भगवान् शंकर भगवती सती के साथ कैलास के एक उत्तम शृङ्ग पर विराजमान थे। वट की घनी छायामे उनके कपूर के समान धवल शरीर पर भूरे रंग की जटाएँ बिखरी हुई थीं। हाथमें रुद्राक्ष की माला, गले में सांप और सामने ही नन्दी बैठे हुए थे। उनके सहचर अनुचर वहा से कुछ दूर परस्पर अनेकों प्रकार की क्रीडाएँ कर रहे थे। उनके सिर पर चन्द्रमा और गंगा की अमृतमय धारा रहने के कारण तीसरे नेत्र की विषम ज्वाला शान्त थी। ललाट का भस्म बड़ा ही सुहावना मालूम पड़ना था।
एकाएक 'राम-राम' कहते हुए उन्होंने अपनी समाधि भंग की। माता सती ने देखा कि भगवान शंकर एक अपूर्व भाव से उनकी ओर देख रहे हैं। वे सामने बड़ खड़ी हो गयीं और हाथ जोड़कर विनय के साथ कहने लगी– “स्वामिन! इस समय मैं आपकी क्या सेवा करूं? क्या आप कुछ कहना चाहते हैं? आपकी मुखाकृति से तो ऐसा ही प्रकट हो रहा है। भगवान् शंकर ने कहा – “प्रिये! आज मेरे मन मे एक बड़ा ही शुभ संकल्प उठ रहा है। मैं सोच रहा हूं कि जिनका में निरन्तर ध्यान किया करता हूं जिनके नाम को रट-रटकर गद्गद होता रहता हूँ, जिनके वास्तविक स्वरूप का स्मरण करके में समाधीस्थ हो जाता हूँ, वे ही मेरे भगवान्, वे ही मेरे प्रभु अवतार ग्रहण करके संसार में आ रहे हैं। सभी देवता उनके साथ अवतार लेकर उनकी सेवा का सुयोग प्राप्त करना चाहते हैं, तब मैं ही क्यो वञ्चित रहूँ? मैं भी वहीं चलूँ और उनकी सेवा करके अपनी युग-युग की लालसा पूर्ण करूँ और अपने जीवन को सफल बनाऊँ।”
भगवान् शंकर की यह बात सुनकर सती सहसा यह न सोच सकि कि इस समय क्या उचित है और क्या अनुचित। उनके मनमें दो तरह के भाव उठ रहे थे। एक तो यह कि मेरे पतिदेव की अभिलाषा पूर्ण होनी चाहिये और दूसरा यह कि मुझसे उनका वियोग न हो। उन्होंने कुछ सोचकर कहा– “प्रभो! आपका संकल्प बड़ा ही सुन्दर है जैसे में अपने इष्टदेव की – आपकी सेवा करना चाहती हूँ। वैसे ही आप भी अपने इष्टदेव की सेवा करना चाहते हैं। परंतु वियोग के भयमे मेरा हृदय न जाने कैसा हुआ जा रहा है। आप कृपा करके मुझे ऐसी शक्ति दें कि मेरा हृदय आपके ही सुखमें सुख मानने लगे। एक बात और है। भगवान् का अवतार इस बार रावण को मारने के लिये हो रहा है। वह आपका बड़ा भक्त है, उसने अपने सिर तक काटकर आपको चढ़ाये हैं। ऐसी स्थितिमें आप उसको मारने के काममें कैसे सहायता कर सकते है?”
भगवान् शंकर हँसने लगे। उन्होंने कहा– “ देवि आप बड़ी भोली हो। इसमें वियोग की तो कोई बात ही नहीं है। मैं एक रूप से अवतीर्ण होकर उनकी सेवा करूंगा और एक रूपसे तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें उनकी लीलाएँ दिखाऊँगा और समय समय पर उनके पास जाकर उनकी स्तुति प्रार्थना करूंगा। रह गयी तुम्हारी दूसरी बात, सो तो जैसे रावण ने मेरी भक्ति की है, वैसे ही उसने मेरे एक अंश की अवहेलना भी की है। तुम तो जानती ही हो, मै ग्यारह स्वरूपो मे रहता हूँ। जब उसने अपने दस सिर चढाकर मेरी पूजा की थी, तब उसने मेरे एक अंश को बिना पूजा किये ही छोड़ दिया था। अब मै उसी अंश के रूपमें उसके विरुद्ध युद्ध कर सकता हूँ और अपने प्रभु की सेवा भी कर सकता हूं। मैने वायु देव के द्वारा अञ्जना के गर्भ से अवतार लेने का निश्चय किया है। अब तो तुम्हारे मनमें कोई दुःख नहीं है न ?? भगवती सती प्रसन्न हो गयीं।.....
.....देवराज इन्द्र की अमरावतीमें एक पुञ्जिकस्थला नाम की अप्सरा थी। एक दिन उससे कुछ अपराध बन गया, जिसके कारण उसे वानरी होकर पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा। शाप देने वाले ऋषि ने बडी प्रार्थना के बाद इतना अनुग्रह कर दिया था कि वह जब जैसा चाहे, वैसा रूप धारण कर ले। चाहे जब वानरी रहे, चाहे जब मानवी। वानरराज कंसरी ने उसे पत्नी रूपमें ग्रहण किया था। वह बड़ी सुन्दरी थ और केसरी उससे बहुत ही प्रेम करते थे।
एक दिन दोनो ही मनुष्य का रूप धारण करके अपने राज्यमे सुमेरु शृङ्गो पर विवरण कर रहे थे । मन्द-मन्द वायु बह रहा था। वायु के एक झोके से अञ्जना की साड़ी का पल्ला उड़ गया। अञ्जना को ऐसा मालूम हुआ कि मुझे कोई स्पर्श कर रहा है। यह अपने कपड़को सम्हालनी हुई अलग खड़ी हो गयी। उसने डांटते हुए कहा– “ऐसा ढीट कौन है, जो मेरा पातिव्रत्य नष्ट करना चाहता है! मेरे इष्टदेव पतिदेव मेरे सामने विद्यमान हैं और कोई मेरा व्रत नष्ट करना चाहता है! मैं अभी शाप देकर उसे भस्म कर दूँगी।” तभी उन्हें प्रतीत हुआ मानो वायुदेव कह रहे हैं– “देवि! मैंने तुम्हारा व्रत नष्ट नहीं किया है। देवि! तुम्हें एक ऐसा पुत्र होगा, जो शक्तिमें मेरे समान होगा, बल और बुद्धिमें उसकी समानता कोई न कर सकेगा। मैं उसकी रक्षा करूँगा, वह भगवान् का सेवक होगा। तदनन्तर अञ्जना और केसरी अपने स्थान पर चले गये। भगवान् शंकर ने अंशरूप से अञ्जना के कान के द्वारा उनके गर्भ में प्रवेश किया।
वह चैत्र शुक्ल 15 मंगलवार का दिन था जब माता अंजना के गर्भ से भगवान शंकर ने वानर रूप से अवतार ग्रहण किया।
(किन्ही किन्ही के अनुसार हनुमान जी की जन्म तिथि कार्तिक कृष्ण 14 या कार्तिक शुक्ला 15 है।)