रबिया की प्रभु-भक्ति विख्यात है। वे मन, आत्मा व प्राण से ईश्वर का स्मरण करती रहतीं और प्राणिमात्र को प्रभु की रचना मानकर सेवा कार्यो में लगी रहतीं। उनका मन सदा-सर्वदा प्रभु की उपासना में लगा रहता था, वह दिन-रात प्रभु के चिन्तन में अपना समय बिताती। रबिया अपने प्रभु को अपना परम सखा मानती थीं।
आज से बारह सौ वर्ष पूर्व तुर्किस्तान के बसरा नामक नगर में रबिया का जन्म एक गरीब मुसलमान के घर हुआ था। रबिया उसकी चौथी कन्या थी। रबिया की माँ तो उसके बचपन में ही मर गयी थी। पिता भी रबिया को बारह वर्ष की उम्र में ही अनाथिनी कर चल बसा। रबिया बड़े ही कष्ट के साथ अपना जीवन निर्वाह करती।
एक बार रबिया ने प्रभु से प्रार्थना की– "स्वामी ! तू ही मेरा सब कुछ है, मैं तेरे सिवा और कुछ भी नहीं चाहती। हे प्रभो ! यदि मैं नरक के डर से तेरी पूजा करती हूँ तो मुझे नरकाग्नि में भस्म कर दे। यदि मैं स्वर्ग के लोभ से तेरी सेवा करती हूँ तो स्वर्ग का द्वार मेरे लिये सदा को बंद कर दे और अगर तेरे लिये ही तेरी पूजा करती हूँ तो अपना परम प्रकाशमय सुन्दर रूप दिखलाकर मुझे कृतार्थ कर।"
एक समय देश में भयानक अकाल पड़ा, जिससे बहनों का संग भी छूट गया। किसी दुष्ट ने रबिया को फुसलाकर एक धनी के हाथ बेच दिया। धनी बड़ा ही स्वार्थी और निर्दय स्वभाव का मनुष्य था। पैसों से खरीदी गई गुलाम रबिया पर तरह-तरह के जुल्म होने लगे। गाली और मार तो मामूली बात थी। रबिया कष्ट से पीड़ित होकर अकेले में ईश्वर के सामने रो-रोकर चुपचाप अपना दुखड़ा सुनाया करती। जगत में एक ईश्वर के सिवा उसे सान्त्वना देने वाला कोई नहीं था। गरीब अनाथ का उस अनाथ-नाथ के अतिरिक्त और होता भी कौन है।
मालिक के जुल्म से घबराकर उससे पिण्ड छुड़ाने के लिये रबिया एक दिन छिपकर भाग निकली, परंतु ईश्वर का विधान कुछ और था। थोड़ी दूर जाते ही वह ठोकर खाकर गिर पड़ी, जिससे उसका दाहिना हाथ टूट गया। विपत्ति पर नयी विपत्ति आयी। अमावस्या की घोर निशा के बाद ही शुक्ल पक्ष का अरुणोदय होता है। विपत्ति की सीमा होने पर ही सुख के दिन लौटा करते हैं। रबिया इस नयी विपत्ति से विचलित होकर रो पड़ी और उसने दीनों के एकमात्र बन्धु भगवान की शरण लेकर कहा– "ऐ मेरे मेहरबान मालिक ! मैं बिना माँ-बाप की अनाथ लड़की जन्म से ही दु:खों में पड़ी हुई हूँ। दिन-रात यहाँ कैदी की तरह मरती-पचती किसी कदर जिंदगी बिता रही थी। रहा-सहा हाथ भी टूट गया। क्या तुम मुझ पर खुश नहीं होओगे? कहो, मेरे मालिक ! तुम मुझसे क्यों नाराज हो?"
रबिया की कातर वाणी गगन मण्डल को भेदकर उस अलौकिक लोक में पहुँच तुरंत भगवान के दिव्य श्रवणेन्द्रियों में प्रवेश कर हृदय में जा पहुँची। रबिया ने दिव्य स्वरों में सुना, मानो भगवान स्वयं कह रहे हैं– ‘बेटी ! चिन्ता न कर। तेरे सारे संकट शीघ्र ही दूर हो जायँगे। तेरी महिमा पृथ्वी भर में छा जायगी। देवता भी तेरा आदर करेंगे।' सच्ची करुण-प्रार्थना का उत्तर तत्काल ही मिला करता है।
इस दिव्य वाणी को सुनकर रबिया का हृदय आनन्द से उछल पड़ा। उसको अब पूरी उम्मीद और हिम्मत हो गयी। उसने सोचा कि ‘जब प्रभु मुझ पर प्रसन्न हैं और अपनी दया का दान दे रहें हैं, तब कष्टों को कोमल कुसुमों के स्पर्श की भाँति हर्षोत्फुल्ल हृदय से सहन कर लेना कौन बड़ी बात है।’ रबिया अपने हाथ की चोट के दर्द को भूलकर प्रसन्न चित्त से मालिक के घर लौट आयी। पर आज से उसका जीवन पलट गया। काम-काज करते हुए भी उसका ध्यान प्रभु के चरणों में रहने लगा। वह रातों जगकर प्रार्थना करने लगी। भजन के प्रभाव से उसका तेज बढ़ गया। एक दिन आधी रात के समय रबिया अपनी एकान्त कोठरी में घुटने टेके बैठी हुई करुण-स्वर से प्रार्थना कर रही थी। भगवत्प्रेरणा से उसी समय उसके मालिक की भी नींद टूटी। उसने बड़ी मीठी करुणोत्पादक आवाज सुनी और वह तुरंत उठकर अन्दाज जगा रबिया की कोठरी के दरवाजे पर आ गया। परदे की ओट से उसने देखा कोठरी में अलौकिक प्रकाश छाया हुआ है। रबिया अनिमेष नेत्रों से बैठी विनय कर रही है। उसने रबिया के ये शब्द सुने– ‘ऐ मेरे मालिक ! मैं अब सिर्फ तेरा ही हुक्म उठाना चाहती हूँ; लेकिन क्या करूँ? जितना चाहती हूँ, उतना हो नहीं पाता। मैं खरीदी हुई गुलाम हूँ। मुझे गुलामी से फुरसत ही कहाँ मिलती है।’
दीन-दुनिया के मालिक ने रबिया की प्रार्थना सुन ली और उसी की प्रेरणा से रबिया के मालिक का मन उसी क्षण पलट गया। वह रबिया की तेज: पुंजमयी मंजुल मूर्ति देख और उसकी भक्ति-करुणापूर्ण प्रार्थना सुनकर चकित हो गया। वह धीरे-धीरे रबिया के समीप आ गया। उसने देखा, रबिया के भक्ति भावपूर्ण मुख मण्डल और चमकीले ललाट पर दिव्य ज्योति छायी हुई है। उसी स्वर्गीय ज्योति से मानो सारे घर में उजियाला हो रहा है। इस दृश्य को देखकर वह भय और आश्चर्य में डूब गया। उसने सोचा कि ऐसी पवित्र और पूजनीय देवी को गुलामी में रखकर मैंने बड़ा ही अन्याय-बड़ा ही पाप किया है। ऐसी प्रभु की सेविका देवी की सेवा तो मुझको करनी चाहिये। रबिया के प्रति उसके मन में बड़ी भारी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। उसने विनीत भाव से कहा- ‘देवि ! मैं अब तक तुझे पहचान नहीं सका था। आज भगवत्कृपा से मैंने तेरा प्रभाव जाना। अब तुझे मेरी सेवा नहीं करनी पड़ेगी। तू सुखपूर्वक मेरे घर में रह। मैं ही तेरी सेवा करूँगा।'
रबिया ने कहा– ‘स्वामिन ! मैं आपके द्वारा सेवा कराना नहीं चाहती। आपने इतने दिनों तक मुझे घर में रखकर खाने को दिया, यही मुझ पर बड़ा उपकार है। अब आप दया करके मुझे दूसरी जगह चले जाने की स्वतंत्रता दे दें तो मैं किसी निर्जन स्थान में जाकर आनन्द से भगवान का भजन करूँ।' मालिक ने रबिया की बात मान ली। अब रबिया गुलामी से छूटकर अपना सारा समय भजन-ध्यान में बिताने लगी। उसके हृदय में प्रेमसिन्धु छलकने लगा। संसार की आसक्ति का तो कहीं नाम-निशान भी नहीं रह गया। रबिया ने अपना जीवन सम्पूर्ण रूप से प्रेममय परमात्मा के चरणों में अर्पण कर दिया।
(रबिया के जीवन की कुछ उपदेशप्रद घटनाओं का मनन कीजिये)
एक बार रबिया उदास बैठी हुई थी, दर्शन के लिये आने वाले लोगों में से एक ने पूछा, ‘आज आप उदास क्यों हैं?’ रबिया ने जवाब दिया– ‘आज सबेरे मेरा मन स्वर्ग की ओर चला गया था, इसके लिये मेरे आन्तरिक परम सखा ने मुझे फटकारा है। मैं इसी कारण उदास हूँ कि सखा को छोड़कर मेरा पाजी मन दूसरी ओर क्यों गया।’ रबिया ईश्वर को सखा के रूप से भजती थी।
एक समय रबिया बहुत बीमार थी, सूफियान नामक एक साधक उससे मिलने गया। रबिया की बीमारी की हालत देखकर सूफियान को बड़ा खेद हुआ, परंतु वह संकोच के कारण कुछ भी कह नहीं सका। तब रबिया ने उससे कहा- "भाई ! तुम कुछ कहना चाहते हो तो कहो।"
सूफियान ने कहा- "देवि ! आप प्रभु से प्रार्थना कीजिये, प्रभु आपकी बीमारी को जरूर मिटा देंगे।"
रबिया ने मुसकराते हुए जवाब दिया "सूफियान ! क्या तुम इस बात को नहीं जानते कि बीमारी किसकी इच्छा और इशारे से होती है? क्या इस बीमारी में मेरे प्रभु का हाथ नहीं है?"
सूफियान- "हाँ, उसकी इच्छा बिना तो क्या होता है।"
रबिया– "जब यह बात है, तब तुम मुझसे यह कैसे कह रहे हो कि मैं उसकी इच्छा के विरुद्ध बीमारी से छूटने के लिये उससे प्रार्थना करूँ। जो मेरा परम सखा है, जिसका प्रत्येक विधान प्रेम से भरा होता है, उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करना क्या प्रेमी के लिये कभी उचित है?" कैसा सुन्दर आत्मसमर्पण है!
एक बार संत हुसैन बसरी ने रबिया से पूछा- "क्या आप विवाह करना चाहती हैं?" रबिया ने जवाब दिया– "विवाह शरीर से होता है, परंतु मेरे शरीर कहाँ है। मैं तो मन के साथ इस तन को प्रभु के हाथों अर्पण कर चुकी हूँ, यह शरीर अब उसी के अधीन है और उसी के कार्य में लगा हुआ है। विवाह किसके साथ किस प्रकार करूँ?"
रबिया ने अपना सब कुछ प्रभु को अर्पण कर दिया था, उसके समीप एक प्रभु के सिवा ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जिसे वह ‘मेरी’ कहती या समझती हो। एक बार हुसैन बसरी ने पूछा- "देवि ! आपने ऐसी ऊँची स्थिति किस तरह प्राप्त की?"
रबिया- "जो कुछ मिला था, सो सब खोकर उसे पाया है।"
हुसैन- "आप जिस ईश्वर की उपासना करती हैं, क्या आपने उस ईश्वर को कभी देखा है?"
रबिया- "देखती नहीं तो पूजा कैसे करती। परंतु मेरे उस ईश्वर का वाणी से वर्णन नहीं हो सकता, वह माप-तौल की चीज नहीं है।" रबिया सबसे प्रेम करती, पापी-तापी-सब के साथ उसका दया का बर्ताव रहता था।
एक दिन एक मनुष्य ने रबिया से पूछा- "आप पापरूपी राक्षस को तो शत्रु ही समझती हैं न?"
रबिया ने कहा- "ईश्वर के प्रेम में छकी रहने के कारण मुझे न किसी से शत्रुता करनी पड़ी और न किसी से लड़ना ही पड़ा। प्रभु कृपा से मेरे कोई शत्रु रहा ही नहीं।"
एक समय कुछ लोग रबिया के पास गये, रबिया ने उनमें से एक से पूछा- "भाई ! तू ईश्वर की सेवा किसलिये करता है?" उसने कहा- "नरक की भयानक पीड़ा से छूटने के लिये।" दूसरे से पूछने पर उसने कहा- "स्वर्ग अत्यन्त ही रमणीय स्थान है, वहाँ भाँति-भाँति के भोग और असीम सुख हैं, उसी सुख को पाने के लिये मैं भगवान की भक्ति करता हूँ।"
रबिया ने कहा- "बेसमझ भक्त ही भय या लोभ के कारण प्रभु की भक्ति किया करते हैं, न करने से तो यह भी अच्छ ही है; परंतु मान लो, यदि स्वर्ग या नरक दोनों ही न होते तो क्या तुम लोग प्रभु की भक्ति करते? सच्चे भक्त की ईश्वर-भक्ति किसी भी लोक-परलोक की प्राप्ति के लिये नहीं होती, वह तो अहैतु की हुआ करती है।" कैसा आदर्श भक्ति का निरुपण है!
एक बार एक धनी मनुष्य ने रबिया को बहुत फटे-पुराने चिथड़े पहने देखकर कहा- "तपिस्विनी ! यदि आपका इशारा हो तो आपकी इस दरिद्रता को दूर करने के लिये यह दास तैयार है।"
रबिया- "सांसारिक दरिद्रता के लिये किसी से कुछ भी माँगते मुझे बड़ी शरम मालूम होती है। जब यह सारा जगत मेरे प्रभु का ही राज्य है, तब उसे छोड़कर मैं दूसरे किससे क्या माँगूँ? मुझे जरूरत होगी तो अपने मालिक के हाथ से आप ही ले लूँगी।" धन्य निर्भरता!
एक समय एक मनुष्य ने रबिया के फूटे लोटे और फटी गुदड़ी को देखकर कहा- "देवि ! मेरी अनेक धनियों से मित्रता है; आप आज्ञा करें तो आपके लिये जरूरी सामान ले आऊँ?"
रबिया- "तुम बहुत गलती कर रहे हो, वे कोई भी मेरे अन्नदाता नहीं हैं। जो यथार्थ जीवनदाता है, वह क्या गरीबी के कारण गरीब को भूल गया है? और क्या धन के कारण ही वह धनवानों को याद रखता है?"
रबिया कभी-कभी प्रेमावेश में बड़े जारे से पुकार उठती। लोग उससे पूछने लगे कि ‘आपको कोई रोग या दु:ख न होने पर भी आप किसलिये चिल्ला उठती हैं?' रबिया ने कहा- "मेरी बाहरी बीमारी नहीं है, जिसको संसार के लोग समझ सकें; मेरे तो अन्तर का रोग है, जो किसी भी वैद्य-हकीम के वश का नहीं है। मेरी यह बीमारी तो सिर्फ उस मनमोहन के मुखड़े की छवि देखने से ही मिट सकती है।"
रबिया का मन सदा-सर्वदा प्रभु की उपासना में लगा रहता था, वह दिन-रात प्रभु के चिन्तन में अपना समय बिताती। एक बार रबिया ने प्रभु से प्रार्थना की- "स्वामी ! तू ही मेरा सब कुछ है, मैं तेरे सिवा और कुछ भी नहीं चाहती। हे प्रभो ! यदि मैं नरक के डर से तेरी पूजा करती हूँ तो मुझे नरकाग्नि में भस्म कर दे। यदि मैं स्वर्ग के लोभ से तेरी सेवा करती हूँ तो स्वर्ग का द्वार मेरे लिये सदा को बंद कर दे और अगर तेरे लिये ही तेरी पूजा करती हूँ तो अपना परम प्रकाशमय सुन्दर रूप दिखलाकर मुझे कृतार्थ कर।"
रबिया का शेष जीवन बहुत ही ऊँची अवस्था में बीता, वह चारों ओर अपने परम सखा के असीम सौन्दर्य को देख-देखकर आनन्द में डूबी रहती। एक दिन रात को, जब चन्द्रमा की चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी, रबिया अपनी कुटिया के अंदर किसी दूसरी ही दिव्य सृष्टि की ज्योत्स्ना का आनन्द लूट रही थी। इतने में एक परिचित स्त्री ने आकर ध्यानमग्न रबिया को बाहर से पुकारा, ‘रबिया ! बाहर आकर देख-कैसी खूबसूरत रात है।' रबिया के हृदय में इस समय जगत का समस्त सौन्दर्य जिसकी एक बूँद के बराबर भी नहीं है, वही सुन्दरता का सागर उमड़ रहा था। उसने कहा- "तुम एक बार मेरे दिल के अंदर घुसकर देखो, कैसी दुनिया से परे की अनोखी खूबसूरती है।"
हिजरी सन 135 में रबिया ने भगवान में मन लगाकर इस नश्वर शरीर को त्याग दिया!