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इस बीमारी की कहर ने स्कूलों, कॉलेजों, संस्थानों में ताले लगवा ही दिए थे, काफ़ी दिनों बाद कुछ ‘ऑन-लाइन’ का चक्कर शुरू हुआ, निर्णय लिया गया था कि क्लासेज़ ऑन लाइन ली जानी चाहिए अन्यथा बिना रियाज़ के सब छात्र-छात्राएं सब कुछ भूल जाएंगे|
स्कूलों में भी ऑन-लाइन क्लासेज़ शुरू की गईं थीं और कला-क्षेत्रों में भी काम का पुनरारंभ ऑन-लाइन हुआ | जो पहले स्वप्न की सी बात लगती थी अब जीवन की वास्तविकता लगने लगी|इतनी दूरी हुई कि आम आदमी उखड़ने लगा, टीन एज के बच्चों की मानसिकता पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगा और सबको एक भय सताने लगा कि आगे का सारा जीवन ऐसे ही बीतेगा क्या?
बीच में जब कुछ कम केसेज़ दिखाई देते तो लोग बिंदास हो जाते और सड़कों पर सायरन बजाती गाड़ियों को देखकर पुलिस के डर से एक जगह पाँच-सात इक्कठे हुए लोग तितर-बितर हो जाते| लोग दरसल समझ ही नहीं पाए कि आखिर यह बला थी क्या? लेकिन यह भी सच था कि प्रतिदिन उनकी आँखों के सामने ही लोग मर रहे थे|
वैसे संस्थान इतना बड़ा था कि उसमें ही चक्कर काट लेने से सैर भी हो सकती थी और कई लोगों के वहाँ रहने से मन भी लग ही जाता था|उत्पल हमारे साथ ही लंच-डिनर लेता और सबका मन भी लगाए रखता| मास्क लगाकर शीला दीदी व रतनी और कभी तो पूरा परिवार ही आ जाता |अभी तक बड़ी कृपा रही थी और कोरोना नाम के राक्षस से सब लोग बचे रहे थे|जो बाहर से आता संस्थान के बाहर ही खासतौर से मास्क फेंकने के लिए रखे गए बड़े से डस्टबिन में मास्क फेंककर ही आता|वहीं पानी के लिए एक बेसिन लगवा दिया गया था, वहीं सेनेटाइज़र रखा रहता | जो कोई भी बाहर से आता वहाँ से हाथ मुँह धोकर आता|कोई किसी से हाथ न मिलाता और काफ़ी दूर बैठकर चर्चाएं होतीं|टी.वी चैनल आम आदमी तक इस भयानक संक्रमण की बात हर रोज़—और हर रोज़ ही क्या हर पल ही पहुँचाते रहते और आदमी को महसूस होता कि बस अब न जाने ज़िंदगी कितनी है और ऐसे बंद होकर ही कटेगी|
हमारे संस्थान में दो बब्बर शेर थे जर्मन शेफर्ड़ जो बहुत खतरनाक था और एक लेबराडोर जो बहुत फ्रैंडली था लेकिन दोनों को ज़रा सी सूँघ भी आ जाए कि कोई आदमी खराब नीयत से संस्थान में घुसा है तो दोनों जब तक उसके चिपट न जाएं तब तक भौंकना बंद ही नहीं करते थे|अगर संस्थान के क्लासेज़ या फिर किसी के आने की सूचना मिलने पर उन्हें बंद न करते तो वे आने वाले नए लोगों को फाड़कर ही दम लेते |दोनों लंबे,बड़े,खूब ताकतवर ! जिनके नाम रखे गए थे विक्टर और कार्लोस ---पापा विक्टर को एक्टर कहते| हाँ,पापा ने रखे थे उनके नाम और शायद इसलिए रखे थे कि विक्टर यानि पापा का एक्टर यूँ तो बहुत ज़ोरदार और खूंखार था पूरे संस्थान में चक्कर काटता रहता था लेकिन जैसे ही वह रसोईघर के सामने जाकर खड़ा हुआ और महाराज ने उसकी ओर घूरकर देखा कि वह छोटे बच्चे की तरह एक्टिंग करता हुआ वहाँ से भाग जाता | इसीलिए पापा ने उसका नाम एक्टर रख दिया था|उसे शॉर्ट में सब एक्ट कहकर पुकारते | महाराज के सामने पड़ने पर वह ऐसे नजरें चुराता जैसे कोई छोटा बच्चा भयभीत हो रहा हो| उसका एक्टिंग देखकर सब खूब हँसते थे|कभी कभी तो हम सब सोचते क्या यह सच में ही कुछ समझता होगा?पापा बताते थे कि श्वान की समझ और सूंघने की शक्ति बहुत उग्र होती है इसीलिए इन्हें पुलिस में रखा जाता है|
लेबराडोर भी बहुत सुंदर,बड़ा व ताकतवर था,वह काफ़ी जल्दी दोस्ती कर लेता था |वैसे तो दोनों अधिकतर साथ ही रहते लेकिन कभी उनमें बच्चों की तरह रूठना भी देखा जाता था और हम सबको तो समझ में आ ही जाता कि भई उनकी कट्टी चल रही है| फिर कुछ देर बाद दोनों साथ नज़र आते | लेबराडोर जिसका नाम वैसे कार्लोस रखा था पर पापा और हम सब लाड़ में उसे कार्ल पुकारते थे,उत्पल का बड़ा भक्त था| वह उसके पीछे घूमता रहता| उसके ज़रा सा ज़ोर से बोल देने पर भी वह जैसे उससे रूठ जाता और कहीं छिप जाता|जब तक उत्पल उसे नहीं बुलाता वह उसके सामने आता ही नहीं |
ये दोनों अपने विशेष आमिष भोजन पर पल रहे थे|हमारे यहाँ शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था | इन दोनों के लिए गार्ड के घर के सामने बड़ी सी खाली जमीन पर शेड बनवा दिया गया था जहाँ उनके लिए पंखे और हवा का पूरा इंतज़ाम था | जब क्लासेज़ न होती तब तो वे पूरे संस्थान में घूमते ही थे | गार्ड की पत्नी इनको खाना खिलाती, इन्हें नहलाती-धुलाती | वह उन्हें बाहर भी ले जाती थी लेकिन अब मुश्किल हो गया था इसके लिए वह इन दोनों को पीछे के बाथरूम में ही सब कुछ करवा देती | वह शायद मूल स्वभाव से ही डॉगस लवर थी |अपने बच्चों के साथ वह इन्हें भी पालती थी और बहुत खुश रहती थी | उसके बच्चे भी इनके साथ लगे रहते|मतलब यह है कि कोरोना के सुनसान समय में भी हमारे संस्थान में इतना सूनापन नहीं था|
अम्मा ने भी डांस की क्लासेज़ ऑनलाइन लेनी शुरू की थीं | सब कुछ समय पर सबको मिलता और समय ठीक ही कट रहा था,हाँ,एक चिंता तो सबके मन में थी ही --- जो पूरे विश्व की ही थी|अभी इस रोग की दवाई की शोध की जा रही थी,और न जाने देश-विदेश में कितने साईंटिस्ट इस कार्य में व्यस्त थे|यूँ तो जब तक शोध हो रही थी तब सर्दी, खाँसी की दवाएँ बीमारों को दी जा रही थीं| इसमें सबसे भयंकर स्थिति तब हुई जब मरीजों की ऑक्सीज़न कम होने लगी|लैबोरेटरीज़ का काम खूब बढ़ गया था क्योंकि थोड़ी सी भी खाँसी अथवा साँस की परेशानी होने पर टैस्ट कराने जरूरी हो गए थे|
पापा-अम्मा ने सड़क पार मुहल्ले में मास्क,सेनेटाइज़र भिजवाए|टी.वी में नए-नए हाथ धोने के साबुनों के एडवर्टाइज़मेंट्स देखकर लगता था कि इस बीमारी ने नए व्यापार के कई द्वार मुहैया कर दिए हैं| खैर, उस समय जो चीज़ें जरूरी थीं,पापा ने कोशिश की कि सड़क पार के मुहल्ले में किसी चीज़ की कोई अधिक परेशानी न हो| मजे की बात यह थी कि वैसे लोग काम पर जाने में घबरा रहे थे लेकिन जहाँ देखा कि सड़क खाली है, वहीं डॉ-चार लोग आकार टोले में खड़े होने लगे| पुलिस की नज़र कभी ण कभी ऐसे टोलों पर पड़ ही जाती थी और मैं अपनी खिड़की में से कई लोगों को डंडे पड़ते भी देखती थी|
उत्पल कभी-कभी मेरे कमरे की ओर आ निकलता लेकिन मैं उससे दूरी रखने की पूरी कोशिश करती थी | मुझे उसकी आँखों में वही उत्सुकता दिखाई देती जो मैं पहले भी देखती थी और अपने दिल की धड़कनों को वश में रखना मेरे लिए मुश्किल हो जाता | उसे समझ में तो आ ही रहा था कि कुछ गड़बड़ तो हो गई है|वह पूछता कि मैं इतनी उदास क्यों हूँ ?
“मैं क्या पूरी दुनिया अनिश्चितता के दौर से गुज़र रही है,मेरे अकेली के मन में नहीं, पूरी दुनिया के मन में चिंता है | अम्मा-पापा भाई के लिए चिंता करते हैं और सब ऐरपोर्ट्स बंद कर दिए गए हैं |”मैं उसकी बातों का जवाब ऐसे घूम-फिराकर देती कि वह आगे कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं कर पाता|
यह सच था कि हमारा संस्थान एक ऐसा दुर्ग बन गया था जिसमें सब अपने आपको महफूज समझते |