नारियों के लिए अनेक बन्धन? मैंने घर से विद्रोह किया? जिसके लिए विद्रोही बनी, वह युद्ध भूमि में और मैं इस प्रासाद में चाहकर भी उनका साथ नहीं दे सकती। मुझ जैसों के लिए न युद्ध अनोखा है न भयकारक, पर मन इस बार उदास क्यों हो जाता है? उसने वीणा के तार खींचे। खींचने में ही एक तार निकल गया। 'तो तुम भी साथ न दोगी। नींद आनी नहीं है।' उसे कारु का स्मरण हो आया। उसे लगा कि कारु कहते ही वह उपस्थित हो जायगी। पर यह संभव कहाँ ? जागते हुए ही वह जैसे स्वप्निल विचारों में खो गई। गंगा का तट । वह अश्विनी पर सवार हो चल रही है। कारु भी पीछे पीछे एड़ लगाते ही अश्विनी हवा से बातें करने लगी। अपने दोनों पैरों को अश्विनी से चिपका दिया। कारू भी थोड़े अन्तर पर सर सर करती पुरवा । कितने आनन्द दायक थे वे दिन वे युद्ध भूमि में हैं, मैं अन्तःपुर में। पर वे भी मेरा स्मरण कर रहे हैं। में उनकी प्रेरणा बन युद्ध भूमि में रहूँगी।
'लातिका तू सो रही है। सोती रह। मेरे कारण तेरी नींद में बाधा नहीं पड़नी चाहिए। मुझे इस तरह रहना चाहिए कि किसी को कष्ट न हो पर हो कहाँ पाता है? मैंने प्रेम मार्ग में ही कितनों की बलि चढ़ा दी। मैंने ऐसा न किया होता तो? व्यक्ति और समष्टि के अन्तर्विरोध किसी न किसी सम पर तिरोहित भी होते हैं। हमारा प्रयास समरसता की ओर हो तो? पर यहाँ तो हर बिन्दु पर किन्तु परन्तु लग जाता है। उन्हें रण में ताण्डव करना है, मैं क्यों न लास्य ही....।' और संयुक्ता के पग थिरक उठे ।
अर्द्धरात्रि बीत चुकी । शहाबुद्दीन ने ताली बजाई। चोबदार ने आकर शीश नवाया।
'तातार खां......।' कुछ ही क्षणों में तातार खां आ गए। 'हाहुली सहित सभी सरदारों को बुलाओ,' सुल्तान ने कहा। तातार के निर्देश पर सभी इकट्ठे होने लगे । सुल्तान आसमान की ओर देखता और मुँह से निकल जाता, 'या खुदा।' सभी सरदारों के आ जाने पर तातार ने सुल्तान को सूचित किया। सुल्तान की आंखें चढ़ी हुई थीं। लगता था कि वे जागते रहे, सो नहीं सके!
सुल्तान ने कहा 'यह जंग हमें जीतना है। हर हालत में जीतना है। फतह किसी खोह में भी कैद हो तो भी उसे खींच लाना है। सरदारों ने भी हुंकार भरी, 'फतह के लिए हमें दानिशमंदी से अपनी फौज को इस तरह फैलाना होगा कि हम दुश्मन की फौज को अपने कब्जे में कर सकें।
सबको ख़बरदार कर दो कि दुश्मन को दूर से ही तीर कमान से काबू करें। बहुत ज़रूरी हो तभी गुत्थम गुत्था के लिए आगे आएँ। हरावल में रुस्तम खान के साथ फिरोज खान, उम्मीद खान, नैकट राय अपनी फ़ौजों के साथ दुश्मन पर हमला करेंगे। दाहिनी ओर उसमान खान के साथ समी खान महमूद खान, हाजी खान, हुसैन ख़ान, की फौजें जंग लेंगी। बाईं ओर से खुरासान खान के साथ ईशब, अकील, याकूब, हबीब, कमाल खान के जंगजू भिड़ेंगे। मेरे साथ पीठ पर तातार ख़ान, हाहुलीराय, कुतुबुद्दीन, पीरन और उम्मीद ख़ान के जंगजू रहेंगे। बारह हजार तीरंदाज घुड़सवार पीछे रहेंगे जो जंग के फैसलाकुन मोड़ पर तीर बरसाते हुए फतह को मुकम्मल बनाएँगे।'
दरबार ने हामी भरी 'अल्लाह मदद करेगा।' सुल्तान ने आसमान में नज़र दौड़ाई ।
'रात खिसक रही है। सभी तैयार हो जाओ। फज़िर के पहले पहले चौहानों पर तीर बरसने चाहिए।'
'बरसेंगे', सभी कह उठे । सभा बर्खास्त होते ही सभी अपनी अपनी तैयारी में जुट गए। लकड़ी के कुन्दे अभी भी शिविर के आगे जल रहे थे।