अमृत-कण
पूज्य भाईजीकी लेखनीने अध्यात्मके प्रत्येक विषयपर विपुल सामग्री प्रदान की है। प्रकाशित पुस्तकोंकी सूची ऊपर दे दी गई है। यहाँ केवल कुछ विषयोंपर उनकी लेखनीसे निसृत कण दिये जा रहे हैं।
(१) भक्तियोग -- चित्तवृत्तिका निरन्तर अविच्छिन्न रूपसे अपने इष्ट स्वरूप श्रीभगवान्में लगे रहना अथवा भगवान्में परम अनुराग या निष्काम अनन्य प्रेम हो जाना ही भक्ति है। भक्तिके अनेक साधन हैं, अनेकों स्तर हैं और अनेकों विभाग हैं। ऋषियोंने बड़ी सुन्दरताके साथ भक्तिकी व्याख्या की है। वस्तुतः भगवान् जैसे भक्तिके वशमें होते हैं, वैसे और किसी साधनसे नहीं होते ....... भगवान् श्रीकृष्णके लिये अनुकूलतायुक्त अनुशीलन होता है उसीका नाम भक्ति है। अनुकूलताका तात्पर्य है, जो कार्य श्रीकृष्णको रुचिकर हो, जिससे श्रीकृष्णको सुख हो, शरीर, वाणी और मनसे निरन्तर वही कार्य करना। श्रीकृष्णसे यहाँ श्रीराम, नृसिंह, वामन आदि सभी भगवत्स्वरूप लिये जा सकते हैं। भक्तिके तीन भेद हैं-- साधन-भक्ति, भाव-भक्ति और प्रेम-भक्ति। इन्द्रियोंके द्वारा जिसका साधन हो सकता हो, ऐसे श्रवण कीर्तनादि का नाम साधन-भक्ति है।....... साधन-भक्ति दो प्रकार की होती है-- (१) वैधी और (२) रागानुगा।..... शुद्ध-सत्व-विशेष स्वरूप प्रेमरूपी सूर्यकी किरणके सदृश रुचिकी अर्थात् भगवत्प्राप्तिकी अभिलाषाके द्वारा चित्तको स्निग्ध करनेवाली जो एक मनोवृत्ति होती है, उसीका नाम भाव है........भावकी परिपक्व अवस्थाका नाम प्रेम है।– (भगवच्चर्चा भाग ५)
(२) ज्ञानयोग- वह परमतत्त्व ऐसा है जो न कभी देखा जा सकता है, न ग्रहण किया जा सकता है, न उसका कोई गोत्र है, न उसका कोई वर्ग है, न उसके चक्षु-कर्ण और हाथ-पैर आदि है। वह न भीतर प्रज्ञावाला है, न बाहर प्रज्ञावाला है, न दोनों प्रकारकी प्रज्ञावाला है, न प्रधआन-धन है, न प्रज्ञ है, न अप्रज्ञ है, वह न देखने में आता है, न उससे कोई व्यवहार किया जा सकता है, न वह पकड़में आता है, न उसका कोई लक्षण (चिन्ह) है; जिसके सम्बन्धमें न चित्तसे कुछ सोचा जा सकता है और न वाणीसे कुछ कहा ही जा सकता है। जो आत्म प्रत्ययका सार है और प्रपंचसे रहित है, शान्त, शिव और अद्वैत है। जब वह द्रष्टा उस सबके ईश्वर ब्रह्माके भी आदिकारण सम्पूर्ण विश्वके स्रष्टा, दिव्य प्रकाशस्वरूप परम पुरुष को देख लेता है, तब वह निर्मल-हृदय महात्मा पाप-पुण्यसे छूटकर परम साम्यको प्राप्त हो जाता है।
–(भगवचर्चा भाग ५)
(३) कर्मयोग- असलमें कर्म करनेमें ही मनुष्यका अधिकार है, कर्मफलमें अधिकार नहीं है। कोई भी मनुष्य यह दावा नहीं कर सकता कि मैं केवल कर्म करके ही अमुक फल प्राप्त कर लूँगा। इसपर यह प्रश्न हो सकता है कि जब फल अपने हाथमें नहीं है, तब कर्म ही क्यों किया जाय ? चुपचाप बैठे रहनेसे भी जो होना होगा सो हो जायगा। इसीलिये भगवान्ने पहलेसे सावधान कर दिया कि 'कर्म-त्यागकी ओर तेरा मन नहीं लगना चाहिये।' क्योंकि कर्ममें तेरा अधिकार है। अतएव मनुष्यको अपने अधिकारके अनुसार कर्म करना चाहिये, परन्तु फलकी आशासे नहीं। अवश्य ही कर्म बिना उद्देश्यके नहीं होता, इसलिये मनुष्यके कर्ममें भी कोई उद्देश्य या लक्ष्य रहेगा। –(भगवच्चर्चा भाग ६)
फलकी कामना और आसक्ति छोड़कर लाभ-हानि, सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता प्रतिकूलता तथा जय-पराजय आदिमें समान भाव रखते हुए भगवत्प्रीतिके लिये सत्कर्म करते रहना ही वास्तविक कर्मयोग है। –(लोक-परलोकका सुधार भाग ५)
(४) अष्टांग योग- योगीको चाहिये कि वह अपने मनको तत्त्वज्ञानके उपयोगी बनानेके लिये निष्काम भावसे ब्रह्मचर्य संयतचित्तसे स्वाध्याय, शौच, संतोष तथा तप करते हुए मनको निरन्तर परब्रह्म परमेश्वरके चिन्तनमें लगाये रखें. यही दस प्रकारके यम नियम हैं। इनका समानभावसे पालन करनेवालेको उत्तम फलकी प्राप्ति होती है और निष्काम आचरण करनेवालेको मुक्ति मिलती है। भद्र आदि आसनोंमेंसे किसी एक आसनका अवलम्बन करके सद्गुणी पुरुषको यम-नियमसे सम्पन्न होकर वशमें किये हुए चित्तसे योगका अभ्यास करना चाहिये। अभ्याससे प्राण नामक वायुको वश में करनेवाली क्रियाका नाम प्राणायाम है। प्राणायाम सजीव और निर्जीव भेदसे दो प्रकारका है........योगीको चाहिये कि वह क्रमशः प्रत्याहार परायण होकर शब्द स्पर्शादि विषयोंमें आसक्त इन्द्रियोंका निग्रह करके उन्हें चित्तका अनुसरण करनेवाली बना लें.......दूसरे विषयों में सर्वथा निःस्पृह होकर जब साधक केवल भगवान्के रूपमें ही अनन्य भावसे तन्मय हो जाता है, तब उसीको ध्यान कहते हैं। इसके बाद समाधि होती है। समस्त कल्पनाओंसे सर्वथा रहित होकर केवल स्वरूपमें ही स्थित रहनेको समाधि कहते हैं समाधि ध्यानके द्वारा प्राप्त होती है। –(भगवच्चर्चा भाग ४)
(५) ध्यान योग- सबसे पहली बात है मन लगनेकी। जो जिस वस्तुको परम आवश्यक मानकर उसे प्राप्त करना चाहता है, उसके चित्तसे उस वस्तुका चिन्तन स्वाभाविक ही बार-बार होता है। उसके चित्तमें अपने ध्येय पदार्थकी धारणा दृढ़ हो जाती है और आगे चलकर वही धारणा -- चित्तवृत्तियोंके सर्वथा ध्येयाकार बन जानेपर ध्यान के रूपमें परिणित हो जाती है। ध्यानकी बड़ी महिमा है। भगवान्ने श्रीमद्भागवत में कहा है कि जो पुरुष निरन्तर विषयोंका ध्यान करता है उसका चित्त विषयों में फँस जाता है और जो मेरा ध्यान करता है, वह मुझमें लीन हो जाता है। किसी-न-किसी रूपमें सभी योगोंमें ध्यानकी आवश्यकता और उपयोगिता है। ध्यानमें अनेक प्रकार हैं साधकको अपने-अपने अधिकार, रुचि और अभ्यासकी सुगमता देखकर किसी भी एक प्रकारसे अभ्यास करना चाहिये। ध्यानकी कुछ विधियाँ जाननेके पहले यह जान लेना आवश्यक है कि ध्यानयोगी साधकके लिये उपयुक्त स्थान, काल और आसन कौन-सा उत्तम है। –(भगवच्चर्चा भाग ३)
(६) प्रेम योग-प्रेम और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं, जिस प्रकार वाणीसे ब्रह्मका वर्णन असम्भव है, वेद 'नेति नेति' कहकर चुप हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रेमका वर्णन भी वाणी द्वारा नहीं हो सकता। जिस प्रेमका वर्णन वाणीके द्वारा हो सकता है, वह तो प्रेमका सर्वथा बाहरी रूप है। प्रेम तो अनुभवकी वस्तु है।
प्रेमका अनुभव होता है मनमें और मन रहता है सदा अपने प्रेमास्पदके पास। फिर भला, मनके अभावमें वाणीको यत्किंचित् भी वर्णन करनेका असली मसाला कहाँसे मिले। अतएव प्रेमका जो कुछ भी वर्णन मिलता है, वह केवल सांकेतिकमात्र है-- बाह्य है। प्रेमकी प्राप्ति हुए बिना तो प्रेमको कोई जानता नहीं और प्राप्ति होनेपर वह अपने मनसे हाथ धो बैठता है।
प्रेम गुणातीत होता है। प्रेममें कुछ भी कामना नहीं होती तथा वह बढ़ता ही रहता हैं उसमे कही परिसनाप्ति नही है।
राधाका स्वरूप- श्रीराधाजी स्वरूपतः श्रीकृष्ण प्रेमकी एक घनीभूत नित्य चेतन स्थिति हैं। ह्लादिनीका सार प्रेम है प्रेमका सार मादनाख्य महाभाव है और श्रीराधा स्वयं मादनाख्य महाभावस्वरूपा हैं। वे प्रत्यक्ष मूर्तिमती ह्लादिनी शक्ति हैं, पवित्रतम प्रेमकी एकमात्र आत्मस्वरूपा अधिष्ठात्री देवी हैं। श्रीकृष्णसुखैकतात्पर्यमयी पवित्रतम नित्य सेवाके द्वारा श्रीकृष्णका आनन्द - विधान ही जिनका एकमात्र कार्य है, वे श्रीराधा कृष्ण-कान्तागणमें सर्वश्रेष्ठ तथा सबकी परमाधाररूपिणी हैं। श्रीराधा पूर्ण शक्ति हैं। श्रीकृष्ण पूर्ण शक्तिमान् हैं। शक्ति शक्तिमानमें भेद तथा अभेद दोनों ही माने जाते हैं। अभेदरूपमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण अनादि, अनन्त नित्य एक हैं और वे ही लीला-रसास्वादनके लिये अनादिकालसे नित्य दो स्वरूपोंमें विराजित हैं। श्रीराधा और श्रीकृष्ण दोनों ही परम प्रेमस्वरूप होनेपर भी लीलारसकी विशेष पुष्टिके लिये श्रीराधामें ही प्रेमकी पूर्णतम अभिव्यक्ति है।
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श्रीराधाजी श्रीकृष्णर्द्धागसम्भूता होनेसे श्रीकृष्ण स्वरूपा ही हैं। लीलारसास्वादनके लिये द्विविध प्रकाश है। दोनों ही सच्चिदानन्दमय एक तत्त्व-वस्तु हैं उसमें न स्त्री है न पुरुष केवल लीला-विलास है, दोनों ही काम-गन्ध-शून्य सच्चिदानन्द भगवद्विग्रह हैं। शुक्र-शोणितजनित-कर्मजनित और पञ्चभूत निर्मित देह इनके नहीं हैं। अतएव इनमें काम-क्रोधादिके लेशकी कल्पना भी नहीं है। सभी कुछ सच्चिद्घन है।
गोपी प्रेम — श्रीकृष्णकी असंख्य शक्तियों में से जो शक्तियाँ ह्लादिनी शक्तिकी पुष्टिकारिणी है, वे ही श्रीराधाकी सहचरी सखियाँ श्रीगोपियाँ हैं। समस्त गोपीजन उन हलादिनी शक्तिकी ही अनन्त विभिन्न प्रतिमूर्तियाँ हैं। उनका जीवन स्वाभाविक ही भगवदर्पित है। उनकी प्रत्येक क्रिया स्वाभाविक ही भगवत्सेवारूप होती है। उनकी कोई भी चेष्टा ऐसी नहीं होती जिसमें भगवत्प्रीतिसम्पादनके सिवा श्रीकृष्ण राधिकाके मिलनसुखकी साधनाके सिवा अन्य कोई उद्देश्य हो उनके बुद्धि मन, इन्द्रिय, शरीर, आत्माके सहित सदा श्रीकृष्णके ही अर्पण है। उनके द्वारा निरन्तर श्रीकृष्णकी ही सेवा बनती है।
गोपीभाव 'सर्वसमर्पण' का भाव है। इसमें निज सुखकी इच्छाका सर्वथा त्याग है। गोपीभावमें न लहँगा, साड़ी या चोली पहनने की आवश्यकता है न पैरोंमें नूपुर और नाकमें नथनी हो। गोपी भावकी प्राप्तिके लिये श्रीगोपीजनोंका ही अनुगमन करना होगा। भक्तका हृदय भगवान्को जब सचमुच अपना 'प्राणनाथ' और 'प्रियतम' मान लेता है, तभी वह गोपीभाव की प्राप्ति के योग्य होता है और ठीक पत्नी की भाँति जब भगवान् को पतिरूपमें वरण कर लिया। जाता है, तभी उन्हें 'प्रियतम' और 'प्राणनाथ' कहा जाता है। –(तुलसीदल)
(७) नाम महिमा -- जिस प्रकार अग्निमें दाहिका शक्ति स्वाभाविक है, उसी प्रकार भगवन्नाममें पापको विषय-प्रपञ्च जगत् के मोहको जला डालने की शक्ति स्वाभाविक है। इसमें भावकी आवश्यकता नहीं है। किसी प्रकार भी नाम जीभपर आना चाहिये, फिर नाम का जो स्वाभाविक फल है वह बिना श्रद्धा के भी मिल जायगा। भाव न हो, तब भी नाम-जप तो करना ही है। नाम भगवत्स्वरूप ही है। नाम अपनी शक्ति से नाम अपने वस्तुगुण से सारा काम कर देगा। विशेषकर कलियुगमें तो भगवन्नाम के सिवा और कोई साधन ही नहीं है। आलस्य और तर्क – ये दो नाम-जपमें बाधक हैं। नाम लेनेकी आदत डाल लो। नामके बल से बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाओगे और प्रेम को भी प्राप्त कर लोगे। –(सत्संगके बिखरे मोती)
(८) समर्पण -- वास्तविक पूर्ण समर्पण करना नहीं पड़ता, अपने आप हो जाता है। जबतक कोई समर्पण करनेवाला धर्मी कर्त्ता रहता है, तबतक अहंकार शेष है और पूर्ण समर्पणमें कमी है। एक ऐसी स्थिति होती है, जब कि देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार–इन सबके समष्टि-यन्त्र पर प्रभुका अपना अधिकार है। इस अवस्थामें उनसे कोई भिन्न कर्त्ता नहीं रह जाता। ..........इस स्थितिपर पहुँचनेके लिये पहले शरणागतिका साधन करना पड़ता है। इस शरणागतिके साधनमें अनेक भाव हैं–
(१) नित्य - निरन्तर प्रभुका अनन्य भजन होना। (२) प्रभुपर पूर्ण विश्वास होना। (३) सर्वथा सर्वदा प्रभुके अनुकूल कार्य करना। (४) सब कुछ प्रभु का समझना और प्रभु से कभी कुछ भी न चाहना। (५) प्रभु के यथार्थ शरण प्राप्त या शरणका मर्म समझनेवाले पुरुषों का संग करना। –(पूर्ण समर्पण-भगवच्चर्चा भाग ६)
(9) कृपा साधना--कृपा तो भगवान्की सदा सबपर और अनन्त है। हम लोग उस कृपापर जितना ही अपनेको छोड़ सकें, उतना ही लाभ उठा सकते हैं। जो कुछ भी भगवत्कृपाको सौंप दिया गया, वही सुरक्षित हो गया। भगवान्की कृपाके लिये कुछ भी असम्भव या असाध्य नहीं है। .......सबसे अधिक कृपाके प्रति समर्पण करके उस कृपासे बननेवाले प्रत्येक विधानमें परम आनन्दका अनुभव करना आता है, सभी मनुष्यको यह अनुभव होता है कि वह जिसे असम्भव मानता था, वही भगवत्कृपासे अनायास ही संभव हो गया और इस भगवत्कृपाका द्वार सबके लिये खुला है। –(लोक-परलोकका सुधार भाग १ )
(१०) प्रार्थना -- भगवान् सब भाषाएँ समझते हैं, सहज प्रार्थनाके लिये किसी अमुक प्रकारके शब्दोंकी आवश्यकता नहीं है। और यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि भगवान् मेरी निर्दोष प्रार्थनाको अवश्य अवश्य पूर्ण करेंगे। सांसारिक अभावकी पूर्ति निर्दोष धन-मान आदिकी प्राप्ति, रोगनाश, स्वास्थ्य लाभ, विपत्तिनिवारण आदिके लिये भी विश्वासपूर्ण प्रार्थना करनेपर निस्संदेह आश्चर्यजनक फल प्राप्त होता है। पर ये सब प्रार्थनाएँ ऐसी ही हैं जैसे अनन्त वैभवशाली उदार सम्राटसे कौड़ी माँगना। –(प्रार्थना - पियूष)
पर नाथ! मैं एक बात पूछता हूँ मैं बारंबार अपराधकी कालिमा लगाता हूँ और बार-बार तुम उसे धोते हो। क्या इससे यह अच्छा नहीं कि मैं अपराध करूँ ही नहीं। तुम कहोगे--मत करो, कौन कहता है करो। पर नाथ ! यह जानते हुए भी कि मेरे दयालु स्वामी मुझ नगण्यको धोया-पोंछा रखनेके लिये कितने सतत् सावधान और प्रयत्नशील रहनेको बाध्य होते हैं, मैं स्वभाववश अपराध करता ही हूँ। दयामय! अब यह तुम्हारे ही किये दूर होगा। ..........मेरी यह प्रार्थना अवश्य पूरी कर दो मेरे दयार्णव ।
–(प्रार्थना )
(११) ब्रह्मचर्य-आयु घटनेका कारण तो ब्रह्मचर्य नाश ही है। जब देशमें ब्रह्मचर्यका पूर्ण प्रचार था, तब यहाँ न तो इतनी व्याधियाँ थीं और न युवावस्थामें प्रायः कोई मरता ही था। परन्तु आजकी दशा उससे सर्वथा विपरीत है। हमने जीवनके मूल ब्रह्मचर्यको छोड़ दिया, इसीसे हमारी ऐसी दुरवस्था हो गई। यह स्मरण रखना चाहिये कि जबतक हमारे देशमें ब्रह्मचर्यकी पुनः प्रतिष्ठा नहीं होती, तबतक हमारा उत्थान होना बड़ा ही कठिन है। कच्ची नींवपर इमारत नहीं उठ सकती। यदि उठा दी जाती है। तो वह इतनी कमजोर होती है कि जरासे धक्केसे ही गिर पड़ती है। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यके बिना जीवन नहीं टिक सकता; यदि कहीं कुछ रहता है, सो भी स्वल्प कालके लिये ही यही कारण है कि आज हमारी इतनी दुर्दशा है। –(ब्रह्मचर्य)
(१२) वैराग्य– इस लोक और परलोकके समस्त दृष्टश्रुत या अदृष्टभुत पदार्थोसे सर्वथा वितृष्ण हो जाना वैराग्य कहलाता है। जबतक विषयोंने अनुराग रहता है, तबतक परमात्म-प्राप्तिके चरम ध्येयपर मनुष्य दृढ़तासे स्थिर नहीं रह सकता। विषयानुरागकी निवृत्ति विषय-विरागसे होती है। विषयोंमें चित्तका अनुराग प्रधानतया तथा चार कारणोंसे हो रहा है (१) विषयोंका अस्तित्व-बोध (२) विषयोंमें रमणीयताका बोध (३) विषयोंमें सुख-बोध और (४) विषयों में प्रेमका बोध. विवेक द्वारा इन चारोंका बोध करनेपर वैराग्यकी प्राप्ति होती है। इसलिये नित्यानित्य वस्तु विवेककी आवश्यकता पहले है। विवेकसे वैराग्य जागृत होता है और वैराग्यसे विवेक स्थिर और परिमार्जित होता है। यह दोनों अन्योन्याश्रित साधन हैं।– (साधन-पथ )
(१३) सत्य -- हमारे जीवनका लक्ष्य सत्य ही रहे। सत्य भगवान्का नाम है, अतएव भगवान् ही हमारे एक मात्र ध्येय हों। भगवान्के बिना और यदि कुछ है तो वह सर्वथा असत् है, है ही नहीं। 'सत्य' शब्दका प्रयोग आजकल अधिकांशमें 'सत्य भाषण' के अर्थमें ही होता है। इसलिये इस पर विशेष रूपसे ध्यान देना है। जिस विषयको हमने सुना या समझा हो ठीक उसी प्रकार समझानेकी शुद्ध नीयतसे मुखमुद्रा, संकेत आदिके साथ वाणीसे वचन बोलना।........सत्य बात भी यथासाध्य ऐसे शब्दोंमें कहनी चाहिये जो सुननेवालेको कड़वी न लगे। बडे मीठे और नम्र शब्दोंमें विनयके साथ बात कहनी चाहिये।....... चालाकीसे किसी बातको छिपाकर कहना असत्य ही है। जितना छिपाव है, उतना ही दोष है। अतएव कपट भरे शब्द नहीं कहने चाहिये। दवा –(भवरोगकी रामबाण अहिंसा)
(१४) अहिंसा-- अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, परम सत्य है, अहिंसासे ही धर्मकी उत्पत्ति होती है। उपर्युक्त महाभारतके वचनोंके अनुसार ही प्रायः सभी पुराणों और स्मृतियोंमें अहिंसाकी महिमा और हिंसापूर्ण मांस-भक्षणका निषेध मिलता है, परन्तु मनुष्य इतना स्वार्थी और जिहालोलुप है कि वह अपने पापी पेटको भरने और घृणित मांसका स्वाद लेने तथा शिकारका शौक पूरा करनेके लिये निर्दोष प्राणियोंकी हत्या करता है। मांस-भक्षण बहुत बड़ा पाप और अत्यन्त हानिकर कुकर्म है जो मनुष्य वध करनेके लिये पशुको लाता है, जो उसे मारनेकी अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो खरीदता, बेचता और पकाता-खाता है, ये सब-के-सब पशुके हत्यारे और मांसखोर ही समझे जाते हैं। समस्त धर्मोका शिरोमणि अहिंसा धर्म है। –(भगवच्चर्चा भाग ४)
(१५) अक्रोध- काम ही प्रतिहत होकर क्रोधके रूपमें परिणित हो जाता है। क्रोधके समय मनुष्य अत्यन्त मूढ़ हो जाता है। उसके चित्तकी स्वाभाविक पवित्रता, स्थिरता, सुखानुभूति, शान्ति और विचारशीलता नष्ट हो जाती है।......क्रोधी आदमी असलमें भगवान्का भक्त नहीं हो सकता। ज्ञानके लिये तो उसके अन्तःकरणमें जगह ही नहीं है।..... इसका दमन होता है इन चार उपायोंसे---(१) प्रत्येक प्रतिकूल घटनाको भगवान्का मंगल-विधान समझकर उसे परिणाममें कल्याणकारी मानना और उसमें अनुकूल बुद्धि करना । (२) भोगोंमें वैराग्यकी भावना करना (३) सहनशीलताको बढ़ाना, और (४) क्रोधके समय चुप रहना। –(लोक-परलोकका सुधार भाग-२)
(१६) सेवा– वस्तुतः यह जीवन है ही सिर्फ सेवाके लिये ....... किसी भी मनुष्यको यह नहीं मानना चाहिये कि मुझमें सेवा करनेकी शक्ति या योग्यता नहीं है।...... प्रत्येक सेवा करनेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको यह चाहिये कि वह स्वार्थसे सर्वथा अलग रहे। सेवाको ही परम स्वार्थ समझे। स्वार्थी मनुष्य यथार्थ सेवा कभी नहीं कर सकता।..........जो लोग बदला पानेकी इच्छासे सेवा करते हैं या सेवा करके उसका बदला चाहते हैं, उनकी सेवा भी यथार्थ सेवा नहीं है। वह तो मनोरथसिद्धिका एक साधन है। जहाँतक हो सके, सेवाको प्रकट न होने दो। प्रकट करनेकी चेष्टा मत करो प्रकट हो जाय तो सकुचाओ और सच्चे मनसे उसका श्रेय भगवान्की कृपाको दो सेवा करके अभिमान न करो। (भवरोगकी रामबाण मनसे उसका श्रेय भगवान्की कृपाको दो सेवा करके अभिमान न करो –(भवरोगकी रामबाण दवा)
संतोष-- संसारमें सर्वोत्तम सुखकी प्राप्तिका परम साधन है--संतोष। असंतोषी मनुष्य सदा ही दुखी रहेगा। चाहे उसको कुछ भी कैसी भी वस्तु या परिस्थिति प्राप्त हो जाय। परंतु भगवद्भजन, भगवत्प्रेममें संतोष महान विघ्नरूप है। अतः भजन में कभी संतोष कत करो। .......विषयासक्त मनुष्य उससे ठीक विपरीत भोगजगत्में सदा असंतोषी रहता है। जितना जो कुछ भी पाता है, उसमें सदा ही कमीका अनुभव करता है और अधिक मात्रा पाना चाहता है। ........इसी असंतोष वृत्तिको लेकर वह अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाता रहता है, परिणाममें अपने ही आप अपनेको सब ओरसे जकड़कर बुरी तरह फँस जाता है तथा रात-दिन चिन्ता, भय, विषादसे घिरा रहता है। कभी किसी भी अवस्थामें वह शान्ति नहीं पाता। –(दिव्य सुखकी सरिता )
(१८) सदाचार – जिसके पालन करनेसे मनुष्य सदाचारी साधुहृदय बन सकता है, उसे सदाचार कहते हैं। हमारी सभ्यतामें सदाचार और धर्म अभिन्न हें। पाश्चात्य रिलीजन और एथिक्स अलग-अलग हैं, परन्तु हम तो सदाचारको धर्मका मूल मानते हैं और धर्मको सदाचारका। और इस धर्म एवं सदाचारकी मूल भित्ति है भगवान्। व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन दो नहीं होते। सदाचार ऐसी वस्तु है जो दोनोंको एक करके पवित्रतम बनाये रखता है।....... मनु महाराज कहते हैं ......सदाचारसे मनुष्य आयु इच्छानुसार प्रजा और अक्षय धनको प्राप्त करता है। इतना ही नहीं सदाचारसे अपमृत्यु आदिका भी नाश होता है। विद्यादि सब लक्षणोंसे हीन पुरुष भी यदि सदाचारी होता है और श्रद्धावान् तथा ईष्यारहित होता है तो वह सौ वर्षतक जीता है। –(भवरोगकी रामबाण दवा)
(१६) अस्तेय – चोरीके अभावको अस्तेय कहते हैं। दूसरेके स्वत्वका अपहरण करना चोरी कहलाता है। चोरी अनेक प्रकारसे होती है, किसीकी वस्तुको उठा लेना, वाणीसे छिपाना, बोलकर चोरी करवाना, मनमें पराई वस्तुको ताकना आदि सब चोरीके रूप ही है।.......सम्यताकी आड़में कानूनसे बचकर आजकल कितनी अधिक चोरियाँ होती हैं, यदि उनका हिसाब देखा जाय तो पता लगता है कि शायद समाजकी प्रगति चोरीकी और बड़े बेगसे बढ़ रही है। जितने ही अधिक कानून बनते हैं उतनी ही चोरीकी नयी-नयी क्रियाओंका आविष्कार होता है। पहलेके जमाने में चोर का एक भिन्न समुदाय था जो घृणाकी दृष्टि से देखा जाता था, इस समय संक्रामक बीमारीकी तरह प्रायः सारा समाज इस दोषसे आक्रान्त हो चला है। छोटे-छोटे गाँवोंमें चतुराईकी चोरियाँ प्रारम्भ हो गयी हैं। यह बहुत बुरे लक्षण है।...... समाज ऐसे चोरोंको धिक्कार नहीं देता बल्कि जो अधिक आसानी से दूसरेका हक हडप कर सकता है वह उतना ही अधिक चतुर, बुद्धिमान समझा जाता है
(मानव धर्म)
(२०) आहार--अन्नके अनुसार ही मन बनता है। अन्न सात्विक है या तामसिक, कैसी कमाईका अन्न है, भोजन बनानेवाला कौन है और भोजन बनाते समय उसकी चित्तवृत्ति कैसी थी, स्थान कैसा है, पंक्तिमें साथ कौन-कौन बैठे हैं तथा भोजन परसनेवाला किस भावका कौन है ? आदि सभी बातें विचारणीय हैं। यह प्रश्न हँसीमें उड़ा देनेका नहीं है। आजकल जैसे खानसामा साहबके लिये लाये हुए किसी भी पदार्थको खाने या पीने योग्य समझकर खा-पी लिया जाता है। न जूठनका परहेज है और न किसी और बातका। यह असलमें बहुत बड़ा प्रमाद है। अन्न जैसे पैसोंका होगा बनानेवाले जैसे होंगे, स्थान और भोजन सामग्री जैसी होगी, वैसा ही मनपर प्रभाव पड़ेगा। वस्तु-शक्तिका प्रभाव तो होता ही है, बल्कि यहाँतक होता है कि भोजन करानेवालेकी मनोभावना या इच्छा शक्तिका भी भोजन करनेवालोंपर प्रभाव पड़ता है। –(लोक परलोकका सुधार भाग ३)
(२१) सत्संग -- संसार में स्वधर्मपरायण, सदाचारी, साधु स्वभाव, दैवी सम्पत्तिवान् पुरुषकी प्राप्ति बहुत दुर्लभ है; पर खोज करनेपर संसारमें सदाचारी, कर्मकाण्डी और कुछ ज्ञानी पुरुष तो मिल भी सकते हैं। परन्तु ऐसे सच्चे प्रेमी महात्मा बहुत ही कम मिलते हैं, जिनकी कृपामात्रसे परम-दुर्लभ योगी- ज्ञानी-जनवाञ्छित भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। इसीलिये ऐसे महात्माओंका मिलन बहुत दुर्लभ माना जाता है। यदि कहीं ऐसे महापुरुष मिल भी जाते हैं तो उनको पहचानना बहुत कठिन होता है......। परन्तु सौभाग्यसे यदि कहीं ऐसे महात्मा पुरुष मिल जाते हैं तो उनका बिना जाने भी मिल जाना कभी व्यर्थ नहीं हो सकता।....... भगवत्प्रेम
महापुरुषके अज्ञात संगसे भी पाप और अज्ञान रूपी अन्धकारका नाश होकर ज्ञानरूप सूर्यका प्रकाश और प्रेमरूप परम निधि तो मिल जाती है, परन्तु जबतक इस बातका पता नहीं लगता तबतक इस लाभसे अपरिचित रहनेके कारण मनुष्य आनन्दको प्राप्त नहीं होता। –(प्रेमदर्शन)
(२२) हिन्दू संस्कृति– जीवनके सभी क्षेत्रोंमें व्याप्त सनातन परम्परासे चली आती हुई अध्यात्म प्रधान धर्ममय सुसंस्कृति विचार और आचार प्रणाली का नाम ही हिन्दू संस्कृति है। हिन्दू संस्कृतिकी यह निर्मल धारा अत्यन्त प्राचीन काल से अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित है...... इस संस्कृतिमें मनुष्य जीवनका प्रधान और एकमात्र लक्ष्य है-मोक्ष, ज्ञान या भगवत्प्राप्ति। इसीसे इसमें जीवनकी प्रत्येक क्रिया और चेष्टा इसी लक्ष्यपर ध्यान रखकर की जाती है। इसीलिये हमारे पुरुषार्थ चतुष्टयमें अंन्तिम स्थान मोक्षको दिया गया है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। –( हिन्दू संस्कृतिका स्वरूप)
(२३) तीर्थ सेवन–तीर्थोकी अनन्त महिमा है, वे अपनी स्वाभाविक शक्तिसे ही सबका पाप नाश करके उन्हें मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं और मोक्ष तक दे देते हैं। हिन्दू शास्त्रोंमें तीथोंमें किनको, कब, कैसे, क्या-क्या लाभ हुए तथा किस तीर्थका कैसे प्रादुर्भाव हुआ इसका बड़े सुन्दर ढंगसे अतिविशद वर्णन मिलता है। तीर्थोंकी इतनी महिमा इसलिये है कि वहाँ महान् पवित्रात्मा भगवत्प्राप्त महापुरुषों और संतोंने निवास किया है या श्री भगवान्ने किसी भी रूपमें कभी प्रकट होकर उन्हें अपना लीलाक्षेत्र बनाकर महान् मंगलमय कर दिया है। तीर्थ 3 प्रकारके माने गये हैं। १) जंगम, २) मानस और (३) स्थावर। – (कल्याणका विशेषांक-- तीर्थाांक )
(२४) मानव धर्म- सामान्य धर्म उसे कहते हैं जिसका मनुष्यमात्र, शास्त्रकारोंमेंसे पालन कर सकते हैं, उसीका दूसरा नाम मानव धर्म है। किसीने सामान्य धर्मके लक्षण आठ, किसीने दस, बारह और किसी-किसीने १५-१६ या इससे भी अधिक बताये हैं। ........मनु महाराज कहते हैं-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना) शौच इन्द्रियनिग्रह, घी, विद्या, सत्य और अक्रोध ये दस लक्षण हैं। ये धर्म ऐसे हैं जिनमें किसी भी जाति या सम्प्रदायको आपत्ति नहीं हो सकती।....... मनुष्यमें मनुष्यत्वका विकास इन्हीं धर्मोके आचरणसे हो सकता है. ज्यों-ज्यों इन धर्मोंके पालनसे मनुष्य जाति विमुख होने लगी त्यों-ही-त्यों उसमें दुःख और अशान्तिका विस्तार होने लगा.. और आज जगत के मनुष्य प्राणी इन्ही धर्म के बहुत अंश में ह्रास हो जाने के कारण अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थ साधन के लिए परस्पर वैर भावको प्रश्श्रय देते हुए हिंसक पशुओंकी भाँति खूँखार बनकर, एक दूसरेको ग्रास कर जानेके लिये तैयार हो रहे हैं। और इसीसे आज अपनेको बुद्धिमान् समझनेवाले मनुष्योंकी बस्तियों में प्रायः कहींपर भी सुख-शान्ति देखनेमें नहीं आती। –(मानव धर्म)
(२५) वर्तमान शिक्षा--आर्य सम्यताके अनुसार शिक्षाका उद्देश्य है उसके द्वारा इहलोकमें सर्वागीण ( शारीरिक, मानसिक, साम्पत्तिक और नैतिक) अभ्युदय और परलोकमें परम निःश्रेयस-मोक्षकी प्राप्ति। ऋषियोंकी दृष्टिमें विद्या वही है जो हमें अज्ञानके बन्धनसे विमुक्त कर दे....... ऐसा मतिभ्रम हुआ है कि विनाशके गहरे गर्तमें गिरना ही आज हमारे मन उन्नतिका निदर्शन हो गया है। जिस चोटी और जनेऊको मुसलमानोंकी तलवार नहीं काट सकी, उसीको आज हम शिक्षाभिमानी हिन्दू स्वयं ही उन्नतिके नामपर कटवा रहे हैं। अग्निकुण्डकी लाल-लाल लपटोंमें पड़कर भी हिन्दू नारीके सतीत्वको जरा भी आँच नहीं लगी, वरं उससे वह और भी चमक उठा, वही सतीधर्म आज शिक्षाके फलस्वरूप हमारी बहिन-बेटियोंके लिये भार रूप हो चला है और उसको उतार फेंकनेके लिये चारों ओर सुसंगठित रूपसे कमर कसी जा रही है। बालकोंको वैसी शिक्षा देनी चाहिये जिससे उनमें ईश्वरभक्ति, धर्म, सदाचार, त्याग, संयम आदिका विकास हो। –( वर्तमान शिक्षा)