"फीनिक्स" का अनुभव राजा के लिए अनोखा रहा। उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था की गांव में लड़के जिस बात को लेकर दिन भर हल्के - फुल्के मज़ाक करके अपना टाइम यूहीं पास करते रहते हैं उसका इन विकसित देशों में इतना व्यवस्थित और सुविधापूर्ण कारोबार है। यहां लाखों के वारे- न्यारे होते हैं। बचपन से लेकर जवानी तक की इतनी ऊंची कीमत होती है। स्वर्ग जैसा वातावरण। कीमती अल्कोहल के किस्म- किस्म के ब्रांड। खाने को लजीज़ व्यंजन!
हां, बस वो करना है जो गांव में करने पर सारा गांव मज़ाक उड़ाता है।
राजा को बचपन के ऐसे कई किस्से याद आ गए जब सुबह खेतों में जाते समय बदन का कोई नज़ारा गलती से दोस्तों को दिख जाने पर भाई लोग दिन भर मज़ाक उड़ाया करते थे। किसी लड़की को इस तरह छूने की ख़बर पर तो पुलिस आ जाती थी।
तो क्या कीमती कपड़े पहन कर हवाई जहाज में सफ़र कर लेने के बाद सारे गुनाह माफ़ हो जाते हैं। लोग उन कामों के लिए कतार में लगे खड़े हैं जिनके बारे में वहां घर वाले सुन लें तो घर से निकाल दें।
राजा को अपने स्कूल के संस्कृत मास्टर याद आ गए जो कहा करते थे कि अपनी मौत का इंतज़ार करने की कोई ज़रूरत नहीं है, जिस दिन तुम्हारा नैतिक मूल्य गिर जाए उस दिन अपने को मरा समझ लेना।
तो क्या राजा मर गया?
नहीं नहीं...उन बूढ़े मास्टर जी को ज़रूर कोई गलत फहमी रही होगी। यहां कोई मरता नहीं, बल्कि जी जाता है। मज़ा आ गया!
राजा के रोम - रोम में जलतरंग सी बज रही थी। वो ये मानने को कतई तैयार नहीं था कि वो मर गया। उसे तो अब सालू ही अपना नया मास्टर नज़र आ रहा था। नैतिक मूल्य क्या होता है? ये सब तो बेकार की बातें हैं। क्या खेतों में दिन - रात मेहनत करके भी भूखे मरते रहना नैतिक मूल्य है? क्या गांव की आबोहवा छोड़ घर से निकल कर शहर में मजदूर बन जाना और दिन भर ठेकेदारों की गालियां खाना नैतिक मूल्य है? क्या बीमार मां को बिना दवा के तड़पते देखना नैतिक मूल्य है?
यकीन नहीं होता। और अब तो बिलकुल भी नहीं होता। तन - बदन में ही इतनी कीमती जड़ी बूटियां छिपी हैं कि जवान लड़का - लड़की कभी गरीब हो ही नहीं सकते। इस हाथ दो उस हाथ लो!
नैतिक मूल्य के बाबत बाद में सोचेंगे, यही सोचता राजा सुबह बिस्तर से उठ खड़ा हुआ क्योंकि सालू ने कहा था कि सुबह आठ बजे नाश्ता मिलेगा।
जल्दी- जल्दी सिर पर फव्वारे का गुनगुना पानी छोड़ते हुए राजा सोच रहा था कि उसे जल्दी तैयार हो जाना चाहिए। आखिर उसके नाश्ते के लिए किसी मुर्गे ने सुबह- सुबह जान दी होगी। उसके कलेवा करने के लिए कोई मछली अपने बाल- बच्चों को अकेला छोड़ कर गर्म तेल के दरिया में चली आई होगी।
लोअर का नाड़ा बांधता हुआ राजा एकाएक ये तय नहीं कर पा रहा था कि वो खुश है या उदास। एक थकावट सी बदन को सहला रही थी। एक मातम भरा जश्न उसका दिल भी मना रहा था। जूते पहनते हुए उसने लेस बिना बांधे ही छोड़ दिए। उसके बाल अब छितरा कर माथे पर आने लगे थे, शायद सूख चुके थे।
राजा की जेब की गर्मी ठीक सूरज की किरणों की तरह दूर देस में उसके गांव तक पहुंचने लगी थी। उनके ताप से उसकी मां के निश्चेष्ट बदन में हरारत सी आने लगी थी। सूरज कितना भी दूर सही, धरती को संभालता ही है।
राजा ने ज़ोर से कमरे का दरवाज़ा इस तरह बंद किया कि लॉबी से गुजरने वाली एक प्रौढ़ महिला उसकी युवावस्था के इस उछाल पर मुस्करा कर रह गई। पल भर बाद ही राजा लिफ्ट के दरवाज़े पर उसी औरत के ठीक पीछे खड़ा था।
आठ बजने में शायद कुछ ही मिनट बाकी रहे होंगे।
ये कुछ मिनट बीते और राजा दोनों हाथों से अपने तन की रात की टूट - फूट की भरपाई करने में जुट गया। ये स्वाद एक से बढ़कर एक थे जो राजा को पहले कभी नसीब नहीं हुए थे।