श्रीकृष्ण जन्मस्थान, मथुरा के मन्दिर का उद्घाटन श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या की भाँति मथुरामे श्रीकृष्ण जन्मस्थान का गौरव भी लुप्तप्राय हो गया था। वहाँके प्राचीन मन्दिरको मुगल सम्राटो ने ध्वस्त कर दिया था महामना मालवीयजी की प्रेरणासे इसके पुनरुद्धार करने का कार्य श्रीजुगलकिशोर जी बिरलाने अपने हाथमें लिया था।
लेकिन श्रीकृष्ण जन्मस्थानके लुप्त गौरव की पुनस्थापनाके लिये मन्दिर और भागवत भवनके निर्माणकी योजना बनाकर उसे कार्यान्वित कराने का श्रेय भाईजी को ही है। इसकी भूमिका बनी थी भाईजी के तीर्थयात्रा के समय। जब भाईजी मथुरा पधारे तो उनके स्वागत समारोहके समय एक सज्जनने कहा– मथुराने प्रतिवर्ष लाखों यात्री आते हैं। ऐसा कौन है जिसका हृदय श्रीकृष्ण जन्मभूमिकी वर्तमान दुरावस्था को देखकर शतधा विदीर्ण न होता हो ? समारोहके अन्त में कृतज्ञता ज्ञापनके लिये जब भाईजी खड़े हुए तो अश्रुपूरित नेत्रों सहित बोले जन्मस्थानके प्रति जो कुछ कहा गया, उससे में पूर्णतया सहमत हूँ। इस निमित्त अपने क्षुद्र प्रयास भी अर्पित करने को प्रस्तुत हूँ। शीघ्र ही दस हजार रुपये आपलोगोंकी सेवामें भेजने का विचार है। वास्तव में यह कार्य आपके ही कर्तव्य-पालनकी अपेक्षा करता है। इसे सुनकर उपस्थित लोगों के हर्ष का पार नहीं रहा।
गोरखपुर लौटनेपर दस हजार रुपये भाईजी ने तत्काल भेज दिये। इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण जन्मस्थानपर श्रीकेशवदेव मन्दिरके निर्माणके लिये डालमिया बन्धुओं को प्रेरित किया। श्रीरामकृष्ण डालमियाने अपनी मातुश्री की स्मृति केशवदेव मन्दिरका निर्माण करवाया। इस मन्दिरका उद्घाटन करनेके लिये भाईजी मधुरा गये एवं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी सं० 2015(6 सितम्बर, 1958) के दिन भाईजी के कर-कमलोंसे इस मन्दिर का उद्घाटन हुआ। उद्घाटन महोत्सव के समय भाईजी ने अपने भाषण में श्रीकृष्ण जन्मभूमि उद्धार के इस महान कार्यसे देशका मुख
उज्जवल हुआ।
श्रीराधाबाबा द्वारा शक्तिपात श्रीभाईजीने अपनेको छिपाये रखनेका एक और तरीका अपना रखा था।नये व्यक्तियों के लिये वे बाबाको आगे करके अपनेको प्रकट होनेसे बचा लेते थे। एक तो हमारे देश में आस्तिक जनताकी श्रद्धा वैसे ही गृहस्थके बजाय भगवा वस्त्र की तरफ अधिक रहती है फिर भाईजी अपनी चेष्टा भी वैसी ही रखते थे। पिछले वर्षों में तो कलकत्ता आदि शहरोंने जाते तो बाबाके दर्शनका एक समय तय कर देते। उसी समय जो भी दर्शनके लिये आते वे बाबा के पास बैठ जाते और बाबा मौनके कारण किसीसे कुछ बोलते नहीं, न अँख उठाकर देखते। भाईजी प्रणाम करनेवाले का नाम बताते रहते। नये व्यक्ति का ध्यान महात्माओं के निर्माता की ओर न जाकर महात्माकी ओर ही जाता और भाईजीके मन चाही बात हो जाती। कई बार तो लोगों के फोन भाईजीके पास आते कि महात्माजीके दर्शन किस समय होंगे। प्रायः लोग समझते ये महात्मा संन्यासीके सचिवकी तरह व्यवस्था करते है
इसी तरह भाईजीको किसीको विशेष चीज दिलानी होती तो बाबा मार्फत दिला देते। प्रसंग सन् 1959 का है। श्रीराधाष्टमीके कुछ दिन पूर्व बाबाने भाईजीसे कहा कि अमुक 5 व्यक्तियोंको श्रीराधाष्टमीपर बला दीजिये। मैं उन लोगोंकी परीक्षा करके कुछ दूँगा। उन दिनों बाबाका मीन कड़ाईसे चल रहा था। कोई भी व्यक्ति उनके पास जा नहीं सकता था। भाईजी ही अपने साथ किसीको ले जाकर मिला सकते थे। भाईजीने उन पाँचों मेसे एक व्यक्ति को पत्र लिख दिया और बाबाके बताये पाँचों नाम लिखकर लिखा कि बाबाने कहा है राधाष्टमीपर इन व्यक्तियोंकी परीक्षा करके इन्हें कुछ दूँगा सो तुम पाँचोंको राधाष्टमीसे पहले पहुँच जाना चाहिये। वे पाँचों व्यक्ति बाबाके मौनके नियमोंसे परिचित थे और प्रत्यक्षतः उनका बाबासे सीधा विशेष सम्पर्क था भी नहीं। वे कृपाकी ओर देखकर अपने सौभाग्यपर आनन्दका अनुभव करने लगे। वे लोग लिखे अनुसार कुछ पहले पहुँच गये और नियत दिन और समयपर भाईजी उन पाँचों व्यक्तियों को लेकर बाबाकी कुटियामें गये। बाबाने क्या परीक्षा ली और क्या दिया ये तो बाबा जानें या उनके प्रियतम पर लगभग आधा घण्टे बाद पाँचों व्यक्ति बड़ी प्रसन्न मुद्रामें कुटियासे बाहर आये। ऐसे ही एक नहीं अनेक प्रसंग हैं। जब भाईजी कोई विशेषता प्रकट होनेके प्रसंगपर बाबाको आगे करके अपनेको छिपा लेते।