बसंती के शरीर से बहते खून को देखकर सभी चिंतित हो गए और वे तुरंत ही उसे अस्पताल ले गए, जहाँ पता चला कि वह गर्भ से थी। ज़्यादा समय नहीं हुआ था लेकिन मोहन की बेरहमी ने कोख में पलते शिशु की जान ले ली थी और सच पूछो तो यह एक हत्या ही थी जो मोहन ने की थी।
सखाराम ने बसंती के मां-बाप के सामने रोते हुए उनसे गिड़गिड़ा कर माफी मांगते हुए कहा, “हमें नहीं मालूम था कि मोहन ऐसा करेगा।”
उन्होंने सारी सच्चाई बसंती के मां-बाप को बता दी और उन्हें आश्वासन देते हुए कहा, “अब वह बसंती को मोहन के साथ नहीं रहने देंगे, जब तक कि वह सुधर नहीं जाता। यदि आप लोग चाहो तो कुछ दिन के लिए उसे अपने घर ले जा सकते हो।”
बसंती ने कहा, “नहीं बाबू जी मैं यही रहूंगी और मोहन को सुधारने की कोशिश करूंगी।”
बीच में माया ने कहा, “बसंती अभी तुम्हें आराम की ज़रूरत है कुछ दिन के लिए चली जाओ बेटा। यहाँ यह नालायक मोहन तुम्हें चैन से रहने नहीं देगा। हो सकता है कुछ दिन की दूरी उसे सुधारने में मदद करे। शायद उसे उसकी गलती का एहसास भी हो जाए।”
“ठीक है माँ, ऐसा भी करके देख लेते हैं।”
धीरे-धीरे पंद्रह दिन बीत गए और अब मोहन को बसंती की याद सताने लगी। उसे हर रात बसंती की कमी महसूस होती।
आखिरकार एक दिन वह अपने माँ बाबूजी को बताए बिना बसंती को लेने उसके घर पहुँच ही गया। उसे देखकर बसंती के माता-पिता कुछ खास ख़ुश नहीं हुए; ना ही वह इस समय बसंती को उसके साथ भेजना चाहते थे।
बसंती के पिता ने कहा, “दामाद जी कुछ दिन और रह लेने देते।”
मोहन ने कहा, “बाबूजी आप बिल्कुल चिंता ना करें मैं बसंती का अच्छे से ख़्याल रखूँगा। मुझे सुधरने का एक मौका तो दीजिए।”
वह कुछ कह पाते उसके पहले बसंती की आवाज़ आई, “जाने दीजिए ना बाबूजी। मोहन कह रहा है ना बाबूजी कि वह सुधर गया है।”
बसंती की रजामंदी के बाद उसके बाबूजी ने कहा, ठीक है बेटा जैसी तुम लोगों की मर्जी। भगवान चाहेगा तो सब कुछ ठीक ही होगा।
मोहन इस तरह से झूठा वादा करके बसंती को ले तो आया किंतु उसके मन में पल रहे शक को ख़त्म नहीं कर पाया। अभी तो उनके विवाह को आठ माह ही हुए थे लेकिन प्यार की वर्षा होने वाले ऐसे दिनों में नफ़रत की बारिश हो रही थी। शक ने मोहन के आस पास एक ऐसा चक्रव्यूह बना दिया, जिसमें वह ऐसा फंसा कि बाहर निकल ही ना पाया। उसके शक का दायरा तो दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा था। वह अपने ख़्यालों में भी बसंती और अपने भाई गोविंद को रंगरेलियाँ मनाते देखता रहता। उसका मन करता कि वह गोविंद को मार डाले। मोहन शराब के नशे में धुत रहने लगा। बसंती की तबीयत भी अभी ठीक नहीं हुई थी।
मोहन अब बसंती को केवल अपनी भूख मिटाने का साधन मात्र ही समझता था। दो तीन दिनों में ही उसने वापस बसंती के साथ मार पीट शुरू कर दी।
मोहन की ऐसी हरकतों से पूरा परिवार नाराज था। परेशान होकर माया ने बसंती को अपने घर वापस बुला लिया। मोहन के बार-बार बुलाने पर भी माया उसे नहीं भेज रही थी।
एक दिन उन्होंने मोहन से कहा, “जब तक तू अपनी हरकतों से बाज नहीं आएगा तब तक मैं बसंती को तेरे पास नहीं भेजूंगी, समझा। किसी की बेटी तेरी मार खाने के लिए नहीं है।”
मोहन आग बबूला होकर वहाँ से चला गया।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः