मोहन चला तो गया लेकिन अब वह उस मौके की तलाश में था जब वह बसंती को वापस अपने पास ले आए। उन्हीं दिनों उसके पूरे परिवार को एक शादी में जाना था। तबीयत खराब होने के कारण बसंती उनके साथ नहीं जा सकती थी।
तब जयंती ने उससे कहा, “बसंती तू अपने अम्मा बाबूजी के पास चल, मैं तुझे छोड़ देती हूँ। हमें आने में रात हो जाएगी। हम लौटते वक़्त तुझे लेते हुए आ जाएंगे।”
“नहीं जीजी मैं दरवाज़ा बंद करके आराम करूंगी। तुम बिल्कुल चिंता मत करो और शायद अम्मा बाबूजी भी उस शादी में जाने वाले होंगे।”
“अरे हाँ तू ठीक कह रही है, फिर हम लोग जाते हैं तू दरवाज़ा बंद ही रखना।”
पूरा परिवार शादी में चला गया यह बात मोहन जान गया था और आज पूरे एक हफ्ते के बाद उसे बसंती के पास जाने का मौका मिल गया। वह आया और दरवाज़ा खटखटाने लगा।
बसंती ने अंदर से ही पूछा, “कौन है?”
“मैं मोहन, दरवाज़ा खोल बसंती।”
“नहीं तू जा यहाँ से।”
“अरे मैं बदल गया हूँ, अब सब कुछ ठीक रहेगा परंतु तू यदि आएगी ही नहीं तो कैसे ठीक होगा।”
बसंती भोली उसकी बातों में आ गई और उसने दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़ा खुलते ही मोहन ने उसकी चोटी पकड़कर खींचते हुए कहा, “जहाँ मैं तुझे नहीं रहने देना चाहता वहीं पड़ी है। तू अपनी मनमानी करने से बाज नहीं आएगी, है ना। चल घर तुझे तेरी नानी याद दिलाता हूँ।”
“मोहन तू यह क्या कर रहा है? क्या कह रहा है? तुझे भान भी है? गोविंद भैया हमारे भाई हैं तेरे भी और मेरे भी। तू उन्हीं पर …”
“अरे चुप हो जा वह मेरा भाई नहीं है और तेरा तो …”
“छीः मोहन छोड़ दे मुझे, मैंने सोचा था मैं तुझे सुधार लूंगी पर तू तो कुछ सुनना ही नहीं चाहता।”
“ज़्यादा बोल रही है तू। चल अभी तुझे ठीक करता हूँ। इस वक़्त यहाँ तुझे बचाने कौन आएगा? आज तुझे मार- मार कर गोविंद का भूत तेरे सर से उतार ही देता हूँ।”
घर के अंदर ले जाकर मोहन ने बसंती को ख़ूब मारा। उधर शादी में बसंती के अम्मा बाबूजी भी आए थे जब उन्हें यह पता चला कि बसंती घर पर अकेली है तो उनसे रहा नहीं गया। वह दोनों चुपचाप वहाँ से निकल आए।
बसंती के घर पहुँचते ही उन्हें अपनी बेटी की चीखें सुनाई दे रही थीं। वह दौड़े परंतु दरवाज़ा बंद था। उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया किंतु खोलता कौन? वे दोनों गिड़गिड़ाते रहे, “दामाद जी दरवाज़ा खोलो। छोड़ दो हमारी बेटी को।”
उनकी हर कोशिश बेकार हो रही थी।
उधर सखाराम ने देखा कि जयंती के माँ बाप नहीं हैं तो उनका भी माथा ठनका और वह भी जल्दी से घर की तरफ़ निकले। दूरी ज़्यादा नहीं थी इसलिए वह भी तुरंत ही वहाँ पहुँच गए।
घर पहुँचते ही सारे हालात समझते हुए उन्होंने सीधे अपने समधी जी से कहा, “चलो दरवाज़ा तोड़ते हैं वरना वह बसंती को मार ही डालेगा,” कहते हुए उन दोनों ने मिलकर दरवाज़ा तोड़ दिया।
अंदर का दृश्य बहुत ग़मगीन और डरावना था।
बसंती लगभग बेहोशी की हालत में थी और अब तक शायद मोहन उसे मारते-मारते इतना थक गया था कि वह भी पलंग पर गिरा पड़ा था। सखाराम ने मोहन को आवाज़ दी, “मोहन।”
उसने मुड़कर देखा तो सखाराम ने उसी डंडे को उठाकर उसको मारना शुरू कर दिया, जिससे वह बसंती को मार रहा था।
बसंती के माता-पिता उसे उठाने की कोशिश कर रहे थे। उसके ऊपर पानी छिड़क कर उसे होश में लाए। वे उसे लेकर बाहर निकले, तब तक पूरा परिवार वहाँ आ चुका था। सभी हैरान थे कि बसंती ने तो कमरा अंदर से बंद कर लिया था फिर वह मोहन के साथ कैसे?
उधर सखाराम उसके ऊपर डंडा फेंक कर बाहर आ गए। आते हुए वह कह रहे थे, “इसे तो एक दिन मैं मार ही डालूंगा।”
बसंती के बाबूजी के शब्द भी कुछ ऐसे ही थे, “मैं इसे मार डालूंगा वरना यह शराबी मेरी बेटी को इसी तरह नर्क जैसी प्रताड़ना देता रहेगा।”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः