रामदास से 'समर्थ' बनने की कहानीटाकली गाँव के लोग अब रामदास स्वामी को अच्छी तरह पहचानने लगे थे इसलिए वे खयाल रखते थे कि उनके तप में कोई बाधा न आए। हाँ, कभी उन्हें समाधि अवस्था से बाहर देखते तो उनसे आशीर्वाद ज़रूर लेते।
एक दिन स्वामी रामदास किसी वृक्ष के तले, एकांत में ध्यानमग्न होकर बैठे थे। उस दिन पास वाले गाँव में एक नि:संतान ब्राह्मण का देहांत हो गया था। उस समय की सामाजिक प्रथा अनुसार उस ब्राह्मण की पत्नी ने पति के शव के साथ सती होने का निर्णय लिया।
उस समय अज्ञानवश, अच्छा-बुरा सोचने की लोगों की मानसिकता नहीं थी। वे बस परंपराओं का पालन करते थे, चाहे उसमें कितनी भी क्रूरता हो। सती प्रथा भी ऐसी ही क्रूर प्रथा थी, जिसमें पति के शव के साथ पत्नी का भी जीते जी दहन किया जाता था। इसके पीछे मान्यता यह थी कि ऐसा करने से दोनों स्वर्ग में भी एक साथ रहेंगे।
सती दहन के लिए उस स्त्री को दुल्हन की तरह सजाया गया और ढोल-नगाड़े सहित शव यात्रा के साथ शमशान ले जाने लगे। वहाँ मौजूद सभी औरतें उस स्त्री के सामने माता सती का गुणगान गाने लगीं।
देखेते-देखते शव यात्रा बड़े जुलूस में बदल गई। आस-पास के गाँव के लोग भी वह दृश्य देखने वहाँ आ पहुँचे। सभी उस स्त्री के चरण स्पर्श करने लगे ताकि स्वर्गधाम पहुँचनेवाली सती से आशीर्वाद मिल सके।
चलते-चलते जुलूस स्वामी रामदास के स्थान तक आ पहुँचा। सभी लोग स्वामीजी के चरण छूने लगे। रामदास बंद आँखों से सबको आशीर्वाद दे रहे थे। एकाएक उस स्त्री ने भी आकर उनके चरण छू लिए, जिसके लिए सारा जुलूस निकला था। रामदास स्वामी ने बंद आँखों से ही आशीर्वाद दिया... ‘अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव’ यानी आठ पुत्रों को जन्म देने वाली सौभाग्यवती बनो।
यह सुनकर वहाँ एकाएक सन्नाटा छा गया। यह कैसा आशीर्वाद दे दिया! जो स्त्री पति के मृत्यु पश्चात सती होने निकली है, उसे अष्टपुत्र होने का आशीर्वाद ? यह कैसे संभव है!
वह स्त्री भी विस्मित होकर स्वामी की तरफ देखती रही। फिर किसी ने कहा, “पहले देख तो लेते स्वामी, यह क्या आशीर्वाद दे दिया आपने!” इस घटना से वहाँ उपस्थित दुष्ट लोगों को स्वामी रामदास का उपहास करने का अच्छा अवसर मिल गया।
वह स्त्री आगे आकर बोली, “महाराज, इस जन्म में आपका आशीर्वाद पूरा होना संभव नहीं है। मैं तो अपने मृत पति के साथ सती होने चली हूँ। कुछ ही समय में मेरा यह जन्म समाप्त हो जाएगा। अब कैसा सौभाग्य और कौन सी संतान ! अब तो यह अगले जन्म में ही संभव होगा।”
स्वामी रामदास ने चौंककर आँखें खोलीं। “यह कैसे संभव है! जिस वाणी से निरंतर प्रभु राम का नाम लिया जाता है, उस वाणी से निकला आशीर्वाद झूठ कैसे हो सकता है!” रामदास के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी।
उन्होंने शव को उनके पास ले आने के लिए कहा। शव को समीप से देखते ही रामदास समझ गए कि लोग अज्ञानवश एक जीवित व्यक्ति को शव समझकर शमशान ले जा रहे थे। उसकी नाड़ी कमज़ोर हो गई थी लेकिन अभी भी हलकी साँस चल रही थी।
रामदास ने शव की नाक के सामने धागा पकड़कर साँस चलने की पुष्टि की। फिर प्रभु राम का नाम लेते हुए अपने कमंडल से शव पर जल छिड़का और उसके लिए प्रार्थना करने लगे।
देखते ही देखते उस शव में चेतना आ गई। उसकी साँसें दोबारा चलने लगीं। सारा गाँव आँखें फाड़कर वह दृश्य देखता रह गया कि कैसे स्वामी रामदास ने एक शव में प्राण वापस लाए थे। ब्राह्मणी की खुशी का तो ठिकाना न रहा। रामदास के कहने पर उस ब्राह्मण को वैद्य के पास इलाज के लिए ले जाया गया।
जाते-जाते ब्राह्मणी ने उन्हें वचन देते हुए कहा, “महाराज! आप मेरे पति के प्राणों को यमराज के द्वार से वापस ले आए हैं। आपका यह उपकार मैं कभी चुका नहीं पाऊँगी। मुझे विश्वास है कि आपके आशीर्वाद अनुसार अब मुझे आठ पुत्र भी होंगे। मैं सबके सामने यह वचन देती हूँ कि अपना पहला पुत्र आपकी सेवा में सदा के लिए अर्पित कर दूँगी।”
“यह सब प्रभु राम की कृपा है, मैं तो माध्यम मात्र हूँ।” इतना कहकर स्वामी रामदास पुनः ध्यानस्थ हो गए।
उस दिन के बाद स्वामी रामदास को 'समर्थ रामदास स्वामी' कहा जाने लगा क्योंकि लोगों के अनुसार उन्होंने अपने तप सामर्थ्य से एक शव में चेतना वापस लाई थी। दरअसल उन्होंने अपनी सहज बुद्धि से उस शव का परीक्षण किया था तब उसके जीवित होने की बात उन्हें पता चली थी, जिसे लोगों ने चमत्कार का नाम दे दिया।
उसके बाद वे ब्राह्मण पति-पत्नी उनके शिष्य बन गए। अपने वचन के अनुसार जब उन्हें पहला पुत्र हुआ तब उन्होंने मोह-ममता का त्याग कर, वह पुत्र समर्थ रामदास की सेवा में अर्पित किया। आगे जाकर वही पुत्र उनका परम शिष्य ‘उद्धवस्वामी' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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जिनका विश्वास अटूट होता है, वे चमत्कार के धनी बनते हैं।
जिवां श्रेष्ठ ते स्पष्ट सांगोनि गेले। परी जीव अज्ञान तैसेचि ठेले ।।
देहेबुधिचें कर्म खोटें टळेना। जुनें ठेवणें मीपणें आकळेना।।137 ।।
अर्थ- संत-महात्माओं ने अज्ञानी जीवों के लिए कल्याणकारी बातें बहुत सीधे और स्पष्ट रूप से बताई हैं लेकिन लोगों में अज्ञान वैसा का वैसा ही है। देहबुद्धिवश (अपने आपको देह मानकर) लोग अज्ञान में कर्म किए जाते हैं। अहंकार (मुझे सब मालूम है) की वजह से जो सत्य बताया गया है, वह लोग समझ नहीं पाते।
अर्क- सत्य जानकर, स्वज्ञान के प्रकाश में किया जानेवाला कर्म ही असली कर्म है, जो मुक्ति दिलाता है। “मैं शरीर नहीं हूँ।” यह सत्य अनुभव से जानना स्वज्ञान है। “मैं श्रेष्ठ हूँ, मुझे सारा ज्ञान है।” यह अहंकार मिटता है तो स्वज्ञान का प्रकाश फैलता है।
भ्रमे नाडळें वित्त ते गुप्त जालें। जिवा जन्मदारिद्र ठाकूनि आले ॥
देहेबुद्धिचा निश्चयो ज्या टळेना। जुनें ठेवणें मीपणें आकळेना॥138॥
अर्थ - मतिभ्रम की वजह से हमारे पास जो खज़ाना है वह लुप्त हो जाता है। इससे पूरा जन्म दरिद्री अवस्था में बीत जाता है। देहबुद्धि (मैं शरीर हूँ की मान्यता) से जो बाहर नहीं निकल पाता, वह पुरानी विरासत के खज़ाने (आत्मज्ञान) को नहीं समझ पाता।
अर्क - खुद को शरीर मानकर जीनेवाले को आत्मज्ञान नहीं मिल पाता। आत्मज्ञान का खज़ाना हमारे अंदर हर पल उपलब्ध है लेकिन “मैं शरीर हूँ।” यह विचार मति भ्रमित कर देता है और इंसान अंदर के इस खज़ाने को पा नहीं सकता यानी राजा होकर भी वह भिखारी का जीवन जीता है।