डाॅ. प्रभातसमीर
इस नए प्रकार के महाभारत का सू़त्रपात उसी दिन हो गया था, जिस दिन राघव अपनी बेटी रमा का रिश्ता लेकर मिश्रा के घर गए थे ।
पीढ़ियों से राघव के घर में अड्डा जमाए बैठी लक्ष्मी का उनके घर में रूप और आकार बढ़ता ही चला जा रहा था। धन और वैभव के जादू में बंधे राघव अपनी सुन्दर,सर्वगुण सम्पन्न रमा के लिए चुटकियों में योग्य वर और घर का चुनाव कर लेने का दंभ लेकर जब घर से निकले तो ऐसे- ऐसे अनुभवों से उन्हें गुज़रना पड़ा कि उनका सारा अंहकार और ठसका धरा का धरा रह गया।
कहीं अपने परिवार के बराबर का समृद्ध, धनाढ्य परिवार तो लड़का निकम्मा, नकारा। कहीं वर योग्य तो घर में पाँव रखने की जगह नहीं। समृद्ध परिवार के लोग कहते - ‘इतना धन है कि आपकी बेटी सात पुश्तों तक खत्म नहीं कर पाएगी। ऐसे में लड़के का नौकरी करना ज़रूरी कहाँ है ?’ योग्य वर मिलता तो लड़के के पिता कहते - ’लीजिए, लड़का हमने पढ़ा- लिखा के योग्य बना दिया। अब जो बेटी देगा वह उसका घर भी बनाएगा।‘
राघव अपनी इच्छा से कुछ भी करें लेकिन लोभ-लालच के ऐसे प्रदर्शन के सामने उन की रूह काँपने लगती। कुछ एक जगह तो लड़के को बाद में बुलाया गया, दहेज की एक लम्बी फेहरिस्त पहले थमा दी गई,जिसमें बेटी और दामाद के बुढ़ापे तक के सामान तक का ब्यौरा दिया होता । कहीं लड़का कमअक्ल और बड़बोला तो कहीं लड़के की माँ के ऊँचे- ऊँचे बोल कँपा देते। कोई घर परिवार राघव पसन्द कर लेते तो रमा की दादी परिवार को अकुलीन मानकर अड़ंगा लगा देतीं। किसी घर में माँस, मछली मदिरा की दुर्गन्ध से राघव काँप जाते तो कहीं कुंडली से गुणों का मिलान न हो पाता। धन-दौलत, ख़ानदान, शिक्षा-ज्ञान, शक्ल- सूरत और कुंडली मिलान के समीकरण बिठाते- बिठाते राघव के जूते घिस चले थे। इस संपूर्ण की तलाश में कहीं बेटी की शादी की उम्र ही न निकल जाए, यह खटका राघव को पड़ने लगा।
उन्होंने निर्णय लिया कि अब लड़के वालों का घर कोठी, बंगला, गाड़ी, नौकर वगैरह की तरफ़ से आँखें मूँदकर सिर्फ़ किसी पढे़-लिखे, योग्य और सुन्दर वर को अहमियत दी जाए। साथ में अगर संपन्नता भी मिल गई तो यह रमा का भाग्य होगा। इसी निर्णय ने राघव को मिश्रा के घर पहुँचा दिया था।
इत्तफ़ाक था कि घर का दरवाज़ा मिश्रा के बेटे ने ही खोला। लड़के की काबिलियत की सूचना उन्हें पहले से थी, अब सामने खडे़ सुन्दर, सौम्य युवक को देखा तो उनकी नज़र उस पर टिक कर रह गई। उन्हें अपनी तलाश पूरी होती दिखाई दी। उन्होंने मन ही मन सपने बुनने शुरू कर दिए और सोच लिया कि इस बार अपने निर्णय में अपनी माँ और पत्नी को सम्मिलित नहीं करेंगे। ऐसे अत्यन्त साधारण घर में रमा का हाथ देना घर की महिलाओं की नज़र में उसे किसी कुएँ में ढकेलकर जीवित ही मार देने जैसा होगा । दो मोर्चों पर उनकी लड़ाई अब रहेगी....एक ओर पत्नी और माँ के विरोध का मुकाबला और दूसरी ओर मिश्रा के घर को इस लायक बनाने का काम कि दो-चार मेहमान यहाँ लाकर खडे़ कर दिए जाएँ तो फजीहत न हो।
तभी दरवाज़ा खोलने वाले युवक की शिष्ट आवाज से उनकी तन्द्रा टूटी। युवक राघव से अन्दर आने का आग्रह कर रहा था। ड्राइँगरूम के नाम पर एक छोटी सी बैठक में दो-तीन बदरंग कुर्सियाँ पड़ी थीं। राघव के पूरे शरीर में काँटे उगने लगे...कहाँ बैठें? रिश्ता पक्का होते ही सबसे पहले तो एक बढ़िया किस्म का सोफ़ा इस घर में पहुँचाना होगा। न हो तो जो फ्लैट रमा के नाम करने का सोच रखा है, उसी की साज-सज्जा करवा के मिश्रा को चौंका देंगे तो बढ़िया रहेगा। इस बीच मिश्रा की माँ और पत्नी भी सामने आकर बैठ गई थीं ।राघव ने मन ही मन स्थितियों को तोलना शुरू कर दिया । कैसे मिश्रा के परिवार के हर एक सदस्य को खुश करके अपनी बेटी को इस घर में राजलक्ष्मी की तरह स्थापित करना होगा। कैसे भी इस लड़के को राघव अपने हाथ से अब जाने नहीं देंगे। सिर्फ़ घर का स्टेटस ही तो कसक दे रहा था,उसे संभालना तो राघव के लिए चुटकियों का खेल था ।
तभी मिश्रा ने चाय का आग्रह करते हुए राघव के विचारों की श्रृँखला पर रोक लगा दी। मिश्रा जी के परिवार के सदस्यों की विनम्रता ओर शालीनता से राघव अभिभूत थे। यहाँ ही रिश्ता पक्का करने की उनकी ज़िद मन ही मन बढ़ती जा रही थी। उन्हें भरोसा था कि वह दान- दहेज की लिस्ट मिश्रा या उन जैसे किसीको भी थमाएंँगे तो वह तो उनके कदमों में बिछ ही जाएगा । सिर्फ़ पैसा ही नहीं,उनकी तो बेटी में भी शतांश भर कोई कमी नहीं थी। हुआ भी यही कि मिश्रा के सारे परिवार को रमा भा गई।
परंपरानुसार एक रू. और गुड़ की भेली माॅंगकर मिश्रा ने बेटे का रिश्ता तय कर लिया। राघव कोे अच्छा लगा कि उन्होंने अपने बेटे की बोली नहीं लगाई, उसकी पढ़ाई- लिखाई का खर्चा भी नहीं गिनवाया, अपने कष्टों और परेशानियों का ब्यौरा भी नहीं दिया ।
राघव को मिश्रा बड़े पहुँचे हुए और अनुभवी दिखाई दिए ,जो लेन-देन की पहल राघव की ओर से ही चाहते थे। धन - संपत्ति के मामले में राघव का घर-परिवार किसीसे दबा -छिपा तो था नहीं, और फिर अकेली बेटी ! मुँह फाड़कर माँग करके भला मिश्रा अपना कद छोटा क्यों करेंगे?
राघव की प्रकृति और प्रवृति सिर्फ धन के इर्द-गिर्द दौड़ती थी। मिश्रा की भावनाओं का आकलन भी वह अपनी प्रकृति के अनुसार ही करते चले जा रहे थे। मिश्रा के एक- एक वाक्य और मुद्रा से राघव उन्हें लेन- देन के मामले में बहुत पक्का खिलाड़ी मान रहे थे। राघव मिश्रा के मन की थाह लेना चाहते थे। उन्हें अब उस क्षण की प्रतीक्षा थी जब मिश्रा संकोच छोड़कर अपनी माॅंग रखेंगे और राघव बढ़- चढ़कर और भी ज़्यादा करके दिखाएंगे।
विनम्रता से मिश्रा ने राघव से कहा- ‘आप से सिर्फ़ दो बात कहनी थीं।' राघव के कान खड़े हो गए। जो भी कहेंगे नतमस्तक होकर स्वीकृति देनी होगी। इतनेे योग्य,सुदर्शन युवक और ऐसे शालीन परिवार की कुछ भी कीमत चुकानी पड़े।
- ‘ एक तो यह कि विवाह के लिए जल्दी न की जाए। कम से कम छह महीने या और भी थोड़ा आगे....' राघव को सुनाई दिया।
छह महीने या उससे भी ज़्यादा? राघव के दिमाग का घोड़ा एक ही दिशा में दौड़ रहा था... छह महीने तक मतलब दिनवार, तीज-त्यौहार, व्रत ,अनुष्ठान पर मिश्रा को आपनी पूजा करवानी होगी और....? ये सभी खर्चे शादी में किए जाने वाले खर्च से अलग माने जाएंगे।यानी वह लिस्ट जो अब दूसरी शर्त के रूप में मिश्रा राघव को थमाने वाले हैं, उसका इन छह महीनों के लेन-देन से कोई संबंध नहीं रहेगा और इस दौरान मिश्रा यह भी तौल कर देख लेंगे कि राघव की तिजोरी का मुॅंह कितनी उदारता से खुलता है। राघव को समझ में आने लगा कि शादी से पहले जो कुछ भी मिश्रा के घर में पहुॅंचाया जाएगा, उस सब पर उनकी बेटी का तो कोई अधिकार रहेगा नहीं। शायद यही मिश्रा की भी इच्छा है कि पहले अपना घर भर लें,बाद में राघव अपनी बेटी का सोचें। राघव को लेन - देन से परेशानी नहीं थी,लेकिन छः महीने से भी ज़्यादा का समय रिश्ता तय करके बेटी को बिठाए रखना? तब तक तो देव सो जाएँगे। उसके बाद शुभ मुर्हूत तक का इंतज़ार ! ..’ राघव ने अपनी बात कह ही डाली ।
‘देव सोने या शुभ मुहूर्त की मुझे चिन्ता नहीं है। मेरे घर में तो स्वयं लक्ष्मी का प्रवेश हो रहा है, इससे अधिक और शुभ क्या होगा ,जी ?’
‘स्वयं लक्ष्मी का प्रवेश!’- राघव नेे मन ही मन दोहराया और एक व्यंग्यात्मक मुस्कान उनके चेहरे पर खेल गई । उन्हें विश्वास हो चला कि उनका वास्ता निहायत लोभी और लालची लोगों से पड़ गया है,उन्हें अपने त्वरित निर्णय पर खीज होने लगी। मन में आते हुए बुरे विचारों को लगाम देकर राघव ने मिश्रा की आँखों में झाँका । मिश्रा छोटी बेटी की परीक्षा, लड़के की बुआ का जापा, बूढ़ी माँ के आप्रेशन जैसी अनगिनत मज़बूरियाँ गिनाने में लगे हुए थे।
लोभ-लालच के मारे कितने रिश्तों को ठोकर मारकर राघव मिश्रा के दरवाज़े पर आए थे ,लेकिन कहानी यहाँ भी शायद वैसी ही थी।उन्होंने अनुमान लगा लिया कि अपनी इन मज़बूरियों को गिनाकर उनसे भरपूर आर्थिक सहयोग पाने की तीव्र आकांक्षा मिश्रा के मन में अँगड़ाइयाँ लेने लग गई है।
राघव ने वहाँ बैठे हुए ही योजना बनानी शुरू कर दी कि कैसे तीज- त्यौहार पर बच्चों के हाथ में चाँदी के सिक्के ही सही, लेकिन परिवार के सभी बड़ों को गिन्नी पहुँचानी होंगी। होली, दीपावली बड़ी - बड़ी आइटम भेजकर उनकी बदरंग बैठक की रूपरेखा बदलनी होगी।मिश्रा की माँ के प्रलोभनों को भी देखते रहना होगा। बैठक से दिखाई देते उनके पूजाघर में विराजमान पीतल, और पत्थर के देवताओं को कम से कम चाँदी के रूप में तो बदलना ही होगा। इतनी देर में ही राघव ने यह अनुमान लगा लिया था कि अभी भी सारा घर मिश्रा की माॅं के अनुशासन की डोर से ही बंँधा था।
राघव ने बड़े मोह से अपने भावी जामाता की ओर देखा। अरे, सबके मुँह पर धन संपत्ति का ताला जड़ने की उधेड़बुन में वह अपने जामाता को तो भूले ही जा रहे थे। राघव जानते थे कि ये सब तो शुरू के दिनों के चोचले हैं फिर तो उम्र भर अपनी बेटी और दामाद को ही देते रहना होगा। क्या मालूम उनकी इस भौतिक चकाचौंध पर मुग्ध होकर उनका यह भावी जामाता नौकरी छोड़कर उनके कारोबार में ही आ जुटे। एक क्षीण सी उम्मीद उनके मन में जन्म ले गई।
तभी राघव ने मिश्रा को कहते सुना 'दूसरी बात भी आप ध्यान से सुन लें।’ राघव कागज़, पैन लेकर नोट करने का इरादा ही कर रहे थे कि उन्हें सुनाई दिया--
हमें सिर्फ़ आपकी बेटी चाहिए, उसके अलावा और कुछ भी नहीं।' मिश्रा के इस वाक्य का राघव पर कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ा। मिश्रा की शालीनता को सराहते हुए उतनी ही शालीनता से उन्होंने भी कहा
-‘हम बेटी के अलावा और कुछ भी देने वाले कौन होते हैं फिर भी आप अगर एक लिस्ट बनवा देेते तो सहूलियत हो जाती’ ।’
-‘न, न, कोई लिस्ट नहीं। हम तो कुछ भी नहीं लेंगे।’ राघव थोडे़ उद्विग्न हुए। उन्हें मिश्रा की नीयत समझ में आने लगी। सामान लेंगे तो रमा का भी उस पर हक़ रहेगा। बुढ़ऊ का तो सीधे कैश की तरफ संकेत है । राघव ने बडे़ निरूत्साहित भाव से कहा -
‘चलिए हम कुछ भी नहीं खरीदेंगे। आप अपनी पसन्द से लीजिए ....हमें तो बता दीजिए कि कितना प्रबंध करना है?’
‘ बिना दान -दहेज के एक अति सामान्य शादी का प्रबंध।’
राघव के कान ऐसे वाक्य सुनने के आदी नहीं थे।- ‘सामान्य शादी ? अरे साहब, कुछ तो भूल हमसे हो ही गई है जिसकी सज़ा आप हमें सुना रहे हैं।’
राघव ने शुरू से अन्त तक अपने एक- एक वाक्य और क्रिया कलाप को याद करना शुरू कर दिया। कहा ग़लती हो गई, जिसका गुस्सा मिश्रा की बातचीत में झलक रहा है। कहीं गुड़ की भेली ओर एक रू. से रस्म दिल को छलनी कर गयी क्या, लेकिन उस परम्परागत रस्म का प्रस्ताव था तो मिश्रा का ही। इतना तो मिश्रा भी जानते हैं कि लड़का रोकने की असली, भारी-भरकम रूपरेखा तो अभी तक बनी ही नहीं है।
राघव उलट दिशा में सोचते चले जा रहे थे। सामाजिक प्रदर्शन का जो घेरा मिश्रा की बिरादरी के इर्द- गिर्द खिंचा था, उस वृत्त से मिश्रा भी बाहर तो आ ही नहीं सकते, इसलिए जल्दी ही कुछ भारी - भरकम करके उन्हें तसल्ली देनी होगी।
अपनी झेंप मिटाने के लिए हँसते हुए राघव ने कहा
- ' आप का बेटा तो स्वयं ही मेरी बेटी का भार उठाने में समर्थ है, हम क्या देंगे भला?’
-‘यही तो, आपने यह बोझ मेरे बेटे के कन्धों पर डाला है, अब आप निश्चिन्त होकर अपने अगले दायित्वों के बारे में सोचिए।’
‘अगले दायित्व!‘- राघव ने कसकर मिश्राजी के बोले दोनों शब्द पकड़ लिये। अगले दायित्व तो छह-आठ महीने तक सिर्फ उनके घर को भरते रहने के हैं, जिन्हें पूरा करना ही है।
- ‘दायित्व तो मैं पूरी तरह निभाने को तैयार हूँ, आप सहयोग दे देते तो थोड़ी आसानी हो जाती।’
राघव ने लड़के की ओर देखा - ‘बेटा चलिए, आपसे शुरू करते हैं। आप कौन सी गाड़ी लेना पसन्द करेंगे और रमा के नाम जो फ्लैट है उसे भी एक बार आप....’
जवाब मिश्रा ने दिया - ‘ रमा के रूप में लक्ष्मी आ रही है न? अब और कुछ भी पसंद करने की गुंजाइश कहाॅं है?’
मिश्रा की बातें समझ से बाहर जा रही थीं, राघव आहत हुये
- ‘आप हमारे स्टेटस का भी तो ख्याल करें। बच्चों की उमंगे, सपने ....वह भी तो पूरे करने होंगे।’
मिश्रा एक बात ही दोहराते रहे - ‘जो पूरा करना होगा,हम करेंगे...।’
- ‘आपके दादा-दादी, नाना-नानी सबने इस प्रथा का सम्मान किया है। मैं कोई असधारण काम कर रहा हूँ क्या ?‘राघव ने समझाने की कोशिश की।
उन्होंने पुराना इतिहास खोलकर रख दिया कि कैसे राजा-महाराजाओं ने अपने आधे राज्य तक अपनी बेटियों को दहेज रूप में दे डाले। सोने, चाँदी, हाथी, ऊँट, घोड़े--क्या-क्या नहीं गया बेटियों के साथ। ये सब कुछ स्टेटस के लिये ही तो किया जाता रहा है,लेकिन मिश्रा अड़े रहे।
- ‘जो कुछ आप कह रहे हैं, उससे कीर्ति नहीं फैलती बल्कि अपमान होता है।’राघव रूआँसे हो चुके थे । मिश्रा ने धीरे से कहा-‘मान-अपमान के अपने मानदंड को अब बदल डालिये।’
राघव उलझन में थे,मिश्रा के पेट से उनकी असलियत नहीं निकलवा पा रहे थे। उन्हें किसी विस्फोटक स्थिति की आशंका हो चली।
मिश्रा ने इस बार हाथ जोडे़ - ‘हमने अपनी बात कह दी...हम देने - लेने में विश्वास नहीं रखते।’ राघव धीरे से कहते हुये उठे - ‘ आप रखें न रखें, मैं रखता हूँ।’ मिश्रा ने विरोध नहीं किया, राघव घर लौट लिये।
मिश्रा से आए दिन नये-नये विषयों पर चर्चा होता, एक दूसरे की खूब जानकारियाँ ली और दी जातीं लेकिन दान- दहेज के बारे में मिश्रा के मुॅंह से एक शब्द भी नहीं निकला। राघव आस लगाए बैठे थे जब मिश्रा बातों ही बातों में संकेत देंगे कि वह दहेज विरोधी हैं लेकिन बूढ़ी माँ का मान, पत्नी का मन और बेटे के स्टेटस के साथ चलना उनकी मज़बूरी है।
राघव ने दिल खोलकर तैयारियाँ शुरू कर दीं। छह महीने का समय होता ही क्या है और कहीं ऐन वक्त पर मिश्रा ने अपनी असलियत दिखाई तो राघव को तो सब बहुत भारी पड़ जाएगा। उन्होंने बातों -बातों में मिश्रा को कई बार यह भी सुना दिया कि ईश्वर ने उन्हें दिल खोलकर खर्च करने की ताकत दी है और यह भी कि दहेज क्रय- विक्रय नहीं है,बल्कि एक तरह का निवेश है। धन और उपहारों के साथ कोई भी अपनी बेटी को विदा करेगा तो सबका मान-सम्मान बढ़ेगा, रमा भी खुशहाल जीवन जाएगी। बात सिर्फ़ मिश्रा के सिद्धान्त और इच्छा की नहीं थी बल्कि राघव की मान -प्रतिष्ठा की भी तो थी। और फिर कोई कितना भी कहे जब दरवाज़े पर बेटी तामझाम के साथ उतरेगी तो ऐसा कौन सा परिवार होगा जो उस सामान को फेंक देगा।
शादी से पहले मिश्रा के घर में जो कुछ भी भेजने का मन राघव ने बनाया था, उस पर चुप्पी लगा गये। बेहतर था कि वह मिश्रा के धैर्य का घड़ा खुद ही एक दिन फूटता हुआ देखें। मिश्रा जब बात होती एक ही बात कहते - ‘राघव जी बेटी का दान महादान होता है। इस ‘महादान’ शब्द से राघव और सजग हो जाते। मिश्रा जी के करीबियों से उनकी सोच और मनः स्थिति का जायज़ा लेते रहते ,लेकिन बेटे की शादी में कुछ न स्वीकार करने के उनके संकल्प की जानकारी किसीको भी नहीं थी।
मिश्रा ने कम से कम बारात लेकर आने का वायदा शादी के दिन पूरा किया। इतनी कम और बिना किसी टीम-टाम की बारात दरवाज़े पर देखकर राघव बेइज्ज़त महसूस करने लगे ।अच्छा होता कि उनसे आर्थिक मदद लेकर ढॅंग की बारात तो चढ़ाते।
सभी रस्में और औपचारिकताएँ इतने साधारण ढंग से हुईं कि राघव अपने समाज के सामने सिर उठाने में भी शर्म महसूस कर रहे थे।
उन्हें तो चिंता रमा की होने लगी कि ऐसे घर में कैसे रहेगी।इतना ही नहीं सूखी सी जाकर ससुराल में खड़ी होगी तो उसे कौन सम्मान देगा ?और फिर इतना तामझाम, सामान जो उन्होंने बेटी के साथ ले जाने को तैयार किया था, उसका क्या ?
भाई - बन्धुओं की सलाह से निर्णय लिया गया कि सामान मिश्रा के दरवाज़े पर भिजवा दिया जाए। बहू की अगवानी के समय पूरे समाज और बिरादरी के सामने ही सब कुछ उतरना चाहिए । बाराती के रूप में मिश्रा जी जो रंकपना दिखा गये सो दिखा गये और राघव को बिरादरी में लज्जित भी कर गए, अब कम से कम उनकी बेटी को तो सबके सामने ऐसा कुछ न झेलना पड़े ।
राघव ने सामान के ट्रक लदवाए और मिश्रा के दरवाज़े पर भिजवा दिये।ज़ेवर-गहना ,कैश सब कुछ सौंप दिया गया । सामान देखते ही मिश्रा गुस्से और अपमान से तिलमिला उठे।वह चाहते थे कि राघव को इतना सुनाया जाए कि पीढ़ियों तक उनके घर में लेन-देन और दहेज का नाम भी वर्जित हो जाए ,लेकिन किसी प्रतिक्रिया के बिना उन्होंने सामान वापिस लौटा दिया।
मिश्रा का ऐेसा अशोभनीय व्यवहार राघव की उम्मीद के बिल्कुल विपरीत था। वह आज तक नहीं समझ पा रहे कि इस तरह उन्हें और उनकी बेटी को नीचा दिखाकर मिश्रा क्या सिद्व कर देना चाहते हैं?वह आज भी बहुत आहत हैं।सोचते हैं कि बेटी दान-दहेज लेकर जाती तो उसका अपना स्वत्व ससुराल में बना रहता और वह स्वरक्षिता का भाव जीती,लेकिन मिश्रा की सोच बहुत अलग है। वह मानते हैं कि समाज की किसी विकृति को निर्मूल करने का दायित्व अपने ऊपर लेने से राघव जैसी बाधाओं का सामना तो करना ही पड़ेगा। गलत परंपरा का घेरा तोड़कर विश्वास का जो एक दीपक उन्होंने जलाया है, आने वाले वक्त में उनकी बहू रमा उसी दीपक से स्वस्थ परम्पराओं के कई एक दीपक प्रज्जवलित करेगी और राघव जैसे भटके लोगों को रास्ता दिखाएगी।
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