श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णनवैसे तो भाईजी श्रीकृष्णकी बाल लीलाओं का वर्णन कई बार अपने प्रवचनोंमें करते थे पर कुछ भावुक जनोंका आग्रह था कि इन लीलाओं का विस्तृत वर्णन हो। यह आग्रह कई वर्षो तक चलता रहा पर ऐसे सुअवसर की प्रतीक्षा ही होती रही। अन्तत्वोगत्वा मार्गशीर्ष सं० 2016 (दिसम्बर 1959) से लगभग एक महीने तक नित्य प्रातः दो घण्टे भाईजी ने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का विस्तृत वर्णन करना स्वीकार किया । दूर-दूर स्थानों से भावुक - जन, जो इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे, गोरखपुरमें एकत्रित हो गये। विभिन्न टीकाओं के आधारपर श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के पहले अध्याय से कथा प्रारम्भ हुई। यद्यपि उन दिनों भाईजी बहुत देरतक 'भाव-समाधि' में रहने लगे थे, अतः श्रोताओंकी भीड़ देखकर उपराम हो जाते। पर जब कथा प्रारम्भकर देते तब उसीमें तल्लीन होकर सरस वर्णन करने लगते और कथा समाप्त होते ही भाईजी पुनः उपराम हो जाते। जिन लोगों ने उस रस कथा का पान किया है, वे ही जानते हैं कि कैसी रस-वर्षा हुई उस एक महीनेमें ।
'गोविन्द–भवन' के नये भवनका शिलान्यास ‘गोविन्द–भवन कार्यालय' नामसे एक न्यासकी स्थापना बहुत वर्षों पूर्व हुई थी। गोरखपुर का गीताप्रेस और स्वर्गाश्रमका गीताभवन इसी न्यास द्वारा संचालित होते हैं। कार्यक्षेत्र विस्तृत हो जाने से कलकत्तेमें 'गोविन्द–भवन' का पुराना स्थान पर्याप्त नहीं था। कई वर्षोंसे नये भवनके लिये विचार-विमर्श चल रहा था। व्यवस्थापकों के निर्णयानुसार महात्मा गाँधी रोडपर नये भवनके निर्माण हेतु जमीन खरीदी गयी। शिलान्यास का कार्य भाईजीके हाथों कराने का निश्चय हुआ।
माघ कृष्ण 13 सं० 2016 (26 जनवरी 1960) को भाईजी गोरखपुर से रवाना होकर कलकत्ता गये। हाबड़ा स्टेशनपर सैंकड़ों व्यक्तियों ने भाईजी का हार्दिक स्वागत किया। कलकत्ता शहर से लगभग बारह मील दूर पानीहाटीमें भाईजी के निवास की व्यवस्था हुई। लगभग पन्द्रह दिन भाईजी वहाँ रहे। इतने दिनों के लिये भाईजी के सत्संग-लाभ का सौभाग्य बहुत वर्षो पश्चात् कलकत्ता निवासियोंको प्राप्त हुआ था। इसी प्रवासके समय भाईजी के हाथों 'गोविन्द भवन' के नये भवन के शिलान्यास का कार्य वैदिक विधि से सुसम्पन्न हुआ।
शिमलापालकी पुनः यात्रा बहुत से प्रेमीजन भाईजीसे शिमलापाल चलने की प्रार्थना करते थे, जहाँ भाईजी ने अपनी साधना प्रारम्भ की थी। कलकत्तासे यह स्थान निकट होनेसे आग्रह बढ़ने लगा। इसी समय एक संयोग और बन गया। बाँकुड़ामें श्रीसेठजी के आँख का ऑपरेशन होनेवाला था अतः भाईजी कलकत्तासे कुछ परिकरों सहित बाँकुड़ा गये। वहाँसे शिमलापाल लगभग चौबीस मील दूर था, अतः परिकरोंके अनुरोधपर मोटर से सभीके साथ शिमलापालकी यात्रा की। सबसे पहले उस झोंपड़ीके सबने दर्शन किये जहाँ भाईजी लगभग चव्वालीस वर्ष पहले रहे थे। उसके भीतर छोटे से कमरेमें भाईजी का उन दिनों का बंगलामें गेरू से लिखा, 'नृत्य गोपाल' वर्तमान था। भाईजी ने अतीत कालकी स्मृतियाँ सुनायी। फिर सब लोग पासमें बहने वाली छोटी-सी नदीके दर्शन करने गये, जहाँ भाईजी उन दिनों स्नान करते थे। तत्पश्चात् वहाँके थानेपर गये जहाँ भाईजी के हाथ के लिखे कागज देखे । बाँकुड़ा लौटनेसे पूर्व ग्रामवासियों को वस्त्र, द्रव्य आदि वितरित किया गया।
उपाधियों से परे उपाधियों को प्राप्त करनेके लिये सभी के मनमें चाव रहता है। आज तो लोग उपाधि प्राप्तिके लिये कितने तरह के प्रयत्न करते हैं, खुशामद करते हैं, पैसा भी खर्च करते हैं। उन उपाधियोंको बिना किसी प्रयत्नके भी मिलनेपर भाईजी उनसे दूर भागते थे। जीवनमें कितने प्रसंग आये जब विभिन्न संस्थाएँ व्यक्ति उनका अभिनन्दन करना चाहते थे पर भाईजी ने किसी का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।
सर्वप्रथम भाईजी को 'राय साहब' की पदवीका प्रस्ताव मिला। इसके प्रस्तावक थे गोरखपुर के तत्कालीन कलेक्टर पेडले साहब और नगर पालिकाके अध्यक्ष बाबू आद्याप्रसादजी। दोनों ही भाईजी की सेवाओंसे अभिभूत थे। भाईजीने हाथ जोड़कर क्षमा माँग ली- मैं इसके लायक नहीं हूँ। दोनोंसे ही भाईजी का बड़ा स्नेह का सम्बन्ध था अतः वे उनके मनोभावों को समझ गये और मान गये।
इसके बाद सं० 1991 (सन् 1935) की वर्षा ऋतुमें गोरखपुर के आसपासके क्षेत्रोंमें भयंकर बाढ़ आई। गाँव-के-गाँव पानीमें डूब गये और चारों तरफ त्राहि-त्राहि हो गई। भाईजी स्वयं गीताप्रेस के कर्मचारियों सहित तन-मनसे सहायता करनेमें लग गये। नावों द्वारा स्वयं जाकर गाँवों में अनाज वस्त्र आदि बाँटते थे। 6500 व्यक्तियोंको प्रतिदिन भोजन कराया जाता था। इतनी सेवामें खर्च का अनुमान लगाया ही जा सकता है। भाईजी की कार्य-कुशलता एवं तत्परता देखकर तत्कालीन कमिश्नर आर० सी० होबर्ट साहबने भाईजी को धन्यवाद के पत्र तथा तार दिये और 'राय बहादुर' की उपाधि देनी चाही भाईजी ने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। थोड़े समय बाद संयुक्त प्रान्त (उत्तरप्रदेश) के गवर्नर सर हैरी हेगने 'सर' (नाइट हुड) का जाल फेंका। भाईजी के अनुरोध करनेपर वे भी मान गये। गवर्नर साहबने उसपर प्रसन्नता प्रकट की। भाईजी से सर हैरी हेगकी मैत्री थी। वे जब मिले तो खुला सम्बन्ध होने के कारण बिना किसी झिझक के भाईजी ने उनसे पूछा- आप यह उपाधि देकर क्या समझते हैं। उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया-- "कुत्तेके गलेमें फंदा डालते .." वे अपना कथन पूरा कर ही नहीं पाये थे कि भाईजी बीचमें ही बोल उठे-- "फिर आप मेरे गलेमें पट्टा डाल रहे थे।" गवर्नर साहब हँसकर बोले- आपने अस्वीकार कर दिया तब यह कहते हैं। स्वीकार कर लेते तो हम सम्मान करते, आपको धन्यवाद देते की आपने इसे स्वीकार कर लिया।
इसके बाद सबसे बड़ा प्रलोभन आया भारत रत्न की उपाधि ग्रहणके लिये। सन् 1955 की बात है। भारत के राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्रप्रसाद जी धार्मिक-ग्रन्थों तथा धार्मिक साहित्यके अनन्य प्रचारक तथा देशके स्वाधीनता संग्राम एवं धार्मिक जागरण अभियान के अनूठे योगदानके लिये भाईजी को 'भारत रत्न' से अलंकृत करना चाहते थे। जो उस समय तक बहुत ही कम व्यक्तियों को प्रदान की गयी थी। राजेन्द्र बाबूने तत्कालीन भारत सरकार के गृहमन्त्री पं० गोविन्दबल्लभ पंत को भाईजी से स्वीकृति लेने का दायित्व सौंपा। वे गोरखपुर पधारे एवं भाईजी से मिले। वे बड़ी आत्मीयतापूर्वक बातें करते हुए भाईजी की कलम हाथमें लेकर जेबसे एक पत्र निकाला और उसपर स्वीकृति का हस्ताक्षर करने का निवेदन किया। पत्रमें 'भारत रत्न' की उपाधिका प्रस्ताव था। फिर बोले- यह कलम हम प्रसाद रूपमें ले जायँ।' भाईजी ने कहा इसमें पूछने की क्या बात है? पर स्वीकृति की असहमति व्यक्त की। भाईजी ने कहा-- "राजेन्द्रबाबू के प्रति मेरे मनमें बड़ा आदर का भाव है किन्तु उनका यह अनुरोध मैं स्वीकार नहीं कर पाऊँगा।" भाईजी के अन्तर्हृदयकी व्यथा देखकर पंत जी ने चुपचाप कागज जेबमें डाल लिया। दिल्ली लौटकर पंतजी ने सारी बातें राष्ट्रपति को बताई। राजेन्द्रबाबू इतना ही बोले कि इतनी कठिनाई से तो मैंने जवाहरलाल से स्वीकृति ली थी। खैर।