भाद्रपद मास की प्रथम रात्रि
कमला बलान की शांत जलधारा में विजयमल्ल की विशाल | नौका तैरती चली जा रही थी । उसकी नौका में आज अतिविशिष्ट सवारी , कुँवर दयाल सिंह विचारों के प्रवाह में • उलझा बैठा था । नौका में कुल तीन ही प्राणी थे । कुँवर दयाल सिंह , उनका नौकर झिलमा खबास और नाविक विजयमल्ल । लम्बा - चौड़ा और बलिष्ठ विजयमल्ल का रंग काला , परन्तु हृदय उजला था । लंगोट का धनी विजयमल्ल इतनी उम्र बीत जाने पर भी अविवाहित था । कुश्ती के प्रेमी विजयमल्ल को भरोड़ा के राजपुरुष वाक् - आनंद के लिए ' काला पहाड ' कहते थे । सेनापति के अतिरिक्त उसकी विशाल कद - काठी के समक्ष भरोड़ा के निवासी बौने प्रतीत होते थे । 9 परन्तु , नौका परिचालन से अच्छी आय होने के बाद भी वह प्रायः भूखा ही रहता । विजयमल्ल के जीवन में दो ही दुःख थे । प्रथम तो यही था कि उसकी क्षुधा कभी शांत ही नहीं होती थी । यज्ञ - प्रयोजन एवं विवाहोत्सव के अवसर पर ही उसकी भूख मिटती । ऐसे अवसरों पर प्रथम निमंत्रण भी उसे ही मिलता । विजयमल्ल ने संतुष्ट होकर भरपेट भोजन ग्रहण कर लिया तो भरोड़ा के निवासी यज्ञ को पूर्ण मान प्रसन्न हो जाते थे । उसका दूसरा दुःख था - मल्ल युद्ध के लिये जोड़ीदार का न मिलना । मर्यादा का उल्लंघन कर सेनापति से तो वह आग्रह कर नहीं सकता था और अंचल में उसके समान दूसरा कोई था नहीं । इतनी विशाल नौका को अपने बाहुबल से चप्पुओं के सहारे अकेले ही उसने मध्य धारा में पहुँचाया । धारा के साथ बहती नौका को अब चप्पुओं की आवश्यकता नहीं थी , इसीलिए अब वह आनंदमग्न बैठा चौमासा गाने लगा । कुँवर दयाल सिंह स्वयं उसकी नौका में बैठे हैं , यह सोच कर ही विजयमल्ल का मन मुदित था । कुँवर का नौकर झिलमा खबास तो उसकी आँखों का तारा ही बन चुका था । नौका में कुँवर के पधारने के पूर्व ही झिलमा ने उसकी ऐसी पेट - पूजा की थी कि वह गद्गद् हो गया । भोजन के पश्चात् झिलमा ने जब विजय को टाँसे हुए गर्म घी से भरा सेर भर से बड़ा लोटा पीने को दिया तो उसकी आत्मा ही मानो तृप्त हो गयी । ' तू अब कभी मेरी आँखों से दूर न होना झिलमा ! ' प्रसन्न होकर उसने झिलमा से कहा- तुझे अपने साथ ही रखूँगा मैं । कुँवर जी को पहुँचाकर मेरे साथ ही रहना । ' शरीर से दुबला , परन्तु काठी से बलिष्ठ झिलमा खबास अँचल के निवासियों के मध्य बड़ा लोकप्रिय था । उसकी उदण्डता ही ऐसी होती कि चौपाल को नित्य नयी - नयी गप्पों का मसाला मिल जाता । अब बटेसरा की ही बात करें तो भरोड़ा में उससे बढ़कर दुष्ट और कौन है भला ? अपने व्यसन से विवश बटेसरा आधी रात में ही सोकर उठ जाता था । प्रातः जब लोग उठकर द्वार खोलते , तो किसी के द्वार पर सिंदूर , किसी के द्वार पर टूटी चूड़ियाँ बिखरी मिलतीं । बहुत दिनों तक जब जानकारी न हुई तो इसी झिलमा ने छिपकर रतजगा किया और तब बटेसरा का भंडा फूटा । अब क्या झिलमा किसी से कम था ? श्मशान से बटोरकर नर मुण्डों के साथ हड्डियों का ढेर बटेसर के आँगन में रख आया । परिणाम में जाड़ा देकर ऐसा ज्वर चढ़ा बटेसरा को कि पूछिये मत ! सारी उदण्डता ही भूल गया वह ।तो ऐसा था झिलमा उत्पात तो अनगिनत करता , परन्तु किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता , किसी का हृदय नहीं दुखाता । स्थिति यह थी कि जिस दिन झिलमा चुपचाप शांत पड़ा रहता , भरोड़ा के निवासियों का उस दिन मन ही नहीं लगता । आज भरोड़ा को सूनाकर वही झिलमा खबास अपने प्रिय कुँवर का नौकर बन सुदूर यात्र पर निकल पड़ा था । । कुँवर का वह हृदय से आदर करता था क्यों न करता ? उसके कुँवर थे ही ऐसे । परन्तु उनके कुँवर को बहुरा डायन की जबसे नजर लग गयी , तभी से उनकी श्रीविहीन मुखाकृति देख झिलमा खबास उदास हो जाता । कई बार वह अपने कुँवर से पूछ आया था , परन्तु उन्होंने शय्या पर जाने से मना कर दिया । झिलमा की इच्छा हो रही थी , नाव की सुखद शय्या पर उसके मालिक लेट जाएँ तो वह पूरी श्रद्धा से उनकी चरण - सेवा करे । उदास झिलमा मँह लटकाकर जा बैठा विजयमल्ल के पास । अपनी तरंग में चौमासा गाता विजयमल्ल ने उसकी उतरी आकृति देख अपने गायन को बंद कर पूछा ' क्या हुआ रे झिलमा ... यों मुँह काहे लटका है तेरा ... हुआ क्या ? ' ' होगा क्या काका ! मालिक को देखता हूँ तो कलेजा फटने लगता है ... कहा मालिक सो जाइये तो मैं चरण सेवा का सुख प्राप्त कर लूँ ... परन्तु उनकी आँखों में तो लगता है काका ... नींद ही नहीं है । ' ' ठीक कहता है बेटा ! हमरे कुँवर जी के लिए निंदिया रानी बैरन हो गयी हैं । जी तो करता है बखरी जाकर उस डायन का टेंटुआ ही दबा दूँ । ' ' मैंने तो सुना है वह जीवित शव बन गयी है , काका ! " ' कमला मैया चाहेंगी तो वह शव ही बनी रह जाएगी ... वैसे बेटा ! अपने कुँवर जी का मनोरथ सिद्ध हो गया तो समझो बेड़ा पार ... भरोड़ा का सकल मनोरथ पूरा हो जाएगा । ' कमला मैया तो सहाय होंगी ही । देवी - देवता भले लोगों का ही तो मनोरथ पूर्ण करती हैं ... क्यों काका ? ' ' हाँ बेटा ! कहता तो तू ठीक ही है ।... तू कहे तो मैं भी एक बार कुँवर जी से अरदास कर आऊँ ... बोल ! चलता है झिलमा ? ' ' चलो न काका ! ' दोनों ने कर जोड़ कर अरदास किया तो कुँवर को उठना ही पड़ा । परन्तु , निद्रा कहाँ ? प्रसन्न झिलमा चरण दबाता रहा और कुँवर की बंद पलकों के अंदर विचारों का भंवर चलता रहा । चेतना के स्मृति - द्वार पर मंगल गुरु की आकृति उभरी थी । इस रहस्य को भलीभाँति जान लो पुत्र , गुरु ने कहा- योगिनी कामा ही एकमात्र ऐसी नर्तकी है , जिसे ' षट्चक्र ' नृत्य के गुप्त रहस्यों का ज्ञान है । उसने यदि तुम्हें शिष्य रूप में ग्रहण कर लिया तो समझो विजयश्री ने तुम्हारा वरण कर लिया । कार्त्तिक अमावस्या की अर्द्ध रात्रि में इस योगिनी का षट्चक्र नृत्य , कामाख्या मंदिर के प्रांगण में होता है , पुत्र । परन्तु , स्मरण रखना योगिनी के नृत्य के समय मृदंग वादक के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष नहीं रहता । अनायास उस समय तुम वहाँ उपस्थित मत हो जाना । जाओ पुत्र ! माता तुम्हारा कल्याण करेंगी । ' इस अनिश्चित यात्र के लिए मंगलगुरु ने राजा - रानी का अनुमोदन कैसे प्राप्त किया , यह मंगलगुरु का हृदय ही जानता था । उनकी आँखों का तारा कभी उनकी दृष्टि से दूर न हुआ था । अब उसे ही इतने सुदूर और भयंकर प्रदेश में सर्वथा अकेला और निःसहाय भेजने की अनुमति देते माता - पिता का कलेजा बाहर आ रहा था । हमने सुना है राजरत्न , यह कामरूप अंचल का अति भयंकर कामाख्या सिद्ध पीठ है । अंचल के निवासी भी एक से बढ़कर एक सिद्ध हैं । राजा ने आशंकित हो कर कहा । ' हाँ , राजरत्न ! ' रानी ने भी अपनी आशंका व्यक्त की मेरे मायके से कई लोग एक बार भ्रमण करने गये थे , परन्तु लौटकर आया मात्र एक व्यक्ति उसी से ज्ञात हुआ , शेष सभी को वहाँ के • सिद्धों ने भेड़ बनाकर अपनी सेवा में रख लिया था । ' ' आप दोनों की सूचनाएँ सत्य हैं , परन्तु मुझ पर विश्वास करें ! हमारे कुँवर कोई ऐसी मिठाई नहीं , जिसे वहाँ के सिद्ध देखते ही अपना ग्रास बना लें । आपके युवराज को इतनी तंत्र विद्या तो मैं दे ही चुका हूँ । ' परन्तु , राजरत्न के आश्वासनों से न राजा आश्वस्त थे , न रानी और गुरु मंगल यात्र में विलम्ब होता देख चिन्तित हो रहे थे । कमला बलान , कौशिकी एवं गंगा की धाराओं को पारकर युवराज को ब्रह्मपुत्र की धारा में पहुँचना था । सावधानीपूर्वक गुप्त योजना बनाकर मंगल ने विजयमल्ल की नौका का चुनाव किया था और चतुर झिलमा खबास को कुँवर का अनुचर बना कर दो घड़ी पूर्व ही नौका पर भेज दिया था । परन्तु , इतना समझाने के पश्चात् भी यात्र के समय राजा और रानी दोनों अड़ गये थे । हारकर मंगल गुरु ने कहा- आप दोनों का यदि यही अंतिम निर्णय है तो कुँवर की यात्र स्थगित कर दें , महाराज ! परन्तु , पुत्र - मोह में आकर आप दोनों सबके अमंगल को ही आमंत्रित करेंगे यह जान लें । ' इस बार रानी जी ने अपने शस्त्र डाल दिये- कोई विकल्प नहीं है तो मैं अपने पुत्र को रोककर उसका अमंगल नहीं करूंगी , परन्तु उसे इस प्रकार निःसहाय अकेले नहीं जाने दूंगी । मेरे पुत्र के साथ उसके रक्षक भी जाएँगे राजरत्न ! ' ' फिर ढाक के वही तीन पात ' , मंगल गुरु ने शांत स्वर में कहा ' कुँवर की यह गुप्त यात्र है रानी जी ... अत्यंत गुप्त । रक्षकों की सेना कुँवर के अभियान को आरंभ में ही असफल कर देगी । .... मेरी बात मानें तथा मेरी योजना पर विश्वास करें रानी जी ... तथा अब और विलम्ब न करें ... अपने पुत्र को आशीष दें ... ! ' मोहग्रस्त राजा - रानी ने विवश होकर अपने नैनों की ज्योति , अपने हृदय के टुकड़े का विदा के पूर्व बारम्बार आलिंगन किया । मंगल तिलक लगाकर उसकी बलैइयाँ लीं , मस्तक सूंघा , भारी हृदय और सजल आँखों से अंततः पुत्र को विदा किया । अनेक निर्जन स्थलों , पहाड़ों , वनों और अंचलों को पार करती | विजयमल्ल की विशाल नौका जब ब्रह्मपुत्र की तेज धारा में पहुँची तो वह अति सावधान हो गया । पूरी शक्ति से चप्पू चलाने के बाद भी नौका अनियंत्रित हो जाती थी । सूर्यास्त तक धारा के विपरीत नौका - संचालन के श्रम से चूर विजयमल्ल की क्षुधा तीव्र हो गयी । नौका - संचालन की व्यस्तता में आज वह अपराद्द का भोजन भी न कर सका था । दैव - योग से अब उसे नदी की धारा के साथ - साथ ही चलना था । उसने चप्पू चलाना बंदकर नौका को धारा के सहारे छोड़ा और झिलमा को पुकार लगाई . ' हाँ काका ! ' उपस्थित होकर झिलमा ने आश्चर्य व्यक्त किया । ' अरे काका , यह क्या ! तुमने चप्पू छोड़ क्यों दिया ... थक गये थे ।
तो मुझे कहते ... मैं सम्हाल लेता । ' ' चिड़िया के मांस से मेरा चप्पू चलता तो अवश्य तुमसे कह देता'- हँसते हुए विजयमल्ल ने कहा , ' वैसे तेरे काका में इतनी क्षमता है बेटा कि मैं दिन - रात चप्पू चलाकर भी थक नहीं सकता , परन्तु क्या करूँ ? इस निगोड़े पेट से हार जाता हूँ । अब इस जलन से मुझे शीघ्र मुक्ति दिला जा बेटा ... दौड़कर जो भी है ... शीघ्र ला ! ' ' तुम्हारे लिए तो मैंने मध्याद्द पूर्व से ही रोटियां सेंककर रखी थीं । तुमने ग्रहण नहीं किया तो मैं वहीं बैठा - बैठा रात्रि हेतु और रोटियां बनाता रहा । ' ' अरे फिर तो ढेर सारी रोटियां बन गयी होंगी , बेटा ! ' ' हाँ काका ! इतनी रोटियां बन गयीं कि तुम दो दिनों तक ग्रहण करते रहो , फिर भी समाप्त न हो । ' ' मूर्खतापूर्ण बातें न कर मैं सारी रोटियाँ खा जाऊँगा ... शीघ्र ला ... अब विलम्ब न कर । ' ' आज तुम प्रसन्न हो जाओगे , काका । पता है , मड्डुआ की रोटियों पर घी टाँस कर लगाया है मैंने ... और भोजनोपरांत तुम्हारे गले को तर करने के लिए ढाई सेर घी अलग से गर्म करके रख दिया है । ' विजयमल्ल की लार ग्रंथियां झिलमा की बातों से लबलबाने | लगीं । होठ चाटता विजय चिल्लाया- अरे मूर्ख ! ग्रहण भी कराएगा या बातों से ही तरसाएगा ? जा भागकर ला । ' हँसता हुआ झिलमा भागा और झट भोजन से भरा विशाल परात लेकर लौटा । घी से चुपड़ी हुई मडुआ की रोटियों की सोंधी - सोंधी सुगंध और घी की टाँस विजयमल्ल की नासिका में भर गयी । जिसप्रकार भूखा वनराज अपने शिकार पर झपटता है , वैसे ही विजयमल्ल झिलमा की रोटियों पर झपटा । विजयमल्ल की क्षुधाग्नि में नित्य रोटियां झोंकने के अभ्यस्त झिलमा को उस समय आश्चर्य हुआ , जब वास्तव में | रात्रिकालीन भोजन के लिए बनी सभी रोटियों का भी भोग लगाकर विजयमल्ल शांत हुआ । ' पेट भरा काका या मड्डुआ की बोरी लाकर खोलूं ? ' झुंझलाकर झिलमा ने पूछा तो खींसें निपोड़ते विजयमल्ल ने कहा- ' अरे क्रोध क्यों करता है ? तू तो मेरा अन्नपूर्णा बेटा है , झिलमा ... ! जा , जाकर घी ले आ ... तूने कहा था न ... ढाई सेर घी टाँसकर रखा है । जा ले आ बेटा ! पेट तो भर गया , परन्तु गला सूख रहा है ... शीघ्र ले आ ... तबतक मैं ब्रह्मपुत्र के जल से अपने गले को तर करता हूँ । ' झिलमा को लगा सर पीट ले अपना , परन्तु पीटने का अवकाश कहाँ ? घी लाने दौड़ना पड़ा उसे । सूर्योदय के समय कामरूप के घाट पर नदी - यात्र का समापन हो गया । नौका पर ही खड़े होकर कुँवर ने दोनों हाथ जोड़ नेत्र बंद कर लिये - ' हे कमला मैया ! ' कुँवर ने प्रसन्न होकर कहा ' जिसप्रकार तुमने निर्विध्न इस विकट यात्र को पूरा किया , वैसे ही माता , मेरे संकल्प को पूर्ण करना । ' मन ही मन कमला मैया को प्रणाम कर उसने माता की स्तुति की , फिर नेत्रों को खोल कामरूप की भूमि को प्रणाम किया । ' अब विदा की घड़ी आ गयी , मित्रो ! मेरा उपहार स्वीकार करो और शीघ्र भरोड़ा पहुँचकर मेरे सकुशल यात्र - समापन की सूचना देकर गुरुवर मंगल को चिन्तामुक्त करो । 'यह कहकर कुँवर ने दो स्वर्ण मुद्राएँ दोनों की ओर बढ़ायीं । कुँवर की दायीं हथेली पर रखी स्वर्ण मुद्राएँ सूर्य की परावर्तित किरणों से चमकने लगीं । परन्तु विजयमल्ल और झिलमा की ओर प्रसन्न कुँवर ने जब दृष्टि उठायी तो उनके नेत्रों में स्वर्ण मुद्रा की चमक के स्थान पर घोर उदासी देख चौंक पड़े । ' क्या हुआ मित्र ? उपहार में कोई खोट है अथवा यह पर्याप्त नहीं ? ' दोनों की आँखें सजल हुईं और फिर बांध टूट गया जैसे । दोनों रोते हुए कुँवर के आगे नतजानु हो गये । ' मस्तक उठाकर विजयमल्ल ने कहा- हमसे अपराध हुआ हो अथवा सेवा में हमसे त्रुटि हो गयी हो तो अपना दास समझ हम पर कृपा करें स्वामी ... ! हमें क्षमा कर दें ! परन्तु , यों हमें त्यागकर लौटने का आदेश न दें , स्वामी ! ' ' हाँ मालिक ! इस झिलमा को भी अपनी सेवा से दूर न करें प्रभु ! आपको अकेला छोड़कर हम कहीं नहीं जाएँगे ? ' यह नवीन समस्या उपस्थित हो गयी थी । मंगलगुरु ने दोनों को स्पष्ट निर्देश दिया था कि कामरूप के घाट पर कुँवर को सकुशल उतार शीघ्र लौटकर उन्हें सूचित किया जाए , परन्तु , दोनों ने गुरु निर्देश की अवहेलना कर व्यर्थ हठ ठान लिया था । ' उठो ... तुम दोनों उठकर खड़े हो जाओ ... और ध्यान से मेरी बात सुनो । ' आदेश का तत्काल पालन हुआ । कर जोड़े दोनों खड़े हो गये तो कुँवर ने समझाते हुए कोमल वाणी में कहा ' तुमलोगों का कर्त्तव्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया । तुम्हारे सेवा कर्तव्य का यह मूल्य नहीं , उपहार है मेरा । इसे स्वीकार करो और मेरी बात सुनो । लो ... ! ' कुँवर के हाथ से दोनों ने दृष्टि फेर ली तो कुँवर ने कठोरता से कहा- मेरे आदेश की अवज्ञा करोगे ? ' ' नहीं स्वामी ! यह पाप हमसे कदापि संभव नहीं । हम इसे स्वीकार कर अपनी माई के पूजा स्थल पर रख देंगे स्वामी , परन्तु दास की एक ही विनती है , हमारा त्याग न करें । यहीं से यात्रियों की व्यापारियों की नौकाएँ जाती रहती हैं । गुरुदेव तक संदेश अवश्य पहुँचेगा स्वामी ! हमें साथ ही रहने दें ! ' ' यह संभव नहीं है , मित्र ! ' ' हम आप पर भार नहीं बनेंगे , स्वामी अपनी नौका यहीं चलाकर दोनों बाप - बेटा इस पापी पेट का निर्वाह कर लेंगे । ' ' बाप - बेटा ? ' विस्मित हो पूछा कुँवर ने । ' हाँ स्वामी । यह झिलमा खबास मेरा पुत्र बन चुका है । इसे अब झिलमा मल्ल कहिये स्वामी । ' इस विषम परिस्थिति में भी कुँवर हँस पड़े । हँसते हुए ही कुँवर ने विजयमल्ल की कठोर हथेली को अपनी नरम हथेली से थामकर कोमल स्वर में कहा - ' ज्ञात तो था ही , परन्तु आज मैंने प्रत्यक्ष देख लिया मित्र । तुम यथार्थ में हमारे अंचल के अमूल्य रत्न हो । तुम्हारे कठोर तन के अंदर फूल से भी कोमल और ओस की बूंदों से भी पवित्र हृदय छिपा है । आओ मित्र ! तुम्हें • गले लगाकर मैं भी पवित्र हो जाऊं । ' कहते ही कुँवर दयाल का सुकोमल तन काली चट्टान सदृश भीमकाय शरीर से लिपट गया । ' इतना मान ? ' विजय ने रोते हुए कहा ' रुलाने का ही सोच लिया है स्वामी तो लीजिये आपका दास भी रो ही देता है । ' ' देखो मित्र ! ' अलग होकर कुँवर ने कहा ' मेरी यात्र गुप्त है । भेद खुल जाने पर मेरी सफलता संदिग्ध हो जाएगी और तुम दोनों कदाचित् मेरे प्रयोजन में बाधा उत्पन्न नहीं करना चाहोगे । तुमसे कर जोड़ कर विनती करता हूँ मित्र ! मुझे विदा करो । ' अब न कुछ कहने को शेष रहा , न करने को । अश्रुपूरित नेत्रों से विजयमल्ल और झिलमा खबास उर्फ झिलमामल्ल ने कर जोड़ कर कुँवर को विदाई दे दी । परिधान के परिवर्तन से क्या अंदर का स्वरूप छिप सकता है ? तभी तो साधारण यात्री के परिधान में भी कुँवर को देखकर पंडा शोभितसारंग की आँखों में चमक आ गयी । अतिथि सामान्य नहीं , विशेष है । कुँवर के लिए अपना सबसे सुसज्जित कक्ष प्रस्तुत कर वह सादर खड़ा हो गया । नाटे कद का शोभित सारंग सांवले रंग - रूप का , स्थूल शरीर वाला वृद्ध पंडा था । उसका उदर कसकर बांधे गये श्वेत - झक्क् धोती के बंधनों से संघर्ष करता गुब्बारे की भांति आगे की ओर निकलने को व्यग्र था । उसकी मोटी भौंहों के नीचे छोटी - छोटी दोनों आँखें बड़ी चमकीली थीं । तन पर रेशमी परिधान और भाल पर त्रिपुण्ड । कुँवर ने मुस्कराते हुए जब उसकी लपलपाती हथेली पर एक स्वर्ण - मुद्रा रख दी तो उसके मोटे होंठ प्रसन्नता से खिल गए और आँखों की चमक और भी बढ़ गयी । ' मैंने तो आपको देखते ही पहचान लिया था , यजमान ! ' मुस्कराते हुए पण्डा ने कहा- ' आप अन्य यात्रियों की तरह कृपण नहीं ... दाता हैं हमारे । आप जैसे दया - धर्म के दानी पालक का ही आसरा है , अन्यथा इस कलयुग में तो जीना ही दूभर हो गया है , श्रीमान् । ... यात्री आते हैं , सुखपूर्वक कई मास निवास करते हैं , परन्तु , जाते समय उनका बटुआ ही खाली हो जाता है ... तो मुझे क्या देंगे ? कइयों को तो लौटने का मार्ग - व्यय तक देना पड़ जाता है , दानी ... परन्तु आपके आगमन ने इस धर्मशाला को आज धन्य कर दिया । शुभ आगमन कहाँ से हुआ है भगवन ? ' योगी , भोगी और रोगी अपने नेत्रों से ही पहचाने जाते हैं । कुँवर ने इस बातूनी पंडे की चमकती चतुर - आँखों में लालच की स्पष्ट झलक देखकर , एक अतिरिक्त स्वर्णमुद्रा बढ़ाते हुए कहा- ' रमता योगी और बहता पानी का न कोई देश होता है , न स्थान । आप तो स्वयं ज्ञानी हैं , महाराज ! क्या और अतिरिक्त निवेदन की आवश्यकता शेष है , श्रीमान ? ' ' नहीं कृपानिधान ! ' दोनों कर जोड़कर पंडा शोभित सारंग ने विनयावनत् मुद्रा में खड़े होकर कहा , ' बस इतनी कृपा और करें पालनहार कि भोजन - आतिथ्य स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें , प्रभो ! ' शोभित सारंग की रसोई को कृतार्थ कर कामरूप कामाख्या मंदिर के प्रांगण में उपस्थित हो , आदि शक्ति को नमन कर कुँवर उसी प्रांगण में सुखपूर्वक बैठ गया । वास्तव में , यह शक्ति पीठ पूर्णरूपेण जाग्रत था । उसके परिसर में अपूर्व शांति का प्रत्यक्ष आभास हुआ कुँवर को । उसकी इच्छा हुई , वह वहीं पद्मासन में बैठ ध्यानस्थ हो जाए . • अभूतपूर्व आनंद का क्षेत्र था यह माँ की ऊर्जा समस्त प्रांगण भीमकाय शरीर से लिपट गया । ' इतना मान ? ' विजय ने रोते हुए कहा ' रुलाने का ही सोच लिया है स्वामी तो लीजिये आपका दास भी रो ही देता है । ' ' देखो मित्र ! ' अलग होकर कुँवर ने कहा ' मेरी यात्र गुप्त है । भेद खुल जाने पर मेरी सफलता संदिग्ध हो जाएगी और तुम दोनों कदाचित् मेरे प्रयोजन में बाधा उत्पन्न नहीं करना चाहोगे । तुमसे कर जोड़ कर विनती करता हूँ मित्र ! मुझे विदा करो । ' अब न कुछ कहने को शेष रहा , न करने को । अश्रुपूरित नेत्रों से विजयमल्ल और झिलमा खबास उर्फ झिलमामल्ल ने कर जोड़ कर कुँवर को विदाई दे दी । परिधान के परिवर्तन से क्या अंदर का स्वरूप छिप सकता है ? तभी तो साधारण यात्री के परिधान में भी कुँवर को देखकर पंडा शोभितसारंग की आँखों में चमक आ गयी । अतिथि सामान्य नहीं , विशेष है । कुँवर के लिए अपना सबसे सुसज्जित कक्ष प्रस्तुत कर वह सादर खड़ा हो गया । नाटे कद का शोभित सारंग सांवले रंग - रूप का , स्थूल शरीर वाला वृद्ध पंडा था । उसका उदर कसकर बांधे गये श्वेत - झक्क् धोती के बंधनों से संघर्ष करता गुब्बारे की भांति आगे की ओर निकलने को व्यग्र था । उसकी मोटी भौंहों के नीचे छोटी - छोटी दोनों आँखें बड़ी चमकीली थीं । तन पर रेशमी परिधान और भाल पर त्रिपुण्ड । कुँवर ने मुस्कराते हुए जब उसकी लपलपाती हथेली पर एक स्वर्ण - मुद्रा रख दी तो उसके मोटे होंठ प्रसन्नता से खिल गए और आँखों की चमक और भी बढ़ गयी । ' मैंने तो आपको देखते ही पहचान लिया था , यजमान ! ' मुस्कराते हुए पण्डा ने कहा- ' आप अन्य यात्रियों की तरह कृपण नहीं ... दाता हैं हमारे । आप जैसे दया - धर्म के दानी पालक का ही आसरा है , अन्यथा इस कलयुग में तो जीना ही दूभर हो गया है , श्रीमान् । ... यात्री आते हैं , सुखपूर्वक कई मास निवास करते हैं , परन्तु , जाते समय उनका बटुआ ही खाली हो जाता है ... तो मुझे क्या देंगे ? कइयों को तो लौटने का मार्ग - व्यय तक देना पड़ जाता है , दानी ... परन्तु आपके आगमन ने इस धर्मशाला को आज धन्य कर दिया । शुभ आगमन कहाँ से हुआ है भगवन ? ' योगी , भोगी और रोगी अपने नेत्रों से ही पहचाने जाते हैं । कुँवर ने इस बातूनी पंडे की चमकती चतुर - आँखों में लालच की स्पष्ट झलक देखकर , एक अतिरिक्त स्वर्णमुद्रा बढ़ाते हुए कहा- ' रमता योगी और बहता पानी का न कोई देश होता है , न स्थान । आप तो स्वयं ज्ञानी हैं , महाराज ! क्या और अतिरिक्त निवेदन की आवश्यकता शेष है , श्रीमान ? ' ' नहीं कृपानिधान ! ' दोनों कर जोड़कर पंडा शोभित सारंग ने विनयावनत् मुद्रा में खड़े होकर कहा , ' बस इतनी कृपा और करें पालनहार कि भोजन - आतिथ्य स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें , प्रभो ! ' शोभित सारंग की रसोई को कृतार्थ कर कामरूप कामाख्या मंदिर के प्रांगण में उपस्थित हो , आदि शक्ति को नमन कर कुँवर उसी प्रांगण में सुखपूर्वक बैठ गया । वास्तव में , यह शक्ति पीठ पूर्णरूपेण जाग्रत था । उसके परिसर में अपूर्व शांति का प्रत्यक्ष आभास हुआ कुँवर को । उसकी इच्छा हुई , वह वहीं पद्मासन में बैठ ध्यानस्थ हो जाए . • अभूतपूर्व आनंद का क्षेत्र था यह माँ की ऊर्जा समस्त प्रांगणमें विसर्जित हो रही थी । आसन में बैठते ही ध्यान में उसका सहज प्रवेश हो गया । उसके नेत्र खुले तो अपराद्द के सूर्य देवता अपने तीक्ष्ण ताप की वर्षा कर रहे थे । झुलसाने वाली तप्त हवाओं के मध्य प्रसन्नचित्त कुँवर मंदिर की सीढ़ियों से उतरने लगा । सफल ध्यान के समापन से उसका हृदय तप्त वातावरण में भी अति शीतल था । कुँवर ने देखा - सीढ़ियों के नीचे भूमि पर लोगों की भीड़ एकत्र है । सीढ़ियों की ऊँचाई के कारण उसने भीड़ से घिरी एक अति कुरूप , रोग से जर्जर थरथराती बुढ़िया को देखा । वह हाथ जोड़कर कदाचित् कुछ प्रार्थना कर रही थी । शीघ्रतापूर्वक सीढ़ियां उतर वह बुढ़िया के समीप जा पहुँचा । कुँवर ने देखा बुढ़िया के अंग - प्रत्यंग में कुष्ठ फूट पड़ा था । उसका रोम - रोम दुर्गन्ध - युक्त पीब से भरा था । बुढ़िया पर दया हो कुँवर ने लोगों से कहा- इस अति बीमार , दुर्बल वृद्धा की सहायता में आप समर्थ नहीं , तो कृपया इसे यों प्रताड़ित न करें । आपसे में प्रार्थना करता हूँ , कृपया शांत हो जाएँ ! ' ' क्यों भाइयो ! लगता है धर्मराज के अवतार पधारे हैं हमारे अंचल में । ' ' अरे नहीं , यह इस बुढ़िया का कोई सगे - वाला ही है , अन्यथा ऐसी घृणित बुढ़िया के लिए इतना उतावला न होता । ' जितने लोग , उतनी बातें कोई व्यंग्योक्ति का प्रहार करता तो कोई आश्चर्य व्यक्त करता ! ' बोल माँ मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ? " कुँवर के इस प्रकार कहने पर वह अत्यंत घृणित बुढ़िया हँस पड़ी । हँसते हुए ही उसने कहा- ' जिसपर दृष्टि पड़ते ही सारे जन घृणा से मुँह फेर लेते हैं , तुमने उससे इस प्रकार कह भर दिया , यही बहुत है , पुत्र ! जा अपनी राह पकड़ । मेरी सहायता महामाया के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता । ' ' नहीं माँ ! मैं तुम्हें यों अकेली और विकल नहीं छोड़ सकता । तू कहे तो मैं तुम्हारी सेवा - सुश्रूषा करूँ अथवा तेरी अन्य कोई इच्छा हो तो उसे पूर्ण करूँ ? ' ' मेरी इच्छा पूर्ण करेगा तू ? " ' आज्ञा दे माँ ! ' ' तो ठीक है ... देखती हूँ मैं भी । फलित कुष्ठ की पीड़ा सूर्य के इस असह्य तपन ने और भी बढ़ा दी है , पुत्र ! क्या मुझे ब्रह्मपुत्र के शीतल जल में स्नान करा सकता है तू ? " ' अवश्य माँ ... ! यह कौन - सी बड़ी बात है ... चल मेरे साथ । मैं अभी तेरी इच्छा पूरी करता हूँ । ' ' यही तो कष्ट है पुत्र ... ! मैं स्वयं चल भी नहीं सकती । मुझे गोद में उठाकर चल सकता है तो कह ? " प्रत्युत्तर न देकर कुँवर ने बुढ़िया को अपनी गोद में झट उठा लिया । राहजनों के आश्चर्य की सीमा न रही । कुँवर अपनी गोद में बुढ़िया को उठाये तीव्र गति से ब्रह्मपुत्र की दिशा में जा र और उत्सुक भीड़ उसके पीछे - पीछे चल रही थी । ब्रह्मपुत्र के पास पहुँचते - पहुँचते भीड़ की संख्या और भी बढ़ गयी लोगों में तरह - तरह की कानाफूसी चल रही थी , परन्तु अधिकांश लोगों की दृष्टि में कुँवर के प्रति श्रद्धा और आदर केभाव उत्पन्न हो चुके थे । बुढ़िया को गोद में लिये कुँवर ब्रह्मपुत्र की शीतल जलधारा में उतर गया तो उसकी प्रशंसा करती भीड़ भी छँटने लगी । ' तुम्हारा कल्याण हो पुत्र ! ' जलधारा के मध्य बुढ़िया ने कहा- मैं जान गयी हूँ , तुम इस उग्र जलधारा को पार करने में भी समर्थ हो । मुझे उस पार ले चलो पुत्र ! ' ' जो आज्ञा माँ ! कहकर देखते ही देखते बुढ़िया को पकड़े कुँवर ब्रह्मपुत्र की विशाल छाती पारकर दूसरे तट पर जा पहुँचा । ' पार पहुँचकर बुढ़िया प्रसन्न हो गयी । ' तू मुझपर प्रसन्न है तो अपनी सेवा का अवसर देकर मुझे संतुष्ट कर । ' कुँवर ने बुढ़िया को निर्जन तट पर बैठाकर कहा । ' तू क्या वास्तव में मुझे रोग- मुक्त करने की अभिलाषा रखता ' हाँ माँ । ' ' तो सुन ! रहस्य खोलती हूँ । मैं एक शापित - बुढ़िया हूँ । सिद्ध के शाप ने मुझे कुष्ठ रोग से ग्रस्त कर दिया है । ' ' ऐसा है तो शाप - मुक्ति की भी प्रक्रिया अवश्य होगी , माँ ! ' ' अवश्य है ! परन्तु उसे सुनते ही तू तत्काल भाग खड़ा होगा । ' बुढ़िया की चेतावनी पर कुँवर हँस पड़ा - ' तू बता तो सही । ' ' हठ करता है तो सुन । सिद्ध ने कहा है - कोई अन्य , तेरा रोग स्वीकार ले तो तू तत्काल शापमुक्त हो जाएगी । अब तू ही बता , कौन लेगा मेरा यह कुष्ठ ? क्या तू ले सकता है ? ' बुढ़िया की बात समाप्त होने के पूर्व ही कुँवर ने खड़े होकर अपने नेत्र बंद कर लिये तथा दोनों कर जोड़कर उच्च स्वर में कहा - ' मैं सूर्य देव के साक्ष्य में अपने गुरु और माता - पिता की सौगंध लेकर तुम्हारे शाप को इसी क्षण धारण करता हूँ । ' यह कहकर उसने प्रसन्नतापूर्वक अपने नेत्र खोले तो उसके नेत्र खुले ही रह गये । कुष्ठ - पीड़ित घृणित बुढ़िया के स्थान पर अत्यंत तेजस्वी देवी खड़ी मुस्कुरा रही थी ।