गरीबी जब दरवाज़े से अंदर आती है….हेमा और राकेश ने घर से भाग कर दो साल पहले शादी की थी। पिता का आशीर्वाद न पाना, हेमा को अखरता परन्तु राकेश के साथ खुशनुमा जीवन उसको तसल्ली देता था। रतलाम में उनकी छोटी-सी घड़ी की दुकान थी। राकेश घड़ियां बेचकर व उनकी मरम्मत कर अच्छे खासे पैसे कमा लेता था जो उन दोनों के लिए पर्याप्त थे।
मोबाइल फोन, ऑनलाइन शॉपिंग, मॉल कल्चर के कारण दिन ब दिन दुकान से कमाई कम होने लगी। अब लोगों ने घड़ियों का इस्तेमाल कम कर दिया था और मरम्मत तो भूल ही जाओ। इसी कारणवश राकेश को दुकान बंद करने की नौबत आ गई थी। हेमा के कहने पर उसने नौकरी ढूंढने का भरसक प्रयास किया पंरतु सब पानी में। उसे कहीं भी कामयाबी हाथ नहीं लगी।
हेमा ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी। वह अब छोटा-मोटा सिलाई-कढ़ाई, आचार,पापड़ बनाने का काम लेने लगी ताकी जीवन की गाड़ी, धक्का देने से ही सही, पर थोड़ी आगे तो बढ़े। राकेश को हेमा का काम करना और घर चलना रास नहीं आ रहा था और उसकी यह नाकामयाबी उसको अंदर ही अंदर झकझोरती रहती।
वह दिन भर घर के बाहर रहता और रात में नशे में धूत अपनी इस हालत का जिम्मेदार हेमा को बताते हुए खूब झगड़ा करता था। हालात बद से बदत्तर होते जा रहे थे। अब तो राकेश दिनभर जुआ खेलता, चोरी-चकारी करता और गलत संगत में पड़, गलत काम भी करता ताकि थोड़े पैसे जोड़ सके। पर कहते हैं ना - बुरे काम का नतीजा भी बुरा ही होता है। वह जितना भी कमाता, सब जुए में गवां देता या कर्जा चुकाने में। हेमा अब भी राकेश से प्यार करती थी उसे यकीन था कि यह बुरा वक्त भी बीत जाएगा और फिर से वह पहले की तरह खुशाल जीवन व्यतीत करेंगे। यही सोच कर हेमा जब भी उसे कुछ समझाती या अपने प्यार का वास्ता देती तो वह उसके साथ मार-पीट करता।
हेमा की सहन शक्ति अब जवाब देने को थी। वह अंदर ही अंदर टूट रही थी। हर रात उसकी आंसुओं में बीतती। कभी अपने अतीत को याद करती तो कभी अपने पिता को। हेमा के पिता जी संबलपुर गांव के जानेमाने जमींदार थे और हेमा उनकी सबसे लाडली बेटी थी। तब उसे अपने पिता की याद आई कि कैसे उन्होंने अपनी राजकुमारी के लिए अच्छे घर का लड़का पसंद किया था पंरतु हेमा तो राकेश से प्यार करती थी। हेमा के पिताजी को राकेश पसन्द नहीं था उन्होंने हेमा को खूब समझाया की इस लड़के के साथ तुम्हारा भविष्य सुरक्षित नहीं हैं। हेमा के पिताजी उसके लिए एक से बढ़कर एक जमींदार लड़को के रिश्ते लाते पंरतु हेमा, राकेश के प्यार की खातिर उन सब को ठुकराती रहती और तब हेमा के पिता ने उसे चेतावनी दी थी कि-
गरीबी जब दरवाज़े से अंदर आती है, तो प्यार खिड़की से भाग निकलता है। हेमा सोचती है कि शायद उसके चले जाने से राकेश को अपनी गलतियों का एहसास हो जाए और वह अपनी जिम्मेदारियां समझने लगे। यहीं सब सोचकर वह अपने पिता के घर लौट जाने का मन बना लेती है।
देखते ही देखते दो बरस बीत गए। राकेश छोटी मोटी नौकरी करने लगा पंरतु अभी भी इतना नहीं कमा पाता की हेमा के पिताजी से सिर उठाकर फिर एक बार हेमा का हाथ मांग सके। हेमा भी राकेश से उतना ही प्यार करती है। दो-तीन महीने में किसी को रतलाम भेज चुपचाप राकेश की खैर ख़बर लेती रहती है। वह अभी भी राकेश का इंतजार कर रही है की वह आएगा और पूरे मान-सम्मान के साथ उसे ले जायेगा।
- रूचि मोदी कक्कड़