पश्चिम के प्रति बाबाजी (महाअवतारी बाबा) की अभिरुचि
“गुरुदेव! क्या आपको कभी बाबाजी का दर्शन हुआ है ?”
गर्मियों के मौसम की शान्त रात्रि का समय था। सिर पर आकाश में बड़े-बड़े तारे चमक रहे थे। मैं श्रीरामपुर के आश्रम में दूसरे तल्ले के बरामदे में श्रीयुक्तेश्वरजी के पास बैठा हुआ था।
मेरे इस सीधे प्रश्न पर मुस्कराते हुए उन्होंने कहाः “हाँ, हुआ है।” और उनकी आँखें श्रद्धा एवं आदर से चमक उठीं। “अमर गुरु का तीन बार दर्शन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। प्रथम दर्शन प्रयाग के कुम्भ मेले में हुआ था।”
अति प्राचीन काल से ही भारत में कुम्भ मेले लगते आ रहे हैं। इन मेलों ने आध्यात्मिक लक्ष्यों को सामान्य जनता की दृष्टि के सामने अनवरत रूप से बरकरार रखा है। हर बारह वर्षों के बाद लाखों श्रद्धालु हिंदू हजारों साधुओं, योगियों, स्वामियों तथा सब प्रकार के तपस्वियों से मिलने के लिये एकत्रित होते हैं। इनमें अनेक तपस्वी ऐसे होते हैं जो केवल कुम्भ मेलों में ही आकर सांसारिक नर-नारियों पर अपने आशीर्वादों की वर्षा करते हैं, अन्यथा कभी अपने एकान्त स्थानों से बाहर ही नहीं निकलते।
“जब बाबाजी से मेरी मुलाकात हुई, तब मैं स्वामी नहीं बना था,” श्रीयुक्तेश्वरजी बता रहे थे। “परन्तु मुझे लाहिड़ी महाशय से क्रिया दीक्षा मिल गयी थी। लाहिड़ी महाशय ने ही मुझे १८९४ के जनवरी महीने में प्रयाग में होने वाले कुम्भ मेले में जाने के लिये कहा था। कुंभ मेले में जाने का यह मेरा पहला अवसर था। विशाल जनसागर और उसके कोलाहल को देखकर मैं किंचित हक्काबक्का-सा हो गया था। मैं ध्यानपूर्वक चारों ओर शोध करती दृष्टि से देखता चल रहा था, पर किसी सिद्ध का तेजस्वी चेहरा नज़र नहीं आ रहा था। गंगा किनारे पर एक पुल के पास से मैं जैसे ही आगे बढ़ा, मेरी दृष्टि एक परिचित मनुष्य पर पड़ी जो अपना भिक्षा पात्र आगे बढ़ा रहा था।
“ ‘ओह, यह मेला कोलाहल और भिखारियों के जमघट के सिवा कुछ नहीं है,’ मेरे मन में विचार आया। मेरा मोहभंग हो गया था। “धर्म का नाम लेकर केवल भिक्षा पर ही सारा ध्यान रखने वाले इन निकम्मों से तो मानवजाति की प्रत्यक्ष भलाई के लिये धैर्यपूर्वक ज्ञान की सीमाओं का विस्तार करने वाले पाश्चात्य वैज्ञानिक ही भगवान को अधिक प्रसन्न करते होंगे,” मैं सोच रहा था।
“समाज-सुधार के बारे में मेरे मन में सुलगते विचारों में अचानक बाधा पड़ गयी, जब मेरे सामने आकर खड़े हुए एक लम्बे कद के संन्यासी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी।
‘‘ ‘महाराज!’ उसने कहा, ‘एक संत आपको बुला रहे हैं।’
“ ‘कौन हैं वे ?’
“ ‘आकर खुद ही देख लीजिये।’
“इस संक्षिप्त उत्तर पर कुछ झिझकते हुए मैं उसके साथ गया और शीघ्र ही एक वृक्ष के पास पहुँच गया जिसकी छाया में मन को आकर्षित करने वाले शिष्यों की मंडली से घिरे एक गुरु बैठे हुए थे। अलौकिक तेजोमूर्ति थे वे। उनकी आँखें तेजस्वी थीं। मेरे पहुँचते ही वे उठ खड़े हुए और उन्होंने मुझे आलिंगन में बांध लिया।
“अत्यंत प्रेम से उन्होंने कहा ‘आइये, स्वामीजी !’
‘‘ ‘मैं स्वामी नहीं हूँ, महाराज!’ मैंने जोर देते हुए कहा।
“ ‘ईश्वर की आज्ञा से मैं जिसे स्वामी की उपाधि प्रदान करता हूँ, वह कभी उस उपाधि का त्याग नहीं करता।’ उस सन्त ने अत्यंत सरल भाव से मुझसे यह कहा परन्तु उनके शब्दों में गहरा सत्य ध्वनित हो रहा था; मैं तत्क्षण आध्यात्मिक आशीर्वाद की लहरों में हिलोरे लेने लगा। अचानक स्वामी पद¹ पर अपनी उन्नति हुई देखकर मैं मुस्कराया और इस तरह मुझे महान सम्मान प्रदान करने वाले उस नरदेहधारी महान और देवता सदृश आत्मा के चरणों में मैंने प्रणाम किया।
“बाबाजी ने — क्यों कि वे बाबाजी ही थे मुझे उस वृक्ष के नीचे अपने पास बैठने का संकेत किया। वे मजबूत कदकाठी के और युवा थे और दिखने में लाहिड़ी महाशय जैसे थे; लेकिन फिर भी इस समानता ने मेरे दिमाग के किसी तार को नहीं छेड़ा, जब कि मैं इन दो महागुरुओं के चेहरों में असाधारण साम्य के बारे में प्रायः सुना करता था। बाबाजी के पास एक ऐसी शक्ति है जिससे वे किसी भी व्यक्ति के मन में किसी विशिष्ट विचार को आने से रोक सकते हैं। स्पष्ट है कि वे चाहते थे कि मैं उनकी उपस्थिति में पूर्णतः स्वाभाविक अवस्था में रहूँ और उन्हें पहचान कर स्तम्भित न हो जाऊँ।
“ ‘कुम्भ मेले के बारे में आपका क्या विचार है ?’
“ ‘मुझे बहुत निराशा हुई, महाराज,’ मैंने कहा; किन्तु तुरन्त आगे कह दिया, ‘आपका दर्शन होने तक किसी कारण से सन्तों में और इस कोलाहल में कोई मेल नज़र नहीं आता।’
“ ‘बेटा!’ गुरु ने कहा, जबकि मैं स्पष्टतः उनसे दुगुनी आयु का लग रहा था, ‘अनेकों के दोष के कारण सभी को दोषी मत मानो। इस जगत् में हर चीज़ मिश्रित रूप में है, शक्कर और रेत के मिश्रण की तरह चींटी की भाँति बुद्धिमान बनो, जो केवल शक्कर के कणों को चुन लेती है और रेत-कणों को स्पर्श किये बिना छोड़ देती है। इस मेले में अनेक साधु अभी भी माया में भटक रहे हैं, फिर भी कुछ ईश्वर साक्षात्कारी संतों ने इसे पावन किया हुआ है।’
“इस परम गुरु के स्वयं दर्शन के कारण मैं उनकी इस बात से तुरन्त सहमत हो गया।
“मैंने अपना विचार प्रकट किया: ‘महाराज, मैं सुदूर अमेरिका और यूरोप में रहने वाले प्रमुख पाश्चात्य वैज्ञानिकों के बारे में सोच रहा था, जो यहाँ जमा हुए अधिकांश लोगों से कहीं अधिक बुद्धिमान हैं। वे अलग-अलग धर्मों के अनुयायी हैं और इस प्रकार के मेलों के वास्तविक महत्व से अनभिज्ञ हैं। ये ही वे लोग हैं जिन्हें भारत के सिद्ध पुरुषों से मिलने से बहुत लाभ हो सकता है। परन्तु बौद्धिक उपलब्धियों की दृष्टि से अत्यंत उन्नत होते हुए भी अनेक पाश्चात्य लोग अत्यन्त भौतिकवाद में आकंठ डूबे हुए हैं। अन्य कुछ ऐसे हैं जो विज्ञान और दर्शनशास्त्र में विख्यात हैं, परन्तु धर्म की मूलभूत एकता को नहीं मानते। उनके धर्म ऐसी दुर्लघ्य बाधाएँ बन चुके हैं, जो उन्हें हम लोगों से सदा के लिये अलग कर सकते हैं।’
“बाबाजी का मुखमंडल प्रसन्नता से चमक उठा। उन्होंने कहा: ‘मैंने जान लिया था कि तुम्हें पूर्व और पश्चिम में समान रूप से रुचि है। समस्त मानवजाति के लिये व्याकुल होने वाले तुम्हारे अन्तःकरण की व्यथा को मैंने पहचान लिया। इसीलिये मैंने तुम्हें यहाँ बुलाया है।’
“वे आगे कहते गये: ‘पूर्व और पश्चिम को कर्म और आध्यात्मिकता से मिलकर बना सुवर्णमध्य मार्ग स्थापित करना होगा। भौतिक विकास में भारत को पाश्चात्य जगत् से बहुत कुछ सीखना है और बदले में भारत सभी द्वारा अपनायी जा सकने वाली ऐसी विधियों का ज्ञान दे सकता है, जिनसे पाश्चात्य जगत् अपने धार्मिक विश्वासों को योग विज्ञान की अटल नींव पर स्थापित कर सकता है।’
“ ‘स्वामीजी, आपको पूर्व और पश्चिम के बीच भविष्य में होने वाले सौहार्द्रपूर्ण आदान-प्रदान में एक भूमिका निभानी है। कुछ वर्षों बाद मैं आप के पास एक शिष्य भेजूंगा, जिसे आप पश्चिम में योग का ज्ञान प्रसारित करने के लिये प्रशिक्षित कर सकते हैं। वहाँ के अनेक मुमुक्षुओं के ज्ञानपिपासु स्पन्दन बाढ़ की भाँति मेरी ओर आते रहते हैं। मैं अमेरिका और यूरोप में सन्त बनने योग्य अनेक लोगों को देख रहा हूँ, जिन्हें जगाये जाने भर की देर है।’ ”
अपनी कथा के इस बिंदु पर पहुँचते ही श्रीयुक्तेश्वरजी ने अपनी पूर्ण दृष्टि मेरी ओर घुमायी।
“मेरे पुत्र!” चाँद के उज्ज्वल प्रकाश में मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, “तुम ही वह शिष्य हो जिसे मेरे पास भेजने का वचन बाबाजी ने कई वर्ष पहले दिया था।”
यह जानकर मुझे अत्यंत हर्ष हुआ कि स्वयं बाबाजी ने मेरे कदम श्रीयुक्तेश्वरजी की ओर मोड़ दिये थे, फिर भी अपने प्रिय गुरु से और आश्रम की सादगीयुक्त शान्ति से दूर पाश्चात्य जगत् में अपने होने की कल्पना करना मेरे लिये कठिन था।
श्रीयुक्तेश्वरजी ने अपनी बात जारी रखी: “फिर बाबाजी भगवद्गीता के बारे में बोलने लगे। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब प्रशंसा के कुछ शब्दों से उन्होंने स्पष्ट संकेत दे दिया कि उन्हें इस बात का ज्ञान था कि मैंने गीता के कुछ अध्यायों पर टीका लिखी थी।
“ ‘मेरी आपसे विनती है स्वामीजी, कि आप और एक काम को हाथ में ले लें,’ परमगुरु ने कहा। ‘क्या आप हिंदू और ईसाई धर्मग्रन्थों में निहित एकता पर एक छोटी-सी पुस्तक नहीं लिखेंगे ? मनुष्यों के धार्मिक मतभेदों के कारण उनकी मूल एकता पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। समानार्थी उद्धरणों को प्रस्तुत कर यह दिखा दीजिये कि ईश्वर के सभी ज्ञानी पुत्रों ने एक ही सत्य का उपदेश दिया है।’
“ मैंने झिझकते हुए कहा: ‘महाराज! आपने यह कैसा आदेश दे दिया! क्या मैं इसे पूर्ण कर सकूँगा ?’
“बाबाजी ने मधुर हँसी हँसकर दिलासा देते हुए कहाः ‘बेटा! यह सन्देह क्यों ? सचमुच, यह सब किसका कार्य है और कौन सब कार्यों का कर्ता है ? प्रभु ने जो भी मेरे मुँह से कहलवाया है उसका सत्य बनकर साकार होना अवश्यंभावी है।’
“मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उन संत महाराज के आशीर्वाद से मुझमें वह काम करने की समर्थता आ गयी थी, अतः मैं पुस्तक लिखने के लिये सहमत हो गया। विदा होने का समय आ गया यह जानकर मैं अनिच्छापूर्वक अपने पर्णासन से उठा।
“ ‘तुम लाहिड़ी को जानते हो ?’ सन्त ने पूछा ‘वह महान् आत्मा है, है न ? उसे हमारी इस भेंट के बारे में बता देना।’ फिर उन्होंने मुझे लाहिड़ी महाशय के लिये एक सन्देश दिया।
“विदा लेने के लिये जब मैंने उनके चरणों में भक्तिभाव से प्रणाम किया तो वे कृपापूर्वक मुस्कराये। ‘जब तुम्हारी पुस्तक पूरी हो जायेगी, तब मैं तमसे पनः मिलने आऊंगा।’ उन्होंने वचन दिया। 'अब हम चलते हैं।'
“दूसरे दिन मैं प्रयाग छोड़कर काशी जाने के लिये रेलगाड़ी पर सवार हो गया। अपने गुरु के घर पहुँचकर मैंने कुम्भ मेले में अद्भुत संत से हुई अपनी भेंट की सारी कहानी सुना दी।
“ ‘ओह! तुमने उन्हें पहचाना नहीं ?’ लाहिड़ी महाशय की आँखों में हँसी नाच रही थी। ‘मैं देख रहा हूँ कि तुम उन्हें नहीं पहचान सके, क्योंकि उन्होंने तुम्हें उन्हें पहचानने से रोक दिया था। वे ही मेरे अद्वितीय, अलौकिक गुरु हैं — बाबाजी!’
‘‘ ‘बाबाजी!’ मैंने श्रद्धा और विस्मय से विभोर होकर कहा। योगी-अवतार बाबाजी! दृश्य-अदृश्य तारणहार बाबाजी! काश, यदि मैं अतीत को फिर सामने ला सकता और केवल उनके चरण कमलों में अपनी भक्ति अर्पित करने के लिये फिर एक बार उनकी उपस्थिति में हाजिर हो सकता !’
“ ‘कोई बात नहीं,’ लाहिड़ी महाशय ने सांत्वना भरे स्वर में कहा। ‘उन्होंने तुम्हें फिर से दर्शन देने का वचन दिया है।’
“गुरुदेव! परमगुरु ने मुझे आपको एक सन्देश देने के लिये कहा है। उन्होंने कहा था: “लाहिड़ी को बताना कि इस जीवन के लिये रखी गयी शक्ति बहुत कम बच गयी है, लगभग समाप्त हो चुकी है।’ ”
“मेरे मुँह से इन गूढ़ शब्दों के निकलते ही लाहिड़ी महाशय की देह अचानक ऐसे काँप गयी जैसे उन्हें बिजली छू गयी हो। पलभर में वे निःस्तब्ध हो गये; उनका सदा मुस्कुराता चेहरा अत्यंत कठोर हो गया। काठ की मूर्ति की भाँति गम्भीर और निश्चल बनकर वे अपने आसन पर बैठे रहे। उनके शरीर का रंग बिल्कुल उड़ गया। मैं भयभीत और चकित हो गया। अपने सारे जीवन में मैंने कभी भी उस आनन्दमूर्ति को इस प्रकार गम्भीर होते नहीं देखा था। वहाँ उपस्थित अन्य शिष्य भी व्याकुल होकर उनकी ओर देखने लगे।
“उसी निःस्तब्धता में तीन घंटे बीत गये। फिर लाहिड़ी महाशय की स्वाभाविक प्रफुल्लता लौट आयी और उन्होंने वहाँ उपस्थित प्रत्येक शिष्य के साथ अत्यंत स्नेह के साथ बातचीत की। सभी ने चैन की साँस ली।
“अपने गुरुदेव की उस प्रतिक्रिया से मैं जान गया कि बाबाजी का सन्देश एक ऐसा निश्चित संकेत था, जिससे लाहिड़ी महाशय यह समझ गये कि उन्हें जल्दी ही देहत्याग करना होगा। उनकी भयंकर और गंभीर निःस्तब्धता से यह प्रमाणित हो गया कि मेरे गुरुदेव ने तत्क्षण ही स्वयं को संयमित कर भौतिक विश्व के साथ उन्हें जोड़कर रखने वाली अंतिम डोर को भी काट दिया था और वे परमतत्त्व के अपने नित्य स्वरूप में विलीन हो गये थे। बाबाजी का सन्देश उनका यह कहने का तरीका था: ‘मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगा।’
“बाबाजी और लाहिड़ी महाशय, दोनों ही सर्वज्ञ थे और उन्हें एक दूसरे को सन्देश भेजने के लिये मेरी या अन्य किसी मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं थी, फिर भी महान् आत्माएँ प्रायः मानवी नाटक में भाग लेने की कृपा करती हैं। यदा-कदा वे साधारण तरीके से किसी सन्देशवाहक के माध्यम से अपनी भविष्यवाणियाँ सम्प्रेषित कर देते हैं, ताकि उन भविष्यवाणियों के साकार होने पर उनके बारे में बाद में जानकारी पाने वालों में ईश्वर के प्रति अधिक श्रद्धा जागृत हो सकें।
“जल्दी ही मैं काशी से चल पड़ा और श्रीरामपुर में बाबाजी द्वारा बताये गये शास्त्रों के लेखनकार्य में जुट गया,” श्रीयुक्तेश्वरजी आगे कहते गये। “मैंने काम शुरू ही किया था कि मुझे मृत्युंजय परमगुरु बाबाजी पर एक स्तोत्र रचने की प्रेरणा हुई। यद्यपि मैंने उससे पहले कभी संस्कृत में काव्य लिखने का कोई प्रयत्न नहीं किया था, पर मेरी लेखनी से अनायास ही ललित पंक्तियों का प्रवाह बहने लगा।
“रात के शान्त समय मैं सनातन धर्म² के शास्त्रों और बाइबिल का तुलनात्मक अध्ययन कर अपना काम करता रहता। प्रभु यीशु के शब्दों को उद्धृत कर मैं यह दिखाता जाता कि उनके उपदेशों में और वेदवाक्यों में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं था। मेरे परमगुरु³ की कृपा से मेरी पुस्तक ‘द होली साइन्स’⁴ अल्पसमय में ही पूरी हो गयी।
गुरुदेव बोलते जा रहे थे: “अपने साहित्यिक प्रयासों को परिणाम पर पहुँचाने के बाद दूसरे दिन मैं प्रातः गंगास्नान के लिये यहाँ राय घाट पर पहुँचाने के बाद दूसरे दिन मैं प्रातः गंगास्नान के लिये यहाँ राय घाट पर गया। उस समय घाट बिल्कुल सुनसान था। थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहकर मैं धूप में उस शान्ति का आनन्द लेता रहा। फिर निर्मल जल में डुबकी लगाने के बाद मैं घर वापस जाने के लिये चल पड़ा। उस नीरवता में जो एक मात्र ध्वनि सुनायी दे रही थी, वह थी मेरे हर पग के साथ मेरे भीगे वस्त्रों की छपछप करती आवाज। जैसे ही मैं नदी किनारे खड़े विशाल वटवृक्ष के पास से आगे बढ़ा, मेरे मन में पीछे मुड़कर देखने की प्रबल प्रेरणा हुई। वहाँ वटवृक्ष की छाया में कुछ शिष्यों से घिरे बैठे थे महान् बाबाजी!
“ ‘नमस्कार, स्वामीजी!’ परमगुरु की मधुर आवाज गूँज उठी और मुझे विश्वास हो गया कि मैं स्वप्न नहीं देख रहा हूँ। ‘मैं देख रहा हूँ कि आपने सफलतापूर्वक अपनी पुस्तक पूरी कर ली है। अपने वचन के अनुसार मैं आपका धन्यवाद करने आया हूँ।’
“अत्यंत तेज़ी से धड़कते हृदय के साथ मैंने उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया अत्यंत विनय के साथ उनकी याचना करते हुए मैंने कहा: ‘परमगुरुजी! मेरा घर पास में ही है। क्या आप अपने शिष्यों के साथ आकर मेरे घर को पावन नहीं करेंगे ?’
“परमगुरु ने मुस्कराते हुए अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा: ‘नहीं, बेटा! हम वे लोग हैं जिन्हें वृक्षों की छाया ही रास आती है; यहाँ हमें पूरा आराम है।’
“ ‘तब यहाँ पर ही थोड़ी देर ठहर जाइये, परमगुरु महाराज!’ अभ्यर्थना करती दृष्टि से मैंने उनकी ओर देखा ‘मैं तुरन्त कुछ मिठाइयाँ लेकर आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ।’
“जब कुछ ही मिनटो में मिठाइयों का थाल लेकर मैं वहाँ लौटा, तो उस विशाल वटवृक्ष के नीचे उस दिव्य मंडली का कहीं कोई पता नहीं था। मैंने घाट के चारों ओर खोजा, पर अपने मन में मैं जान चुका था कि वे लोग हवा के पंखों पर उड़ चुके थे।
“मेरे मन को गहरा आघात लगा। मैंने मन ही मन निश्चय कियाः ‘फिर कभी बाबाजी के साथ मेरी भेंट हो भी गयी, तो मैं उनसे बात नहीं करूँगा। उन्होंने अचानक इस तरह प्रस्थान कर भारी निष्ठुरता दिखायी है।’ पर यह गुस्सा केवल प्रेम का था, और कुछ नहीं। कुछ महीनों बाद मैं काशी में लाहिड़ी महाशय के दर्शनों के लिये गया। जब मैंने उनके बैठकखाने में प्रवेश किया, तो लाहिड़ी महाशय मुस्कराये।
“ ‘आओ, युक्तेश्वर,’ उन्होंने कहा। ‘अभी-अभी मेरे कमरे के द्वार के पास बाबाजी से तुम्हारी भेंट हुई ?’
“ ‘नहीं, क्यों?’ मैंने आश्चर्य के साथ कहा।
“ ‘इधर आओ।’ लाहिड़ी महाशय ने अपना हाथ मेरे माथे पर रखा और उसी क्षण दरवाजे के पास पूर्ण कमल की तरह खिले बाबाजी मुझे दिखायी दिये।
“मुझे अपना पुराना दुःख याद आया, अतः मैंने उन्हें प्रणाम नहीं किया। लाहिड़ी महाशय चकित होकर मेरी ओर देखने लगे।
“ईश्वरतुल्य बाबाजी अपने अथाह नेत्रों से मुझे निहार रहे थे। ‘तुम मुझ से नाराज़ हो।’
“ ‘क्यों न होऊँ, महाराज ?’ मैंने कहा। ‘हवा में से आप अपनी जादुई मंडली के साथ अवतीर्ण हुए और हवा में ही आप अन्तर्धान हो गये।’
“ ‘मैंने तुमसे कहा था कि मैं तुमसे मिलने आऊँगा, कितने समय तक वहाँ रहूँगा, यह नहीं कहा था,’ बाबाजी ने सौम्य हँसी के साथ कहा। ‘तुम बहुत उत्तेजित हो उठे थे। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हारी चंचलता की आंधी ने ही मुझे विलुप्त कर दिया।’
“ इस सत्यनिष्ठ स्पष्टीकरण से मैं तुरन्त संतुष्ट हो गया। मैंने उनके चरणों पर मस्तक रखा। परमगुरु ने स्नेह के साथ मेरा कन्धा थपथपाया।
“ ‘ज्यादा ध्यान करो, बेटा!’ उन्होंने कहा ‘तुम्हारी दृष्टि अभी निर्मल नहीं हुई है। मैं सूर्यप्रकाश के पीछे छिपा था और तुम मुझे देख नहीं पाये।’ स्वर्गीय बाँसुरी के समान मधुर आवाज में ये शब्द कहते ही बाबाजी गुप्त दीप्ति में अन्तर्धान हो गये।
अपना कथन समाप्त करते हुए श्रीयुक्तेश्वरजी ने कहाः “गुरु- दर्शन के लिये वह मेरी अंतिम काशी यात्रा थी। कुम्भ मेले में बाबाजी द्वारा की गयी भविष्यवाणी के अनुरूप लाहिड़ी महाशय के गृहस्थ योगी अवतार का अन्त निकट आ रहा था। १८९५ के ग्रीष्मकाल में उनके मज़बूत शरीर को पीठ पर एक छोटा-सा फोड़ा निकल आया। उन्होंने उसे चीरा नहीं देने दिया, क्योंकि वे अपने कुछ शिष्यों के दुष्कर्मों को अपने शरीर पर लेकर उनका भोग पूरा कर रहे थे। अन्ततः जब कुछ शिष्य बहुत ही आग्रह करने लगे, तब गुरुदेव ने रहस्यमय शब्दों में कहाः
“ ‘शरीर को जाने के लिये निमित्त चाहिये। तुम लोग जो कुछ करना चाहते हो, उसके लिये मैं तैयार हूँ।’
“इसके थोड़े ही दिन बाद अद्वितीय गुरु ने बनारस में देहत्याग कर दिया। अब उनके दर्शनों के लिये उनके बैठकखाने में जाने की कोई आवश्यकता नहीं रही; मेरे जीवन का प्रत्येक दिन उनके सर्वव्यापी मार्गदर्शन से धन्य हो रहा है।”
कई वर्षों बाद मुझे लाहिड़ी महाशय के एक उन्नत शिष्य स्वामी केशवानन्दजी से उनके देहत्याग के विषय में अनेक आश्चर्यजनक विवरण सुनने को मिले।
केशवानन्दजी ने बतायाः “शरीर छोड़ने के कुछ ही दिन पहले मेरे गुरुदेव मेरे सामने एक दिन अचानक प्रकट हो गये जब मैं हरिद्वार के अपने आश्रम में ध्यान कर रहा था।
“ ‘तुरन्त बनारस आ जाओ।’ इतना कहकर लाहिड़ी महाशय अंतर्धान हो गये।
“मैंने तुरन्त बनारस जाने के लिये गाड़ी पकड़ी। अपने गुरु के घर में अनेक शिष्यों को मैंने एकत्रित हुए देखा। उस दिन कई घंटों तक गुरुदेव ने गीता पर प्रवचन किया और फिर अत्यंत सरल शब्दों में कह दिया:
“ ‘मैं अपने घर लौट रहा हूँ।’
“इतना सुनते ही प्रचण्ड आवेग के साथ हम सबकी सिसकियाँ फूट पड़ीं।
“ ‘शान्त हो जाओ; मैं पुनः जी उठूगा।’ यह कहकर लाहिड़ी महाशय अपने आसन से उठे, तीन बार अपने स्थान पर ही गोल घूमे, उत्तर दिशा की ओर मुँह करके पद्मासन में बैठ गये और परमानन्द में लीन होकर उन्होंने महासमाधि में प्रवेश किया।
“भक्तों को इतने प्रिय लगने वाले लाहिड़ी महाशय के सुन्दर शरीर का पवित्र गंगा तट के मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से दाहसंस्कार किया गया।” केशवानन्दजी बता रहे थे। “दूसरे दिन सुबह दस बजे, जब मैं अभी बनारस में ही था, तो मेरा कमरा अचानक एक उज्ज्वल प्रकाश से भर उठा। आश्चर्य! मेरे सामने भौतिक शरीर में लाहिड़ी महाशय खड़े थे। यह शरीर बिल्कुल उनके पुराने शरीर जैसा ही था, अन्तर इतना ही था कि यह शरीर अधिक युवावस्था में और अधिक तेजस्वी लग रहा था। मेरे दिव्य गुरु ने मुझसे बातचीत भी की।
“उन्होंने कहाः ‘केशवानन्द, यह मैं हूँ। अपने भस्म हुए शरीर के विघटित अणुओं से मैंने अपने इस नये शरीर की सृष्टि की है। संसार में मेरा गृहस्थ का कार्य तो पूरा हो चुका है, पर मैं पृथ्वी को पूर्णतः छोड़कर नहीं जा रहा हूँ। इसके बाद मैं कुछ समय तक हिमालय में बाबाजी के साथ रहूँगा, और फिर सारे ब्रह्माण्ड में बाबाजी के साथ वास करूंगा।’
“मुझे आशीर्वाद देकर अलौकिक गुरु अंतर्धान हो गये। मेरा हृदय एक अद्भुत प्रेरणा से भर गया; मुझे उसी प्रकार का अत्यंत उच्च आध्यात्मिक अनुभव हुआ, जैसे ईसा मसीह और कबीर⁵ के शिष्यों को अपने-अपने गुरु को शारीरिक मृत्यु के बाद जीवन्त रूप में देखकर हुआ था।
“हरिद्वार के एकान्त स्थान में बने अपने आश्रम को लौटते समय मैं अपने साथ लाहिड़ी महाशय की पवित्र अस्थियों का एक छोटा सा हिस्सा ले आया। मुझे इसका भान था कि वे देश-काल से आबद्ध देह-पिंजर से निकल गये थे; सर्वव्यापकता रूपी पक्षी मुक्त हो चुका था। फिर भी उनकी अस्थियों की यहाँ प्रतिष्ठापना कर समाधि मन्दिर बनाने से मुझे अपूर्व सांत्वना मिली ।”
एक और शिष्य को भी पुनरुत्थित हुए गुरु के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वे थे संतवत् महात्मा पंचानन भट्टाचार्य।⁶ मैं कोलकाता में उनसे मिलने उनके घर गया था। उन्होंने महान् गुरु के साथ बिताए अपने अनेक वर्षों की कई रोमांचक कहानियाँ बतायीं मैं अत्यंत आनन्द के साथ सुनता रहा। अंत में उन्होंने अपने जीवन की सबसे अद्भुत घटना बतायी।
उन्होंने कहाः लाहिड़ी महाशय की अन्त्येष्टी के बाद दूसरे दिन प्रातः दस बजे वे यहाँ कोलकाता में मेरे सामने प्रकट हुए।
“द्विशरीरी संत” स्वामी प्रणवानन्दजी ने भी अपना दिव्य अनुभव संपूर्ण विस्तार सहित मुझे बताया। जब वे मेरे राँची विद्यालय में आये थे, तब उन्होंने मुझे बतायाः “लाहिड़ी महाशय के देहत्याग के थोड़े ही दिनों पूर्व मुझे उनका एक पत्र आया, जिसमें उन्होंने मुझे तुरन्त बनारस आने के लिये लिखा था। तथापि अपरिहार्य कारणों से मैं तत्क्षण प्रस्थान नहीं कर सका और मुझे थोड़ा विलम्ब हो गया। एक दिन प्रातः दस बजे मैं बनारस के लिये प्रस्थान करने की तैयारी कर ही रहा था कि अपने कमरे में अपने गुरु को अत्यंत तेजस्वी रूप में प्रकट हुए देख कर मैं आनन्द विभोर हो गया।
“ ‘अब बनारस जाने की क्या जल्दी है?’ लाहिड़ी महाशय ने मुस्कराते हुए कहा। ‘अब तुम मुझे वहाँ कभी नहीं देख पाओगे।’
“ जब उनके शब्दों का अर्थ मुझे समझ आया, तो यह सोचकर कि मैं उनके दर्शन की केवल अनुभूति कर रहा था, मैं भग्न हृदय से रोने लगा।
“गुरुदेव सांत्वना देते हुए मेरे पास आये। ‘लो, मेरे शरीर को छू कर देखो,’ उन्होंने कहा। ‘मैं सदा की भाँति अब भी जीवित हूँ। शोक मत करो; क्या मैं हमेशा तुम्हारे पास नहीं हूँ ?’ ”
इन तीन महान् शिष्यों के मुख से एक अद्भुत सत्य की कहानी उभरकर सामने आयी है : लाहिड़ी महाशय के दाह-संस्कार के बाद दूसरे दिन प्रातः दस बजे तीन अलग-अलग शहरों में तीन शिष्यों के सामने वे पुनरुज्जीवित परन्तु रूपान्तरित शरीर में फिर से प्रकट हुए।
“अतः जब यह नश्वर देह अनश्वरता प्राप्त करेगी और यह मर्त्य जीव अमरता का चोला पहन लेगा, तभी बाइबिल में लिखा गया यह वचन चरितार्थ होगा कि 'मृत्यु पर विजय पायी जा चुकी है। हे मृत्यु ! कहाँ है तेरा डंश ? ओ श्मशान ! कहाँ है तेरी विजय ?’ ”
¹ श्रीयुक्तेश्वरजी ने बाद में बोधगया के महन्त से स्वामी परंपरा को विधिवत् संन्यास दीक्षा ली।
² वेदों की शिक्षा को सनातन धर्म कहा जाता है। सनातन धर्म को हिंदू धर्म इसलिये कहा जाने लगा कि सिकंदर की यूनानी सेना ने भारत के उत्तर-पश्चिम दिशावर्ती प्रदेश पर आक्रमण किया और वहाँ इंदू नदी किनारे रहने वाले लोगों को इंदू या हिंदू कहा।
³ परमगुरु का अर्थ है अपने गुरु के गुरु इस प्रकार लाहिड़ी महाशय के गुरु महावतार बाबाजी स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के परमगुरु हैं।
योगदा सत्संग सोसाइटी सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप के अनुयायियों के आध्यात्मिक कल्याण का उनरदायित्व अपने ऊपर लेने वाले भारतीय गुरुओं की परम्परा में महावतार बाबाजी सबसे बड़े परमगुरु हैं।
⁴ अब योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया द्वारा प्रकाशित।
⁵ सन्त कबीर १६वीं शताब्दी के एक महान् संत थे। उनके शिष्यों में हिंदू और मुसलमान, दोनों धर्मों के लोग थे। कबीर के देहत्याग के बाद उनके शिष्यों में उनकी अन्त्येष्टि विधि के प्रश्न पर विवाद छिड़ गया। इससे व्यथित होकर गुरु अपनी महानिद्रा से उठ गये और उन्होंने यह निर्देश दिया “मेरे आधे पार्थिव अवशेष को मुस्लिम विधि से दफन कर दो और आधे को हिंदू विधि से दहन कर दो।” फिर वे अंतर्धान हो गये। जब शिष्यों ने कफ़न हटाया, तो वहाँ सुन्दर रीति से सजाये हुए फूलों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। आदेशानुसार आधे फूलों को मुसलमानों ने मगहर में दफना दिया, जहाँ आज भी उनका समाधि मन्दिर है और लोग में मन्दिर के प्रति नितांत श्रद्धा है। बचे हुए आधे फूलों का हिंदुओं ने बनारस में दाहसंस्कार किया। जहाँ दाहसंस्कार हुआ था, उस स्थान पर कबीर चौरा नाम से एक मन्दिर की स्थापना की गयी। लाखों श्रद्धाल यहाँ दर्शन करते जाते हैं।
जब कबीर युवा थे, तब दो शिष्य उनके पास आये। उन्हें ईश्वर के मार्ग को बारीकियों क बौद्धिक मार्गदर्शन चाहिये था सन्त कबीर ने उत्तर दिया:
"कोई कहत दूरी है यह की दूरक बात निरासी ।
सो तेरो मन मोही विराजे अमर पुरुष अविनासी ॥
पानी में मीन पियासी, मोहे सुन सुन आवत हाँसी।
भीतर की प्रभु जान्यो नाही, बाहर खोजन जासी॥"
⁶ प्रकरण ३५ दृष्टव्य पंचानन भट्टाचार्य ने देवघर (झारखण्ड) में १७ एकड़ के उद्यान में एक शिव मन्दिर बनवाया जिसमें लाहिड़ी महाशय का एक तैलचित्र प्रतिष्ठापित किया गया है।