भारत की ये पावन भूमि साधु-सन्तों की भूमि रही है। इस भूमि पर आदिगुरु शंकराचार्य, महर्षि वाल्मीकि, गुरु गोबिंद सिंह, गुरु नानक, मीरा बाई, गौतम बुद्ध जैसे महान संतों ने जन्म और अवतार लिया है। महाराष्ट्र की भूमि भी साधु-सन्तों की भूमि रही है। यहाँ सन्त ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास, गोरा कुमार आदि ने जन्म लेकर इस भूमि को पावन बनाया। मराठी भाषा में श्रेष्ठ धार्मिक ग्रन्थों का प्रणयन करके उन्होंने जनसाधारण को भक्ति का मार्ग दिखाया है। इन सभी सन्तों में सन्त नामदेव ऐसे थे। जिन्होंने मराठी भाषा के साथ-साथ मुखबानी हिन्दी में भी अभंगों की रचना की और लोगों को सच्ची ईश्वर-भक्ति की प्रेरणा दी। नामदेवजी ने अपने जीवनकाल में 2500 के आस पास पद लिखे। जीवन-भर भगवद् भक्ति का प्रचार-प्रसार करते हुए इस परमभक्त ने सन् 1350 को 80 वर्ष की उम्र में समाधि ले ली। उनके भक्त पंजाब के गुरुदासपुर जिले में मिलते हैं, जहां नामदेवजी के नाम से एक गुरुद्वारा भी बना है। इस सम्प्रदाय के कई लोग आज भी उनके अनुयायी हैं
पंढरपुर मराठवाड़ा, महाराष्ट्र में 26 अक्टूबर 1270, कार्तिक शुक्ल एकादशी संवत 1327, रविवार को सूर्योदय के समय संत शिरोमणि श्री नामदेवजी का जन्म एक दर्जी (छिपा) परिवार में हुआ था। उनके पिता दामाशेटी और माता गोणाई देवी (गोणा बाई) धार्मिक सरकार सम्पन्न परिवारवाले व्यक्ति थे। दामाशेटी विट्ठल के परमभक्त थे। महाराष्ट्र के सातारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसा नरसी बामणी गाँव, जिला परभणी उनका पैतृक गांव है। में हुआ था.
संत नामदेवजी का विवाह कल्याण निवासी राजाई के साथ हुआ था और इनके चार पुत्र व पुत्रवधु यथा नारायण — लाड़ाबाई, विट्ठल — गोडाबाई, महादेव — येसाबाई, व गोविन्द — साखराबाई तथा एक पुत्री थी जिनका नाम लिम्बाबाई था। संत नामदेव जी की बड़ी बहन का नाम आऊबाई था। उनके एक पौत्र का नाम मुकुन्द व उनकी दासी का नाम संत जनाबाई था। जो संत नामदेव जी के जन्म के पहले से ही दामाशेठ के घर पर ही रहती थी।
कहाँ जाता है नामदेव जी के पिता जी दामाजी विट्ठल के परमभक्त थे। विट्ठल मन्दिर में वे बालक नामदेव को भी साथ ले जाया करते थे। एक बार दामासेटी किसी काम से दूसरे गांव जाते समय बालक नामदेव को मन्दिर में जाकर भोग चढ़ाने का भार सौंप गये। बालक नामदेव नैबेद्य लेकर भगवान् के सामने घण्टों बैठे रहे। काफी समय निकल जाने पर भगवान् को भोग ग्रहण करते न देखकर रोते हुए बोले। आप तो मेरे पिता के हाथ का भोग रोज स्वीकार कर लेते हो, मेरे हाथ का क्यों नहीं। आप जब तक नैवेद्य ग्रहण नहीं करोगे, तब तक मैं न ही खाऊँगा, न पीऊंगा। वे एक पैरों पर आंखें मुंदे खड़े रहे, उनकी अविचल भक्ति देखकर भगवान् हरी मूर्ति से बाहर आये और उन्होंने बड़े ही प्रेमपूर्वक नैवेद्य ग्रहण किया
बालक नामदेव खुशी-खुशी भोग की खाली थाली लिये हुए अपने घर पहुंचे। घर जाकर उन्होंने पूरी घटना विस्तारपूर्वक अपनी माता को बतायी। माता को बड़ा आश्चर्य हुआ, और विश्वास भी नहीं हुआ। रात को जब नामदेव जी के पिताजी घर लौटे, तो गोणाई ने सारी घटना अपने पति को सुनायी। उन्हें भी आश्चर्य हुआ, और विश्वास नहीं हुआ। दूसरे दिन इस बात की सचाई का पता लगाने के लिए वे बालक नामदेव के साथ विट्ठल मन्दिर पहुंचे। नैवेद्य भगवान के सामने रखकर बालक नामदेव ने उसे खाने हेतु गुहार लगायी। उनके पिता ने खिड़की से छिपकर देखा कि विट्ठल तो सचमुच ही नैवेद्य खा रहे हैं। उसी समय उन्हें ज्ञात हो गया कि यह तो विट्ठल का परमभक्त है।
एक बार ऐसे ही एक घटना हुई कि उनकी रसोई में एक कुत्ता घुस आया और रोटियां मुंह में दबाकर भागने लगा। बालक नागदेव उसके पीछे पीछे घी का बर्तन लेकर दौड़े और कुत्ते को पकड़कर उसे घी चुपड़ी रोटी खिलायी। कहा जाता है कि कुत्ते के रूप में साक्षात् विट्ठल भगवान थे।
एक बार संत नामदेव जी के साले साहब उनके घर आये हुए थे। नामदेव जी की पत्नी राजाई ने अपने भाई के लिए भोजन जुटाने के लिए उनसे यह भी कहा कि घर में अन्न का दाना तक नहीं है। भाई को नहीं खिलाऊंगी, तो मायके में बदनामी होगी। नामदेव बोले आज एकादशी है, कल भोजन करायेंगे ऐसा कहकर मन्दिर चले गये। दोस्तों कहाँ जाता है, उनके जाते ही इधर बोरियों में अनाज घर पहुंचा था। उनकी पत्नी राजाई ने सोचा यह तो नामदेव जी ने भेजा होगा। उसने भाई को खुशी-खुशी भोजन कराया। घर आकर नामदेवजी स्वयं चकित थे। उन्हें गालूम हो गथा कि यह तो भगवान विट्ठल की कृपा थी।
कहा जाता है कि रुक्मणी नामक एक महिला ने राजाई की दुर्दशा देखकर पारस फत्थर उसे देते हुए कहा कि उसके घर में इसकी वजह से कोई कमी नहीं रहेगी। इसे लोहे से छुआते ही वह सोने में बदल जायेगा। उसने घर लाकर ऐसा ही किया। उसने कुछ अनाज घर ले आयी। नामदेवजी ने उस पत्थर के बारे में जैसे ही जाना, उसे चन्द्रभागा नदी में फेंक दिया।
भोले-भगत नामदेव ने रुक्मिणी और उसके पति भागवत द्वारा उस पारस को मांगे जाने पर छलांग लगाकर बहुत से पत्थर हाथों में रखे और कहने लगे यह लो ! तुम्हारे पारस पत्थर। लोगों ने सोचा संत नामदेव मजाक कर रहे हैं। सबने लोहे से उन पत्थरों का स्पर्श किया, तो वे सभी पारस थे। नामदेव ने उन्हें पुन: नदी में फेंक दिया। इस तरह उनके जीवन से कई ऐसे चमत्कार जुड़े हुए हैं।
भगवान विट्ठल श्री हरि के अवतार थे। उन्होंने यह अवतार क्यों लिया इसके बारे में एक पौराणिक कहानी में उल्लेख मिलता है। कहाँ जाता है कि छठी सदी में संत पुंडलिक माता पिता के परम भक्त थे। जिस तरह श्रवण कुमार थे वैसे ही। एक दिन पुंडलिक अपने माता पिता के पैर दबा रहे थे। तभी वहां श्री कृष्ण जी रुक्मणी के साथ प्रकट हो जाते है। वह पैर दबाने में इतने लीन थे कि अपने इष्ट देव की और उनका ध्यान तक नहीं गया। तब प्रभु ने उन्हें स्नेह से पुकार कर कहा पुंडलिक हम तुम्हारा अतिथि ग्रहण करने आए
पुंडलिक ने जब उस तरफ देखा तो भगवान के दर्शन हुए। उन्होंने कहा कि मेरे पिताजी सयन कर रहे हैं, इसलिए आप इस ईट पर खड़े होकर प्रतिक्षा कीजिए। और वह पुनः अपने माता पिता के पैर दबाने में लीन हो गए। भगवान हरी को पुंडलिक द्वारा दिए गए स्थान से भी बहुत प्रेम हो गया। उनकी कृपा से पुंडलिक को अपने माता-पिता के साथ ही ईश्वर से साक्षात्कार हो गया। ईट पर खड़े होने के कारण श्री विट्ठल के विग्रह रूप में भगवान आज भी धरती पर विराजमान है। यह स्थान वर्तमान में पंढरपुर के नाम से जाना जाता है।