Prem Gali ati Sankari - 71 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 71

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प्रेम गली अति साँकरी - 71

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उत्पल कॉफ़ी मँगवाने के लिए कहता रह गया लेकिन उसने जब अपने एफ़ेयर्स के बारे में बात बताई, मैं उलझन में आ गई | मेरा दिल उसके लिए क्यों धड़कता था? उसके व्यवहार में जो शैतानी थी, अपनापन था, मुझे लेकर जो एक उत्साह व चंचलता थी, उसके लिए मैं उसकी बातों में डूबी जा रही थी, अचानक ही जैसे एक झटका लगा था और उसके पास अधिक देर नहीं बैठ पाई थी | 

उस दिन बहुत अनमनी हो उठी मैं ! मुझे बड़ी शिद्दत से लगा कि मैं ही इतनी बेचारी क्यों हूँ जिसका अभी तक सही अर्थों में एक भी ‘ब्वॉय फ्रैंड’नहीं बन पाया था? सपने में भी उत्पल के बारे में ये सब मैंने नहीं सोचा था लेकिन मुझे क्यों इतना फ़र्क पड़ना चाहिए था? पता नहीं, लेकिन पड़ा था और बहुत पड़ा था | मेरी आँखों के आँसू जैसे मेरे दिल तक, धड़कनों तक, मेरे भीतर के हरेक गलियारे में बहने लगे थे और जैसे सब कुछ चीर-फाड़कर एक उफ़ान के साथ बाहर आ जाना चाहते थे | ऐसा महसूस हो रहा था मानो दिल किसी ने छलनी कर दिया हो! कोई मुझसे पूछे –‘आखिर क्यों ? ऐसा तो मेरा उत्पल के साथ क्या रिश्ता था? ’

गहन निद्रा तो न जाने कबसे मुझसे रूठ चुकी थी जिसके नित नए बहाने थे | पहले सड़क पार के मुहल्ले के जगन और उस परिवार व उस जैसे और परिवारों के कारण, फिर भाई के ऊपर नाराज़गी के कारण, अपने प्रेम की तलाश के कारण, दोस्तों से दूरी और फिर उनको मनाने के कारण, श्रेष्ठ व प्रमेश के बीच में कोई निर्णय न लेने के कारण और ----अब----? 

मुझे लग रहा था, मैं इन सबके लिए ही पैदा हुई हूँ | मुझे मुहब्बत में साँस लेने का कोई अधिकार नहीं था क्या? और मेरी मुहब्बत था कौन ? अंदर से खीज भी आ रही थी उत्पल पर, इतने दिनों बाद क्यों खोला उसने यह राज मुझ पर अब? डिनर के लिए मैंने मना कर दिया और महाराज से एक स्ट्रॉंग कॉफ़ी भेजने के लिए कह दिया | पूरी रात मैं कुछ अजनबी दृष्टियों की कैद में सुबकती रही | 

“बेटा ! डिनर पर क्यों नहीं आ रही हो? ” अम्मा को महाराज से पता चला था कि शायद मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी  | 

“मन नहीं है अम्मा, पता नहीं नींद क्यों चढ़ी चली जा रही है? ”मैंने आवाज़ को भारी बनाकर कहा | 

“मैं आती हूँ ---”अम्मा-पापा डिनर के लिए बैठ चुके थे, मुझे कुर्सी खिसकाने की आवाज़ आई | 

“नहीं—नहीं अम्मा, प्लीज़ आप लोग डिनर कर लीजिए | मुझे इतनी नींद चढ़ी हुई है कि मैं आपसे बात तक नहीं कर पाऊँगी | सुबह मिलती हूँ ---”मैंने पापा की चिंतित आवाज़ की फुसफुसाहट सुनी और फ़ोन बंद कर दिया | 

कॉफ़ी के सिप लेकर मैं बिस्तर में सरक गई और लेटे लेटे टी.वी ऑन कर दिया | पहले किसी शास्त्रीय चैनल पर कुछ सुनने की कोशिश की लेकिन मन नहीं लगा तो बिलकुल धीमी आवाज़ में न्यूज़ चैनलों पर भटकने लगी जिनमें मेरा मन कभी नहीं लगता था | टी.वी चलने से शायद मेरे एकाकीपन को एक साथी सा महसूस होने लगा, मुझे लगा मैंने किसी के कंधे पर सिर टिका लिया है और उस अनुपस्थित सहारे को महसूस करते हुए मैं फफककर रो पड़ी | 

महाराज काफ़ी देर पहले एक बार फिर कुछ हल्का-फुल्का खाने के लिए पूछने आए थे और मेरे मना करने पर मेरा कॉफ़ी का खाली मग उठाकर ले गए थे | उस समय ही मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया और एकदम धीमी आवाज़ में टी.वी खोल लिया | उस पूरी रात मेरे कमरे का टी.वी खुला रहा और मैं सुबककर रोती रही | शायद बीच में कुछ मिनटों के लिए बोझिल पलकें बंद होती, खुलती रहीं लेकिन मुझे किसी बात का कोई होश नहीं था | कितने लोगों से घिरी मैं कितनी एकाकी थी, भीतर से ! यह बात मुझे कचोटती रही थी, आज और भी शिद्दत से कचोट रही थी | 

“दीदी ! खोलिए, कॉफ़ी---” महाराज का स्वर बाहर से आया लेकिन मैंने करवट बदलते हुए कहा कि कॉफ़ी वापिस ले जाएं, जब मैं मँगवाऊँ तभी लाएं | कुछ देर में दरवाज़े की हलचल बंद हो गई थी और मैं अनजाने में रिमोट से टी.वी बंद करके करवट बदल चुकी थी | 

क्या यह प्रेम ही था, सँकरी गलियों में से गुज़रता हुआ प्रेम! मुझ पर अचानक ही जैसे कष्टों का पहाड़ टूट पड़ा | क्यों? मेरे पास उत्तर नहीं था | उत्पल ने जब मुझे अपने साथ साउथ में घूमने, यू.के में पड़ौस के फ़्लैट में रहने और अनजाने में मेरे दुपट्टे को उसकी बॉलकनी में उड़कर जाने की और उसे सहेज लेने की बात बताई थी, मेरे मन में कितनी अजीब अजीब सी संभावनाएं उगने लगी थीं | अब कुछ ऐसा महसूस हो रहा था कि क्या प्रेम केवल शरीर है? मैंने उस रात सपने में ही एक कठोर निर्णय ले लिया | 

उस दिन सुबह बारह बजे मेरी आँखें खुलीं और मैंने महाराज को कॉफ़ी के लिए फ़ोन करके प्रतिदिन की तरह फ़्रेश होने के लिए बाथरूम का रुख किया | जल्दी ही मैं बाहर आ गई | खुद को काफ़ी स्वस्थ्य कर लिया था मैंने | मुँह धोकर, बाल वगैरह सँवारकर चेहरे पर भी एक मुस्कान ओढ़ ली थी | 

“अरे! अम्मा, पापा आप लोग ! क्यों? ” बड़े स्वाभाविक स्वर में मैंने अम्मा से पूछा जो पापा के साथ मेरे कमरे में सोफ़े पर बैठे थे | मेरी कॉफ़ी भी आज वहीं मेज़ पर रखी थी | 

“बेटा! हम एक ही घर में रहते हैं क्या ? ”पापा के स्वर में नाराज़गी थी | 

“क्या हुआ पापा? ” मैं उनकी गर्दन से जा लिपटी | अब ऐसा बहुत कम हो पाता था कि पापा-अम्मा मुझसे लिपटकर प्यार कर सकें | सचमुच ही जैसे एक दूरी सी पसर गई थी रिश्तों के बीच! ये हमारे परिवार की पहचान तो नहीं थी | 

“तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है, कल से न ही कुछ खाया, न ही मिली हो ----बताओ तो, कुछ हुआ है क्या? ”पापा ने मेरे सिर को सहलाते हुए पूछा | 

“ज़रूरत हो तो डॉक्टर से बात कर लो या फिर उन्हें बुला लेते या क्लिनिक चली जातीं---”अम्मा ने कहा | 

“अरे! मुझे साथ न ले जाना हो तो शीला, रतनी या फिर उत्पल के साथ ही चली जाओ, तुम्हारे पीछे घूमता रहता है, उसे पता नहीं है वरना ज़बरदस्ती ले जाता तुम्हें ---” अम्मा ने अनजाने में ही सही फिर से मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया था | 

जानती थी, दोनों ही मेरे लिए चिंतित थे लेकिन किस खराब तबियत के लिए डॉक्टर साहब से सलाह लेने की ज़रूरत थी | पापा से मिलकर मैं अम्मा के गले जा लगी और न जाने क्यों मेरी आँखों में फिर से आँसु भर आए | 

“कल दोपहर तक तो ठीक थी, अचानक क्या हुआ? कुछ परेशानी है क्या बेटा ---? ”माँ आखिर माँ होती है और अपने बच्चे के भीतर की उथल-पुथल उसके चेहरे-मोहरे से जान लेती है | 

“यह बात न तो बार-बार कहने की है और न ही जबरदस्ती करने की लेकिन डिसीज़न जो कुछ भी लेना चाहो लो | ”इन सब बातों के लिए जो फोन्स आते थे, अम्मा को ही उतर देने पड़ते, पापा चुप ही रहते | 

“बेटा! तुम जानती हो, मैं कुछ पूछती नहीं, तुम समझदार हो, कुछ तो हुआ ही होगा तुम्हें श्रेष्ठ पसंद नहीं आया तो ! लेकिन जब तक पता नहीं चलेगा क्या बात है या उससे तुम्हें क्या परेशानी है, मैं क्या और कैसे उत्तर दूँगी  उसे और प्रमेश जी की बहन को---” अम्मा ने एक बार फिर से हल्का सा मुझे कुरेदने की कोशिश की | 

“उसे मुझसे पूछना चाहिए न, हम इतने छोटे हैं क्या कि हमारी ऊँगली पकड़कर किसी को चलना पड़े | ”मैं अब तक अपनी कॉफ़ी की आखिरी सिप ले चुकी थी और रात का निर्णय मेरे मन में टहल रहा था | 

“अम्मा! आप ही बताइए, श्रेष्ठ को मुझसे बात करनी चाहिए थी न! आखिर डिसीज़न दोनों के फ़्यूचर को लेकर ही है न ! ”

शायद अम्मा को यह बात ठीक लगी थी, उन्होंने पापा को चलने के लिए इशारा किया | उनके कुछ न कुछ काम, मीटिंग्स चलती ही रहती थी | शायद आज भी कुछ हो | 

“अमी बिलकुल ठीक कह रही है, इन दोनों को डिसीजन खुद लेकर हमें बताना चाहिए | हम इसमें क्या कह सकेंगे? इस बार फ़ोन आए तो साफ़ कह देना, अमी से बात करे---”पापा खड़े हो गए | 

“वैसे ठीक है न मेरी बिटिया? ”खड़े होकर उन्होंने एक बार फिर से पूछा | 

“जी, बिलकुल पापा, मिलती हूँ न लंच पर---”मेरी बात सुनकर अम्मा-पापा के चेहरों पर एक सुकून सा पसरा दिखाई दिया |