भक्तश्रेष्ठ भानुदास जी के पुत्र चक्रपाणि, चक्रपाणि के पुत्र सूर्यनारायण और सूर्यनारायण के पुत्र भक्तराज एकनाथ हुए। इनका जन्म संवत 1590 विक्रमी (1533 ई.) के लगभग हुआ था। इनके जन्मकाल में मूल नक्षत्र था, अत: इनके जन्मते ही इनके पिता का देहान्त हो गया था तथा उसके कुछ काल बाद माता का भी। इनके पिता सूर्यनारायण बड़े मेधावी तथा माता रुक्मिणी बड़ी पतिव्रता और सुशीला थीं। इनका लालन-पालन पितामह चक्रपाणि ने किया। एकनाथ बचपन से ही बड़े बुद्धिमान, श्रद्धावान और भजनानन्दी थे। छठे वर्ष में इनका यज्ञोपवीत संस्कार हो गया था। ब्राह्मकर्म की इन्हें उत्तम शिक्षा मिली। 'रामायण', 'महाभारत' तथा अनेक पुराण इन्होंने बाल्यावस्था में ही सुन लिये। बारह वर्ष की अवस्था में इनके अंदर ऐसी भगवद-प्रीति जागी कि भगवान से मिलाने वाले सद्गुरु के लिये ये व्याकुल हो उठे। इसी स्थिति में, रात के चौथे पहर किसी शिवालय में बैठे ये हरिगुण गा रहे थे, तब तक इन्हें यह आकाशवाणी सुनायी पड़ी–
"जाओ देवगढ़ में, वहाँ जनार्दन पंत के दर्शन करो। वे तुम्हें कृतार्थ करेंगे।"
बस, ये बिना किसी से कुछ कहे-सुने चल दिये। दो दिन और दो रात का रास्ता तय करके तीसरे दिन प्रात:काल देवगढ़ पहुँचे। वहाँ इन्हें जनार्दन पंत के दर्शन हुए। इन्होंने उनके चरण पकड़ लिये। यह गुरु-शिष्य-संयोग संवत 1602 विक्रमी (1545 ई.) में हुआ।
एकनाथ छ: वर्ष तक गुरु की सेवा में रहे। गुरु सेवाकाल में गुरु से पहले सोकर उठते थे और गुरु की निद्रा लग जाने के बाद सोते थे। गुरु जब स्नान करने के लिये उठते, तब ये पात्र में जल भर देते, धाती चुनकर हाथ में दे देते, पूजा की सब सामग्री पहले से ही जुटाकर रखते, जब तक पूजा होती, तब तक पास ही बैठे रहते, जब जो वस्तु आवश्यक होती, उसे आगे कर देते, गुरु भोजन कर लेते, तब उन्हें पान लगाकर देते और जब वे विश्राम करने लगते, तब ये पैर दबाते। इस प्रकार गुरु-सेवा को इन्होंने परम धर्म जानकर उसका भली-भाँति पालन किया।
जनार्दन स्वामी ने कुछ दिनों तक एकनाथ जी को हिसाब-किताब का काम सौंप रखा था। एक दिन इन्हें एक पाई का हिसाब नहीं मिला। इसलिये रात को गुरुसेवा से निवृत्त होकर ये बही-खाता लेकर बैठ गये। तीन पहर तक हिसाब जांचते रहे। आखिर जब भूल मिली, तब इन्होंने बड़ी प्रसन्नता से ताली बजायी। स्वामी जी उस समय सोकर उठे थे। उन्होंने झरोखे से झांककर देखा और पूछा कि- "एकनाथ आज यह कैसी प्रसन्नता है।" एकनाथ जी ने बड़ी नम्रमा से पाई की भूल का हाल बतलाया। गुरु जी ने कहा- "एक पाई की भूल का पता लगने से जब तुम्हें इतना आनन्द मिल रहा है, तब इस संसार की बड़ी भारी भूल जो तुमसे हुई है, उसका पता लग जाने पर तुम कितने आनन्दित होंगे। इसी प्रकार यदि तुम भगवान के चिन्तन में लग जाओ तो भगवान कहीं दूर थोड़े ही हैं।" एकनाथ जी ने इसे गुरु का आशीर्वाद जाना और कृतज्ञता से उनके चरणों में मस्तक रख दिया।
इसके कुछ ही दिनों बाद एकनाथ को श्रीदत्तात्रेय भगवान का साक्षात्कार हुआ। एकनाथ ने देखा– श्रीगुरु ही दत्तात्रेय हैं और दत्तात्रेय ही गुरु हैं। इसके पश्चात एकनाथ जी को श्रीदत्तात्रेय भगवान चाहे जब दर्शन देने लगे। इस सगुण-साक्षात्कार के अनन्तर श्रीगुरु ने एकनाथ को भगवान श्रीकृष्ण की उपासना की दीक्षा देकर शूलभंजन पर्वत पर रहकर तप करने की आज्ञा दी। एकनाथ उस पर्वत पर चले गये और वहाँ उन्होंने घोर तपस्या की। तप पूरा होने पर वे फिर गुरु के समीप लौटे। इसके बाद श्रीगुरु ने उन्हें संत-समागम और भागवत-धर्म का प्रचार करने के लिये तीर्थयात्रा करने की आज्ञा दी और स्वयं भी नासिक-त्र्यम्बकेश्वर तक उनके साथ गये। इसी यात्रा में एकनाथ ने चतु:श्लोकों का भागवत पर ओवी छन्द में एक ग्रन्थ लिखा, जिसको पहले-पहल उन्होंन पंचवटी पहुँचकर श्रीरामचन्द्र जी के सामने गुरु श्रीजनार्दनस्वामी को सुनाया।
तीर्थयात्रा पूरी करके एकनाथ अपनी जन्मभूमि पैठण लौट आये, परंतु अपने घर न जाकर पिप्पलेश्वर महोदव के मन्दिर में ठहर गये। इनके वृद्ध दादा-दादी वर्षों से इनकी खोज कर रहे थे और उन्होंने श्रीगुरु जनार्दनस्वामी से यह आज्ञापत्र ले लिया था कि- "एकनाथ! अब तुम विवाह करके गृहस्थाश्रम में रहो।" अत: जब इनके वृद्ध दादा-दादी इनसे मिलने जा रहे थे, तब रास्ते में ही इनसे भेंट हो गयी। उन्होंने इन्हें छाती से लिपटाकर श्रीगुरु का वह आज्ञापत्र दिखलाया। इस पर एकनाथ ने वहीं अपनी तीर्थयात्रा समाप्त कर दी। गुरुदेव के आज्ञानुसार इनका विवाह हुआ। इनकी धर्मपत्नी गिरिजाबाई बड़ी पतिपरायणा, परम सती और आदर्श गृहिणी थीं; और इस कारण इनका सारा प्रपंच भी परमार्थपरायण ही हुआ।
इनके गार्हस्थ-जीवन की दिनचर्या इस प्रकार थी-
ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पहले प्रात:स्मरण और तत्पश्चात गुरु-चिन्तन करना। शौचादि एवं गोदावरी-स्नान से निवृत्त हो, सूर्योदय से पूर्व संध्या-वन्दन करना। सूर्योदय के बाद घर लौटकर देवपूजन, ध्यान-धारणा आदि करके 'गीता'-भागवतादि ग्रन्थों का पाठ अथवा श्रवण करना। मध्याह्न में पुन: गोदावरी-घाट पर जाकर संध्या-तर्पण, ब्रह्मयज्ञ करना और तदनन्तर घर लौटकर बलिवैश्वदेव तथा अतिथि-अभ्यागतों के पूर्ण सत्कार के बाद स्वयं भोजन करना। तत्पश्चात विद्वानों और भक्तों के साथ बैठकर आत्मचर्चा करना। सायंकाल फिर गोदावरी तट पर जाकर संध्या-वन्दन करना और वहाँ से लौटकर धूप-दीप के साथ भगवान की आरती और स्तोत्रपाठ करना। इसके अनन्तर कुछ हल्का-सा आहार करके मध्य रात्रि तक भगवत्कीर्तन करना अथवा वेदोपनिषद-पुराणादि का अध्ययन करना। मध्य रात्रि से लेकर चार घंटे तक शयन करना।
एकनाथ ब्राह्मणों का बड़ा आदर करते थे। इनके यहाँ सदावर्त चलता रहता था। सबको अन्न बांटा जाता था। रात को जब ये कीर्तन करने लगते थे, उस समय दूर-दूर के लोग यहाँ आते थे, जिनमें अधिकांश ऐसे ही श्रोता होते थे, जो इन्हीं के यहाँ भोजन पाते थे। नित्य नये अतिथि आया ही करते थे। इस प्रकार यद्यपि एकनाथ के यहाँ बड़ी भीड़-भाड़ रहती थी, फिर भी इनका सारा काम मजे में चलता था। अन्न-दान और ज्ञान-दान का प्रवाह इनके यहाँ निरन्त बहा ही करता था। क्षमा, शान्ति, समता, भूतदया, निरहंकारता, निस्संगता, भक्तिपरायणता आदि समस्त दैवी सम्पत्तियों के निधान, एकनाथ महाराज के दर्शनमात्र से असंख्य स्त्री-पुरुषों के पाप-ताप-संताप नित्य निवारित होते थे। इनका जीवन बद्धों को मुमुक्ष बनाने, मुमुक्षुओं को मुक्त करने और मुक्तों को पराभक्ति का परमानन्द दिलाने के लिये ही था। इनके परोपकारमय नि:स्पृह साधुजीवन की अनेकों घटनाएं हैं, जिनसे इनके विविध दैवीगुण प्रकट होते हैं। इनके जीवन की कुछ विशेष घटनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार है–
1.) एकनाथ नित्य गोदावरी स्नान के लिये जाया करते थे। रास्ते में एक सराय थी, वहाँ एक मुसलमान रहा करता था। यह उस रास्ते से आने-जाने वाले हिंदुओं को बहुत तंग किया करता था। एकनाथ महाराज को भी इसने बहुत तंग किया। एकनाथ महाराज जब स्नान करके लौटते, तब यह उन पर कुल्ला कर देता। एकनाथ महाराज नदी को लौटकर स्नान कर आते। यह फिर उन पर कुल्ला करता।इस तरह दिन में पांच-पांच बार इन्हें स्नान करना पड़ता। एक दिन तो इस अत्याचार की सीमा हो गयी। एक सौ आठ बार उस यवन ने इन पर पानी से कुल्ला किया और करीब एक सौ आठ बार ये स्नान कर आये। पर महाराज की शान्ति और प्रसन्नता ज्यों की त्यों बनी रही। यह देखकर वह यवन अपने किये पर बड़ा लज्जित हुआ और महाराज के चरणों में आ गिरा। तब से उसका जीवन ही बदल गया।
2.) एकनाथ महाराज के पिता का श्राद्ध था। रसोई तैयार हुई, आमंत्रित ब्राह्मणों की प्रतीक्षा में आप द्वार पर खड़े थे। उधर से चार-पांच महार निकले। मिठाई की सुन्दर गन्ध पाकर वे आपस में कहने लगे- "कैसी बढ़िया सुगन्ध आ रही है। भूख न हो तो भूख लग जाय। पर ऐसा भोजन हम लोगों के भाग्य में कहा।" एकनाथ महाराज ने यह बात सुन ली और तुरंत उन महारों को बुलाकर उन्हें उस रसोई से अच्छी तरह भोजन करा दिया और जो कुछ बचा, वह भी गिरिजाबाई ने इन महारों के घरवालों को बुलाकर खिला दिया। फिर स्थान को भली-भाँति धो-लीपकर ब्राह्मणों के लिये दूसरी रसोई बनायी गयी। पर निमंत्रित ब्राह्मणों को जब यह बात मालूम हुई, तब उनके क्रोध का पार नहीं रहा। उन्होंने एकनाथ को धर्मभ्रष्ट समझकर बहुत अंट-संट सुनाया और फटकार कर कहा- "तुम्हारे जैसे पतित के यहाँ हम लोग भोजन नहीं करेंगे।" एकनाथ ने विनयपूर्वक समझाया कि "आप लोग भोजन कीजिये, सब शुद्धि करके नयी रसोई बनी है।" पर ब्राह्मण नहीं माने। तब हारकर यथाविधि श्राद्ध का संकल्प करके एकनाथ महाराज ने पितरों का ध्यान और आवाहन किया। स्वयं पितर मूर्तिमान होकर प्रकट हो गये। उन्होंने स्वयं श्राद्धान्न ग्रहण किया और परितृप्त होकर आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मणों को जब इस बात का पता लगा, तब वे बहुत लज्जित हुए।
3.) एक बार आधी रात के समय चार प्रवासी ब्राह्मण पैठण में आये और आश्रय ढूंढते-ढूंढते एकनाथ जी के घर पहुँचे। एकनाथ ने उनका स्वागत किया। मालूम हुआ कि प्रवासी ब्राह्मण भूखे हैं। उनके लिये रसोई बनाने को गिरिजाबाई तैयार हुईं, पर इधर कुछ दिनों से लगातार मूसलाधार वृष्टि होने से घर में सूखा ईंधन नाममात्र को भी नहीं रह गया था। इतनी रात में अब लकड़ी कहाँ से आये? एकनाथ ने अपने पलंग की निवास खोल दी और पावा-पाटी तोड़कर लकड़ी तैयार कर दी। पैर धाने के लिय ब्राह्मणों को गरम पानी दिया गया, तापने के लिये अंगीठियां दी गयीं और यथेष्ट भोजन कराया गया। ब्राह्मण तृत्प हुए और एकनाथ को धन्य–धन्य कहने लगे।
4.) काशी की यात्रा करके एकनाथ महाराज जब प्रयाग का गंगाजल कांवर में लिये रामेश्वर जा रहे थे, तब रास्ते में एक रेतीला मैदान आया। वहाँ एक गधा मारे प्यास के छटपटा रहा था। एकनाथ ने तुरंत अपनी कांवर से पानी लेकर उसके मुंह में डाला। गधा चंगा होकर वहाँ से चल दिया। एकनाथ के संगी और आश्रित उद्धवादि लोग प्रयाग के गंगाजल का ऐसा उपयोग होते देख बहुत द:खी हुए। एकनाथ ने उन्हें समझाया कि "भलेमानसो ! बार-बार सुनते हो कि भगवान घट-घटवासी हैं और फिर भी ऐसे बावले बनते हो। समय पर जो काम न दे, ऐसा ज्ञान किस काम का? कांवर का जल जो गधे ने पीया, वह सीधे श्रीरामेश्वर जी पर चढ़ गया।" महाकवि मोरोपंत एकनाथ महाराज के इस कृत्य को ‘लक्षविप्रभोजन’ के समान पुण्यप्रद कहते हैं।
5.) पैठण में एक वेश्या थी, बड़ी चतुर, सुन्दर और नृत्य-गायनादि में कुशल। एकनाथ महाराज का कीर्तन सुनने कभी-कभी वह भी जाया करती थी। एक दिन महाराज ने भागवत का पिंगलाख्यान कहा। उसे सुनकर उस वेश्या को वैराग्य हो गया। उसे अपने शरीर से घृणा हो गयी। अपने शरीर के नवों द्वारों से रात दिन मैला ही निकलता हुआ प्रतीत हुआ। वह पश्चाताप करने लगी कि "मैं भी कैसी अभागिन हूँ, जो चमड़े से घिरे हुए इस विष्ठा-मूत्र के पिण्ड को आलिंगन करने में अपना जीवन बिता रही थी। हृदय में स्थित अक्षय आनन्दस्वरूप श्रीहरि का कभी मुझे स्वप्न में भी ध्यान नहीं हुआ।" इसी प्रकार अनुताप करती हुई वह वेश्या अपने घर का द्वार बंद किये घर में अकेली ही पड़ी रही। बार-बार एकनाथ महाराज का स्मरण करती, यह भी सोचती कि "मुझ जैसी पापिन को भला, ऐसे महापुरुष के चरणों का स्पर्श कभी क्यों मिलने लगा।" एक दिन इसी प्रकार वह सोच रही थी कि एकनाथ महाराज गोदावरी स्नान करके उसी रास्ते से लौट रहे थे। झरोखे में से उसने महाराज को देखा और दौड़ी हुई दरवाज़े पर आयी। बड़ी अधीरता से द्वार खोलकर गद्गद कण्ठ से बोली- "महाराज ! क्या इस पापिन के घर को आपके चरण पवित्र करने की कृपा कर सकते हैं?" एकनाथ महाराज के पदार्पण से वह पापसदन भगवन्नाम-निकेतन हो गया। वेश्या अब वेश्या न रही, अनुताप से उसके सारे पाप धुल गये। एकनाथ महाराज के अनुग्रह से उसके चित्त पर भगवन्नाम की मुहर लग गयी। एकनाथ महाराज ने उसे ‘राम, कृष्ण, हरि’ मंत्र दिया और सत्कर्म का क्रम बताया। दस वर्ष बाद जब इस अनुगृहीता का देहावसान हुआ, तब वह श्रीकृष्ण स्वरूप के ध्यान में निमग्न थी।
6.) एक रात एकनाथ का कीर्तन सुनने वालों की भीड़ में चार चोर घुस बैठे। इस नीयत से कि कीर्तन समाप्त होने पर जब सब लोग अपने-अपने घर चले जायंगे और यहाँ भी सब लोग सो जायंगे, तब रात के सन्नाटे में अपना काम बना लेंगे। रात के दो बजे के लगभग चोरों को यह मौका मिला। कुछ कपड़े और बर्तन इन्होंने हथियाये तथा और भी हाथ साफ करने की घात में इधर-उधर ढूंढने लगे। ढूंढते-ढूंटते देवगृह के समीप पहुँचे, भीतर एक दीपक टिमटिमा रहा था और एकनाथ महाराज समाधिस्थ थे। उन चोरों ने देखा और देखते ही उनकी दृष्टि अंधी हो गयी। अब वे निकल भागना ही चाहते थे, पर हथियाये हुए बर्तनों से टकराकर नीचे गिरे। देवगृह से एकनाथ महाराज बाहर निकले। पूछा, कौन है? चोर रोने और गिड़गिड़ाने लगे- "महाराज! हम लोग बड़े पापी हैं, क्षमा कीजिये।" महाराज ने उनके नेत्रों पर हाथ फेरा, उन चोरों को पूर्ववत दृष्टि प्राप्त हुई, साथ ही उनकी बुद्धि पलट गयी। एकनाथ महाराज ने उनसे कहा कि "ये कपड़े और बर्तन तो तुम लोग ले ही जाओ, और भी जो कुछ इच्छा हो, ले सकते हो।" यह सुनकर उन्होंने अपनी अंगुली में पहनी हुई अंगूठी भी उनके सामने रख दी। चोर बड़े लज्जित हुए। बार-बार महाराज के चरणों में गिरे और तब से उन्होंने चोरी करना ही छोड़ दिया।
इस प्रकार परोपकारमय नि:स्पृह साधु जीवन से, उपदेश से, दान से सबका उपकार करते हुए गृहस्थाश्रम का दिव्य आदर्श सबके सामने रखकर अन्त में संवत 1656 विक्रमी (1599 ई.) की चैत्रकृष्णा षष्ठी को एकनाथ महाराज ने गोदावरी-तीर पर अपना शरीर छोड़ा। उस समय ये पूर्ण स्वस्थ थे। इन्होंने अपने प्रयाण का दिन पहले ही बतला दिया था। अत: उसके कई दिन पहले से ही पैठण में सर्वत्र भगवत्संकीर्तन हो रहा था। हरिकथाओं की धूम थी। दूर-दूर से आये हुए दर्शनार्थियों की भीड़ जमा हो गयी थी। आकाश भगवन्नाम से गूँज रहा था। जब उस षष्ठी तिथि का प्रात:काल सामने आ गया, तब एकनाथ महाराज ने गोदावरी में स्नान किया और बाहर निकलकर सदा के लिये समाधिस्थ हो गये।
ग्रन्थ रचना
एकनाथ महाराज के ग्रन्थों में सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भागवत-एकादश स्कन्ध', 'रुक्मिणी-स्वयंवर' और 'भावार्थ रामायण' हैं। कहते हैं कि भगवान श्रीरामचन्द्र ने स्वयं ही एकनाथ महाराज से 'भावार्थ रामायण' लिखवाया था। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त 'चिरंजीवपद', 'स्वात्मबोध', 'आनन्दलहरी' आदि अन्य कई छोटे-मोटे ग्रन्थ भी एकनाथ महाराज के बनाये हुए हैं। आपके सभी ग्रन्थ मराठी भाषा में हैं।