श्री श्याम सुन्दर 'श्याम' की काव्य रचना
- शैलेन्द्र बुधोलिया
ऐसे व्यक्तित्व दुर्लभ और महान होते हैं जिनका विकास एक रैखिक न होकर अनेक आयामों में समान रचना धर्मिता की उपलब्धियों से संयुक्त होता है। स्व. श्याम सुन्दर श्याम का व्यक्तित्व ऐसा ही था। अनेक विषयों के गहन अध्येता, विवेकशील विचारक, संगीत के ज्ञाता और गायक, खिलाड़ी, राजनेता, जीवनमूल्यों को सिद्धांत में ही नहीं व्यवहार में भी मानने वाले और उत्कृष्ट कवि, ऐसे कितने ही पार्श्व हैं जिनसे श्याम जी के लोकप्रिय व्यक्तित्व भी संरचना हुई थी। यहां उनके कवि रूप की एक झांकी प्रस्तुत करना अभिप्रेत है।
'दतिया उद्भव और विकास'पुस्तक में श्री बालमुकुन्द भारती, श्रीमती सविता वाजपेयी और श्री घनश्याम सक्सेना ने श्याम जी के महत्व का जिक्र करते हुए लिखा है कि उन्होंने बहुत सी कविताएं लिखी थीं पर उनकी डायरी अब अप्राप्य है। जिस समकालीन बोध पर श्याम जी नये शिल्प में काव्य रचना कर रहे थे उसके उदाहरणों से यह अनुभव होता है कि उनकी कविताओं का खो जाना हिन्दी जगत की बहुत बड़ी हानि है। श्री घनश्याम सक्सेना के सम्पादन में झांसी से प्रकाशित पत्र 'अमरवाणी' में श्यामजी भी अनेक कविताएं छपी थीं लेकिन दुर्भाग्य से उस पत्र के वे सभी अंक सक्सेना जी के पास भी सुरक्षित नहीं हैं।
श्याम जी ने जिस समय किशोरावस्था में रचना आरंभ की थी वह हिन्दी कविता के व्यापक परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से छायावाद युग की समाप्ति का काल था। हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों का निर्धारण करते हुए तो यह कहा जा सकता है कि 1936 ई. के आसपास से कविता में प्रगतिशील दृष्टि, राष्ट्रीय चेतना और ऐसी ही नवीन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होने लगी थी पर देश के विभिन्न अंचलों में इनके हाथ छायावाद की रूहानियत, प्रेम, सौन्दर्य, प्रकृति और वैयक्तिक अनुभूतियों का दौर काफी बाद तक चलता रहा। शिल्प की दृष्टि से भी नये छंद और गीतों का जो सिलसिला पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी ने शुरू किया था वह भी चल रहा था और कवित्त, सवैया शैली भी प्रचलित थी। कानपुर से गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' के सम्पादन में प्रकाशित पत्र 'सुकवि' में दोनों प्रकार की कविताएं छप रही थीं।
श्याम जी के काव्य की निर्मिति के प्रेरक प्रभावों में उनका विशद अध्ययन, स्वाधीनता की चेतना, जीवन के प्रति रागात्मक दृष्टि और जीवन का एक सुविचारित दर्शन समाहित है।
यहां उनकी कुछ कविताएं प्रस्तुत हैं जो दतिया से प्रकाशित 'विजय" पाक्षिक पत्र के कई अंकों में प्रकाशित हुई थी। यह पत्र तत्कालीन दतिया राज्य के 'वार ऑफिस' से प्रकाशित हुआ। श्याम जी जो उस समय डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स के पद पर कार्यरत थे, इस पत्र के 'एक्टिंग सम्पादक थे। 1944 ई. में इस पत्र का सलाना चन्दा दो रूपये था और 1 सितम्बर 1944 के अंक का चन्दा जो कि प्रत्येक अंक का रहा होगा, डेढ़ आना था। उक्त अंक की विषय सूची में नवयुवकों से (कविता) ब्रिटिश विजय' (कविता), रक्षाबन्धन (कहानी) जैसी विविध सामग्री थी। इससे श्याम जी के सम्पादन कौशल का भी परिचय मिलता है। सन 1944 ई. में श्याम जी 21 वर्ष के थे। इसके काफी पहले से ही यह लिखने लगे थे। इन कविताओं में अनुभूति और अभिव्यक्ति का प्रौढ़ स्वरूप उनकी रचनात्मक प्रतिभा का उदाहरण है।
प्रस्तुत कविताएं दतिया के श्री महेश नाहर के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं। उनके पास 'विजय' पत्र के अनेक अंक सुरक्षित हैं।
कविताएं
सोने वाले से
हे सोने वाले जाग, जाग।
सुख से सोता सुख कहां रखा.
मरने जीने की रातों में?
उलझा है तू सोते-सोते-
कल के विधान की बातों में
वह कल तो होगा कभी नहीं,
फिर कैसा उससे जुड़ा राग ।।
हे सोने वाले जाग जाग
सोने में तू गाता है क्या?
रे, छोड़ आज इन तानों को।
गा ले अनन्त के मौन गीत,
रहने दे जीवन गानों को।
ले उठा हृदय का इकतारा,
दे छेड़ आज अपना बिहाग ।।
हे सोने वाले जाग, जाग।
उस अदृश्य के छोरों से,
तूफान भयंकर आता है।
झोंकों का बेग सहे कैसे,
सब स्नेह सूखता जाता है।
सपनों के सब सन्देश लिये,
बुझता जाता है ये चिराग ।।
हे सोने वाले जाग, जाग।
कविता 2
पागल
जग कहता तू पागल पागल !
आशाओं का बुझता दीपक,
अपनी व्यथा लिये जलता हूँ।
इस जगती को छान-बीन कर, रूकने को ही मैं चलता हूं।
शांत-सुनील इंदरा-युग है तो भी मुझ पर घिरते बादल ।।
जग कहता तू पागल पागल !
बीते मधुमासों के कलरव-
मन यौवन की महकी हाला।
आपूरित हो वहीं कभी जो,
रिक्त हुआ न मेरा प्याला ।
पतझड़, अंतिम आशा हो क्या, अभिशापित है जीवन हलचल ।।
बुझता जाता जीवन दीपक
कितना समय शोक जो करना।
प्रियतम को बैठाये दिल में,
बेसुध हो बस आहें भरना।
डरता नहीं मृत्यु से भी मैं,
आगे बढ़ता जाता प्रति-पल ।।
जग कहता तू पागल पागल !
बातों में वैषम्य सदा है-
इसी लिये तुम पागल कहते।
मैं भी कहता- तुम क्या जानो.
हम अपनी दुनिया में रहते।
मुझको भी कुछ सुख मिलता है,
जिसे जानता केवल पागल ।।
जग कहता तू पागल पागल !
जग कहता तू पागल पागल !
बुझता जाता जीवन-दीपक-
शैशव
माता के मृदु अंचल में,
मेरा था नित्य बसेरा ।
प्रतिदिवस वहीं होता था.
जीवन का नया सवेरा ।
क्षितिज की रेखा के उस पार
जगाने जाता था जब कौन ।
कुतुहल में यद्यपि तल्लीन,
किन्तु मैं फिर भी रहना मौन । शैशव बसन्त की आशा,
अपने ही सान्धय गगन में।
देखा करती थी विधु को
फूली सी अपने मन में ।
चुम्बन पवनान्दोलन से,
थी कमल-कली मुस्काई ।
खुल पड़े फलक अलसित- से, लेकर मादक अंगड़ाई।
जब-जब लोरी गाती थी,
माता की मूर्ति प्रवीणा ।
हो जाती थी तब झंकृत,
मेरी छोटी सी वीणा ।
प्रथम जीवन का पुण्य विहान ।
बन गया जीवन का अपकर्ष
शांति में लीन कल्पना युक्त, बालपन बना आज संघर्ष ।
।। बसंत ऋतु
अलि, आई आज माधव बहार,
उद्यान बन गया मधुशाला,
सुरभित पुष्पों का ले प्याला,
रस ही जिसमें मादक हाला,
पी मधुप बन गया मतवाला,
करता फिरता प्रेमाभिसार अलि, आई आज माधव बहार ।।
कोकिल का कू-कू मंत्र जगा.
मानव तन्द्रा का त्याग उठा,
संसृति में मधुमय गीत उठा, ले वीणा फिर यह विश्व उठा,
बज उठे अचानक शांत तार
अलि, आई आज माधव बहार ।।
किसने मारी यह पिचकारी, अरूणाई से, रंगदी सारी,
फूली यौवन की फुलवारी,
खिल उठी आज क्यारी क्यारी, अभिराम 'श्याम' सौजन्य-सार अलि, आई आज माधव बहार ।।
वर्षा-वर्णन
झूलत हैं कुंजन में श्यामा-श्याम एक संग,
देखिकै मनोहरता मोर सुख में पगी।
नाचत फुलाय पंख बोले रंग भीनी तहां,
चातक के चित्त में पी-पी भावना जगी ।
देखि द्रम-दल ह्व सहसा हरिआन लगे,
दादुर पुकारें मोद पक्षी-मंडली रंगी। दामिनी दिखात छिपजात प्रगटात फेरि,
'श्याम' घनश्याम घन नीर की झरी लगी।
सारौं न काम कछु काम तन हनन लागौ,
पावस हूं पावकसी जारि को धाई है।
बोलन लगे फेंकी औ साल से करन लागे,
झूकै लागी बैरिन सुपौन पुरवाई है।।
जानि 'श्याम' गोकुल तें प्रभुने किया है गौण,
पी-पी रटिलावै हरि चातक चबाई है।
अज हूं न आये श्याम श्याम घनश्याम आये.
पठई न पाती हरि पाती हरि आई है ।।
ये घनश्याम नही बिलोकि घनश्याम कहै,
विरह व्यथाओं की समष्टि की निशानी है।
कारे-कजरारे जे फुहारे दुख-प्लावक है.
बदरा बजमारे नहीं बीती कहानी है।
चंचला चकौंधा देकर काँध कभी जाती जो.
मानो ब्रजवाला प्रेम-पीर-विकलाती है।
वाष्प पूर्ण नयनों से मानौ अवलोकि 'श्याम',
रोती प्रेम-पाश बंधी प्यारी ब्रज जरानी है।
000