Tribanka in Hindi Motivational Stories by Yogesh Kanava books and stories PDF | त्रिबंका

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त्रिबंका

त्रिबंका

 

छोटेलाल आज बहुत खुश थे बरसों के बाद उसके घर में खुशियों का माहौल आया था और खुश हो भी क्यों ना शादी के पूरे 20 साल बाद घर में किलकारीयों की गूँजने की उम्मीद जागी थी। आज उनकी पत्नी प्रसव पीड़ा से करा रही थी गाँव की ही दाई को बुलाया गया था । दाई ने सब कुछ सामान्य होने की बात कही और थोड़ी देर धीरज रखकर बैठने के लिए कहा अंँदर से आवाज़ आ रही थी औरतों की ,बार बार कह रही थी थोड़ा ज़ोर लगा थोड़ा और ज़ोर लगा। छोटेलाल इस बात को बहुत ज्यादा अच्छे से नहीं समझ पा रहा था लेकिन उसको इतना समझ में आ रहा था कि वह सब उसकी पत्नी को ही कह रही हं,ै और फिर एक किलकारी की आवाज़ आती है। किलकारी एक बच्ची की ,बहुत खूबसूरत बच्ची की। खुश होकर कहा लो जी घर में लक्ष्मी आई है, भाग्य लेकर आई है, घर का भाग्य जगाएगी और घर का नाम भी रोशन करेगी। खुश होते हुए दाई अपनी विदाई ले कर चली गई थी । छोटेलाल का पूरा घर खुशियों से चहक रहा था। घर की खुशियाँ पूरे मोहल्ले ने मिलकर बाँटी । पूरा मोहल्ला खुश था, चलो छोटेलाल के घर पर आ जाओ ,लड़की ही सही लेकिन संतान तो हुई है। यह बात सही थी कि गाँंव में सबको चाहत थी कि लड़का होगा लेकिन अब उसी मे उनको तसल्ली थी कि हाँ चलो बच्चा तो हुआ लड़की ही सही और सब लोग एक दूसरे को शायद तसल्ली देते से शायद यह कहते हुए कि हाँ कोई बात नहीं लड़की भी अच्छी है। उधर दाई ने एक बात कही थी यह मत सोचो कि लड़की है यह पूरे घर का भाग्य लेकर आई है , और हुआ भी यही। सचमुच छोटेलाल की तक़दीर बदल गई थी । जो छोटे लाल पूरी मजदूरी कर कर के पूरा गुज़ारा नहीं कर पा रहा था अब से बहुत आराम से मजदूरी भी मिलने लगी और बहुत अच्छे पैसे भी मिलने लगे उसे उम्मीद ही नहीं थी यह चमत्कार होगा लेकिन ऐसा चमत्कार हुआ । उसको भी यह लगने लगा था कि यह सब उसकी बेटी की वजह से हुआ है। अभी तक सभी उसे गुड्डू कह कर बुलाते थे ।

वो छः महीने की हो गई थी सब अपने अपने हिसाब से उसका नाम बताते लेकिन छोटेलाल के मन में बैठ गया था प्रियंका नाम और उसने अपनी बेटी का नाम प्रियंका रख लिया है। वह धीरे-धीरे बड़ी होने लगी थी करीब दस महीने की हो गई लेकिन अभी तक घुटनों रहना शुरू नहीं किया था एक अलग सी बात और दिखी थी अब धीरे-धीरे उसमें उसके पैर थोड़े मुड़े हुए से दिखने लग गए थे। अब तक इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था, हालांकि यह उसके पैदा होने के समय से ही थी, लेकिन संतान होने की खुशी में किसी ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया था। पहली बार दस महीने की होने के बाद इस तरफ किसी का ध्यान गया वह पास ही के सब सेंटर में एएनएम बहनजी के पास लेकर गया था। ए एन एन बहनजी ने बच्चे को देखा और कहा डॉक्टर साहब को दिखाना पड़ेगा, मुझे कुछ ज्यादा समझ नहीं आ रहा है। इसके लिए चार कोस दूर घोसी के पी एच सी में जाना पड़ेगा छोटेलाल छुट्टी करके बेटी को दिखाने के लिए घोसी पहुँचा। सौभाग्य से डॉक्टर बच्चों की जन्मजात विकृतियों पर ही षोध किया हुआ था । डॉक्टर ने कहा इसके जन्मजात विकृति है और तीन जगह से उसमें शरीर में बैंड हुए हैं पूरी तरह से कभी अच्छे से नहीं चल पाएगी लेकिन मानसिक रूप से बिलकुल स्वस्थ है और मानसिक रुप से तो सब ठीक रहेगी। डॉक्टर ने कुछ दवाइयाँ लिखी और एक महिने के बाद दोबारा दिखाने के लिए कहा लेकिन हाँ यह भी कहा कि पूरी तरह से ठीक से चल नहीं पाएगी। थोड़ा सा आज अफसोस हो रहा था मलाल हो रहा था छोटे लाल को अपनी किस्मत पर । एक महीने बाद फिर दोबारा लेकर गए डॉक्टर के पास, इस बार डॉक्टर ने पूरी जाँच की और धीरे-धीरे सारी बातें पूछने लगा क्योंकि इस बार डॉक्टर काफी फुर्सत में था। आज भीड़ नहीं थी और जब भीड़ नहीं थी तो डॉक्टर ने उस बच्चे की पूरी जाँच करके यह पता लगाने की कोशिश की कि इस तरह की निशक्तता उस बच्ची में जन्मजात विकृति कैसे पैदा हुई। डॉक्टर को धीरे-धीरे पता चला कि जब छोटे लाल की पत्नी गर्भवती थी और कोई ढाई तीन महीने के लगभग का गर्भ था तब पूर्ण सूर्यग्रहण हुआ था और छोटे लाल की पत्नी थी सूर्य ग्रहण के दिन मजदूरी करने पास के गाँव में गई थी। पूरे दिन भर उस खग्रास ग्रहण के दिन भी मजदूरी करती रही थी डॉक्टर को अब समझ आ चुका था कि यह सब कुछ पूर्ण सूर्यग्रहण के रेडिएशन के कारण संभवतः हुआ होगा। वो कहते हैं ना डायमंड रिंग। एक चमकदार अँगूठी किसी हीरे की तरह चमक रहा था। सूरज के चारों तरफ बहुत सुंदर चमकदार हीरे के अंगूठी ,ऐसा लग रहा था कि आसमान में किसी ने रख दी है। हाँ डॉक्टर साहब कुछ ऐसा ही था उस दिन। सूरज पूरी तरह से एकदम छुप गया था अँधेरा हो गया था । उत्सुकतावष मेरी पत्नी ने प्रकृति की अँगूठी को खूब निहारा । लोगों ने कहा था कि आँखें खराब हो जाएँगी , लेकिन वो बोली थी जीवन में दोबारा थोड़ी देखने को मिलेगा ऐसा नज़ारा । उस घटना का उसकी आंँखों पर भी असर आया था लेकिन आँखों पर इतना ज़्यादा असर नहीं आया था वो तो ठीक हो गई थी । हाँ मैं वही कह रहा हूँ कि सूर्य ग्रहण का असर जो आँखों पर तो कम हुआ लेकिन असर उसके गर्भ में पल रहे बच्चे पर ज़्यादा पड़ा था । उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को खग्रास के उस रेडिएशन नेें एक विकृति दे दी थी जिसका पता ना तो छोटे लाल की पत्नी को था, ना छोटे लाल को था, और ना ही गाँव की उस दाई को। डॉक्टर की बात सुनकर एक बार तो पत्नी पर बहुत गुस्सा आया था लेकिन जब यह सब पता चला तो सब ने उसे भगवान की मर्जी मान कर स्वीकार कर लिया। डॉक्टर ने कुछ दवाइयाँं दी और समझाया कि अब इसका पूरा ध्यान रखें ।

लाड प्यार से छोटेलाल और उसकी पत्नी बेटी को प्रियंका कहती थी। धीरे धीरे प्रियंका बड़ी होने लगी, डॉक्टर की दवा का असर सामने आ रहा था,वो घुटनों के बल तो चलने लगी थी और उसके बाद अपने पैरों को मोड़कर कुछ सहारा लेकर खड़ा होना भी शुरू कर दिया था। डॉक्टर की दवा का असर हो रहा था और छोटे लाल को यह भी चमत्कार लग रहा था उसे डॉक्टर भगवान दिख रहा था । नियमित रूप से हर महीने डॉक्टर के पास जाता और जाँच करवा कर जो दवाई डॉक्टर देता नियमित रूप से खिलाता यही उसका काम था। मजदूरी से चार पैसे जो बचते थे वो बेटी के लगा रहा था हाँ यह बात सही थी कि बेटी उसका भाग्य लेकर आई थी क्योंकि जिस छोटेलाल को मजदूरी के पचास सो रुपए मिलते थे अब बहुत आराम से उसे तीन सो मिलने लगे थे और आगे से आगे मजदूरी के लिए कोई ना कोई उसको बुक करता रहता था । धीरे धीरे प्रियंका कोशिश करने लगी खड़ा होने की छोटेलाल उसको सहारा देता था उसकी पत्नी भी सहारा देती थी और कोशिश करती थी उन्होंने बहुत मेहनत की उसको अपने पैरों पर खड़ा करने की चलाने की । दोनों पति पत्नी उसे चलना सिखाने का प्रयास करते थे इस प्रयास में सफल भी हो रहे थे प्रियंका धीरे-धीरे सहारा लेकर टेढ़ी-मेढ़ी होकर चलने लगी थी नियति थी प्रकृति की, बेहद सुंदर लड़की जगह जगह से मुड़ी हुई थी। प्राकृतिक विसंगति के कारण जन्मजात विकृति। कसूर शायद उसकी मांँ का भी नहीं था क्योंकि उसको तो मालूम ही नहीं था कि ऐसा भी हो जाता है, हाँ लोग सावधान कर रहे थे कि घरों के भीतर रहे खग्रास सूर्य ग्रहण के दिन बाहर ना निकले लेकिन अगर बाहर नहीं निकलते तो खाते क्या मजदूरी करनी तो जरूरी था। मजदूरी पर जाएंँगे तो शाम को रोटी कहाँ से मिलेगी, पेट भरेगा नहीं तो कोई रोटी देने वाला नहीं है। यह भी मजबूरी थी प्रियंका पाँच साल की हो गई और अब बाप को उसे स्कूल में भर्ती कराने की चिंता सताने लगी। सब ने एक बात कही थी तेरी बेटी तो वैसे भी----। यही शब्द छोटे लाल को चुभते थे। तेरी बेटी तो वैसे भी---, उसने निर्णय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए मैं प्रियंका को पढाऊँंगा। वह स्कूल में लेकर गया स्कूल में मास्टर जी से लेकर सब बच्चों ने उस लड़की को देखकर खूब मजाक बनाया। बच्चे उसके चलने पर ज़ोर ज़ोर से हँसते थे, और कहते थे देखो किस तरह से टेढ़ी हो करके चल रही है। इसको तो चलना भी नहीं आता है। यह क्या खाक पढेगी, मास्टर जी ने कहा यह लड़की नहीं पढ़ पाएगी हमारे स्कूल में । लेकिन फिर भी तुम चाहो तो हैड मास्टरजी से मिल सकते हो । हेड मास्टर ने प्रियंका से बात की तो लगा कि बच्ची बहुत ज़्यादा टेलेण्टेड है सो अनुमति दे दी। प्रियंका को स्कूल में दाखिल करने मे बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा था क्यांेकि दूसरे टीचर्स को बडा ही अजीब लग रहा था। उसका एडमिशन मुष्किल से ही हो पाया । लेकिन बच्चे थे जो उसकी चाल पर हँसते रहे थे त्रिबंका कह कर चिड़ा रहे थे । प्रियंका को बहुत ही बुरा लग रहा था इस तरह से बच्चों का उसको चिड़ाना लेकिन कर कुछ नहीं सकती थी । वहीं हैड मास्टरजी लोहा मान रहे थे प्रतिभा का । ऐसा ही होता है जब ऊपरवाला कोई कमी रखता है तो उसकी प्रतिपूर्ति किसी ना किसी रूप में करता ही है। अगर उसको शरीर थोड़ा सा विकृत कर दिया तो उसके मस्तिष्क को प्रखर बना दिया था कि वह छः वर्ष की बच्ची पाँचवी कक्षा तक के बच्चों के सारे सवाल और सब पुस्तकों का पूरा हल करती थी सब आश्चर्यचकित । छः वर्ष की बच्ची ने पहली से पांचवी तक की किताबों को कैसे याद कर लिया, कुदरत का करिश्मा था। हेड मास्टर जी ने उसे पहली क्लास पास करने के बाद सीधे चौथी क्लास में प्रमोट कर दिया हालांकि यह नियमों के खिलाफ था लेकिन उसके प्रतिभा कुछ ऐसी थी कि वह चौथी क्लास भी तीन महिने में सब कुछ चट कर गई । स्कूल मे बच्चे उसम त्रिबंका कहकर चिड़ाते थे। स्कूल पांँचवी तक की थी पाँचवी पास करने के बाद बहुत बड़ा संकट यह था कि अब उसे कहाँ पढाया जाए। यह प्रियंका की तक़दीर ही कहो कि हैड मास्टर जी का तबादला अब एक मिडिल स्कूल में हो गया था । छोटेलाल के गाँव से एक कोस दूर था, इसलिए छोटे लाल ने तय किया उन्हीं के विद्यालय में प्रियंका का दाखिला दिलाएगा । दाखिला तो मिल गया किन्तु बडी समस्या यह थी कि एक कोस रोज़ाना स्कूल कैसे जाए। छोटे लाल ने ठान लिया था कि अपनी बेटी को वो पहले स्कूल छोडे़गा फिर ही मजदूरी पर जाएगा । मिडिल स्कूल में आश्चर्यजनक बात यह थी कि वहाँ पर उसे अपनी प्रतिभा दिखाने के भरपूर मौके थे । मिडिल स्कूल में प्रवेश के बाद भी प्रियंका का अपनी प्रतिभा दिखाने का हुनर वैसे ही चलता रहा। आठवीं तक का कोर्स उसने एक साल में ही पूरा कर लिया लेकिन यह संभव नहीं था कि उसे इतने ज़ल्दी प्रमोट कर दिया जाए । उन मास्टरजी की सिफारिष पर मिडिल स्कूल के हैड मास्टरजी ने इस हेतु एक कमेटी बनाई गई और उसकी सिफारिषें ज़िला षिक्षा अधिकारी को भेजी गई । वर्षांत प्राथमिक षिक्षा निदेषालय से एक पत्र आया जिसमे अनुमति दी गई कि कक्षा आठ तक के सिलेबस से पेपर तैयार कर अलग से परीक्षा करवाई जाए तथा कॉपियाँ निदेषालय को भेज दी जाएंँ। ऐसा ही किया गया और उम्मीद के अनुरुप ही परिणाम आया । उसमे उन सभी पेपर्स को बडी ही आसानी से सॉल्व करके स्कूल के सभी टीचर्स को तो जैसे सम्मोहित कर लिया था । अब वो कक्षा नो के लिए पात्र थी । अपने गाँव से कोई दो कोस दूर सैकण्डरी स्कूल में कक्षा नो के लिए प्रवेश लेने अपने बापू के साथ गई थी।उसकी प्रतिभा अब तक उस विद्धालय के हैड मास्टरजी जक भी पहले ही पहुँच चुकी थी । इस वजह से उसे यहाँ प्रवेष के लिए ज़्यादा परेषान नहीं पड़ा था । घर से चार कोस दूर स्कूल मे आने जाने के लिए छोटे लाल ने अब एक तांगा प्रियंका के लिए किराए से कर दिया था । गाँव के लोग उसका मजाक बनाते थे, कहते थे ये मूर्ख अपनी सारी कमाई एक विकलांग लड़की पर खर्च कर रहा है । पर छसेटे लाल ने किसी की परवाह नहीं की और अपनी लाडली को स्कूल मे दाखिला करवा ही दिया था । स्कूल मे यहाँ भी बच्चों ने उसका बहुत मजाक बनाया था, बहुत हँसते थे उसकी चाल पर । वो सोचती थी कि षायद नए स्कूल मे बच्चो उसे त्रिबंका नहीं कहेंगे पता नहीं कैसे यहाँ भी वही त्रिबंका षब्द से संबोधन उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था । इस स्कूल मे भी सभी बच्चे उसे इसी संबोधन से पहले किन से ही पुकारते थे । कभी कभी तो उसको भी यह लगने लगता था कि षायद मेरा नाम त्रिबंका ही है, प्रियंका नही । बहुत गुस्सा आता था अपने माँ-बापू पर ,क्यों उन्होंने प्रियंका नाम रखा था, प्रियंका से अब त्रिबंका बन गई थी । वैसे भी अब प्रियंका को आदत पड़ गई थी इन सब बातों की, लेकिन यह त्रिबंका का संबोधन उसे भीतर तक झकझोर देता था । आखिर मेरी क्या ग़ल्ती है मेरे इस मेरे इस रुप मे । उसको समझ आ गया था कि ऊपर वाले ने उसके शरीर में यह विकृति दी है तभी तो यह सब मजाक बनाते है। एक सामान्य बालिका नहीं थी वो । सामान्य लड़कियों की तरह दौड़ती नहीं सकती थी सामान्य बच्चों की तरह झाड़ी से चढ़कर बेर ़नही तोड़ पाती थी। बस वह इंतज़ार करती थी कि कोई बेर नीचे गिरे तो वो ले ले । गलती से नीचे गिरे इधर उधर बेर चुनकर खा लेती थी बहुत स्वादिष्ट लगते थे उसको , पर क्या करती मन मसोसकर रह जाती थी वो । धीरे धीरे वहाँ पर एक सहेली बन गई थी, सुनीता । वो जानती थी कि प्रियंका बहुत मेधावी है, प्रखर है, यदि उसके साथ रहेगी तो वह भी उसकी तरह अच्छे नंबर ला पाएगी और हुआ भी यही । अब सुनीता भी प्रियंका के साथ रहकर पहले से ज्यादा होशियार हो गई थी पढ़ने में ,और जब भी बेर आते तो बेर तोड़कर प्रियंका को भी खिलाती थी। दोनों सहेलियाँ हँसी मज़ाक करती थी, लेकिन और बच्चे तो उसको छेड़ते थे कभी-कभी बच्चे उसको धक्का मार कर गिरा जाते थे और वह अंदर तक टूट जाती थी। क्या करती है नियति के क्रूर चक्र को तो उसे झेलना ही था। अब अकेले में बैठ कर कई बार रोती भी थी, भगवान ने उसको ऐसा क्यों बनाया है किस बात का बदला लिया है भगवान ने उससे। कई बार मंदिर में बैठकर भगवान से लड़ती थी फिर खुद अपने आप ही अपने मन से एक तसल्ली मिलती, तेरे को ऐसा बनाया है तो होशियार भी तो बनाया है। कोई और दूसरा बच्चा होशियार है पढ़ने में तेरे जितना । वो ऐसा सोचकर खुश हो जाती। बहुत मुश्किल से उसने कितनी ही परेशानियों का सामना करते हुए आखि़रकार हायर डिस्टिंक्शन लेवल से बीएससी पास कर लिया । बीएससी में उसके कुल 98 प्रतिषत नंबर आए थे। विश्वविद्यालय के लिए भी ये अनहोनी सी बात थी लेकिन इतने अंकों के बावजूद भी वह आई सी एस के एग्जाम में नहीं बैठ सकती थी क्योंकि इस तरह की सेवाओं के लिए शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के लिए किसी तरह का कोई कोटा निर्धारित नहीं था उस ज़माने में, और ना ही आईसीएस जैसे महत्वपूर्ण पद पर शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को भर्ती होने का मौका मिलता था। उसका बहुत मन था कि वो आई ए एस बने लेकिन क्याा करती । थक हारकर उसने दूसरी सेवाओं के लिए प्रयास करना शुरू किया । सभी उसकी काबलियत की तारीफ तो करते हैं लेकिन उसकी शारीरिक अक्षमता को देखते हुए सभी जगह से उसे निराशा मिलती थी। उसे जॉब नहीं मिल पा रहा था ।

बाप ग़रीबी के कारण उसे ज़्यादा सुविधाएँ भी नहीं दे पा रहा था । हाँ विष्वविद्यालय ने उसके इतने अधिक नम्बर लाने के लिए एक टाªई साइकल दी थी जिसे चलाकर इधर-उधर जाना अब उसके लिए आसान हो गया था । फीजिक्स उसका प्रिय विषय रहा था , अपनी टाªई साइकल से अब आसानी से वो षहर तक चली जाती थी । एक दिन उसे अचानक ही ख़याल आया कि यदि मै इस टाªई साइकल को मेकेनाज़्ड कर सकूँ तो आना और अधिक आसान हो जाएगा और माँ-बापू को भी इसमे बैठाकर ले चल सकती हूँ। वो वो सोचने लगी थी कि आखि़र किस तरह से इसमे इंजन लगाया जाए तभी उसे उसके एक सहपाठी ने कहा था कि उसके धर मे पुरानी मोपेड पड़ी है कबाड़ मे। उसके ज़हन मे आया -क्यों ना मैं उस मोपेड के खराब इंजन को दुरस्त कर अपनी इस टाªई साइकल मे फिट कर लूँ । उसने मोपेड के इन्जन को पूरा खोलकर अपनी टाªई साइकल मे पहले एक बेस वैल्ड करवाया और फिर उस बेस पर मोपेड के इंजन को स्क्रू से कस दिया । इंजन के चक्के से अब साइकल के पहियों से जुड़े गरारीदार चक्के को एक साइकल चेन से अच्छे से कसकर फिट कर दिया । अपनी साइकल मे बैठ कर उसने हाथ से चक्का घुमाया तो उसकी उम्मीद के हिसाब से ही इंजन स्टार्ट हो गया और जैसे ही उसने एक्सीलेटर घुमाया उसकी टाªई साइकल दौड़ने लगी । यह उसका पहला प्रयोग था इसके बाद तो उसने दुगने उत्साह के साथ उसी मे बैटरी लगा कर इग्निषन से स्टार्ट करने का सफल प्रयोग भी कर डाला। उसके इस चमत्कारी प्रयोग की चर्चा अब गाँव देहात से निकलकर आई आई टी के बडे प्रोफेसर्स तक फैल गई । एक प्रोफेसर ने इसमे रुचि ली और प्रियंका तक पहुँच गया । उसकी क्वालिकफकेषन देखकर उसने प्रियंका को आई आई टी मे प्रवेष लेने के लिए तैयार कर लिया था । एम एस सी इन ऑटोमोबाइल साइन्स, वो तैयार थी एंसा अवसर देखकर उसने तत्काल फैसला कर लिया एडमिषन लेने का । उसकी पूरी पढाई का खर्चा उस प्रोफेसर ने ही उठाने के लिए पहले ही कह दिया था । एडमिषन लेने के कुछ ही समय बाद पूरे संस्थान मे उसकी पहचान एक यंग साइन्टिस्ट के तौर हो गई थी । यहाँ पर उसने एक चुनौतिपूर्ण प्रोजेक्ट षुरु कर दिया था। विकलांगों के लिए एक व्हिकल डेवलप करने का, जो सोलर एनर्जी से भी लैस हो और स्टेार्ड बैटरी बैकअप से भी चल सके । कोई चार साल की उसकी मेहनत रंग लाई और विहकल बनकर तैयार हो गया । उसने उस व्हिकल नाम रखा था ’’ त्रिबंका ’’ ।

 

योगेष कानवा

105/67 अहिंसा मार्ग

विजयपथ , मानसरोवर

जयपुर 302020

मो0 9414665936