द्वादश परम भागवतोंमें श्रीशिवजीका प्रमुख स्थान है। भगवान्के स्वभाव, प्रभाव, गुण, शील, माहात्म्य आदिके जाननेवालोंमें भी श्रीशिवजी अग्रगण्य हैं। भगवान्के नामके प्रभावको जैसा श्रीशिवजी जानते हैं, वैसा कोई जाननेवाला नहीं है। यथा—‘नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥’ भगवान् नीलकण्ठ श्रीशिवजीका हलाहलपान इस बातका साक्षी है।
अमृतके लोभसे समुद्र-मन्थन किये जानेपर सर्वप्रथम कालकूट (महाविष) निकला, जो सब लोकोंको असह्य हो उठा। देवता और दैत्यतक उसकी झारसे झुलसने लगे।
तब भगवान्का संकेत पाकर सबके सब मृत्युंजय श्रीशिवजीकी शरणमें गये और जाकर उन्होंने उनकी स्तुति की। करुणावरुणालय भगवान् शंकर इनका दुःख देखकर सतीजीसे बोले—‘देवि ! प्रजा एवं प्रजापति महान् संकटमें पड़े हैं, इनके प्राणोंकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, अतः मैं इस विषको पी लँगा, जिससे इन सबका कल्याण हो।’ भवानीने इस इच्छाका अनुमोदन किया। जगज्जननी जो ठहरीं तथा उन्हें विश्वनाथका प्रभाव भी सर्वथा ज्ञात था। फिर तो श्रीशिवजीने यह कहकर कि
श्रीरामनामाखिलमन्त्रबीजं मम जीवनं च हृदये प्रविष्टम्। हालाहलं वा प्रलयानलं वा मृत्योर्मुखं वा विशतां कुतो भयम्॥
अर्थात् श्रीराम-नाम समस्त मन्त्रोंका बीज है। मेरा जीवन है तथा मेरे हृदयमें प्रविष्ट होकर स्थित है। फिर तो चाहे हलाहल पान करना हो, चाहे प्रलयानल पान करना हो, चाहे मृत्युके मुखमें ही क्यों न प्रवेश करना हो, भय ही किस बातका? हलाहल विष भी पान कर लिया और आश्चर्यकी बात यह है कि ‘खायो कालकूट भयो अजर अमर तनु।’
हलाहलपानके प्रसंगसे श्रीशिवजीकी निष्ठा तथा जीवोंपर दयाका भाव प्रकाशमें आता है। श्रीतुलसीदासजी कहते हैं कि—
‘जरत सकल सुर बूंद बिषम गरल जेहिं पान किय। तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥’ (रा०च०मा०) श्रीशिवजी स्वयं निरन्तर राम-नाम जपते रहते हैं। यथा
—‘तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अलँग आराती॥ संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥’ तथा अपनी अत्यन्त प्रिय काशीपुरीमें मरनेवाले प्रत्येक प्राणीको मृत्युक्षणमें श्रीराम-नामका उपदेश देकर उसे मुक्त कर दिया करते हैं यथा—‘
अहं भवन्नामगृणन् कृतार्थों वसामि काश्यामनिशं भवान्या। मुमूर्षमाणस्य विमुक्तयेऽहं दिशामि मन्त्रं तव राम नाम॥’ (अध्यात्मरामायण ६। १५ । ६२) अर्थात् मैं आपके नामके गुणोंसे कृतार्थ होकर काशीमें भवानीसहित निवास करता हूँ और मरणासन्न प्राणियोंकी मुक्तिके लिये उनके कानमें आपका मन्त्र राम-नामका उपदेश करता हूँ। श्रीरामजीके साथ श्रीशिवजीका सम्बन्ध त्रिविध है। यथा—
‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ अर्थात् श्रीशिवजी श्रीसीतापति रामचन्द्रजीके सेवक भी हैं, सखा भी हैं और स्वामी भी हैं। इस भावका प्रकाश उस समय होता है, जब श्रीरामचन्द्रजीने सेतुबन्धनके समय शिवलिंगकी स्थापना की और उनका नाम रामेश्वर रखा। नामकरण होनेके पश्चात् परस्पर ‘रामेश्वर’ शब्दके अर्थपर विचार होने लगा। सर्वप्रथम श्रीरामजीने इसमें तत्पुरुष समास बताते हुए अर्थ किया—
रामस्य ईश्वरः (रामके ईश्वर), इसपर श्रीशिवजी बोले— भगवान् ! यहाँ बहुव्रीहि समास है अर्थात् इसका अर्थ—
रामः ईश्वरो यस्यासौ रामेश्वरः (राम ही ईश्वर हैं जिनके वह रामेश्वर)—इस भाँति हैं। ब्रह्मादिक देवता हाथ जोड़कर बोले कि-महाराज! इसमें कर्मधारय समास है अर्थात्
‘रामश्चासौ ईश्वरश्च’ अथवा
'यो रामः स ईश्वरः’ (जो राम वही ईश्वर) ऐसा अर्थ है। इस आख्यायिकासे तीनों भाव स्पष्ट हैं। ‘रामेश्वर’ शब्दमें बहुव्रीहि समाससे शिवजीका सेवक-भाव, तत्पुरुषसे स्वामी-भाव तथा कर्मधारयसे सख्य-भाव पाया जाता है। ऐसे अद्भुत भक्त हैं श्रीशिवजी !
श्रीभक्तमालजीके टीकाकार श्रीप्रियादासजी श्रीशिवजीकी भगवत्-भागवत-निष्ठाके सम्बन्धमें लिखते हैं—
प्रसिद्ध बारह भक्तराजोंकी सुख देनेवाली कथाएँ श्रीमद्भागवत आदि पुराणोंमें अनेक प्रकारसे गायी गयी हैं, परंतु शिवजीकी एक बातको प्रायः लोग नहीं जानते हैं। उस सुन्दर कथाको सुनकर हृदय भक्तिरसमें मग्न हो जाता है। ऐसे सुन्दर भावोंमें शंकरजीने अपने मनको उलझा रखा है। सीताके वियोगसे वनमें श्रीरामचन्द्रजीको व्याकुल देखकर सतीजीने भावप्रवीण शंकरजीसे कहा—यह कैसे सर्वज्ञ ईश्वर हैं? यह इनका नवीन कौतुक देखिये कि सीताजीके वियोगमें अति दुखी हो रहे हैं। तब शंकरजीने खूब समझाया कि यह तो प्रभुकी नरलीला है। परंतु सतीजीकी समझमें नहीं आया। मना करनेपर भी परीक्षा लेनेके लिये उन्होंने सीताजीका-सा रूप बनाया।
सतीजीका रूप और वेश-भूषा सीताजीके समान था, उसमें थोड़ा भी अन्तर नहीं था। श्रीरामजीने उसे देखा, पर उनके मनमें नाममात्र भी यह बात नहीं आयी कि ये सीताजी हैं, उनको सती ही माना। तब सतीजीने यह बात आकर शंकरजीको सुना दी। शंकरजीने अति दुःख पाकर सतीजीको अनेक प्रकारसे समझाया कि तुमने इष्टदेवी श्रीसीताजीका रूप धारण किया। इसलिये तुम्हारे इस शरीरमें अब मेरा पत्नीभाव नहीं रहा। यह सुनकर सतीजीको बड़ा शोक हुआ और उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी। सतीजीने वह शरीर त्याग दिया, पुनः हिमालयके घरमें जन्म लेकर वे शंकरजीको प्राप्त कर सकीं। शिवजी श्रीरामजीकी भक्ति-भावनामें इस प्रकार मग्न रहते हैं कि इतिहास-पुराणोंमें उनकी कथा जगमगा रही है। प्रियादासजी कहते हैं कि मुझे शिवजी अत्यन्त प्यारे लगे, इसलिये रीझकर मैंने इस कथाका गान किया है।
एक बार भगवान् शंकर देवी पार्वतीके साथ पृथ्वीपर विचर रहे थे, मार्गमें उजड़े ग्रामोंके दो टीले दिखायी पड़े। शंकरजीने नन्दीसे उतरकर दोनोंको प्रणाम किया; क्योंकि भक्ति आपको अत्यन्त प्यारी है। पार्वतीजीने पूछा—भगवन् ! आपने किसको प्रणाम किया, यहाँ कोई देवता या मुनि दिखायी नहीं पड़ रहे हैं, तब शिवजीने उत्तर दिया कि पहले टीलेपर दस हजार वर्षपूर्व एक प्रेमी भक्त निवास करते थे और यह जो दूसरा टीला है, इसपर दस हजार वर्ष बाद एक भक्त निवास करेंगे। इसीसे ये दोनों स्थान वन्दनीय हैं। भक्तोंका ऐसा प्रताप सुनकर पार्वतीजीके हृदयमें भक्तोंके प्रति अधिक अनुराग बढ़ गया, उसका ऐसा गहरा रंग चढ़ा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है