Hanuman Prasad Poddar ji - 37 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 37

Featured Books
  • ખજાનો - 86

    " હા, તેને જોઈ શકાય છે. સામાન્ય રીતે રેડ કોલંબસ મંકી માનવ જા...

  • ફરે તે ફરફરે - 41

      "આજ ફિર જીનેકી તમન્ના હૈ ,આજ ફિર મરનેકા ઇરાદા હૈ "ખબર...

  • ભાગવત રહસ્ય - 119

    ભાગવત રહસ્ય-૧૧૯   વીરભદ્ર દક્ષના યજ્ઞ સ્થાને આવ્યો છે. મોટો...

  • પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 21

    સગાઈ"મમ્મી હું મારા મિત્રો સાથે મોલમાં જાવ છું. તારે કંઈ લાવ...

  • ખજાનો - 85

    પોતાના ભાણેજ ઇબતિહાજના ખભે હાથ મૂકી તેને પ્રકૃતિ અને માનવ વચ...

Categories
Share

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 37


गीताप्रेसमें हड़ताल

भाईजी रतनगढ़ से चलकर ज्येष्ठ शु० 1 सं० 2002 (11 जून. 1945) को गोरखपुर आ गये। गीताप्रेस के कर्मचारियोंमें पर्याप्त असन्तोष था। श्रावण सं० 2002 (अगस्त 1945) में भाईजी ने ट्रस्टियों को समझाकर कर्मचारियों को आर्थिक सुविधायें दिलायी। एक बार तो समस्या टल गई पर नेताओंने कर्मचारियों को भड़का कर थोड़े समय बाद ही हड़ताल का नोटिस दे दिया। भाईजीने समस्याको सुलझानेका बहुत प्रयत्न किया, कई बार दिनभर प्रेसमें रहे, किन्तु स्थिति सुलझ नहीं सकी। कर्मचारी अपनी बातपर अडिग रहे। कोई रास्ता न देखकर प्रबन्धकोंने आषाढ़ शुक्ल 8 सं० 2003 (6 जुलाई, 1946) को अनिश्चित काल के लिये प्रेस बन्द करने का नोटिस द्वारपर लगा दिया। हड़ताल लगभग डेढ़ मासतक चली। भाईजीके जीवनकालमें प्रेस की तालाबन्दी का यह सबसे लम्बा अवसर था। अन्तमे भाईजीके कहनेसे बाबा राघवदास जी मध्यस्थताके लिये राजी हो गये और उनके प्रयाससे हड़ताल वापस ले ली गयी।

देश विभाजन के पूर्व व्यथित हृदय के उद्गार एवं चेतावनी

श्रीभाई जी जैसे सन्तने अपनी दूरदर्शी दृष्टिसे 50 साल पहले ही उन समस्याओं को देख लिया था जो आज हमारे देशके समक्ष है। यद्यपि सन् 1921 के बाद भाईजी राजनीति से सर्वथा पृथक् हो गये थे क्योंकि उन्होंने उसी समय देख लिया था कि तत्कालीन नेताओं की दृष्टिमें अध्यात्मका कोई महत्त्व नहीं है। भाई जी मानते थे कि हिन्दुओं की समाज नीति एवं राजनीति धर्मसे सम्बद्ध है और धर्म अध्यात्मका एक अंग है। देश के स्वतंत्रता संग्राममें सक्रिय भाग लेनेपर भी तथा जेल एवं नजरबन्दी की यातनाएँ सहनेके बाद भी इसी दृष्टिकोणके कारण उन्होंने अपना सम्बन्ध राजनीति से नहीं रखा। वैसे सभी दलोंके नेता उनसे मित्रता रखते थे।

कल्याण विशुद्ध आध्यात्मिक पत्र था। उसमें भाईजी अन्य विषयों की आलोचना बहुत ही कम करते थे, पर जो कुछ भी कभी करते थे वह केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे ही। देश विभाजनके पूर्व हिन्दुओं पर जो भीषण अत्याचार हो रहे थे उससे भाईजीका हृदय व्यथित हो गया था। फिर भी उस समय उन्होंने 'कल्याण' में लिखा–
“भगवान् जैसे हिन्दू के हैं वैसे ही मुसलमानके हैं। यदि हिन्दू भगवान्‌ का स्वरूप है तो मुसलमान भी भगवान् का स्वरूप है। जो हिन्दू मुसलमान को दुःख देता या मारता है अथवा जो मुसलमान हिन्दूको दुःख देता या मारता है वह अपने भगवान् को ही असन्तुष्ट करता है, चाहे उसके भगवान्‌ का नाम अल्लाह हो या परमात्मा असलमें हिन्दू हो या मुसलमान वे पहले मनुष्य हैं उसके बाद हिन्दू या मुसलमान हैं। 'कल्याण ने न तो अभी तक कभी किसी का बुरा चाहा है न वह चाह ही सकता है। कल्याण केवल सारी मानव जाति का ही नहीं, अखिल विश्व के प्रत्येक जीव का सर्वांगीण कल्याण हृदय से चाहता है।”

ऐसे विचार होते हुए भी भाईजी ने कल्याणके फरवरी 1947 के अंक में राजनेताओंको सचेत करते हुए लिखा–
राजनैतिक मुसलमानोंका कुचक्र तथा उनके षडयन्त्र का कार्य सफलतापूर्वक चल रहा है। हिन्दुओं अधिकांश प्रभावशाली प्रमुख पुरुष राष्ट्रीयता के मोहमें 'स्व' को खोकर 'स्वराज्य' की साधनामें लगे हैं और संहारकारी नवीन विचारों के प्रवाहमें बहे जा रहे हैं। शान्ति की आड़में हिन्दुओं के सब प्रकारके अधिकारों को छीनकर उन्हें नष्ट करने के लिये जो शठता, कपटता तथा मिथ्याचारपूर्ण क्रूर आयोजन अत्यन्त कुशलता के साथ बड़ी ही गोपनीय रीतिसे चल रहा है, उसे रोकने तथा उससे बचनेकी कोई भी सक्रिय चेष्टा हिन्दुओं की ओर से अबतक नहीं हो रही है। यह प्रमाद हिन्दू जाति के भविष्य के लिये बड़ा ही भयजनक है। इसे सहिष्णतापूर्ण राष्ट्रीयता कहें या अविचारयुक्त प्रमादपूर्ण आत्मघात कहें। कुछ समझमें नहीं आता। इन सब बातोंके लिखने का इतना ही तात्पर्य है कि हिन्दू सजग रहे और अपने कर्त्तव्य का पालन करनेमें लग जाये। याद रखें इस समय हिन्दू जातिपर विपत्ति आयी हुई है।

मार्च 1947 के कल्याण मे भाईजीने लिखा––
“गत सितम्बरके कल्याण में 'हिन्दू क्या करें' शीर्षक से एक लेख छपा था जिसमें बंगालमें होने वाले भीषण अत्याचारों की चर्चा करके यह बतलाया गया था कि ऐसी परिस्थितिमें हिन्दुओं को आत्मरक्षा एवं सबके कल्याणके लिये क्या करना चाहिये। लेखके अन्त में कहा गया था याद रखना चाहिये कि हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी एक ही भगवान् के स्वरूप हैं। एक के अमंगलमें दूसरे का अमंगल और एकके मंगलमें दूसरेका मंगल निहित है। भगवान सबका कल्याण करें, सबको सम्मति और सदगति प्रदान करे।'
'कल्याण भारतवर्ष का सर्वमान्य प्रतिष्ठित आध्यात्मिक पत्र है।”

बड़े आश्चर्य की बात है कि तत्कालीन कांग्रेसी सरकारोंने सचेत होनेके स्थानपर बिहार एवं युक्त प्रान्तीय सरकारों ने कल्याणके ऐसे अंको को जब्त करने के आदेश दे दिये।

मई 1647 के कल्याण में भाईजीने लिखा–
"सभी जानते हैं इधर कई महीनोंसे भारतवर्षमे अत्याचार और अनाचारका बड़ा विस्तार हो रहा है। जलती हुई आगमें जीवित नर-नारियो को झोंक दिया जा रहा है। निरपराध स्त्री और बच्चोंकी निर्मम हत्या की जा रही है, धन-सम्पत्ति लूटी जा रही है, नारी अपहरण होता है, उनपर बलात्कार किये जाते हैं। खेद है कि अब भी इतना अन्याय और अत्याचार देख लेनेपर भी—हमारे नेताओंका रूख नहीं बदला है। वे अब भी उसी प्रकार मुसलमानोंको खुश करने और हिन्दुओं को दबानेकी नीति अख्तियार कर रहे हैं। हमारे नेतागण वही पुराना शान्ति का राग अलापते जाते हैं। परिणाम स्पष्ट ही सामने आते चला जा रहा है। हिन्दुओंपर हर जगह मुसीबतके पहाड़ टूट रहे हैं और मुसलमान जाति महात्माजी आदिके इन व्यवहारों से सतत् अनुचित लाभ उठाने की चेष्टा कर रही हैं। इससे हिन्दुओं की तो हानि है ही परिणाममें मुसलमानोंका और जगत् का भी लाभ नहीं है।

सब बातोंपर विचार करने से और माननीय श्रीनेहरूजी आदि कांग्रेस नेताओं से पाकिस्तानके स्वीकार की भूमिका बाँधने-जैसे स्पष्ट वाक्यों से यह प्रतीत होता है कि यदि हिन्दुओंने, चाहे वे कांग्रेस के अन्दर हो या बाहर हो, अथवा किसी भी मत या वाद के माननेवाले हों एक साथ मिलकर एक आवाज से और एक भावनासे प्रबल सक्रिय विरोध नहीं किया तो देश खंड-खंड हो जायगा। मुसलमानोंके अन्यायपूर्ण शासनका सूत्रपात होगा और हिन्दू जाति की और हिन्दू-सस्कृति की बहुत बड़ी दुर्दशा होगी। ऐसी दशामें हिन्दुओंको चाहिये कि वे बड़ी गम्भीरता के साथ इन सब विषयोंपर विचार करें और महात्माजी, कांग्रेस तथा कांग्रेस के नेताओं के प्रति सम्मान रखते हुए ही निर्भिकतापूर्वक संकोच छोड़कर सच्ची बात कह दें। असल में मुसलमानों से दबे रहकर जबतक कांग्रेस सरकार अन्याय रूपसे हिन्दुओं को दबाती रहेगी तबतक मुसलमान प्रेमके लिये कभी हाथ नहीं बढ़ायेंगे। समय बहुत कम रह गया है। बहुत जल्दी ही इस दिशामें प्रभावोत्पादक काम होना चाहिये। वस्तुतः हम मुसलमान तो क्या किसी भी प्राणि का जरा भी अहित नहीं चाहते। हम तो अन्याय, अत्याचार और आततायीपनका नाश चाहते हैं, फिर वह चाहे मुसलमानमें हो या हिन्दूमें अथवा किसी जातिमें। अंग्रेजों से भी हमारा कोई द्वेष नहीं था। इसलिये विरोध था कि वे भारतपर अन्याय करते हैं पर मुसलमानोंका अन्याय तो आज सर्वथा आततायीपनमें परिणित हो गया है। इस आततायीपन का शीघ्र शमन नहीं होगा तो जिनपर अत्याचार होता है, उनको तो एक बार महान कष्ट होगा ही, पर परिणाममें आततायियों का भी अत्यन्त अहित होगा। हिन्दू धर्मशास्त्रों का यही मत है।”


जुलाई सन् 1947 के कल्याण' में भाईजी ने पुनः लिखा –
"विभाजन-योजना की घोषणाके दो-एक दिन पहले ही महात्मा गाँधी ने इस आशय की बात कही थी कि सारा भारत जलकर राख भले ही हो जाय, पर हिंसा के भय से पाकिस्तान नहीं दिया जायगा। वही भारत विभाजन, वही नापाक पाकिस्तान सहज ही स्वीकार कर लिया गया। आश्चर्य तो यह है कि विभाजन-योजना की स्वीकृति को पागलपन बताने वाले स्वय महात्मा जी ही उसको मान लेने के लिये आदेश देने लगे। महात्माजी की परस्पर विरोधी बातों को समझना भी आज विकट पहेली हो गया है। पण्डित नेहरूजी एवं सरदार पटेल के भाषणों से यह साफ है कि देशवासियों की निर्मम हत्याओं और अत्याचारों के काण्डोंसे ऊबकर ही यह योजना स्वीकार की गयी है। साथ ही यह भी ज्वलन्त सत्य है कि उन्होंने स्वीकार किया ह लीगियों के भयंकर उत्पात को मिटानेमें अपने को सर्वथा असमर्थ पाकर ही। इसीलिये देशवासियों का नेताओंसे यह प्रश्न होता है कि जब ऐसी असमर्थता और बल हीनता थी तो दो-एक साल पहले ही पाकिस्तान स्वीकार क्यों नहीं कर लिया गया? उस समय न इतनी कड़ी शर्ते होती, न इतनी माथापच्ची करनी पड़ती और न लीगियों का इतना दिमाग ही बढ़ता।

लक्षणों को देखने से यह स्पष्ट ज्ञान होता है कि यदि राष्ट्रीयता के मोहमें पड़े हुए हमारे नेताओं की नीति यही बनी रही, यदि कांग्रेसने अपनी खुशामदी नीतिमें आमूल परिवर्तन करके पूरे बल तथा विवेक के साथ न्याय मार्गका ग्रहण नहीं किया तो, पता नहीं, आगे चलकर और कैसी-कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। कांग्रेस की दब्बू नीतिने अबतक जो कराया है, उसकी वह चाल बन्द नहीं है।

महात्मा गाँधी के प्रति मेरी चिरकाल से श्रद्धा है; पर इधर वे जो कुछ कर रहे हैं और गीताका हवाला देकर उसे सिद्ध कर रहे हैं, उससे हिन्दुओं की निश्चित हानि हो रही है और गीता का भी दुरुपयोग हो रहा है।

राष्ट्रीयता के मोहने हमारे घरमें ही हमें इतना 'पर' बना दिया है कि आज हम अपनेको हिन्दु समझने और कहनेमें भी उदारता की हानि समझते हैं। हमारे राष्ट्रीय नेता 'मुसलमान' नामका जरूर आदर करेंगे, परंतु 'हिन्दू' नाम उनको नहीं सुहाता। हिंदू 'गैर मुस्लिम' में गिने जाते हैं। हिन्दू स्थानका 'हिंदुस्तान' नाम रखनेमें लज्जा का बोध होता है। यह सर्वथा सत्य है कि महात्माजी की नीति मुसलमानोंको खुश करनेकी है और इससे महात्माजीके भक्तोंमें अहिंसाके नामपर कायरता आती है और आतताइयोंमें अपनी विजय से उद्दण्डता और बर्बरता बढ़ती है। यही हुआ और हो रहा है।


इससे अधिक एक दूरदर्शी सिद्ध संत क्या लिखेगा। गाँधीजी को भाईजी पिता तुल्य मानते थे और गाँधीजी का भी उनपर पुत्रवत् स्नेह था पर जब उन्होंने सम्पूर्ण देश के लिये अहित की नीति अपनाई तब भाईजी को उसके कुपरिणामोंको ध्यानमें रखकर लिखन पड़ा। यह हमारा परम दुर्भाग्य ही था कि समयपर एक संत की सच्ची चेतावनी पर हमारे स्वार्थी नेताओंने कोई ध्यान नहीं दिया और यही कारण है कि आज पचास साल बाद भी राष्ट्र उन्हीं समस्याओंका सामना कर रहा है और उनका कोई सही हल नहीं निकल पाया है। हमारा जीवन कितना सुखी होता यदि तत्कालीन राष्ट्रीय नेता भाईजीके चेतावनी पर ध्यान देकर तदनुकूल नीति अपनाते।