अपने भाई से नाराज मोहन ने दुकान पर जाना भी छोड़ दिया। अब उसे पैसे की तंगी होने लगी। मोहन किसी और की दुकान पर काम करने लगा। थोड़ा बहुत जो भी कमाता शराब में उड़ा देता। घर में कुछ भी सामान नहीं था। बूढ़ी माँ और जयंती, बसंती को ऐसे हाल में भला कहाँ देख सकते थे। उन्होंने घर का जितना हो सकता था, उतना सामान उसे दे दिया। खाने-पीने की चीजें भी गोविंद दुकान से लाकर बसंती के लिए भिजवा दिया करता था।
मोहन रोज़ शराब पीने के बाद बसंती को भला बुरा कहता। उसकी सुंदरता पर छींटाकशी करता और उसे बेरहमी से मारता। बसंती सब कुछ सहन कर लेती। एक दिन बसंती की तबीयत खराब थी। ऐसी हालत में भी आज तो मोहन ने अपने कमर के बेल्ट से यह कहते हुए उसे बहुत मारा, “गोविंद तुझे रोज़ दुकान से खाने पीने का सामान लाकर देता है। तुझे क्या लगता है मैं नहीं जानता। मैं यह भी जानता हूँ, कोई किसी को मुफ्त में कुछ नहीं देता। बोल तू क्या देती है बदले में उसे? बोल पैसे तो तेरे पास है नहीं, फिर क्या देती है?”
आज वह इतनी बुरी तरह से उसे मार रहा था कि उसकी दर्दनाक चीखें सुनकर जयंती, गोविंद, माया और सखाराम सभी वहाँ आ गए। उन्होंने देखा फूलों-सी नाज़ुक बच्ची पलंग के नीचे गिरी पड़ी है और मोहन बेल्ट उसके तन पर बरसाए ही जा रहा है। बेल्ट उसे कहाँ लगता है, यह भी नहीं देखता, बस चलाता ही जा रहा है। ऐसा लग रहा था इस इंसान के अंदर कितनी नफ़रत भरी हुई है।
गोविंद ने उसके हाथ से बेल्ट छीनने की कोशिश की तब मोहन ने कहा, “आ गया तू? तू ही तो है मेरा असली दुश्मन,” कहते हुए गोविंद को ज़ोर से धक्का दिया।
दोनों भाइयों में हाथापाई होने लगी।
मोहन ने कहा, “मेरे घर को तोड़ने वाला तू आस्तीन का सांप है।”
तब तक सखाराम ने मोहन के गाल पर तमाचा लगाते हुए बेल्ट छीना और कहा, “इससे तो तू मर ही जाता तो अच्छा होता। सब का जीना हराम कर रखा है इस पापी ने।”
जयंती और माया ने बसंती को उठाया। जयंती ने उसे सीने से लगा लिया।
इसके बाद जैसे ही वह बसंती को लेकर अपने घर जाने के लिए मुड़े तो क्या देखते हैं कि सामने बसंती और जयंती के माता-पिता खड़े हैं। वे पत्थर के बुत की तरह दिखाई दे रहे थे। उनमें कोई हलचल नहीं थी, केवल उन दोनों की आँखों से आँसू बह कर ज़मीन गीली कर रहे थे। सखाराम, गोविंद सभी ने उन्हें देख लिया। सब के सर शर्म से नीचे झुके हुए थे क्योंकि आज एक माँ बाप ने उनकी बेटी की दुर्दशा होते हुए अपनी आँखों से देख लिया था। वे अब तक शायद यह सोच कर बहुत ख़ुश थे कि उनकी दोनों बेटियाँ एक ही घर में ब्याही हैं और अपने से बड़े घर में ब्याही हैं तो वे बहुत ख़ुश होंगी। लेकिन आज हक़ीक़त में जो सच्चाई थी उसे उन्होंने अपनी आँखों से देख लिया था।
जयंती और बसंती अपने माता-पिता से लिपट कर रो रही थीं।
तभी माया ने देखा बसंती की साड़ी पर धीरे-धीरे खून बह रहा था। वह ज़ोर से चीखीं, “ये क्या …?”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः