{ आधुनिक भारत के महावतार बाबाजी }बद्रीनाथ के आसपास के उत्तरी हिमालय के पहाड़ आज भी लाहिड़ी महाशय के गुरु बाबाजी की जीवंत उपस्थिति से पावन हो रहे हैं। जन संसर्ग से दूर निर्जन प्रदेश में रहने वाले ये महागुरु शताब्दियों से, शायद सहस्राब्दियों से अपने स्थूल शरीर में वास कर रहे हैं। मृत्युंजय बाबाजी एक “अवतार” हैं। इस संस्कृत शब्द का अर्थ है "नीचे उतरना।" यह “अव,” अर्थात् “नीचे” और “तृ,” अर्थात् “तरण” शब्दों से बना है। हिंदू शास्त्रों में “अवतार” शब्द का प्रयोग "ईश्वरत्व का स्थूल शरीर में अवतरण" के अर्थ में होता है।
"बाबाजी की आध्यात्मिक अवस्था मानवी आकलनशक्ति से परे है," श्रीयुक्तेश्वरजी ने एक दिन मुझे बताया। "मनुष्यों की अल्प बुद्धि को उनकी परात्पर अवस्था का ज्ञान कभी नहीं हो सकता। इस अवतार के योगैश्वर्य की केवल कल्पना करने का प्रयास भी व्यर्थ है। वह पूर्णतः कल्पनातीत है।"
उपनिषदों में आध्यात्मिक उन्नति की प्रत्येक अवस्था का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्गीकरण किया गया है। सिद्ध पुरुष जीवन मुक्त अवस्था ( जीवित अवस्था में मुक्ति लाभ) से आगे बढ़ने पर परामुक्त अवस्था (सम्पूर्ण मुक्त मृत्यु पर विजय) में प्रवेश करता है। परामुक्त पुरुष माया के नागपाश और जन्म-मरण के चक्र से पूर्णतः मुक्त हो चुका होता है। इसलिये परामुक्त कदाचित् ही पुनः स्थूल शरीर धारण करता है; और यदि वह पुनः जन्म ले ही लेता है, तो संसार पर ईश्वर की आशीर्वाद वर्षा का माध्यम बन कर आता है। उसे ही अवतार कहते है। अवतार पर सृष्टि के कोई नियम लागू नहीं होते; उसका शुद्ध शरीर प्रकाश की मूर्ति मात्र होता है, उस पर प्रकृति का कोई ऋण नहीं होता।
सामान्य दृष्टि को अवतार के शरीर में कोई असाधारण बात नज़र नहीं आती; परन्तु कभी-कभी प्रसंगानुरूप उस शरीर की न तो छाया पड़ती है, न ही जमीन पर पदचिह्न बनता है। ये माया के अंधकार और भौतिक बन्धनों से आंतरिक मुक्ति के बाह्य प्रतीकात्मक प्रमाण हैं। केवल ऐसा भागवत् पुरुष ही जीवन और मृत्यु की परस्पर सम्बद्धता के पीछे विद्यमान सत् को जानता है। उमरखय्याम, जिन्हें लोगों ने पूर्णतः गलत समझा है, ने ऐसे मुक्त मानव के विषय में अपने अमर ज्ञानकाव्य “रूबाइयाँ" में लिखा है:
ओ सुहासिनी, ओ विधुवदनी,
तेरी आभा है अक्षय प्रिये देख,
हो रहा चन्द्रमा
स्वच्छ गगन पर पुनः उदय ॥
होगा कितनी बार आज के
बाद यह उदय इसी प्रकार
और इसी झुरमुट में मुझको
खोज-खोज जायेगा हार ॥
अक्षय आभा युक्त सुहासिनी, विधुवदनी, प्रिया पराशक्ति अर्थात् ईश्वर है जो एकमात्र कालदोषरहित, स्वयं तेज से भी तेजस्वी शाश्वत तारा है। स्वच्छ गगन का चन्द्रमा तो बाह्य सृष्टि है जो उदय-अस्त के नियतकालिक आवर्तनों के नियम से बँधी हुई है। आत्म-साक्षात्कार के द्वारा इस फारसी सन्त ने अपने आपको इस जगत् में या माया, अर्थात् प्रकृति के "झुरमुट " में बार-बार लौट आने की विवशता से सदा के लिये मुक्त कर लिया था। "और इसी झुरमुट में मुझको खोज-खोज जायेगा हार।" किसी चिरमुक्त की खोज करते ब्रह्माण्ड के लिये कैसी घोर निराशा !
ईसा मसीह ने अपने मुक्तात्मा होने का संकेत दूसरे प्रकार से दिया "और एक शास्त्री ने पास आकर उनसे कहा, हे गुरु, आप जहाँ भी जायेंगे,
मैं आप के पीछे-पीछे आऊँगा। और यीशु ने उससे कहा, लोमड़ियों के रहने के लिये माँदें हैं, आकाश के पक्षियों के लिये भी घोंसले हैं, परन्तु मानव पुत्र के लिये सिर टेकने के लिये भी कहीं ठौर नहीं है।"
सर्वव्यापकता के कारण दिग्-दिगान्तर में व्याप्त ईसा मसीह के पीछेपीछे जाना क्या सर्वव्यापी परमतत्त्व में विलीन हुए बिना संभव था ?
प्राचीन भारत में कृष्ण, राम, बुद्ध तथा पतंजलि जैसे अवतार हुए। दक्षिण भारत के एक अवतार अगस्त्य पर विपुल काव्य-साहित्य की रचना हुई है। उन्होंने ईसा के पूर्व और ईसा के बाद की अनेक शताब्दियों में अनेक चमत्कार किये हैं और उनके विषय में यह मान्यता है कि वे आज भी सशरीर इस संसार में विद्यमान हैं।
भारत में बाबाजी का कार्य रहा है जिन विशेष कार्यों के लिये अवतार इस जगत में आते हैं, उन कार्यों की पूर्ति में उनकी सहायता करना। इस प्रकार शास्त्रीय वर्गीकरण के अनुसार वे एक महावतार हैं। उन्होंने स्वयं बताया है कि संन्यास आश्रम के पुनर्सगंठक एवं अद्वितीय तत्त्वज्ञानी जगद्गुरु आदि शंकराचार्य* तथा सुप्रसिद्ध मध्ययुगीन संत कबीर को उन्होंने योग दीक्षा दी थी। १९वीं शताब्दी के उनके मुख्य शिष्य, जैसा कि हम जानते हैं, लाहिड़ी महाशय थे, जिन्होंने लुप्त क्रिया योग विद्या का पुनरुद्धार किया।
*(इतिहास के अनुसार शंकराचार्य के गुरु गोविन्द यति थे, परन्तु उन्होंने काशी में बाबाजी से क्रियायोग की दीक्षा ली थी। लाहिड़ी महाशय और स्वामी केवलानन्दजी को वह प्रसंग बताते समय बाबाजी ने उस महान अद्वैत्वादी के साथ अपनी भेंट का चित्ताकर्षक सविस्तार वर्णन किया था।)
बाबाजी सदा ईसा मसीह के सम्पर्क में रहते हैं। वे दोनों मिलकर जगत् के उद्धार के स्पन्दन भेजते रहते हैं और इस युग के लिये मोक्ष प्रदायिनी आध्यात्मिक विधि भी उन्होंने तैयार की है। एक शरीर में रहने वाले और दूसरे शरीर के बिना रहने वाले इन दो पूर्ण ज्ञानी महागुरुओं का कार्य है राष्ट्रों को युद्ध, वंशविद्वेष, धार्मिक भेदभाव तथा भौतिकवाद
की पलटकर आघात करने वाली बुराइयों को त्यागने के लिये प्रेरित करना । बाबाजी आधुनिक युग की प्रवृत्तियों से, विशेषतः पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव और उसकी जटिलताओं से पूर्णतः अवगत हैं, और पूर्व तथा पश्चिम, दोनों में समान रूप से योग के आत्मोद्धारक ज्ञान का प्रसार करने की आवश्यकता का उन्हें भान है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इतिहास में बाबाजी का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। किसी भी शताब्दी में बाबाजी कभी जनसाधारण के सामने प्रकट नहीं हुए। उनकी युग युगान्तर की योजनाओं में गलत अर्थ लगाने वाली प्रसिद्धि की चकाचौंध के लिये कोई स्थान नहीं है। सृष्टि में एकमात्र शक्ति होते हुए भी चुपचाप अपना काम करते रहने वाले स्रष्टा की तरह ही बाबाजी भी विनम्र गुमनामी में अपना कार्य करते रहते हैं।
कृष्ण और क्राईस्ट के समान महान् अवतार इस धरातल पर किसी विशिष्ट और असाधारण परिणामदर्शी उद्देश्य के लिये अवतरित होते हैं और वह उद्देश्य पूरा होते ही वापस चले जाते हैं। बाबाजी जैसे अन्य अवतार इतिहास की किसी प्रमुख घटना से संबंधित कार्य को नहीं, बल्कि युग-युगों में धीरे-धीरे होने वाले मानवजाति के क्रमविकास से संबंधित कार्य को अपने हाथ में लेते हैं। ऐसे अवतार सदा ही जनसाधारण की स्थूल दृष्टि से ओझल रहते हैं और वे जब चाहे, अपनी इच्छानुसार अदृश्य होने की सामर्थ्य रखते हैं। इन कारणों से तथा साधारणतया वे अपने शिष्यों को अपने विषय में गुप्तता रखने का आदेश देते हैं, इसलिये अनेकानेक विराट् आध्यात्मिक महापुरुष संसार के लिये अज्ञात ही बने रहते हैं। मैं इस पुस्तक में बाबाजी के जीवन की एक हल्की-सी झलक मात्र दिखा रहा हूँ – केवल कुछ ऐसे तथ्यों का ही उल्लेख कर रहा हूँ, जिन्हें वे सार्वजनिक करने योग्य तथा सहायक मानते हैं।
बाबाजी के परिवार या जन्मस्थान के विषय में कभी किसी को कुछ पता नहीं चल पाया। इस मामले में इतिहास लेखकों को निराश ही होना पड़ेगा। साधारणतया वे हिन्दी में बोलते हैं, परन्तु किसी भी भाषा में आसानी से बोल लेते हैं। उन्होंने बाबाजी का सीधा सादा नाम ले लिया
है। लाहिड़ी महाशय के शिष्यों ने उन्हें श्रद्धा से जो अन्य नाम दिये हैं, वे हैं महामुनि बाबाजी महाराज, महायोगी तथा त्र्यंबक बाबा या शिव बाबा । एक पूर्ण मुक्त सिद्ध पुरुष का कुल-गोत्र क्या कोई महत्त्व रखता है ?
लाहिड़ी महाशय कहा करते थे: “जब भी कोई श्रद्धा के साथ बाबाजी का नाम लेता है, उसे तत्क्षण आध्यात्मिक आशीर्वाद प्राप्त होता है।”
अमर बाबाजी के शरीर पर आयु का कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होता। वे अधिक से अधिक पच्चीस वर्ष के युवक दिखते हैं। गौरवर्ण, मध्यम कद-काठी के बाबाजी के सुन्दर, बलिष्ठ शरीर पर सहज ही दिख पड़ने योग्य तेज है। नेत्र काले, शान्त और दयार्द्र हैं। उनके लम्बे चमकीले केश ताम्रवर्ण के हैं। कभी-कभी बाबाजी का चेहरा लाहिड़ी महाशय के चेहरे से मिलता-जुलता दिखायी देता है। कभी-कभी तो दोनों में इतनी स्पष्ट समरूपता दिखायी देती थी कि उत्तरवर्ती आयु में लाहिड़ी महाशय को कोई भी युवा दिखते बाबाजी के पिता समझ लेता।
मेरे सन्तवत् संस्कृत शिक्षक स्वामी केवलानन्दजी ने हिमालय में बाबाजी के साथ कुछ समय बिताया था।
उन्होंने मुझे एक दिन बतायाः “अद्वितीय महागुरु अपने शिष्यों के साथ पर्वतों में एक स्थान से दूसरे स्थान भ्रमण करते रहते हैं। उनकी छोटी-सी शिष्य मंडली में दो अत्यंत उन्नत अमेरिकी शिष्य भी हैं। किसी स्थान पर कुछ समय बिताने के बाद बाबाजी कहते हैं: 'डेरा डण्डा उठाओ।' वे अपने पास एक डण्डा रखते हैं। उनका यह आदेश अपनी मंडली के साथ तत्क्षण किसी दूसरे स्थान पर पहुँचने का संकेत होता है। वे हमेशा ही एक स्थान से अदृश्य होकर दूसरे स्थान पर प्रकट होने की इस पद्धति का उपयोग नहीं करते। कभी-कभी वे एक शिखर से दूसरे शिखर पर पैदल भी जाते हैं।
"जब बाबाजी की इच्छा होती है, तभी उन्हें कोई देख या पहचान पाता है। उन्होंने विभिन्न भक्तों को किंचित् से परिवर्तन के साथ भिन्नभिन्न रूपों में दर्शन दिया है कभी दाढ़ी-मूँछ के साथ, तो कभी दाढ़ीमूँछ के बिना। उनकी अक्षय देह के लिये किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, इसलिये कदाचित् ही कभी वे कुछ खाते हैं। हाँ, शिष्यों को जब वे दर्शन देते हैं, तब लौकिक शिष्टाचार के रूप में कभी-कभी फल या चावल की खीर स्वीकार कर लेते हैं।"
केवलानन्दजी बताते गये: "बाबाजी के जीवन की दो विस्मयकारी घटनाएँ मुझे ज्ञात हैं। एक रात उनके शिष्य वैदिक होम के लिये जल रही विशाल अग्नि ज्वालाओं को घेर कर बैठे थे। अचानक महागुरु ने एक जलती लकड़ी उठा ली और अग्नि के पास ही बैठे एक शिष्य के नंगे कंधे पर उससे हल्का-सा प्रहार किया।
"यह तो क्रूरता है, गुरुदेव!" वहाँ उपस्थित लाहिड़ी महाशय ने अपना विरोध प्रकट किया।
" 'अपने गतकर्मों के फलस्वरूप तुम्हारी आँखों के सामने वह पूरा जलकर राख हो जाता, तो क्या वह तुम्हें अच्छा लगता ?'
"इन शब्दों के साथ ही बाबाजी ने शिष्य के आहत कंधे पर अपना आरोग्यप्रद वरदहस्त रखा और कहा: 'आज रात मैंने तुम्हें पीड़ादायक मृत्यु के हाथों से मुक्त कर दिया है। अग्निदाहकी किंचित् सी पीड़ा अनुभव करने से तुम्हारा कर्मभोग मिट गया है।'
"एक अन्य अवसर पर एक अपरिचित व्यक्ति के आगमन से बाबाजी की पवित्र टोली की शान्ति थोड़ी सी भंग हो गयी। वह व्यक्ति गुरु के डेरे के निकट ही स्थित एक दुर्लघ्य पर्वत शिखर पर विस्मयकारी निपुणता के साथ चढ़ आया था।
" 'महाराज! अवश्य आप ही महान् बाबाजी हैं।' उस आदमी का चेहरा अवर्णनीय श्रद्धा और आदर से दमक रहा था। 'इन दुर्गम पर्वतों में मैं महीनों से आपकी तलाश में भटक रहा हूँ। आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि आप मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करें।'
"जब महागुरु ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, तो उस आदमी ने पर्वत शिखर के नीचे पत्थरों से भरी गहरी खाई की ओर हाथ दिखाकर कहाः ‘आप यदि मुझे स्वीकार नहीं करेंगे, तो मैं इस पर्वत से कूद पडूंगा। ईश्वर तक पहुँचने के लिये यदि मैं आपका मार्गदर्शन नहीं पा सकता, तो मेरे जीवित रहने का कोई अर्थ नहीं है।'
" 'तो कूद पड़ो,' बाबाजी ने निर्विकार रहते हुए कहा । 'उन्नति की तुम्हारी वर्तमान अवस्था में मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता।'
"उस मनुष्य ने तुरन्त अपने आप को नीचे झोंक दिया। स्तब्ध हुए शिष्यों को बाबाजी ने उसके शरीर को उठा लाने का आदेश दिया। जब शिष्यों ने वह क्षत-विक्षत शव लाकर उनके सामने रख दिया, तो बाबाजी ने उस पर अपना हाथ रखा। परम आश्चर्य! उस आदमी ने आँखें खोली और सर्वशक्तिमान गुरु के चरणों में साष्टांग लोट गया ।
" 'अब तुम शिष्य बनने के अधिकारी हो गये हो।' पुनरुज्जीवित चेले की ओर देखकर अत्यंत स्नेह से मुस्कराते हुए बाबाजी ने कहा 'तुमने साहस के साथ इस कठिन परीक्षा* में सफलता प्राप्त की है। अब मृत्यु कभी तुम्हारा स्पर्श नहीं करेगी। अब तुम हमारी अमर मंडली में शामिल हो गये हो।' फिर उन्होंने सदा की तरह प्रस्थान का आदेश दिया: 'डेरा डंडा उठाओ।' पूरा दल तत्क्षण उस पर्वत से अदृश्य हो गया।"
अवतारी पुरुष सर्वव्यापी ब्रह्मचैतन्य में निवास करता है; उसके लिये देश और काल का कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिये बाबाजी ने अपने स्थूल शरीर को जो शताब्दी-दर-शताब्दी बनाये रखा है, उसका केवल एक ही कारण है मानवजाति को उसकी अपनी सम्भावनाओं का ठोस उदाहरण प्रस्तुत करने की इच्छा। मनुष्य पर यदि रक्त-मांस के शरीर में ईश्वरत्व की झलक दिखाने की कृपा कभी न की जाय, तो वह हमेशा
माया के इसी भारी भ्रम में रहेगा कि वह अपनी मरणाधीनता पर कभी विजय नहीं पा सकता।
ईसा मसीह को शुरू से ही अपने जीवन में होने वाली घटनाओं का पूर्ण ज्ञान था। उन अनुभवों से वे गुजरे – अपनी खातिर नहीं, कर्मों की किसी विवशता के कारण नहीं, बल्कि केवल उन घटनाओं का मनन करके सीखने वाली मानवजाति के उत्थान की खातिर। उनके चार शिष्यों – मत्ती, मरकुस, लूका तथा यूहन्ना – ने उनकी अवर्णनीय लीला को भावी पीढ़ियों के लाभ के लिये लिखकर रखा।
बाबाजी के लिये भी भूत, वर्तमान, भविष्य आदि समय की परस्परसंबंधित अवस्थाओं का अस्तित्व नहीं है; प्रारम्भ से ही उन्हें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं का पूर्ण ज्ञान है। मनुष्यों की सीमित बुद्धि को ध्यान में रखकर ही उन्होंने अपने दिव्य जीवन की अनेक लीलाएँ एक या अधिक लोगों की उपस्थिति में ही करने का ध्यान रखा। इसी कारण जब बाबाजी ने शरीर की अमरता की सम्भावना को प्रकट करने का समय उपयुक्त समझा, तब लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य उस प्रसंग पर उपस्थित थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में रामगोपाल मजूमदार के सामने यह वचन दिया, ताकि अन्य जिज्ञासुओं को प्रेरणा देने के लिये यह बात बाद में सर्वविदित हो जाय। सिद्धजन केवल मानवजाति की भलाई के लिये ही अपने वचन बोलते हैं और सहज स्वाभाविक प्रतीत होने वाले घटनाक्रम में सम्मिलित होते हैं, जैसा कि ईसा मसीह ने कहा था: "हे परमपिता, मैं जानता था कि आप सदा ही मेरी बात को सुनते हैं, परन्तु मेरे आस-पास जो लोग खड़े हैं उनकी खातिर मैंने वैसा कहा, ताकि उन्हें विश्वास हो कि आपने ही मुझे भेजा है।"*
जब मैं रणबाजपुर में "निद्राजयी संत" रामगोपाल* के पास गया था, तब उन्होंने बाबाजी के साथ अपनी पहली भेंट की विस्मयजनक कहानी मुझे बतायी थी।
उन्होंने कहा था: “मैं कभी-कभी अपनी एकांत गुफा से बाहर निकल कर काशी में लाहिड़ी महाशय के चरणकमलों में जा बैठता था। एक दिन मध्यरात्रि को जब मैं उनके घर में उनके शिष्यों के बीच बैठकर चुपचाप ध्यान कर रहा था, तब गुरुदेव ने अचानक मुझे एक चकित कर देने वाला आदेश दिया।
“उन्होंने कहाः 'रामगोपाल! तुरन्त, इसी क्षण दशाश्वमेध घाट चले जाओ।'
"मैं तुरन्त उस निर्जन घाट पर पहुँच गया। चंद्रमा के प्रकाश और तारों की जगमगाहट से रात उजली थी। थोड़ी देर ही मैं वहाँ चुपचाप धीरज के साथ बैठा था, कि मेरा ध्यान अपने पाँवों के पास स्थित एक विशाल शिला की ओर आकृष्ट हुआ। वह शिला धीरे-धीरे ऊपर उठ रही थी और उसके नीचे एक भूमिगत गुफा दिखायी देने लगी। जब वह शिला हवा में स्थिर हो गयी, मानो किसी अज्ञात शक्ति ने उसे वहाँ पकड़ रखा हो, तब उस गुफा से एक अत्यंत लावण्यवती स्त्री बाहर आयी और हवा में ऊँची उठ गयी। एक शान्तिप्रद तेज में वह नारी मूर्ति वेष्टित थी। धीरेधीरे नीचे आकर वे मेरे सामने परमानन्द में मग्न, निश्चल खड़ी रहीं। आखिर उनमें हलचल हुई और वे अत्यंत सौम्य वाणी में बोलने लगींः
“ 'मैं बाबाजी की बहन माताजी* हूँ। मैंने बाबाजी को और लाहिड़ी महाशय को भी, आज रात एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने के लिये अपनी गुफा में बुलाया है।'
“एक प्रकाशपुंज गंगा के ऊपर तेजी से उड़ता हुआ आता दिखायी दिया। अपारदर्शी पानी में उसका प्रतिबिंब दिखायी दे रहा था। वह प्रकाश हम लोगों की ओर बढ़ता गया और कौंध कर चकाचौंध करता हुआ माताजी के पास आकर रुक गया और तुरन्त लाहिड़ी महाशय के मानव रूप में परिवर्तित हो गया। लाहिड़ी महाशय ने अत्यंत विनम्रता के साथ माताजी के चरणों में प्रणाम किया।
*(माताजी भी अनेकानेक शताब्दियों से जीवित हैं। आध्यात्मिक स्तर पर वे भी करीब-करीब अपने भाई के जितनी ही उन्नत हैं। वे दशाश्वमेध घाट के पास एक भूमिगत गुफा में समाधिस्थ रहती हैं।)
"मैं इस आश्चर्य से उभरा भी नहीं था, कि आश्चर्य का दूसरा धक्का मुझे लगा। गोल-गोल घूमता एक गूढ़ प्रकाशपुंज आकाश में मार्गक्रमण करता दिखायी देने लगा। तीव्र गति से नीचे आता हुआ अग्निगोले के समान वह तेजोपुंज हम लोगों के समीप आया और उसने एक अत्यंत सुन्दर युवक का रूप धारण कर लिया। तुरन्त ही समझ गया कि वे बाबाजी थे। उनका चेहरा लाहिड़ी महाशय जैसा ही था; परन्तु बाबाजी अपने शिष्य से कहीं अधिक युवा दिख रहे थे और उनके लम्बे, तेजस्वी केश थे।
"लाहिड़ी महाशय, माताजी और मैंने महागुरु के चरणों में प्रणाम किया। उनके दिव्य शरीर का स्पर्श करते ही मेरे शरीर का रोम-रोम स्वर्गीय अनुभूति एवं अवर्णनीय आनन्द से झंकृत हो उठा।
"बाबाजी ने कहाः हे कल्याणी! मैं अपने स्थूल शरीर को त्याग कर 'अनन्त प्रवाह' में विलीन हो जाने का विचार कर रहा हूँ।'
" 'पूज्य गुरुदेव! मैं आपके मन्तव्य का आभास पा चुकी हूँ और इसीलिये आज रात मैं इस पर आपके साथ विचार-विमर्श करना चाहती थी। आपको शरीर त्यागने की क्या आवश्यकता है?' यह कहते हुए वह स्वर्गीय तेजस्वितापूर्ण स्त्री उनकी ओर अनुरोध भरी दृष्टि से देखती रही।
'अपने ब्रह्मसागर में मैं दृश्य या अदृश्य तरंग को धारण करूँ, इससे क्या फर्क पड़ता है ?'
“माताजी ने विलक्षण वाक्पटुता का परिचय देते हुए कहाः 'मृत्युंजय गुरुदेव ! यदि कोई फर्क नहीं पड़ता, तो कृपा करके अपने शरीर का त्याग मत कीजिये।
'तथास्तु!' बाबाजी ने शान्त स्वर में कहा। "मैं अपने स्थूल शरीर का त्याग कभी नहीं करूँगा। इस पृथ्वी पर कम-से-कम कुछ लोगों के
लिये तो यह शरीर सदैव दृश्यमान रहेगा। तुम्हारे मुख से प्रभु ने अपनी
इच्छा व्यक्त की है।'
“मैं विस्मयविभोर होकर इन दिव्य विभूतियों का संवाद सुन रहा था। मुझपर अपनी कृपादृष्टि डालते हुए अमर महागुरु ने कहाः डरो मत, रामगोपाल! इस अमर वचन के साक्षी बन कर तुम धन्य हो गये हो।'
“मधुर संगीत-सा लगता बाबाजी का स्वर जब वातावरण में लीन हो गया, तो उनका और लाहिड़ी महाशय का शरीर धीरे-धीरे हवा में ऊपर उठ गया और गंगा के ऊपर से दोनों शरीर पीछे जाने लगे। दीप्तिमान प्रकाश के गोलों ने उनके शरीरों को घेर लिया और वे रात के आकाश में अदृश्य हो गये। माताजी का शरीर हवा में उठकर गुफा के पास गया और अन्दर उतर गया; शिला नीचे आ गयी और गुफा के मुँह पर बैठ गयी, जैसे किन्हीं अदृश्य हाथों ने उसे वहाँ रख दिया हो।
“असीम प्रेरणा से ओतप्रोत होकर मैं लाहिड़ी महाशय के घर वापस गया। उस समय भोर हो रही थी। जब मैंने लाहिड़ी महाशय के चरणों में प्रणाम किया, तो वे मेरे मन के भाव जानते हुए मेरी ओर देखकर मुस्कराये।
“उन्होंने कहा: 'तुम्हारे लिये मैं बहुत खुश हूँ, रामगोपाल! तुमने प्राय: बाबाजी और माताजी के दर्शन की इच्छा मेरे पास व्यक्त की थी। आज अत्यंत सुन्दर तरीके से तुम्हारी वह इच्छा पूरी हो गयी।'
"वहाँ बैठे अपने गुरुभाइयों से मुझे पता चला कि मेरे जाने के बाद लाहिड़ी महाशय अपने आसन से हिले भी नहीं थे।
“'तुम्हारे दशाश्वमेध घाट को चले जाने के बाद उन्होंने अमरत्व पर एक अत्यंत सुन्दर प्रवचन दिया,' एक शिष्य ने मुझे बताया। उस दिन पहली बार मुझे शास्त्रों के उन वचनों की सत्यता की प्रतीति हुई, जिनमें कहा गया है कि आत्मदर्शी पुरुष एक ही समय विभिन्न स्थानों में दो या उससे अधिक शरीरों में भी प्रकट हो सकता हैं।
रामगोपाल ने अपनी बात का समापन करते हुए कहा: “बाद में लाहिड़ी महाशय ने इस पृथ्वी के लिये ईश्वर की गुप्त योजना से संबंधित अनेक आधिभौतिक तत्त्वों को मुझे स्पष्ट कर बताया। ईश्वर ने बाबाजी को इस वर्तमान कल्प के अंत तक इस संसार में सशरीर रहने के लिये चुना है। युग पर युग आयेंगे और जायेंगे, परन्तु मृत्युंजय महागुरु* युगों के नाटक का अवलोकन करते हुए इस विश्व - रंगमंच पर उपस्थित रहेंगे।
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* " यदि कोई मनुष्य मेरे उपदेश का पालन करेगा (क्राईस्ट चैतन्य या कूटस्थ चैतन्य में अखण्ड रहेगा), तो वह कभी नहीं मरेगा।" यूहन्ना ८:५१ (बाइबिल)।
इस वचन से ईसा मसीह का अभिप्राय स्थूल देह के अमर जीवन से नहीं था, क्योंकि यह तो एक ही ढर्रे के जीवन का उकता देने वाला कारावास होगा, जो किसी पापी को भी कोई देना नहीं चाहेगा, संतों की तो बात हो दूर रही! ईसा मसीह यहाँ जिस मनुष्य की बात कर रहे हैं, वह आत्मदर्शी पुरुष की बात है, जो शाश्वत जीवन के अज्ञान की महानिद्रा से जाग गया हो। (प्रकरण ४३ देखें)
मानव मूलतः निराकार सर्वव्यापी आत्मा है। उसका शरीर में आबद्ध होने पर विवश होना उसकी अविद्या या अज्ञान का परिणाम है। हिंदू शास्त्र कहते हैं कि जन्म और मृत्यु माया की
अभिव्यक्तियाँ हैं। केवल माया के सापेक्ष जगत् में हो जन्म और मृत्यु का कोई अर्थ बनता है। बाबाजी स्थूल शरीर या इस पृथ्वी से आबद्ध नहीं हैं, बल्कि ईश्वर की इच्छा से वे पृथ्वी के लिये एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये कार्यरत हैं।
स्वामी प्रणवानन्दजी जैसे महान सिद्ध पुरुष नये शरीर में जो पृथ्वी पर लौट आते हैं, उसका कारण वे स्वयं हो जानें इस जगत् में उनका पुनर्जन्म कर्मों के कठोर नियमों के फलस्वरूप नहीं होता। ऐसे स्वैच्छिक पुनर्जन्म को व्युत्थान कहते हैं, अर्थात् मायापाश से मुक्त होने के बाद फिर से इहलौकिक जीवन में प्रवेश।
पूर्ण ईश्वर साक्षात्कारी सिद्ध के देहांत का तरीका कोई भी हो, उनकी मृत्यु चाहे सामान्य हो या लोमहर्षक, वह अपने शरीर को पुनरुज्जीवित कर फिर से पृथ्वीवासियों के सामने प्रकट होने की सामर्थ्य रखता है। जिसके सौर मंडलों की गणना करना भी असंभव है, उस परमात्मा के साथ एक हुए व्यक्ति के लिये स्थूल शरीर के अणु-परमाणुओं को मूर्त रूप देना कोई बड़ी बात नहीं है।
ईसा मसीह ने कहा था: “मैं अपना जीवन स्वयं ही छोड़ रहा हूँ, ताकि मैं उसे फिर से ले सकूँ। इसे कोई भी मुझसे छीन नहीं रहा है, परन्तु मैं स्वयं ही इसे छोड़ रहा हूँ। मुझमें इसे छोड़ने की शक्ति है और मुझमें इसे फिर से लेने की भी शक्ति है।" यूहन्ना १०:१७-१८ (बाइबिल)।