डूबते हुए मोटर बोटकी रक्षाकई बार ऐसी भीषण घटनाओंको इतने साधारण ढंगसे सम्भाल लेते थे कि देखने वाले आश्चर्यचकित रह जाते थे। ऐसी ही एक घटना दि० १३ जुलाई सन् १६५४ को स्वर्गाश्रममें देखनेको मिली। प्रातः लगभग १० बजे २०-२५ व्यक्ति स्वर्गाश्रम गीताभवनसे ऋषिकेश जानेके लिये मोटर बोटपर सवार हुए। साथमें स्त्री-बच्चे भी थे। विधिका विधान ! बोट जब गंगाजीकी बीच धारामें पहुँचा तो अचानक बोटका इंजन बन्द हो गया। बोट चालकने बहुत चेष्टा की कि किसी तरह इंजन चालू हो जाय पर उनके सभी प्रयास असफल हुए। बोट धारामें पड़कर तेजीसे भंवरकी तरफ चलने लगा। यात्रियोंकी मनः स्थितिका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। लगता था बोट डूबने ही वाला है। सभी यात्री भगवान्को, श्रीभाईजीको 'बचाओ-बचाओ' के आर्तनादसे पुकारने लगे। कोई सहारा नजर नहीं आ रहा था। भगवत्कृपाका चमत्कार कहिये, ठीक उसी समय भाईजी गीताभवन नं० २ से बाहर निकले। उनकी दृष्टि डूबते हुए बोट एवं यात्रियोंके आर्तनादकी तरफ गयी बोटकी ओर देखते हुए भाईजी हाथ उठाकर तीन बार जोर-जोरसे 'नारायण, नारायण, नारायण' बोले नारायण बोलते ही अप्रत्याशित रुपसे बोट वहीं बीच धारामें रुक गया। चालक् ने पुनः इंजन चलानेकी चेष्टा की, पर सफलता नहीं मिली। एक बहुत मोटी रस्सीका एक छोर मोटे पेड़से बाँधकर दूसरा छोर नावसे बाँधकर नावको भेजा गया। ३-४ घण्टेके अथक प्रयाससे सब यात्री नाव द्वारा गीताभवन घाटपर सकुशल पहुँचे। सभी यात्री अनुभव कर रहे थे कि भाईजीकी कृपासे ही हम लोगोंको नव-जीवनकी प्राप्ति हुई है। सभी यात्री कृतज्ञतापूर्ण हृदयसे भाईजीके निवास स्थान डालमिया कोठी गये एवं उनके चरणों में प्रणाम किया। भाईजी बड़ी आत्मीयतासे सबसे मिले तथा मुस्कुराते हुए बोले- 'आप लोगोंको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा, पर भगवान्ने रक्षा की।' सभीका हृदय गद्गद् हो गया।
प्रयागके कुम्भमेंवैसे तो भाईजी प्रायः प्रयागमें कुम्भके अवसरपर भगवन्नाम-प्रचारके लिये आयोजन कराते एवं स्वयं भी जाते, किन्तु सं० 2010 (सन् 1954) में कुम्भके अवसरपर भाईजी पूरे परिवार सहित सवा महीने प्रयागमें रहे। गीताप्रेसकी तरफसे एक बहुत बड़े पण्डालका निर्माण हुआ, जिसमें दो बार १०८ श्रीमद्भागवतके सप्ताह पारायण एवं श्रीरामचरितमानसके नवाह-पारायण आयोजित हुए। प्रातःसे रात्रितक सत्संग-प्रवचन-कथा-संकीर्तन आदि होते रहते। भाईजीके अतिरिक्त स्वामी श्रीशरणानन्दजी, श्रीअखण्डानन्दजी, श्रीपथिकजी, श्रीरामकिंकरजी आदि संत विद्वानोंके प्रवचन नित्यप्रति होते थे। भाईजीको दूसरे अनेक महात्मा अपने-अपने पण्डालमें सत्संगके लिये ले जाते थे। इस अवसरपर प्रयागके 'भारत' पत्रमें भाईजीका संक्षिप्त जीवन परिचय प्रकाशित हुआ। वहाँ भाईजी अनेक महात्माओं एवं विद्वानों के प्रतिनिधि मण्डलके साथ भारतके प्रधानमंत्री श्रीजवाहरलाल नेहरूसे मिले एवं गोवध बन्द करानेके लिये आग्रहपूर्वक प्रार्थना की। इस कुम्भके अवसरपर श्रीपुरुषोत्तमदासजी टण्डन भी प्रयाग पधारे एवं जैसे ही उन्हें भाईजीके वहाँ होनेका समाचार मिला वे अपने परिकरों सहित भाईजीसे मिलनेके लिये आये। जबतक वे रहे प्रायः भाईजीसे मिलने आते और गंगाके किनारे बालूपर बैठकर बातचीत करते थे। पौष शुक्ल 7 सं० 2010 (11 जनवरी, 1954) से फाल्गुन कृष्ण 1 सं० 2010 ( 18 फरवरी, 1954) तक भाईजी प्रयागमें रहकर गोरखपुर सपरिवार लौट आये।
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डूबते हुए मोटर बोटकी रक्षा
कई बार ऐसी भीषण घटनाओंको इतने साधारण ढंगसे सम्भाल लेते थे कि देखने वाले आश्चर्यचकित रह जाते थे। ऐसी ही एक घटना दि० १३ जुलाई सन् १६५४ को स्वर्गाश्रममें देखनेको मिली। प्रातः लगभग १० बजे २०-२५ व्यक्ति स्वर्गाश्रम गीताभवनसे ऋषिकेश जानेके लिये मोटर बोटपर सवार हुए। साथमें स्त्री-बच्चे भी थे। विधिका विधान ! बोट जब गंगाजीकी बीच धारामें पहुँचा तो अचानक बोटका इंजन बन्द हो गया। बोट चालकने बहुत चेष्टा की कि किसी तरह इंजन चालू हो जाय पर उनके सभी प्रयास असफल हुए। बोट धारामें पड़कर तेजीसे भंवरकी तरफ चलने लगा। यात्रियोंकी मनः स्थितिका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। लगता था बोट डूबने ही वाला है। सभी यात्री भगवान्को, श्रीभाईजीको 'बचाओ-बचाओ' के आर्तनादसे पुकारने लगे। कोई सहारा नजर नहीं आ रहा था। भगवत्कृपाका चमत्कार कहिये, ठीक उसी समय भाईजी गीताभवन नं० २ से बाहर निकले। उनकी दृष्टि डूबते हुए बोट एवं यात्रियोंके आर्तनादकी तरफ गयी बोटकी ओर देखते हुए भाईजी हाथ उठाकर तीन बार जोर-जोरसे 'नारायण, नारायण, नारायण' बोले नारायण बोलते ही अप्रत्याशित रुपसे बोट वहीं बीच धारामें रुक गया। चालक् ने पुनः इंजन चलानेकी चेष्टा की, पर सफलता नहीं मिली। एक बहुत मोटी रस्सीका एक छोर मोटे पेड़से बाँधकर दूसरा छोर नावसे बाँधकर नावको भेजा गया। ३-४ घण्टेके अथक प्रयाससे सब यात्री नाव द्वारा गीताभवन घाटपर सकुशल पहुँचे। सभी यात्री अनुभव कर रहे थे कि भाईजीकी कृपासे ही हम लोगोंको नव-जीवनकी प्राप्ति हुई है। सभी यात्री कृतज्ञतापूर्ण हृदयसे भाईजीके निवास स्थान डालमिया कोठी गये एवं उनके चरणों में प्रणाम किया। भाईजी बड़ी आत्मीयतासे सबसे मिले तथा मुस्कुराते हुए बोले- 'आप लोगोंको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा, पर भगवान्ने रक्षा की।' सभीका हृदय गद्गद् हो गया।
प्रयागके कुम्भमें
वैसे तो भाईजी प्रायः प्रयागमें कुम्भके अवसरपर भगवन्नाम-प्रचारके लिये आयोजन कराते एवं स्वयं भी जाते, किन्तु सं० 2010 (सन् 1954) में कुम्भके अवसरपर भाईजी पूरे परिवार सहित सवा महीने प्रयागमें रहे। गीताप्रेसकी तरफसे एक बहुत बड़े पण्डालका निर्माण हुआ, जिसमें दो बार १०८ श्रीमद्भागवतके सप्ताह पारायण एवं श्रीरामचरितमानसके नवाह-पारायण आयोजित हुए। प्रातःसे रात्रितक सत्संग-प्रवचन-कथा-संकीर्तन आदि होते रहते। भाईजीके अतिरिक्त स्वामी श्रीशरणानन्दजी, श्रीअखण्डानन्दजी, श्रीपथिकजी, श्रीरामकिंकरजी आदि संत विद्वानोंके प्रवचन नित्यप्रति होते थे। भाईजीको दूसरे अनेक महात्मा अपने-अपने पण्डालमें सत्संगके लिये ले जाते थे। इस अवसरपर प्रयागके 'भारत' पत्रमें भाईजीका संक्षिप्त जीवन परिचय प्रकाशित हुआ। वहाँ भाईजी अनेक महात्माओं एवं विद्वानों के प्रतिनिधि मण्डलके साथ भारतके प्रधानमंत्री श्रीजवाहरलाल नेहरूसे मिले एवं गोवध बन्द करानेके लिये आग्रहपूर्वक प्रार्थना की। इस कुम्भके अवसरपर श्रीपुरुषोत्तमदासजी टण्डन भी प्रयाग पधारे एवं जैसे ही उन्हें भाईजीके वहाँ होनेका समाचार मिला वे अपने परिकरों सहित भाईजीसे मिलनेके लिये आये। जबतक वे रहे प्रायः भाईजीसे मिलने आते और गंगाके किनारे बालूपर बैठकर बातचीत करते थे। पौष शुक्ल 7 सं० 2010 (11 जनवरी, 1954) से फाल्गुन कृष्ण 1 सं० 2010 ( 18 फरवरी, 1954) तक भाईजी प्रयागमें रहकर गोरखपुर सपरिवार लौट आये।