सखाराम ने बसंती के माता-पिता से माफ़ी मांगते हुए कहा, “समधी जी मुझे ऐसा लगता है कि अब मोहन कभी नहीं सुधरेगा। हमें अब उसकी पुलिस में शिकायत कर देनी चाहिए। उनके डर से शायद वह …”
“पता नहीं समधी जी हमारी बेटी के भाग्य में क्या लिखा है। कैसी थी वह और अब कैसी हालत हो गई है उसकी।”
सखाराम ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “चलो कुछ देर आराम कर लो।”
उसके बाद सब लोग घर आ गए। जयंती ने सभी के लिए चाय बनाई। बसंती का पूरा शरीर हरा, नीला, काला हो रहा था। वह अभी भी कराह रही थी।
सखाराम ने कहा, “समधी जी बहुत रात हो गई है, आप लोग आज यहीं रुक जाओ। बसंती को भी अच्छा लगेगा।”
“हाँ ठीक है,” कह कर उन्होंने अपनी आँखों से आँसुओं को पोछा।
रात में सब सो गए। दूसरे दिन सुबह जब उठे तब चाय नाश्ता करने के बाद बसंती के अम्मा बाबूजी अपने घर जाने के लिए तैयार हो रहे थे तब लगभग ग्यारह बज रहे थे।
बसंती ने कहा, “बाबूजी दो चार दिन यहीं रुक जाओ मेरे पास।”
अपनी बेटी की कराहती दर्द भरी आवाज़ को सुनने के बाद उनके पास कोई वज़ह नहीं थी ना रुकने की, वह रुक गए।
गोविंद बहुत दुखी था। उसने सभी के बीच कहा, “मेरी ही गलती है। मैंने ही मोहन की बात मानकर इस रिश्ते के लिए सिफ़ारिश की थी। इस मोहन ने तो पूरे परिवार को बर्बाद कर डाला। फूलों-सी नाज़ुक बच्ची को जल्लाद बनकर मारता है। बसंती तो मेरी छोटी बहन जैसी है लेकिन मोहन की सोच कितनी मैली है। वह शक करता है और वह भी अपने भाई पर, अपनी पत्नी पर। मुझे तो उसे भाई कहने में शर्म आती है। बेचारी बसंती तो इतनी अच्छी हो कर भी नर्क ही भोग रही है। मैं जानता हूँ यह शक अब उसके दिमाग़ से कभी नहीं जाएगा। मन करता है उसका गला ही घोंट दूँ। ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी।”
बसंती बेचारी ना सजती ना संवरती पर सुंदरता ऐसी कि हर जगह से झलकती ही रहती। उसके सुंदर बेदाग शरीर को मार-मार कर मोहन ने दाग दार बना दिया था। जहाँ देखो वहाँ खून के काले, नीले जमे हुए धब्बे देखकर उसकी बहन जयंती रो रही थी। उससे अपनी बहन का दर्द देखा नहीं जा रहा था।
बसंती की तड़प देखकर जयंती के मन में भी यही विचार आने लगा कि मोहन की दुनिया में आख़िर ज़रूरत ही क्या है? शराबी बन कर केवल अत्याचार ही तो करता है। सभी के मन में बार-बार इस तरह के विचार आवागमन कर रहे थे।
आज जयंती अपनी बहन को समझा रही थी, “बसंती तुम चिंता मत करो कल हम पुलिस स्टेशन जाकर मोहन की शिकायत लिखा देंगे।”
बसंती ने कहा, “हाँ जीजी अब तो मैं भी मार खाते-खाते थक गई हूँ। मुझे लगता था कि मैं उसे सुधार लूंगी पर वो तो कभी नहीं सुधरने वाला। एक साल हो गया पर वह तो बिगड़ता ही जा रहा है।”
दूसरे दिन सुबह बसंती, जयंती और गोविंद पुलिस थाने गए और जाकर मोहन की शिकायत लिखाई। बसंती को देखकर पुलिस इंस्पेक्टर को उस पर होने वाले जुल्मों का सबूत अपने आप ही मिल गया।
पुलिस उन लोगों के साथ ही उनके घर आ गई। मोहन के कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ ही था। अंदर कमरे में मोहन बिस्तर पर धुत पड़ा हुआ था। उसके आसपास शराब की कुछ बोतलें भी पड़ी थीं। कुछ खाली और एक-दो भरी हुई, जो देशी शराब होती है ठर्रे की बोतल। कमरे से शराब की बदबू आ रही थी।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः