"तुम अचलराज हो और ये कालवाची! क्या सच कह रहे हो तुम दोनों",महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा...
"हाँ! महाराज! मैं आपकी अपराधिनी कालवाची हूँ,यहाँ हम दोनों रूप बदल कर आए हैं",सेनापति बालभद्र बनी कालवाची बोली...
"किन्तु! तुम्हें तो वृक्ष के तने में स्थापित कर दिया गया था,तुम वहाँ से कैसें मुक्त हुई"?,महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा...
तब अचलराज बोला....
"महाराज!वो बहुत ही लम्बी कहानी और वो सब अभी सुनाने का हम लोगों के पास समय नहीं है,हम यहाँ रूप बदल कर केवल आपको ये सूचित करने आए थे कि राजकुमारी भैरवी और महारानी कुमुदिनी सकुशल हैं और मेरे पिताश्री सेनापति व्योमकेश जी भी स्वस्थ हैं,किन्तु अब मेरी माता देवसेना इस संसार में नहीं हैं,शीघ्र ही हम सभी आपको आपका राज्य वापस दिलवाकर रहेगें",
ये सुनकर महाराज कुशाग्रसेन अत्यधिक प्रसन्न हुए किन्तु देवसेना की मृत्यु पर दुख प्रकट करते हुए बोलें...
"अचलराज! मुझे तुम्हारी माता के जाने का अत्यधिक दुख है किन्तु इसके अतरिक्त सभी सकुशल हैं,ये जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है",
"हमें भी आपको सकुशल देखकर प्रसन्नता हो रही है",बालभद्र बनी कालवाची बोली...
तब महाराज कुशाग्रसेन कालवाची से बोले....
"कालवाची! मुझे क्षमा करो,मैं तुम्हारा अपराधी हूँ,मैने तुम्हें इतना कठोर दण्ड दिया,किन्तु तब भी तुम मेरी सहायता करने हेतु यहाँ आ पहुँची,मैं ने जो तुम्हारे संग व्यवहार किया था तो अपने उस व्यवहार हेतु मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ",
तब कालवाची बोली...
"महाराज! कृपया! आप मुझसे क्षमा ना माँगें,आपने तो अपने राजा होने का धर्म निभाया था,राजा होने के नाते आपने अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास किया,आप उसके लिए स्वयं को दोषी ना ठहराएं,वो पुरानी बातें बिसराकर आप अपने वर्तमान पर ध्यान दें,हम तीनों आपकी सहायता हेतु आए हैं और आप ईश्वर से ये प्रार्थना कीजिए कि हम इस कार्य में सफल हों,अब हम सभी के पास इससे अधिक समय नहीं है,अब हमें बंदीगृह से जाना होगा,अगली बार यहाँ आऐगें तो आपके माता पिता से भी भेंट करेगें"
और इतना कहकर सेनापति बालभद्र बनी कालवाची ने पुनः सभी सैनिकों को बंदीगृह में बुलाया और उन सबसे बोली...
"अच्छा! तो मैं और महाराज अब यहाँ से प्रस्थान करेगें,तुम सभी इस बंदी का विशेष ध्यान रखना"
अन्ततोगत्वा वें सभी बंदीगृह से बाहर आएं,इसके पश्चात उन्होंने अपना रूप बदला और अपने अपने कक्ष में वापस आकर सो गए,दूसरे दिन वैशाली को कर्बला से मिलने का अवसर नहीं मिला और रात्रि को पुनः महाराज गिरिराज ने वैशाली को अपने कक्ष में आने का बुलावा भेज दिया,वैशाली का मन तो नहीं था गिरिराज के कक्ष में जाने का किन्तु उसे तब भी जाना पड़ा,वैशाली बना अचलराज जैसे ही गिरिराज के कक्ष में पहुँचा तो गिरिराज उससे बोला....
"तुम आ गई प्रिऐ! मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था",
"मैं भी आपसे भेंट करने हेतु अत्यधिक आतुर थी महाराज! ना जाने आपने मेरे ऊपर कौन सी मोहिनी डाली है कि मैं बरबस आपकी ओर खिंची चली आई,कल मेरी तो सम्पूर्ण रात्रि अत्यधिक विकलता से बीती, मैं आपसे कैसें कहूँ महाराज! कि अब मेरा आपके बिना रहना असम्भव है",वैशाली बना अचलराज बोला...
"क्या तुम सच कह रही हो प्रिऐ!",गिरिराज ने पूछा...
"जी! महाराज! क्या अभी भी आपको कोई संशय दिखाई दे रहा है",वैशाली बोली...
"नहीं! प्रिऐ! मुझे तुम पर पूर्ण विश्वास है",गिरिराज बोला...
"मैं तो कभी कभी बस ये सोचकर भयभीत हो जाती हूँ कि आप इतने बड़े राज्य के महाराज एवं मैं एक साधारण सी कन्या,आपका और मेरा भला कैसा मेल?", वैशाली बोली...
"तुम चाहो तो मेल हो सकता है",गिरिराज बोला....
"क्या आप सत्य कह रहें हैं महाराज!",वैशाली बोली...
"हाँ! बिल्कुल सत्य प्रिऐ! बिल्कुल सत्य",गिरिराज बोला...
"मैं आपसे ये बात प्रथम दिवस से ही कहना चाह रही थी,किन्तु भय सा लगता था कि कहीं आप मुझे तुच्छ समझकर मेरे प्रेम प्रस्ताव को अस्वीकार ना कर दें",वैशाली बोली....
"ओह...तो तुम्हारे भय का ये कारण था,तो जब अब तुम्हारे मन का संशय दूर हो ही गया है तो आओ ना मेरे हृदय से लग जाओ प्रिऐ!,गिरिराज बोला....
"ठहरिए महाराज! तनिक प्रतीक्षा कीजिए,इस कार्य में ऐसी भी क्या विकलता,कुछ समय तक वार्तालाप करते हैं,ये वैशाली तो वैसे भी आपके चरणों की दासी हो ही चुकी है जैसा आप कहेगें सो वैसा ही करेगी"
और इतना कहते कहते वैशाली बने अचलराज ने मदिरा भरकर एक पात्र गिरिराज के हाथों में दे दिया और प्रेमपूर्वक विनती करते हुए उससे पीने को कहा....
अब गिरिराज वैशाली के मोह में लिप्त होकर मदिरा पीने लगा,वैशाली उससे मीठी मीठी बातें करते हुए उसे मदिरा से भरे पात्र भर भरकर देने लगी,कुछ ही समय पश्चात गिरिराज कुछ अचेत सा हो गया, मदिरापान की मात्रा अत्यधिक होने पर गिरिराज को अब निंद्रा ने घेर लिया था,तब वैशाली ने अपने वस्त्रों और श्रृंगार को अव्यवस्थित सा किया,इसके पश्चात उसने बिछौने की दशा भी बिगाड़ दी,तब वो गिरिराज के कक्ष से पुनः लजाते हुए निकली,उसने द्वार पर खड़े सैनिकों पर एक दृष्टि डाली और वहाँ से निकल गई....
प्रातःकाल होते ही कालवाची वैशाली के कक्ष में आई और वैशाली से बोली....
"आज रात्रि तो कैसें भी करके हमें सभी से भेंट करने जाना ही होगा,उन्हें ये सूचना देनी होगी कि महाराज सुरक्षित हैं और हम दोनों उनसे भेंट कर चुके हैं",
"तुम्हारा कहना तो उचित है कालवाची! किन्तु यदि आज भी उस राक्षस ने मुझे अपने कक्ष में बुलवा लिया तो तब हम उन सभी से भेंट करने कैसें जा पाऐगें",वैशाली बना अचलराज बोला....
"तुम उससे प्रेमपूर्वक विनती करोगी तो वो अवश्य मान जाएगा",कालवाची बोली...
"ठीक है तो मैं प्रयास करके देखूँगा,कदाचित वो मान जाए",वैशाली बना अचलराज बोला....
"और वत्सला को भी सूचित कर देना कि आज हमें उन सबसे भेंट करने जाना है",कालवाची बोली....
"हाँ! तुम चिन्ता मत करो,मैं उसे भी सूचना दे दूँगा",वैशाली बना अचलराज बोला....
कुछ समय के वार्तालाप के पश्चात कालवाची वहाँ से चली गई,सायंकाल के समय वैशाली गिरिराज के कक्ष में पहुँची तो उसे ज्ञात हुआ कि महाराज गिरिराज अपने पुत्र सारन्ध के संग वन की ओर आखेट हेतु गए हैं, उन्हें लौटने में बिलम्ब हो जाएगा,कदाचित उन्हें वन में दो दिवस से भी अधिक का समय लग सकता है,ये बात सुनकर वैशाली मंद मंद मुस्कुराई और द्वार पर खड़े द्वारपालों से बोली...
"हाय! महाराज के बिना अब मेरी रात्रि कैसें कटेगी"?,
और ऐसा कहकर वो वहाँ से चली ,वो अत्यधिक प्रसन्न थी क्योंकि उसके मार्ग का अवरोध अब वन को प्रस्थान कर चुका था,ये बात उसने कालवाची से भी कही और अब वो भी इस बात को सुनकर प्रसन्न थी,रात्रि के समय तीनों उसी प्रकार वेष बदलकर उन सभी के पास पहुँचे और उनसे बताया कि वें सभी बंदीगृह जाकर महाराज से भेंट कर चुके हैं,अब हमें शीघ्र ही ऐसी कोई योजना बनानी होगी जिससे हम गिरिराज को वैतालिक राज्य के राजसिंहासन से हटा सकें.....
इधर कौत्रेय कालवाची से बोला....
"कालवाची! मुझे भी अपने संग ले चलो, मैं भी वहाँ रहकर तुम सभी की सहायता करना चाहता हूँ",
"किन्तु! मैं तुम्हें वहाँ कैसें ले जा सकती हूँ,मैं और अचलराज वहाँ बड़ी कठिनतापूर्वक दिन बिता रहे हैं", कालवाची बोली...
"मैं भी तुम लोगों की भाँति वहाँ रह लूँगा",कौत्रेय बोला....
"किन्तु! हम तुम्हें वहाँ किस रूप में ले जाऐं",अचलराज बोला....
"कह देना मैं तुम्हारा भ्राता हूँ",कौत्रेय बोला...
"ये सम्भव नहीं है क्योंकि हमने तो वहाँ सबसे कहा है कि हम दोनों का कोई परिवार ही नहीं है",कालवाची बोली....
ये सुनकर कौत्रेय तनिक उदास सा हो उठा.....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....