लघुकथा क्रमांक 21
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रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। हॉरर लघुकथाएँ पढ़ते पढ़ते अमर सो गया था। हमेशा की तरह आज भी बिजली गुल थी। अमावस की रात पूरे शबाब पर थी। अँधेरे का साम्राज्य पसरा हुआ था। हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहे थे। अचानक तेज हवा चली। खिड़की के पट खुल गए और खिड़की पर लगे परदे उड़ने लगे। हवा की तेज सरसराहट से अमर की नींद खुल गई। उसने उठकर खिड़की से लहराते हुए परदे को सही करते हुए बाहर झाँककर देखा। बाहर मौसम एकदम शांत लग रहा था।
'फिर ये अचानक इतनी तेज हवा कहाँ से आई ?' सोचकर उसके तन में सिहरन पैदा हो गई। खिड़की से बाहर नजर आनेवाले बगीचे में छोटे छोटे पेड़ पौधे अँधेरे में डूबे हुए किसी विचित्र सी आकृति का अहसास दिला रहे थे। अमर की सिहरन बढ़ गई। घबराहट की अधिकता से खिड़की बंद कर वह एक झटके से पलटा और सोने के लिए अपने बेड की तरफ बढ़ ही रहा था कि उसकी नजर सामने रखी लोहे की अलमारी के ऊपर पड़ी। अलमारी के ऊपर से एक जोड़ी दहकती हुई आँखें मानो उसे ही घूर रही थीं। उसकी घिग्घी बँध गई। पैर बेजान से हो गए और दोनों हाथ स्वतः ही जुड़ते चले गए। मुँह से हनुमान चालीसा का जाप अपनेआप शुरू हो गया '...जय हनुमान ज्ञान गुण सागर ...!'
हाथ जोड़े जाप करते हुए उसकी आंखें बंद हो चुकी थीं। धडकनों ने अपनी गति बहुत तेज कर दी थी। शरीर के सारे मसामों ने एक साथ पसीना छोड़ दिया। अचानक उसे ऐसा लगा जैसे उसके सीने में बहुत तेज दर्द उभरा हो। एक हाथ से अपने सीने को मसलते हुए अमर बेड की दूसरी तरफ से बाहर जानेवाले दरवाजे से कमरे से बाहर हो जाना चाहता था कि तभी छनाक से पूरा कमरा रोशन हो उठा। अचानक बिजली आ गई थी। उसकी नजर अलमारी के ऊपर गई जहाँ एक बड़ी सी गुड़िया रखी हुई थी। गुड़िया की सुर्ख नजरें अभी भी उसे ही घूर रही थीं।
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लघुकथा क्रमांक 22
गंदा खून
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एक युवा मच्छर खिड़की की फटी हुई जाली से कमरे में घुसने के प्रयास में घायल हो गया। आननफानन उसके साथी मच्छरों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया।
ऑपेरशन के लिए उसे खून चढ़ाना होगा यह पता चलते ही एक अन्य युवा मच्छर बोला," डॉक्टर साहब! आप ऑपेरशन की तैयारी कीजिये,मैं अभी आया!"
उसे टोकते हुए उस घायल मच्छर का वृद्ध पिता बोला," कहाँ से लाओगे इतनी जल्दी खून?"
"कुकुरमुत्तों की तरह फैली इन गंदी बस्तियों में इंसानों की कमी कहाँ है? अभी उनके जिस्म से भर ले आता हूँ जरूरत भर का खून !" युवा मच्छर आत्मविश्वास से बोला।
"ठहरो!" अचानक वह वृद्ध मच्छर दहाड़ उठा," अपने कुकृत्यों से जानवरों को भी शर्मसार करने वाले नराधम, जाति-पाँति व धर्म मजहब के साथ ही जमीन के टुकड़ों के लिए अपनों का खून बहाने वाले वहशी दरिंदों के गंदे खून से नहीं देनी मुझे अपने बेटे को जिंदगी!"
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लघुकथा क्रमांक 23
बोरे से बनी झुग्गी से बाहर झाँकते हुए उस वृद्धा की नजर दूर तक फैली सूनसान सड़क से टकराकर वापस लौट आती और भूख से उसकी अंतड़ियाँ और जोर से कुलबुला उठती। नजदीक ही जमीन पर पेट दबाकर सोए दोनों मासूम बच्चों को देखकर उसकी वेदना और बढ़ जाती।
शहर में कई दिनों से लॉक डाउन लगा हुआ था। उसकी बहू परबतिया इन दिनों शहर के मुख्य चौराहे पर जाकर वहाँ भोजन बाँटनेवालों से भोजन लेकर आती और उसी भोजन में से सभी थोड़ा थोड़ा खाकर उन भोजन बाँटनेवालों को ढेरों आशीर्वाद देते।
कुछ देर बाद उसकी बहू आई, लेकिन उसके हाथ खाली और आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं।
किसी मनहूस खबर की आशंका से अपने आपको मजबूत करती हुई वृद्धा ने बहू से पूछा, " क्या हुआ बहू ? लगता है भोजन नहीं मिला....तो इसके लिए रोना क्यों ?"
" अम्मा ! मैं इसलिए नहीं रो रही हूँ कि मुझे आज भोजन नहीं मिला। मैं तो यह जानकर रो रही हूँ कि शहर के मुख्य चौराहे पर आकर जो मसीहा रोज भूखों को भोजन कराता था आज पुलिस ने उसे लॉकडाउन का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है। अब तो हमारी सारी उम्मीदें ही खत्म हो गईं अम्मा जी ! ....इसीलिए मेरे आँसू बह निकले ! इस देश में क्या कोई अच्छा काम करना वाकई गुनाह है अम्मा जी ?" कहते हुए बहू जोर से फफक पड़ी।
" पता नहीं बहू ! बड़ों की बातें बड़े ही जानें। मैं तो इतना ही जानती हूँ कि कुछ पौधों की जड़ें जमने से पहले ही उन्हें उखाड़ दिया जाता है। ये गरीबों के हमदर्द भी इन्हीं पौधों की श्रेणी में आते हैं !"
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