भारत के वेद-शास्त्र जगत् के मूल ग्रन्थ हैं। ये शास्त्र भगवान् के आंशिक अवतार श्रील व्यासदेव के द्वारा आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व लिपिबद्ध किये गये थे। ये प्राचीन शास्त्र अत्यन्त विस्तृत हैं और हमें भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत् का पूर्ण ज्ञान प्रदान करते हैं। स्वयं श्रील व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत को इन शास्त्रों का सार कहा है। यह श्रीमद्भागवतरूपी पवित्र ग्रन्थ मनुष्य जीवन के उद्देश्य, वास्तव और नित्य आनन्द प्राप्ति के मार्ग, भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति ऐकान्तिक एवं अहेतु की भक्ति इत्यादि अनेक सर्वोत्तम सत्य को प्रस्तुत करता है। श्रीमद्भागवतमें दृढ़तापूर्वक यह घोषित हुआ है कि श्रीकृष्ण भगवत्ता के मूल हैं–वे ही मूल अवतारी, नित्य-किशोर एवं सभी कारणों के मूल कारण हैं। उन्हीं से प्रकटित अनेकानेक अवतार प्रत्येक युगमें विभिन्न रूपोंमें इस धराधाम पर अवतरित होकर अधर्म का नाश एवं धर्म की स्थापना करते हैं। इन समस्त अवतारों की अति सुन्दर और आश्चर्यजनक लीलाएँ ग्रन्थराज श्रीमद्भागवतमें वर्णित हैं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्धमें मूल अवतारी भगवान् श्रीकृष्ण की उन माधुर्यमयी लीलाओं का वर्णन है जिन लीलाओं को भगवान्ने अपने भक्तों पर कृपा करने के उद्देश्य से आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर आकर सम्पादित किया था।
श्रीकृष्णलीला से भी लाखों वर्ष पूर्व घटित प्रसिद्ध और आश्चर्यजनक-भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए अवतरित भगवान् के अर्द्ध-सिंह, अर्द्ध मनुष्य अवतार भगवान् नृसिंहदेव का प्रसङ्ग भी श्रीमद्भागवत में वर्णित हुआ है। भक्त प्रह्लाद का आविर्भाव असुरकुलमें हुआ था। उनके पिता हिरण्यकशिपु और चाचा हिरण्याक्ष भगवान् विष्णु के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। किन्तु इसके विपरीत भक्त प्रह्लाद अपनी शक्ति से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त भगवान् विष्णु के परमभक्त थे। बाल्यकाल से ही प्रह्लाद का आदर्शमय चरित्र था। उनमें एक वैष्णव के समस्त सद्गुण विद्यमान थे। वे स्वयं को तृण से भी अधिक तुच्छ मानते थे। वे सर्वदा ही दैन्यभाव से युक्त, सहिष्णु और ईर्ष्यारहित थे। वे विपत्तियों से तनिक भी विचलित नहीं होते थे। सांसारिक कामनाओं से पूर्ण रूप से मुक्त होने के कारण उनके लिए समस्त भौतिक वस्तुएँ अति तुच्छ थीं उनकी इन्द्रियाँ सर्वदा अनुशासित थी और बुद्धि भी स्थिर थी, अतः वे किसी भी प्रकार के वेग के वशीभूत नहीं थे।
दूसरी ओर भक्त प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु का स्वभाव आसुरिक था और उनके पिता का जुड़वाँ भाई हिरण्याक्ष भी अत्यन्त नीच स्वभाव का था। इन जुड़वे भाईयों के जन्म के समय पृथ्वी और स्वर्ग पर सभी प्रकार के अशुभ लक्षण दिखलायी दिये थे, जैसे–गायों ने दूध के स्थान पर रक्त देना आरम्भ कर दिया था, मेघ मवाद की वर्षा करने लगे थे, वृक्ष बिना किसी कारण के गिरने लगे थे, गधे इधर-उधर भागने लगे थे, पक्षी चिल्लाते हुए अपने घोसलों से उड़ने लगे थे, मादा गीदड़ें आग उगलने लगी थी, सूर्य और चन्द्र धुन्ध से ढक गये थे तथा अशुभ ग्रह अत्यधिक चमकने लगे थे।
जैसे ही हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दोनों असुर भाइयों ने युवावस्थामें प्रवेश किया, उनकी देहमें असाधारण लक्षण प्रकाशित होने लगे। उनकी देह लोहे जैसी हो गयी और वे पर्वत के समान इतने ऊँचे हो गये मानो अन्तरिक्ष को स्पर्श कर रहे हों। जब वे चलते थे तब पृथ्वी काँपने लगती थी। वे स्वयंको अत्यन्त चमकीले स्वर्ण के अनेकानेक आभूषणों से विभूषित करते थे। उन आभूषणों के कारण उनके विशाल शरीरों के चमकने से ऐसा प्रतीत होता था मानो वे सूर्य को प्रत्येक दिशा से ढक रहे हो।
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष अपनी दृष्टिमें पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु को भोगने की इच्छा से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त करना चाहते थे अपने अग्रज भाई हिरण्यकशिपु के द्वारा उत्तेजित किये जाने पर क्रोधी स्वभाव का हिरण्याक्ष अपने कन्धे पर गदा रखकर युद्ध की भावना से समस्त ब्रह्माण्ड में घूमते हुए ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ने लगा जो उससे टक्कर ले सके। हिरण्याक्ष ने अपने मार्गमें आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को भयभीत कर दिया, देवतागण भी उसके भय से भागकर छिप गये। अन्तमें उसे परमपुरुष भगवान् विष्णु से ही युद्ध करना पड़ा, क्योंकि केवल भगवान् ही युद्धमें उसका मुकाबला कर सकते थे। अपने वराह अवतारमें भगवान्ने उस दाम्भिक असुर हिरण्याक्ष से बहुत लम्बे समय तक युद्ध किया और अन्तमें उसके कान पर हाथ से प्रहार करके उसका वध कर दिया।
जब हिरण्यकशिपु को ज्ञात हुआ कि भगवान् विष्णु ने उसके भाई का वध कर दिया है, तो वह बहुत दुःखित हो गया। हिरण्याक्ष को रक्तपान करनेमें बहुत रुचि थी, इसलिए प्रतिशोध की अग्निमें जलने वाले हिरण्यकशिपु ने अपने भाई हिरण्याक्ष को विष्णु का मस्तक छेदन करके उन्हीं के रक्त से श्रद्धाञ्जलि देने का प्रण लिया। हिरण्यकशिपु ने सोचा कि विष्णु तो यज्ञमें दी गयी आहुति के द्वारा ही जीवित रहता है, इसलिए यज्ञों को ही बन्द करा देना चाहिये। इसी उद्देश्यसे हिरण्यकशिपुने असुरोंके बहुत से दलों को इधर-उधर भेजा, जो यज्ञोंमें व्यवहार होने वाले घी को प्रदान करने वाली गायों और यज्ञों को करने वाले ब्राह्मणों का वध करने लगे। हिरण्यकशिपु ने उन सभी मन्दिरों और गोशालाओं को तथा उन समस्त पेड़-पौधों को भी नष्ट करने का आदेश दिया जो गाय का पोषण करते थे। उसने ब्राह्मणों और वेदों का अनुगमन करनेवालों का भी नाश करने की आज्ञा दी। इस प्रकार उस बलशाली असुर ने पृथ्वीपर अत्यधिक अत्याचार करना आरम्भ कर दिया।
हिरण्यकशिपु अमर बननेके लिए दृढ़ सङ्कल्पयुक्त था जिससे कि वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सत्तापर प्रभुत्व कर सके। इसी उद्देश्य से उसने घोर तपस्या की। वह देवताओं के सौ वर्षों तक अपने पंजों पर खड़ा होकर अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर ऊपरकी ओर देखता रहा। इस घोर तपस्या के फलस्वरूप उसके सिर से आग निकलने लगी और सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें व्याप्त हो गयी। देवता, पशु, पक्षी तथा समस्त लोकों के प्राणी अत्यन्त व्याकुल हो उठे। यहाँ तक की पर्वत भी काँपने लगे और तारे टूट-टूट कर गिरने लगे।
उस समय सभी देवताओं ने मिलकर जगत् के सृष्टिकर्त्ता ब्रह्माजी से प्रार्थना की। देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु के पास गये। ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु को दीमक के पहाड़ से घिरा हुआ देखकर बहुत आश्चर्यचकित हुए। चीटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और खून चाट गयी थीं। हिरण्यकशिपु केवल अपने प्राणोंको हड्डियोंमे सञ्चारित करके ही जीवित था। ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु की लगन और तीव्र तपस्या से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपने दिव्य कमण्डलु से जल की कुछ बूँदें हिरण्यकशिपुपर डालीं और हिरण्यकशिपु पूर्णतः सशक्त रूपमें दीमक के पहाड़ से निकल आया। अब उसका शरीर नवनवायमान, बलशाली और सोने की भाँति चमक रहा था। तब ब्रह्माजी ने उसे अपने सामर्थ्य के अनुसार वरदान दिया। वरदान प्राप्तकर वह तीनों लोकों पर विजय पाने के लिए निकल पड़ा। उसने सभी प्राणियोंको अपने अनुशासनमें कर लिया और अत्यधिक क्रूरता से उनपर शासन करने लगा।
हिरण्यकशिपुके आतङ्कसे भयभीत होकर सभी देवता और ऋषि-मुनि बाध्य होकर उसकी पूजा और उसके तथाकथित गुणका गान करने लगे। उसने अपने आतङ्क से अपने राज्यमें वैदिक नियमोंके प्रचलनको पलट दिया, जिससे समाजमें उत्पात उत्पन्न हो गया। वह इतना शक्तिशाली था कि उसने लोगों के पुण्य और पापके फलको भी पलट दिया, अर्थात् उसने पुण्यात्माओं को कष्ट दिया और दुष्टों को सुखी किया। यद्यपि समस्त पुण्य आत्माएँ उसके प्रभावसे दुखी थीं, परन्तु केवल एक ही व्यक्ति उसके आतङ्क से प्रभावित नहीं हुआ वह था उसका पुत्र युवराज प्रह्लाद, जो अपनी भक्ति के बलसे सर्वत्र भगवान् के दर्शन करने के कारण निर्भीक था। हिरण्यकशिपु का बल अपार था, तथापि वह असन्तुष्ट और भगवान् के प्रति ईर्ष्या से युक्त था। यद्यपि सारा ब्रह्माण्ड उसके पैर के अँगूठे के नीचे था, तथापि वह अपने ही पुत्र को अपने अधीन नहीं कर पाया। उसने अपने साधु पुत्र प्रह्लाद पर क्रोध प्रकाश करने के कारण अपना सर्वनाश कर डाला।
भक्त प्रह्लाद की शिक्षाएँ एवं उनके जीवन चरित्र को जाने बिना एक सद्-वैष्णव बन पाना अति कठिन है। इसीलिए विश्वव्यापी गौड़ीय मठों के प्रतिष्ठाता जगद्गुरु नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर श्रील प्रभुपाद ने अपने जीवन कालमें एक या दो बार नहीं, अपितु एक सौ आठ से अधिक बार श्रीप्रह्लाद-उपाख्यान का कीर्त्तन किया एवं अपने आश्रितजनों को भी प्रह्लाद चरित्र का अनुशीलन करने का आदेश दिया। श्रील प्रभुपाद का पदानुसरण एवं उनकी इस आशा को शिरोधार्य करते हुए हमारे परमाराध्य श्रील गुरुदेव नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज ने भी अपने जीवन कालमें प्रत्येक वर्ष श्रीनृसिंह चतुर्दशी के उपलक्ष्यमें एवं अन्यान्य अवसरोंपर श्रीमद्भागवत के इस अपूर्व उपाख्यान का कीर्त्तन किया है।
इस पुस्तिका की विषय वस्तु श्रील गुरुदेव के द्वारा वर्ष १९९८ से वर्ष २००३ तक विदेशोंमें श्रीनृसिंह चतुर्दशी के उपलक्ष्य में श्रीमद्भागवत पुराण इत्यादि ग्रन्थों सें प्रह्लाद उपाख्यान पर अंग्रेजी भाषामें दिये गये प्रवचनों से संग्रहीत की गयी है।
प्रसङ्गवशतः श्रील गुरुदेवने जगत् के लोगों की व्यवहारिक समस्याओं को भी इस उपाख्यान के माध्यम से इङ्गित करते हुए प्रह्लाद महाराज के चरित्र और शिक्षाओं से उन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है।