Prem Gali ati Sankari - 67 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 67

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प्रेम गली अति साँकरी - 67

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जीवन की भागदौड़ में भी न जाने कितनी बातें ऊपर-नीचे होती रहती हैं, फिर भी इंसान अपनी इस भाग-दौड़ से पीछा कहाँ छुड़ा पाता है---और दरअसल भाग-दौड़ होती है उसके मस्तिष्क से! मस्तिष्क में उमड़ते झंझावात उसे चैन से रहने ही नहीं देते और फिर मस्तिष्क के साथ उसकी शारीरिक थकान भी शुरू हो जाती है | 

मेरा मस्तिष्क थकता था, कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था जीवन के चक्र में से कैसे निकलूँ या उसमें ही मकड़ी की तरह चक्कर मारती रहूँ? उलझनों के जाले में अटका हुआ इंसान कोई स्पष्ट राह नहीं तलाश कर पाता | अब कुछ तो निर्णय लेना ही होगा लेकिन क्या और कैसे? 

उत्पल का मुझे ‘तुम’ कहना और बार-बार मेरा हाथ पकड़ लेना या फिर खिलखिलाते हुए मुझसे सट जाना---असहजता के साथ मेरे भीतर एक खुमारी सी भर रहा था जो घर पर आने के बाद भी मुझमें लगातार बनी हुई थी । एक ऐसे भय के साथ कि मेरे कदम कहीं उसकी ओर न उठ जाएँ | मेरी दृष्टि में श्रेष्ठ मेरे विचारों के बिलकुल भी अनुरूप नहीं था | ऐसा नहीं है कि मैं कोई बहुत रूढ़िवादी थी, ऐसा तो हमारे पूरे परिवार में दादी से लेकर कोई भी नहीं था |  आजकल विवाह से पहले मिलने-जुलने की ज़रूरत महसूस होती ही है | कम से कम एक दूसरे के विचारों को जानना, सहमति-असहमति जरूरी थी, अम्मा के विवाह में भी दादी ने उन्हें छूट दी ही थी लेकिन श्रेष्ठ ने मुझसे जो अपेक्षा की थी, वह मेरी नज़र में सरासर किसी को ‘ग्रैन्टेड’लेने वाली बात थी | हम इंसान हैं और कभी ऐसे नाज़ुक क्षणों में बहक भी सकते हैं लेकिन इस प्रकार से? बहुत अपमानित महसूस किया था मैंने। हम कहीं से भी बच्चे नहीं थे—न तन से, न मन से--! बल्कि उम्र के उस पायदान पर पहुँच गए थे जहाँ जीवन की प्रौढ़ावस्था शुरू हो जाती है | 

उस दिन के बाद मुझे पक्का अहसास हो गया था कि अब नहीं सोच पाऊँगी सकूँगी, उसके बारे में | मैं कोई मिट्टी की इंसान नहीं थी, मेरी जो भी नाज़ुक भावनाएँ, संवेदनाएँ उसके लिए पनपी थीं अचानक उससे उस दिन मिलने के बाद ऐसे टूट चुकी थीं जैसे किसी मिट्टी के या काँच के नाज़ुक बर्तन के इतने टुकड़े हो जाते हैं जिन्हें जोड़ना नामुमकिन हो जाता है | एक सबसे बड़ा भय जो मुझे खा रहा था वह था अम्मा-पापा से सब कुछ खुलकर बताने का |  उनसे सब कुछ साझा करना होगा वरना बार बार मुझे उसकी श्रेष्ठता के गुणगान सुनने पड़ेंगे | डॉ.पाठक तो इस उम्मीद पर टिकी हुई थीं कि श्रेष्ठ का व्यक्तित्व, उसका भूत और वर्तमान, स्वभाव, भविष्य में आगे बढ़ने की आकांक्षा सब कुछ इतने सकारात्मक थे कि हमारे परिवार को कहीं भी आपत्ति हो ही नहीं सकती थी |  उनसे आजकल अम्मा की बात कुछ अधिक ही होने लगी थी और अम्मा का एक ही उत्तर होता कि ज़िंदगी तो अमी की है जिसका निर्णय भी उसे ही लेना होगा | 

इसी धुन में आज जैसे ही कमरे से निकलकर अपने चैंबर में जाने के लिए निकली ही थी कि प्रमेश आते दिखाई दिए | अधिकतर वह एक दृष्टि मुझ पर डालकर मौन हो मेरे पास से निकल जाते थे, आज जाने क्यों उनके मुँह से ‘हैलो’सुनकर मैं अचकचाकर रुक गई | 

“हैलो, कैसे हैं आप ? ” शिष्टाचारवश पूछना चाहिए था, मैंने पूछा | 

“गुड---” कहकर उन्होंने मेरी ओर एक गहरी दृष्टि डाली | 

“क्लास टाइम” कहकर आगे बढ़ गए | 

कैसे सोचा जाय इस बंदे के बारे में? ज़िंदगी भर इस सुदर्शन किन्तु सपाट चेहरे के साथ टिक पाना मुश्किल नहीं होगा? कुछ मुस्कुराहट, चुलबुलाहट तो हो जीवन में! कोई सूखे पेड़ के ठूंठ सा जीवन बिताना है क्या ? बस इंतज़ार करते रहो झरते हुए पत्ते देखकर कि कब हमारे जीवन के पत्ते भी पीले पड़ने शुरू हो जाएंगे? पल भर को मैं वहीं खड़ी रह गई। ऐसा लगा कि आज उस सपाट चेहरे पर कुछ हल्की सी मुस्कान की झलक तो देखी थी मैंने | मेरे लिए पर्याप्त नहीं था, ऐसा सूखा व्यवहार ! इंसान में कहीं जिंदादिली तो दिखाई दे ! 
“हाय----”मेरे कानों में जैसे पीछे से आकर किसी ने मिस्री सी घोल दी | 
“शैतान---उत्पल तुम बहुत ----” मैंने अपनी बात बीच में ही छोड़ दी | 
“हाँ, क्या होता जा रहा हूँ ? ” उसके चेहरे पर कैसी सुबह की ताज़ी धूप सी मुस्कान बिखरी थी | क्यों इतना आकर्षित करता है यह मुझे ? 
“अरे ! बताइए न, क्या उत्पल तुम----”वह मेरे पीछे कदम से कदम मिलकर चलने लगा जैसे कोई जवान किसी की सुरक्षा के लिए चल रहा हो | 
“ऐसा है, तुम बहुत शैतान होते जा रहे हो, अब तुम्हारे कान खींचने पड़ेंगे—”
“हाँ, तो खींचिए न, उसके लिए भी तो आपको मेरे पास आना पड़ेगा---”मेरा चेहरा फिर से लाल होने लगा जैसे भीतर से रक्त संचार की रफ़्तार बढ़ गई हो | 
“आज कुछ काम नहीं है क्या जो सुबह सुबह शरारत शुरू कर दी ? ”हमारे कदम लगातार आगे बढ़ रहे थे | अब तक वह पीछे से मेरे साथ आ गया था और शरारत से मुस्करा रहा था | 
मुझे अचानक याद आ गया कि उसने मुझे अपने सपने के बारे में बताया था और यह भी कहा था कि वह अक्सर सपने में मेरे साथ घूमता है, न जाने कहाँ-कहाँ साउथ की उन खूबसूरत घाटियों में जहाँ आसमान और ज़मीन मिलते हैं, जहाँ छोटी ऊँचाइयों से खूबसूरत झरने बह रहे होते हैं, जहाँ हम बिलकुल मौन हो एक-दूसरे से बातें करते रहते हैं | 
पगला कहीं का ! लेकिन भीतर से मेरे मन पर मुस्कान बिखरी पड़ती थी, बंगाली बंदा साउथ में घूमने के सपने देख रहा है ! क्यों सपने एक स्थान पर ही देखे जा सकते हैं क्या? या सपनों की कोई अलग दास्तान, पहचान होती है? मुझे तो पहले से ही सपने कहाँ आते थे लेकिन उसकी बात सुनकर मुझे अहसास होता कि मैं सपनों में विचरण करने लगी हूँ, वो भी दिवा-स्वप्न ! झूमने लगी हूँ, नाचने-गाने लगी हूँ, एक नशे में रहने लगी हूँ | पगला साथ-साथ ही चलता रहा |