राधाबाबा के अपने अग्रज बन्धुओं को पत्र पूज्य बाबा के छायावत् भाईजी के साथ रहने के नियम का जब उनके अग्रज बन्धुओं को पता लगा तो उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। वे बाबा के उद्भट-विद्वत्व, अटूट वेदान्त-निष्ठा एवं सन्यास के कठोर नियमोंके पालन से भाँति-भाँति परिचित थे। अपने ऐसे अनुज को एक बनियेके साथ निरन्तर रहने के कारण को वे ठीक से हृदयंगम नहीं कर पा रहे थे। समय-समय पर पत्र लिखकर पू० बाबा से अपनी शंकाएँ निवारण के लिये प्रश्न किया करते थे। पू० बाबा ने उनको जो उत्तर लिखे उन पत्रों के कुछ अंश नीचे दिये जा रहे हैं।
श्रावण कृ० 11, सं० 1996 वि०
पूज्य देवदत्त भैया,
सादर सप्रेम प्रणाम .....एक और बड़े ही रहस्य की बात लिख रहा हूँ। यथा संभव इसका प्रकाश बहुत कम लोगों के सामने हो, यह मेरा आपके प्रति विशेष अनुरोध है। देखें आपने श्रीजयदयालजी एवं हनुमानप्रसादजी का दर्शन किया है। चाहे आपकी श्रद्धा कम भी हो पर इसका अन्तिम फल भगवत्प्राप्ति ही है। श्रीजयदयालजी एवं हनुमानप्रसाद जी केवल दीखने में बनिया हैं, यह बात मैं केवल अनर्गल कह रहा हूँ सो नहीं है, जैसा कह रहा हूँ वैसा ही ठीक घटेगा। समय ही मेरे इस कथन की सत्यता को प्रमाणित कर सकता है। श्रीमद्भागवत के यमलार्जुन उद्धार के प्रसंग को पढेंगे– वहाँ एक श्लोक आया है–
साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।
दर्शनान्नो भवेद्बन्धःपुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा।।
(श्रीमद्भा० १० | १० | ४१)
जो बात श्रीनारदजी के दर्शन से यमलार्जुन के लिये सिद्ध हुई है, वही बात इन दोनों के दर्शन करने वालों पर भी लागू होगी। दर्शन करने वालों की श्रद्धा हो चाहे मत हो। यह संभव है कि आपकी श्रद्धा की कमीके कारण, अथवा अन्य किसी प्रतिबन्ध के कारण अथवा कुसंग में पड़कर साधन छोड़ देने के कारण आपको एक जन्म और धारण करना पड़े। जिस तरह यमलार्जुन को जड़त्व की प्राप्ति हुई थी। किन्तु जो इस बार का जन्म होगा, उसका प्रारब्ध ऐसा बनेगा, जो भगवान् को मिलाकर छोड़ेगा। किन्तु आप उधार रखें ही क्यों ? तीव्रता से साधनमें लगकर इसी जीवन के किसी थोड़े से अंशमें ही भगवत्प्राप्ति कर अपना जीवन सार्थक कर दें।
आपका–चक्रधर
आश्विन कृ० ४ सं० 1997 वि०
पू० देवदत्त एवं तारादत्त भैया,
सादर सप्रेम प्रणाम। ......अपने जीवन की सर्वतोमुखी गति भगवान् की ओर करने के परम पवित्र उद्देश्य से ही मैं भाईजी श्रीहनुमानप्रसाद जी पोद्दार के पास यावज्जीवन रहने का व्रत लिये हूँ और रह रहा हूँ। भगवान् की इच्छा से श्रीहनुमानप्रसाद जी के साथ मेरा जीवन-व्यापी संग नहीं हो सके, एक क्षण के पश्चात् दूसरे क्षण क्या घटित होने वाला है, इसकी सूचना तो मात्र जगन्नियन्ता प्रभु को ही होना संभव है। परन्तु जब तक जगन्नियन्ता की मरजी ऐसी ही है भाईजी को छोड़कर एक कदम भी इधर-उधर होने का न तो मेरा संकल्प ही है, न ही मेरी रुचि।
विश्वास करें, श्रीभाईजी से मेरा संग किसी भी व्यवहार के हेतु से कदापि नहीं है। आप लोगों से नहीं मिलनेमें कोई लौकिक अड़चन हो, सो बात भी नहीं है। बड़े मजेमें श्री भाईजी मेरे आने-जाने का टिकट कटा सकते हैं। परन्तु सच्ची बात यह है कि न तो मैं कारण ही बता सकता हूँ और न श्री भाईजी को छोड़कर मैं कहीं भी आ-जा ही सकूँगा। कल क्या होगा, इसका पता नहीं ।
मैं पिछले किन्हीं पत्रोंमें यह बात लिख भी चुका हूँ कि श्री भाईजी के अनुग्रह से ही मुझे परम तत्त्व के परमसार भगवान् के सगुण साकार स्वरूप का अनुभव हुआ है। कर्तुम अकर्तुम अन्यथाकर्तुं समर्थ भगवान् जिसके अधिकारमें हों, जो अपनी सत्प्रेरणा से किसी को भगवत्प्रेम दान करने में समर्थ हो, किसी भी मरणातुर व्यक्ति को जो हाथ पकड़कर भगवान् के दर्शन दिलाकर उसे भगवद्धाम की यात्रा कराने में समर्थ हो, आप लोग कल्पना कर लें कि ऐसे व्यक्ति के जीवनव्यापी छायावत् संग रहने की मेरी कामना किस हेतु से होनी संभव है ?
आपका–चक्रधर
प्रसंगवश पू० बाबा ने शिवकुमारजी केडिया को दि० २० | २ | ४१ को रतनगढ़में श्री भाईजी के बारेमें लिखकर दिया उसका थोड़ा अंश नीचे प्रस्तुत है –
“श्री भाईजी की स्थिति को सर्वसाधारण समझ ही नहीं सकता। उच्च साधन सम्पन्न सत्संगी भी इन बातों को हृदयंगम नहीं कर सकता. ... मेरे ध्यानमें युगों-युगोंमें ऐसी उच्च आध्यात्मिक स्थिति का कोई सिद्ध भगवत्कृपा पात्र आया ही नहीं है, परन्तु हुआ होगा तो मेरी जानकारीमें नहीं है। मैंने कहीं उल्लेख नहीं पाया है। नारद भक्ति-सूत्रों में महासिद्ध प्रेमी भक्त नारदजी ने सिद्धान्तों में ऐसी स्थिति का उल्लेख अवश्य किया है।
उनके सम्पर्क में आने वाले माया जगत् के सभी जीव चाहे वे मक्खी, मच्छर, पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर, देवगण कोई भी हों एक-न-एक दिन तर जावेंगे। उनके प्राकृत शरी रका अस्तित्व त्रिभुवन के लिये परम पवित्र और मंगल विधान है।”