Ek Yogi ki Aatmkatha - 30 in Hindi Spiritual Stories by Ira books and stories PDF | एक योगी की आत्मकथा - 30

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एक योगी की आत्मकथा - 30

{ चमत्कारों का नियम }

महान उपन्यासकार लियो टालस्टाय¹ ने एक अत्यंत रोचक कथा लिखी थी– “वैरागी।” उनके मित्र निकोलस रोरिच ने उसे संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत कियाः–

“एक द्वीप पर तीन वृद्ध वैरागी रहते थे। वे इतने भोले-भाले थे कि उन्हें केवल एक ही प्रार्थना आती थीः ‘हम तीन हैं, तू (ईश्वर) तीन है – हम पर दया कर!’ इस अत्यन्त सीधी-सादी, भोली प्रार्थना के समय महान चमत्कार प्रकट होते थे।

“वहाँ के बिशप² ने इन तीन वैरागियों और उनकी अस्वीकार्य प्रार्थना के बारे में सुना और उसने उन्हें धर्मनियमों के अनुसार अधिकृत प्रार्थना सिखाने के लिये उनके पास जाने का निश्चय किया। उसने उस द्वीप पर पहुँचकर वैरागियों को बताया कि उनकी प्रार्थना अत्यंत अशोभनीय है, और फिर उसने उन्हें कुछ प्रचलित प्रार्थनाएँ सिखायीं। उसके बाद बिशप एक नाव पर सवार होकर चल पड़े। उसने नाव के पीछे आते एक दीप्तिमान प्रकाश को देखा। जब वह प्रकाश निकट आया तो उसने उस प्रकाश में उन तीन वैरागियों को देखा, जो एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए नाव की बराबरी में आने के लिये पानी की लहरों पर दौड़ रहे थे।

“जब वे बिशप के पास पहुँचे, तो उन्होंने चिल्लाकर उससे कहाः ‘आपने हमें जो प्रार्थनाएँ सिखायी थीं, वे सब हम भूल गये हैं और इसीलिये आपसे यह अनुरोध करने के लिये दौड़े-दौड़े आये हैं कि आप फिर से हमें वह प्रार्थनाएँ सिखा दें।’ विस्मयविभोर बिशप ने सिर हिलाया।

विनम्रतापूर्वक उसने उनसे कहा: “प्रियजनों! अपनी पुरानी प्रार्थना ही जारी रखें!”

ये तीन वैरागी पानी पर कैसे चल सके ?

ईसा मसीह सूली पर लटके मृत शरीर को पुनरुज्जीवित कैसे कर सके ?

लाहिड़ी महाशय और श्रीयुक्तेश्वरजी अपने चमत्कार कैसे कर सके ?

आधुनिक विज्ञान के पास अभी तक इसका कोई उत्तर नहीं है; जब कि अणु युग के आने से विश्व मानस के कार्यक्षेत्र और उसके ज्ञान में अत्यधिक वृद्धि भी हो गयी है। मनुष्य की शब्दावली में अब “असंभव” शब्द धीरे-धीरे महत्त्वहीन होने लगा है।

वेदशास्त्र कहते हैं कि भौतिक जगत माया के एक ही मूल सिद्धान्त के अन्तर्गत कार्य करता है – सापेक्षता और द्वैत का सिद्धान्त। समस्त जीव सृष्टि एकमात्र ईश्वर ही है और वह अखंड, निरपेक्ष एकत्व है। सृष्टि की पृथक और भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियों में प्रकट होने के लिये वह झूठा या अवास्तविक चोला पहन लेता है। यह झूठा, द्वित्व प्रदान करने वाला चोला ही माया³ है। आधुनिक काल के अनेक बड़े-बड़े वैज्ञानिक आविष्कारों से प्राचीन ऋषियों की इस सरल घोषणा की पुष्टि होती है।

न्यूटन का गति का सिद्धान्त माया का ही एक नियम है “प्रत्येक क्रिया के लिये उसके समतुल्य विपरीत प्रतिक्रिया होती है; किन्हीं भी दो पिंडों की एक-दूसरे पर क्रियाएँ सदैव समतुल्य और परस्पर विरोधी दिशाओं में लक्षित होती हैं।” इस प्रकार क्रिया और प्रतिक्रिया सर्वस्वी समतुल्य होती है। “केवल एक ही शक्ति का होना असंभव है। समतुल्य और परस्पर विरोधी शक्तियों की जोड़ी होनी ही चाहिये और सदा रहती ही है।”

प्रकृति की मूलभूत क्रियाएँ अपनी माया-मूलकता का ही परिचय देती हैं। उदाहरण के लिये, विद्युत्शक्ति आकर्षण और विकर्षण के कारण निर्मित होती है; उसके इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन परस्पर विरोधी विद्युत् आवेग हैं। दूसरा उदाहरण: अणु, अर्थात पदार्थ की सूक्ष्मतम कणिका स्वयं पृथ्वी की तरह ही धनात्मक और ऋणात्मक (Positive and Negative) ध्रुवों से युक्त एक चुम्बक है। यह समस्त गोचर जगत् ध्रुवता के प्रभाव में है; भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र या किसी भी अन्य विज्ञान का कोई भी नियम कभी अंतर्निहित परस्पर विरोधी तत्त्वों से मुक्त नहीं मिलता।

अतः भौतिक विज्ञान माया के बाहर के किसी नियम का सूत्र नहीं बना सकता। सृष्टि का मूल ताना-बाना ही माया है, उसकी मूल रचना ही माया है। स्वयं प्रकृति माया है; प्राकृतिक विज्ञान के पास केवल प्रकृति के अपरिहार्य सारभूत तत्त्वों का ही अध्ययन और उन्हीं का प्रयोग करने के सिवा और कोई चारा ही नहीं है। अपने क्षेत्र में प्रकृति शाश्वत और अपार है; भावी वैज्ञानिक उसकी विविधरूपी अनन्तता के एक के बाद एक पहलू की खोज करते जाने से अधिक कुछ नहीं कर पायेंगे। विज्ञान इस प्रकार सदा के लिये परिवर्तनों के क्रम से ही गुजरता रहेगा और अंतिम कारण तक कभी नहीं पहुँच पायेगा; पहले से ही अस्तित्व में आये हुए और कार्य करते हुए ब्रह्माण्ड के नियमों का पता लगाने की तो उसमें क्षमता है परन्तु नियम बनाने वाले विधाता और कार्य चलाने वाले जगन्नियंता को ढूंढ पाने में वह असमर्थ है! गुरुत्वाकर्षण और विद्युत् शक्ति के तेजस्वी प्रदर्शनों का तो पता चल गया, परन्तु गुरुत्वाकर्षण और विद्युत् शक्ति क्या है, कोई मानव नहीं जानता।⁴

सहस्राब्दियों से अवतारों और सद्गुरुओं ने मानवजाति को माया से ऊपर उठने का कार्य दे रखा है। सृष्टि के द्वैत् से ऊपर उठकर उसके पीछे विद्यमान स्रष्टा की अखंड एकता को पहचानना ही मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य माना गया। जो माया में लिप्त रहते हैं, उन्हें उसके ध्रुवता नियम को स्वीकार करना ही होगा: ज्वार-भाटा, उत्थान-पतन, दिन-रात, सुख-दुःख, अच्छा-बुरा, जन्ममृत्यु। कुछ हजार मानवजन्मों से गुज़रने के बाद मनुष्य को इन आवृत्तियों की यह नियमबद्ध क्रमशीलता पीड़ादायक और नीरस प्रतीत होने लगती है; तब वह मायाजनित विवशताओं से परे आशापूर्ण दृष्टि डालने लगता है।

माया के परदे को हटाने का ही अर्थ है सृष्टि के रहस्य को अनावृत्त करना। जो इस प्रकार सृष्टि का अनावरण कर देता है, केवल वही सच्चा अद्वैत्वादी है। अन्य सब केवल मूर्तिपूजक हैं। जब तक मनुष्य प्रकृति की द्वयात्मक भ्रान्तियों में उलझा रहता है, तब तक छल-कपटी माया ही उसकी आराध्य देवी होती है और वह एकमात्र सच्चे ईश्वर को नहीं जान सकता।

विश्व-माया मनुष्यों में अविद्या (अज्ञान, भ्रम) के रूप में प्रकट होती है। माया या अविद्या को बौद्धिक विश्वास या विश्लेषण के द्वारा कभी नष्ट नहीं किया जा सकता; केवल निर्विकल्प समाधि की आंतरिक स्थिति की प्राप्ति से ही उसे नष्ट किया जा सकता है। ‘ओल्ड टेस्टामेन्ट’ (बाइबिल का पूर्व भाग) के सब सन्तों तथा सभी देशों और युगों के द्रष्टाओं ने चेतना की उसी अवस्था से उपदेश दिया था।

एज़ेकिएल⁵ ने कहा था: “बाद में वह मुझे दरवाजे के पास ले आया, यह दरवाजा पूर्वाभिमुख था और मैंने देखा, इजरायल के भगवान का दिव्य तेज पूर्व दिशा से आया, उसकी ध्वनि पानी की तेज बहती अनेक धाराओं के समान थी और पृथ्वी उसके तेज के आलोक में नहा उठी।” योगी अपनी चेतना को ललाट (पूर्व दिशा) में स्थित दिव्य चक्षु में से ले जाकर सर्वव्यापकता में पहुँचाता है। जब वह यह कर रहा होता है, तब उसे ओम् की “पानी की तेज बहती अनेक धाराओं के समान” ध्वनि सुनायी देती है, जो सृष्टि की एकमात्र वास्तविकता के प्रकाश के स्पन्दनों के कारण होती है।

सृष्टि के अरबों-खरबों रहस्यों में सबसे विलक्षण रहस्य है प्रकाश। ध्वनि तरंगों के संचरण के लिये तो हवा या अन्य किसी भौतिक माध्यम की आवश्यकता होती है, परन्तु प्रकाश तरंगें नाभिकीय पिंडों के बीच के निर्वात से भी सरलतापूर्वक संचार करती हैं। तरंग सिद्धान्त में जिस काल्पनिक ईथर को नाभिकीय पिंडों के बीच के शून्य में प्रकाश का माध्यम माना जाता है, उसे भी आइन्स्टाइन के इस मत के कारण हटा दिया जा सकता है कि अंतरिक्ष के ज्यामितीय गुणधर्म ईथर की कल्पना को अनावश्यक बना देते हैं। इन दोनों में से किसी भी प्रमेय को मानें, तब भी प्रकृति की समस्त अभिव्यक्तियों में प्रकाश ही सबसे सूक्ष्म और भौतिक अवलम्बन से सर्वाधिक मुक्त है।

आइन्स्टाइन की असाधारण अवधारणाओं के अनुसार सापेक्षता सिद्धान्त में प्रकाश की गति (१,८६,३०० मील प्रति सेकण्ड) सबसे महत्त्वपूर्ण है। वे गणित द्वारा सिद्ध करते हैं कि जहाँ तक मानव के सीमित मन का संबंध है, इस नित्य परिवर्त्तनशील ब्रह्माण्ड में केवल प्रकाश की गति ही अपरिवर्तनशील है, कि केवल वही निरपेक्ष स्थिरांक है। केवल प्रकाश के इस निरपेक्ष स्थिरांक पर ही मनुष्य के समय एवं दूरी के सारे मापदण्ड निर्भर हैं। अब तक दुर्बोध रूप से शाश्वत समझे जाने वाले समय और दूरी (काल और देश) भी सापेक्ष और सीमित घटक हैं। उनके माप का औचित्य केवल प्रकाश गति के संदर्भ में है।

परिमाणात्मक सापेक्षता ( dimensional relativity) में अंतरिक्ष के साथ समय के आ जाने से समय का सच्चा स्वरूप भी सामने आ गया है: कि वह केवल संदिग्धता के अलावा कुछ नहीं। कुछ ही समीकरणों को प्रस्तुत कर आइन्स्टाइन ने एक प्रकाश को छोड़कर विश्व के सारे तथाकथित निश्चित तथ्यों का उन्मूलन कर दिया।

बाद में जब आइन्स्टाइन ने अपना एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त (Unified Field Theory) प्रस्तुत किया तो उसमें उन्होंने एक ही गणितीय सूत्र में गुरुत्वाकर्षण नियम तथा विद्युत् चुंबकत्व नियम को अन्तर्भूत करने का प्रयास किया। इस प्रकार ब्रह्माण्ड की रचना को एक ही नियम के प्रकारान्तर के सिद्धान्त में ला कर आइन्स्टाइन युग-युगों को पार कर उन ऋषियों की श्रेणी में जा पहुँचे हैं जिन्होंने सृष्टि का एक ही आधार होने की घोषणा की थीः नित्य परिवर्तनशील माया।⁶

इस युगान्तरकारी सापेक्षता सिद्धान्त से सूक्ष्मतम परमाणु के अनुसंधान की गणितीय सम्भावनाएँ जाग उठी हैं। अब बड़े-बड़े वैज्ञानिक दृढ़ता के साथ न केवल यह कहने की हिम्मत कर रहे हैं कि अणु पदार्थ नहीं बल्कि शक्ति है, वरन् वे यह भी कह रहे हैं कि आण्विक ऊर्जा का स्वरूप मूलतः मनोमय है।

सर आर्थर स्टैनले एडिंगटन द नेचर ऑफ द फिजिकल वर्ल्ड⁷ (भौतिक विश्व का स्वरूप) नामक पुस्तक में लिखते हैं: “यह बात अब पूरी तरह समझ में आ चुकी है कि भौतिक विज्ञान केवल परछाइयों के जगत् से संबंधित है और यही अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति है। भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में हम परिचित जीवन-नाट्य की परछाइयों के खेल मात्र का अवलोकन करते हैं। मेरे हाथ की छाया टेबल की छाया पर टिकी हुई है और स्याही की छाया कागज़ की छाया पर अंकित हो रही है। यह सब प्रतीकात्मक है और भौतिक विज्ञानी इसे प्रतीक के रूप में ही रहने देता है। परन्तु रसायनशास्त्री मन प्रतीकों को उनके मूल स्वरूप में परिवर्तित कर देता है मोटे तौर पर इस सब का निष्कर्ष यह निकलता है कि इस जगत् का सारा प्रपंच केवल मनोमय (मन जिस तत्त्व से बना है, उसी तत्त्व से बना) है।”

हाल में बनाये गये इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से यह निश्चित प्रमाण मिल चुका है कि परमाणुओं का मूल स्वरूप प्रकाश है और प्रकृति में द्वैत् अनिवार्य है। द न्यू यॉर्क टाइम्स ने “अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवान्समेन्ट ऑफ साइन्स” की एक सभा के समक्ष १९३७ में दिखाये गये इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के एक प्रयोग का विवरण इस प्रकार प्रकाशित किया था:

अब तक क्ष-किरणों द्वारा परोक्ष रूप से ही जाने जा सकने वाले टंगस्टन की रचना का रवेदार (Crystalline) स्वरूप एक प्रतिदीप्त पर्दे पर स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ जिसमें नौ अणु अपने अपने अचूक स्थानों में स्थित दिखायी दे रहे थे। अणुओं की यह रचना त्रिघाती आकार में थी जिसमें त्रिघात के हर कोने में एकएक अणु था तथा केन्द्र में एक पर्दे पर दिखायी दे रही टंगस्टन की केलास (Crystal lattice) में स्थित अणु प्रकाश बिन्दुओं के रूप में दिखायी दे रहे थे जो एक विशिष्ट ज्यामितीय रचना में स्थित थे। केलास के इस प्रकाश के त्रिघात (Cube) के चारों ओर हवा के अणु पानी पर झिलमिलाती सूर्य किरणों के समान नाचते प्रकाश बिन्दुओं के रूप में दिखायी दे रहे थे।.......

न्यू यॉर्क की बेल टेलिफोन लैबोरेटरीज के डॉ. क्लिन्टन जे. डेविसन तथा डॉ. लेस्टर एच. जर्मर ने १९२७ में सर्वप्रथम इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के सिद्धान्त का आविष्कार किया जिन्होंने यह देखा कि इलेक्ट्रॉन के अस्तित्व के दो पहलु हैं: उसमें स्वतन्त्र कण के भी गुण हैं और तरंग के भी गुण हैं।⁸ तरंग-गुणों के कारण ही इसमें प्रकाश का स्वभाव है। और ੳइस खोज के साथ ही किसी ऐसी युक्ति की खोज शुरू हुई जिससे इलेक्ट्रॉनों को एक बिन्दु पर “फोकस” किया जा सके जैसे लेन्स के माध्यम से प्रकाश को फोकस किया जाता है।

इलेक्ट्रॉन की द्विमुखी गुणात्मकता के आविष्कार के लिये, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि समस्त भौतिक जगत् द्विगुणात्मक है, डॉ. डेविसन को भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

“द मिस्टिरियस युनिवर्स”⁹ ‘रहस्यपूर्ण ब्रह्माण्ड’ में सर जेम्स जीन्स लिखते हैं: “ज्ञान का प्रवाह अब यंत्रविहीन वास्तविकता की ओर बहने लगा है; अब ब्रह्माण्ड एक विराट् यंत्र नहीं, बल्कि एक विराट् विचार प्रतीत होने लगा है।”

इस प्रकार बीसवीं सदी का विज्ञान प्राचीन वेदों की भाषा बोलने लगा है।

अतः यदि आध्यात्मिक शिक्षा द्वारा नहीं, तो विज्ञान द्वारा ही सही, मनुष्य को यह दार्शनिक सत्य समझ लेना चाहिये कि भौतिक जगत् नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। उसका ताना-बाना भी केवल भ्रम है, माया है। विश्लेषण करने पर उसकी सत्यता की मृगमरीचिकाएँ विलुप्त हो जाती हैं। भौतिक जगत् की सत्यता के प्रति आश्वस्त करने वाले आधार जैसे-जैसे मनुष्य के सामने ढहने लगते हैं, वैसे-वैसे मिथ्या जगत् में आस्था रखने की अपनी भूल का उसे कुछ-कुछ एहसास होने लगता है और यह बात भी उस की समझ में कुछ-कुछ आने लगती है कि उसने प्रभु की उस आज्ञा का उल्लंघन किया है कि “तुम मेरे सिवा और किसी को ईश्वर नहीं मानोगे।”¹⁰

पदार्थ के वस्तुमान (Mass) और ऊर्जा (Energy) की समतुल्यता दर्शाने वाले अपने सुविख्यात समीकरण में आइन्स्टाइन ने यह सिद्ध किया है कि पदार्थ के किसी भी कण में निहित ऊर्जा उसके वस्तुमान या वजन के साथ प्रकाशगति के वर्ग के गुणनफल के बराबर होती है। पदार्थ-कणों के विनाश द्वारा आण्विक ऊर्जाओं को मुक्त किया जाता है। पदार्थ की "मृत्यु" ने एक आण्विक युग को जन्म दिया है।

गणित में प्रकाशगति इसलिये प्रतिमान या स्थिरांक नहीं है कि १,८६,३०० मील प्रति सेकण्ड की संख्या स्वयंपूर्ण है, बल्कि इसलिये है कि कोई भी पदार्थ पिण्ड कभी उस गति को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी गति के साथ उसका वस्तुमान (Mass) बढ़ता जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो केवल ऐसा पदार्थ पिण्ड प्रकाश की गति के साथ जा सकता है जिसका वस्तुमान अनन्त हो।

यह संकल्पना हमें चमत्कारों के नियम के द्वार पर ला कर खड़ा कर देती है।

जो सिद्धजन अपने शरीर को तथा अन्य वस्तुओं को प्रकट या अदृश्य कर देने की, प्रकाश की गति से संचार करने की और सृजनक्षम प्रकाश किरणों का उपयोग कर किसी भी वस्तु को तत्क्षण मूर्त रूप देने की शक्ति रखते हैं, उन्होंने इस विहित शर्त को पूरा कर दिया होता है उनका वस्तुमान अनन्त होता है।

सिद्ध योगी की चेतना उसके छोटे से शरीर से बंधी न रह कर अनायास ही ब्रह्माण्ड की रचना के साथ तद्रूप हो जाती है। गुरुत्वाकर्षण के कारण सभी भौतिक पदार्थ भारयुक्त होते हैं, परन्तु यह गुरुत्वाकर्षण, फिर चाहे न्यूटन उसे “शक्ति” कहें या आइन्स्टाइन उसे “जड़ता की अभिव्यक्ति” कहें, किसी सिद्ध को भार का गुणधर्म व्यक्त करने के लिये विवश करने में असमर्थ है। जो अपने को सर्वव्यापी परमतत्त्व के रूप में जान जाता है, वह फिर काल और देश की सीमा में आबद्ध नहीं रहता। आबद्ध कर रखने वाली सीमाओं के सारे घेरे अहं ब्रह्मास्मि के तेज में विलुप्त हो जाते हैं।

“प्रकाश हो! और प्रकाश हो गया।”¹¹ सृष्टि की रचना में ईश्वर के प्रथम आदेश से सृष्टि का आधार तत्त्व प्रकाश अस्तित्व में आ गया। इस अलौकिक माध्यम (प्रकाश) की किरणों पर ही ईश्वर की सारी अभिव्यक्तियाँ मूर्त होती हैं। प्रत्येक युग के संतों ने अग्निशिखा और प्रकाश के रूप में ईश्वर के प्रकट होने की बात कही है। सेन्ट जॉन कहते हैं: “उसकी आँखें अग्निज्वालाओं के समान थीं और उसका रूप ऐसा था मानों सूर्य अपने पूरे तेज के साथ चमक रहा हो।¹²

जो योगी अखण्ड ध्यान द्वारा अपनी चेतना को परम चैतन्य में विलीन कर देता है, वह प्रकाश (प्राणशक्ति स्पन्दन) को सृष्टि के आधार तत्त्व के रूप में देखता है। उसके लिये फिर पानी बन कर सामने आने वाली प्रकाश किरणों में और जमीन बन कर सामने आने वाली प्रकाश किरणों में कोई अन्तर नहीं होता। पदार्थ-चेतना से और भौतिक जगत् के तीन आयामों से तथा काल के चौथे आयाम से मुक्त होकर सिद्ध पुरुष अपने प्रकाश शरीर को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु की प्रकाश किरणों के बीच से या उनके ऊपर से आसानी के साथ कहीं भी ले जा सकता है।

“इसलिये यदि तुम्हारी आँख एक हो जाये, तो तुम्हारा सारा शरीर प्रकाश से भर जायेगा।”* मुक्ति प्रदायक ज्ञान चक्षु पर लम्बे समय तक मन को एकाग्र करने से योगी भौतिक जगत् और उसके गुरुत्वाकर्षणजन्य भार के समस्त भ्रमों को नष्ट करने में समर्थ हो जाता है। तब वह सृष्टि को उसी रूप में देखता है, जिस रूप में विधाता ने उसकी रचना की थी: तत्त्वतः विभेदहीन प्रकाश ।

हार्वर्ड के डॉ. एल. टी. ट्रोलैण्ड कहते हैं: “आँखों में उभरने वाले चित्रों की रचना भी छपाई में इस्तेमाल की जाने वाली साधारण बिन्दु-चित्र (half tone) तकनीक के सिद्धान्त पर ही आधारित होती है; अर्थात् ये चित्र ऐसे छोटे-छोटे बिन्दुओं से बने होते हैं जिन्हें आंखों से देखा नहीं जा सकता....... नेत्र पटल (Retina) इतना संवेदनक्षम है कि उचित प्रकार के प्रकाश की अपेक्षाकृत थोड़ीसी मात्रा से भी दृष्टि संवेदन जागृत हो सकता है।”

चमत्कारों के नियम को ऐसा कोई भी मनुष्य कार्यान्वित कर सकता है जिसने यह अनुभव कर लिया हो कि सृष्टि प्रकाश से ही बनी है, अर्थात् सृष्टि का मूल तत्त्व प्रकाश है। सिद्ध पुरुष प्रकाश तत्त्व के अपने दिव्य ज्ञान का उपयोग सर्वव्यापी प्रकाश अणुओं को किसी भी इन्द्रिय-गोचर अभिव्यक्ति में तत्काल प्रकट करने के लिये कर सकता है। इस प्रकटीकरण के प्रत्यक्ष रूप (वह जो भी होः कोई वृक्ष या कोई औषधी या कोई मानव शरीर) का निर्धारण योगी की इच्छा तथा उसकी संकल्प शक्ति और मानस चित्रण पर निर्भर होता है।

रात में मनुष्य स्वप्न-चैतन्य में प्रवेश करता है और प्रतिदिन उसे हर तरफ से आबद्ध कर रखने वाली अहंकार की सीमाओं से मुक्त हो जाता है। नींद में उसे अपने मन की सर्वशक्तिमत्ता का बार-बार प्रदर्शन देखने को मिलता है। देखते ही देखते स्वप्न में अनेक वर्षों पूर्व मृत हो गये उसके मित्र प्रकट हो जाते हैं, दूर से दूर स्थित महाद्वीप भी दिखायी देने लगते हैं, उसके बचपन के दृश्य पुनः उभर कर उसकी दृष्टि के सामने आ जाते हैं।

सभी मनुष्यों को अपने कुछ स्वप्नों में थोड़े समय के लिये अनुभव होने वाली यह मुक्त और अप्रतिबन्धित चेतना ईश्वरमग्न संत के मन की नित्य अवस्था होती है। सभी प्रकार के स्वार्थी उद्देश्यों से मुक्त हुआ योगी ईश्वर द्वारा उसे दी गयी सृजनात्मक इच्छाशक्ति का उपयोग कर भक्त की सच्ची प्रार्थना को पूर्ण करने के लिये सृष्टि के प्रकाश अणुओं को पुनः व्यवस्थित करता है।

“और परमेश्वर ने कहा, हम अपने लक्षणों से युक्त मनुष्यों को बनाएँ, उसे अपनी प्रतिमूर्ति बनाएँ और वह समुद्र की मछलियों पर, हवा के पक्षियों पर, घरेलु पशुओं पर और सारी पृथ्वी पर तथा पृथ्वी पर रेंगने वाले सब जीव-जन्तुओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित करे। (उत्पति १:२६ (बाइबिल)।)

इसी उद्देश्य से मनुष्य और सृष्टि को बनाया गया था कि वह सृष्टि पर अपने प्रभुत्व को जाने और माया का स्वामी बनकर उससे ऊपर उठे।

१९१५ में संन्यास लेने के कुछ ही दिन बाद मैंने ध्यान में एक बड़ा ही विचित्र दृश्य देखा। उस अनुभव से मानव चेतना की सापेक्षता मेरी समझ में आ गयी और माया के दुःखद द्वैतों के पीछे मैंने अनन्त प्रकाश की अखंडता स्पष्ट देखी। यह अनुभव मुझे तब हुआ जब एक दिन सुबह मैं पिताजी के गड़पार रोड स्थित मकान में अपनी छोटी सी अटारी में ध्यानस्थ बैठा था। उस समय कई महीनों से यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था जिसमें हो रहे विशाल नरसंहार पर मैं मन ही मन दुःखी हो रहा था।

जब मैं आंखें बन्द कर ध्यान में बैठा था, तब अचानक मेरी चेतना एक युद्धपोत के कप्तान के शरीर में संक्रमित हो गयी। जहाज़ की तोपें और समुद्र तट पर स्थित तोपखाना एक दूसरे पर गोले दाग रहे थे और उनकी गगनभेदी आवाज़ से वातावरण जैसे फटा जा रहा था। एक बहुत बड़ा गोला आकर हमारे बारूद भण्डार से टकराया और हमारा जहाज़ तहस-नहस हो गया। जो थोड़े बहुत नाविक इस विस्फोट में बच गये थे, उनके साथ मैं समुद्र में कूद पड़ा।

धड़कते हृदय के साथ मैं किनारे पर सुरक्षित पहुँच गया। परन्तु हाय ! कहीं से तीव्र गति के साथ आती हुई एक गोली सीधी मेरी छाती में घुस गयी। कराहते हुए मैं जमीन पर गिर पड़ा। मेरा पूरा शरीर सुन्न हो गया परन्तु मुझे उसके अस्तित्व का भान था, ठीक वैसे ही जैसे एक पैर के सुन्न हो जाने पर मनुष्य को उसका भान रहता है।

“मृत्यु के गुप्त कदम आखिर मुझ तक पहुँच ही गये,” मैंने सोचा। एक आखरी निःश्वास छोड़कर मैं मूर्छा में डूबने ही वाला था कि अचानक मैंने देखा मैं तो गड़पार रोड पर अपने कमरे में पद्मासन में बैठा हूँ !

मैं अपने पुनःप्राप्त शरीर को टटोल-टटोल कर और चिकोटी काटकाट कर देखने लगा और मेरे नेत्रों से आनंदातिरेक के अश्रु बहने लगे। इस शरीर में छाती में गोली का कोई घाव नहीं था। अपने आप को आश्वस्त करने के लिये कि मैं सचमुच ज़िन्दा हूँ, मैंने शरीर को आगे पीछे हिलायाडुलाया, लम्बी-लम्बी साँसें लीं। इस हर्षोत्फुल्लता और आत्मबधाई के बीच ही अचानक मेरी चेतना फिर से उस रक्तरंजित समुद्रतट पर पड़े कसान के शव में संक्रमित हो गयी। मेरा मन पूरी तरह उलझन में पड़ गया।

मैं प्रार्थना करने लगाः “प्रभु! मैं मृत हूँ या जीवित ?”

समस्त क्षितिज प्रकाश से दीप्तिमान हो उठा। मृदु गर्जन करता एक कम्पन शब्द बनकर सुनायी देने लगाः

“जीवन या मृत्यु का प्रकाश के साथ क्या संबंध? अपने प्रकाश की मूर्ति के रूप में मैंने तुम्हें बनाया है। जीवन और मृत्यु के द्वन्द्वों का सम्बन्ध केवल माया से है। अपने मायातीत स्वरूप को देखो! जागो, मेरे बच्चे, जागो।”

मानव की जागृति के क्रम में ईश्वर यथा समय और यथा स्थान वैज्ञानिकों को अपनी सृष्टि के रहस्यों को जानने के लिये प्रेरित करता है। अनेक आधुनिक आविष्कार इस बात को समझने में मानव की सहायता करते हैं कि सृष्टि एक ही शक्ति की विविध अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं, कि ये सारी अभिव्यक्तियाँ ईश्वरीय प्रज्ञा से युक्त प्रकाश की हैं। चलचित्र, रेडियो, टेलिविजन, राडार, फोटोइलेक्ट्रिक सेल (आश्चर्यकारी विद्युत् नेत्र), अणुशक्तियों के सारे चमत्कार प्रकाश के विद्युत् चुम्बकीय गुणों पर आधारित हैं।

चलचित्र कला किसी भी चमत्कार का दृश्यांकन कर सकती है। प्रभावकारी दृश्य प्रस्तुत करने के दृष्टिकोण से कौशलपूर्ण फोटोग्राफी के लिये कुछ भी असंभव नहीं है। चलचित्र में मनुष्य पारदर्शी सूक्ष्म शरीर धारण कर अपनी स्थूल देह से निकलता हुआ देखा जा सकता है, वह पानी पर चल सकता है, मृत व्यक्ति को दोबारा ज़िन्दा कर सकता है, घटनाक्रम को पलट कर पीछे ले जा सकता है और देश और काल की धज्जियाँ उड़ा सकता है। कुशल फोटोग्राफर अपनी इच्छा के अनुसार छायाचित्रों को मिलाकर दृष्टि के लिये चमत्कार कर सकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे सिद्ध पुरुष वास्तविक प्रकाश किरणों के साथ करता है।

जीवन्त प्रतीत होने वाले चित्रों को प्रस्तुत करते चलचित्र सृष्टि के अनेक तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं। “सृष्टि निर्देशक” ने अपनी पटकथाएँ स्वयं लिखी हैं और सदियों के इस विराट् चित्रपट में असंख्य अभिनेता-अभिनेत्रियों का समावेश किया है। अनंतता के अन्धकारपूर्ण बूथ से वह प्रकाश की अपनी किरणों को प्रक्षेपित करता है जो एक के बाद एक आनेवाले युगों की फिल्मों में से होकर महाकाश के पर्दे पर गिरते हैं और उन फिल्मों के चित्रों को प्रतिबिम्बित करते हैं।

जिस प्रकार सिनेमा के चित्र वास्तविक प्रतीत होते हैं परन्तु होते हैं मात्र प्रकाश और छाया के मिलेजुले चित्र, उसी प्रकार सृष्टि की विविधता भी एक भ्रम मात्र है। विभिन्न ग्रह मण्डल और उन पर जीने वाले असंख्य जीव एक विराट् चलचित्र के चित्रों के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य की पंचेन्द्रियों को तात्कालिक समय के लिये वास्तविक लगने वाले परिवर्ती चलचित्र के चित्रों के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य की पंचेन्द्रियों को तात्कालिक समय के लिये वास्तविक लगने वाले परिवर्ती दृश्य मानव चेतना के पर्दे पर अनन्त सृजनात्मक किरण द्वारा प्रक्षेपित किये जाते हैं।

सिनेमा दर्शक दृष्टि ऊपर उठा कर देख सकते हैं कि पर्दे पर दिखायी देने वाले सारे चित्र चित्रविहीन प्रकाश किरणों की एक बीम से उत्पन्न होते हैं। सृष्टि का यह रंग-बिरंगी नाटक भी उसी प्रकार एक विश्वस्रोत से आने वाले एक मात्र श्वेत प्रकाश से उत्पन्न हो रहा है। अकल्पनीय कौशल के साथ ईश्वर अपनी संतानों के मनोरंजन के लिये विराट् नाटक प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें उन्हें वे अपने ग्रह मण्डलीय नाट्य गृह में नाटक के पात्र भी बना रहे हैं और दर्शक भी।

एक दिन यूरोप के युद्ध क्षेत्रों की न्यूज़-रील देखने के लिये मैं एक सिनेमा थियेटर में गया। प्रथम विश्व युद्ध पाश्चात्य जगत् में तब भी चल रहा था। न्यूज़-रील में नर संहार इतना वास्तविक लग रहा था कि मैं अत्यन्त व्यथित हृदय से थियेटर से बाहर निकला।

मैं प्रार्थना करने लगाः “प्रभु ! आप इतना दुःख दर्द क्यों होने देते हैं?”

मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब प्रत्यक्ष यूरोप के युद्धक्षेत्रों के दिव्य दर्शन के रूप में मेरी प्रार्थना का तत्काल उत्तर आया! मृतकों और मरणासन्न लोगों से भरे ये दृश्य न्यूज-रील के चित्रांकन से कहीं अधिक भयंकर थे।

“ध्यान से देखो!” मेरी अन्तर्चेतना से एक मृदु एवं सौम्य वाणी कह रही थी। “तुम देखोगे कि फ्रान्स में अभी अभिनीत किये जा रहे ये दृश्य प्रकाश-छाया के खेल के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। ये सृष्टि के चलचित्र हैं, उतने ही वास्तविक और उतने ही अवास्तविक जितनी तुमने अभी-अभी देखी न्यूज-रील थी - नाटक के भीतर और एक नाटक।”

मेरे हृदय को अभी भी सांत्वना नहीं मिली। दिव्य वाणी आगे कहती गयी: “सृष्टि प्रकाश और छाया दोनों ही है, अन्यथा कोई चित्र संभव नहीं हो सकता। माया के भले एवं बुरे गुण बारी-बारी से एक दूसरे पर हावी होते रहते हैं। इसी संसार में यदि अखंड आनन्द प्राप्त हो जाये तो क्या मनुष्य किसी दूसरे लोक की कामना करेगा ? दुःख-दर्द मिले बिना तो वह इस बात को याद करने की भी कोशिश नहीं करता कि उसने अपना नित्य धाम त्याग दिया है। दुःख उसे यह याद दिलाने के लिये चुभोया जाना वाला एक शूल है। दुःख से बचने का उपाय ज्ञान है। मृत्यु की विभीषिका मिथ्या है, अवास्तविक है। जो लोग उसके नाम से काँप उठते हैं वे नाटक के उस नासमझ नट के समान हैं जो उस पर पिस्तौल से नकली गोली दागी जाने पर भी भय के मारे मंच पर ही मर जाता है। मेरी संतानें प्रकाश की हैं। वे सदा के लिये माया के अन्धकार में सोयी नहीं रहेंगी।”

मैंने शास्त्रों में माया के विषय में बहुत कुछ पढ़ा था परन्तु उससे मुझे माया का वैसा गहरा ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था जैसा ध्यान में दिखने वाले दृश्यों और उनके साथ आने वाले सांत्वनादायक शब्दों से प्राप्त हुआ। मनुष्य के मूल्यों में, मान्यताओं में, सोच-विचार में गहन परिवर्तन आ जाता है जब उसे इस सत्य का विश्वास हो जाता है कि यह सृष्टि केवल एक विराट् चलचित्र है और इसके भीतर नहीं बल्कि इसके परे उसका सच्चा स्वरूप निहित है।

इस प्रकरण को पूरा लिखने के पश्चात मैं अपने पलंग पर पद्मासन में बैठ गया। मेरे कमरे (कैलिफोर्निया में एन्सीनीटास में स्थित सेल्फ-रियलाइटेशन फेलोशिप के आश्रम में (प्रकाशक की टिप्पणी))
में दो मन्द लैम्पों का धुँधला प्रकाश फैला हुआ था। मैंने दृष्टि ऊपर उठायी तो देखा कि छत में सरसों के रंग के छोटे छोटे प्रकाश बिन्दु रेडियम के समान चमकते हुए झिलमिला रहे थे। असंख्य प्रकाश किरणें वर्षा के जलरेखीय बाणों के समान एक पारदर्शी किरणावली बनकर शान्ति से मुझपर बरसती रहीं।

तत्काल मेरी स्थूल देह की जड़ता समाप्त हो गयी और वह सूक्ष्म देह के समान झीनी बन गयी। मुझे हवा में तैरने का आभास हो रहा था। मेरा भारहीन शरीर पलंग का नाममात्र का स्पर्श करते हुए बारी-बारी से दाहिनेबायें सरकने लगा। मैंने कमरे में दृष्टि दौड़ायी। दीवारें और सारा फर्निचर अपनी अपनी जगह यथास्थित था, परन्तु प्रकाश की अल्प किरणावली इतनी विस्तृत और व्यापक हो गयी थी कि अब छत नजर ही नहीं आ रही थी। मैं विस्मित हो गया।

मानों उस प्रकाश से ही एक आवाज आयी: “सृष्टि के चलचित्र की बनावट ऐसी ही है। पलंग पर बिछी तुम्हारी चादर के सफेद पर्दे पर अपना प्रकाश स्तम्भ प्रक्षेपित कर वह तुम्हारे शरीर के चित्र को उत्पन्न कर रही है। देखो! तुम्हारा यह शरीर प्रकाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है!”

मैंने अपने हाथों की ओर देखा और उन्हें आगे-पीछे हिलाया, परन्तु उनमें मुझे किसी वजन का अनुभव नहीं हुआ। मैं परमानन्द में विभोर हो उठा। मेरे शरीर के रूप में खिल उठने वाला महाव्योम के प्रकाश का स्तम्भ प्रकाश के उस स्तम्भ का दिव्य प्रतिरूप प्रतीत हो रहा था जो सिनेमा थियेटर के प्रोजेक्शन बूथ से निकलकर पर्दे पर चित्रों को प्रकट कर देता है।

लम्बे समय तक मैं अपने कमरे के मन्द प्रकाशयुक्त थियेटर में अपने शरीर का यह चलचित्र अनुभव करता रहा ध्यान में और ध्यान के अतिरिक्त भी मुझे अनेकानेक दर्शन हुए हैं, परन्तु यह उन सबसे पूर्णतः निराला था। जब मेरे ठोस शरीर का भ्रम पूर्णतः विलुप्त हो गया और जब इस बात का ज्ञान गहरायी तक मेरी चेतना में उतर गया कि सभी वस्तुओं का सार केवल प्रकाश ही है, तो मैंने दृष्टि उठाकर ऊपर प्राणकणों की उस धड़कती धारा की ओर देखा और उससे याचना करने लगाः

“हे दिव्य प्रकाश! कृपा करके मेरे इस तुच्छ शरीर के चित्र को अपने में वापस समा लो, जैसे एलाइजा को प्रकाश के रथ पर स्वर्ग में वापस ले लिया गया था। (२ राजाओं २:११ (बाइबिल)।)

निश्चय ही यह प्रार्थना कुछ हड़बड़ा देने वाली थी; वह प्रकाश स्तम्भ अदृश्य हो गया। मेरे शरीर ने अपना सामान्य वजन धारण कर लिया जिससे वह बिस्तर को नीचे दबाते हुए बैठ गया। छत में झिलमिला रहे प्रकाश बिन्दु टिमटिमाये और अदृश्य हो गये। स्पष्ट था कि अभी मेरा इस संसार से जाने का समय नहीं आया था।

“और फिर,” दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाते हुए मैने सोचा, “मेरी इस धृष्टता से एलाइजा भी तो नाराज हो जाते।”
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सामान्यतः चमत्कार उस कार्य या घटना को माना जाता है जिसके पीछे कोई नियम न हो या जो सभी नियमों से परे हो। परन्तु अत्यंत सुनिश्चित रूप से चलने वाली हमारी सृष्टि में सभी घटनाएँ नियम के आधार पर ही घटित होती हैं और उनके पीछे कार्य करने वाले नियम की व्याख्या भी की जा सकती है। सिद्ध पुरुषों की तथाकथित चमत्कारी शक्तियाँ चेतना के आंतरिक विश्व में क्रियाशील सूक्ष्म नियमों के बारे में उनके पूर्ण ज्ञान के स्वाभाविक परिणाम हैं।

वस्तुतः किसी भी बात को सही अर्थ में "चमत्कार" कहा ही नहीं जा सकता सिवाय इसके कि गहन अर्थ में सब कुछ चमत्कार ही है। हममें से प्रत्येक का एक अत्यंत जटिल रचनायुक्त शरीर में आबद्ध होना और अंतरिक्ष में ग्रहतारों के बीच तेजी से भ्रमण करती इस पृथ्वी पर रहने के लिये छोड़ा जाना क्या इससे अधिक असामान्य कोई बात है ? या इससे अधिक चमत्कार भी कोई है ?

ईसा मसीह और लाहिड़ी महाशय जैसे महान गुरुजन सामान्यतः अनेक चमत्कार करते हैं। ऐसे गुरुओं को मानवजाति के लिये बहुत बड़ा और कठिन आध्यात्मिक कार्य संपादन करना होता है और दुःखी जनों की चमत्कारिक रीति से सहायता करना उस कार्य का एक हिस्सा प्रतीत होता है। (प्रकरण २३ देखें।) असाध्य रोगों के एवं अति गहन मानवीय समस्याओं के निराकरण में दैवी हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ती है। जब एक अमीर ने ईसा मसीह से केपरनॉम नामक स्थान में मरणासन्न पड़े अपने पुत्र को ठीक करने की प्रार्थना की, तो ईसा ने व्यंग्यात्मक ढंग से कहा: “जब तक तुम प्रमाण और चमत्कार न देखो, तुम विश्वास नहीं करोगे।" परन्तु फिर आगे उन्होंने कहाः "तुम अपने रास्ते चल पड़ो, तुम्हारा पुत्र बच जायेगा।" यूहन्ना ४:४६-५४, ( बाइबिल ) ।

इस प्रकरण में मैंने माया का अर्थात् गोचर जगत में निहित जादुई शक्ति का वैदिक स्पष्टीकरण दिया है। पाश्चात्य विज्ञान ने इस बात का पता लगा लिया है कि अणुयुक्त "पदार्थ जगत्" में अवास्तविकता का “जादू" व्याप्त है। परन्तु केवल प्रकृति ही नहीं बल्कि मनुष्य (अपने मर्त्य रूप में) भी माया के या सापेक्षता सिद्धान्त के परस्पर विरोधाभास के, द्वैत् के, उत्क्रमण के, परस्पर विरोधी अवस्थाओं के अधीन है।

यह नहीं सोचना चाहिये कि माया के सत्य का ज्ञान केवल ऋषियों को ही हुआ था। बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेन्ट में वर्णित सिद्ध जन माया को शैतान कहते थे (जिसका हिब्रू भाषा में शब्दशः अर्थ है "विरोधी")। ग्रीक टेस्टामेन्ट में शैतान के पर्यायवाची शब्द डायबोलस या डेविल का प्रयोग किया गया है। माया या शैतान वह विराट् जादूगर है जो एकमात्र निराकार अस्तित्व को छुपाने के लिये अनेक रूप साकार कर देता है। ईश्वर की योजना या लीला में माया या शैतान का एकमात्र कार्य है मनुष्य को परमतत्त्व से पदार्थ जगत की ओर, सत्य से मिथ्या की ओर मोड़ने का प्रयास करना।

ईसा मसीह ने माया का डेविल, हत्यारे एवं झूठ बोलने वाले के रूप में सुन्दर वर्णन किया है। "डेविल ... शुरू से ही हत्यारा है, सत्य में वह कभी नहीं रहा, क्योंकि उसमें सत्य है नहीं। जब वह कोई झूठ बोल देता है, तो वह उसका अपना होता है, क्योंकि वह है ही झूठा और झूठ का जनक।" –यूहन्ना ८:४४ (बाइबिल) ।

“डेविल शुरू से पाप ही करता आ रहा है। इसी उद्देश्य से ईश्वर के पुत्र का आविर्भाव हुआ कि वह डेविल के सभी कार्यों को नष्ट कर दे" – १ यूहन्ना ३:८ (बाइबिल)। अर्थात मनुष्य के अपने भीतर क्राईस्ट चैतन्य (कूटस्थ चैतन्य) का आविर्भाव जो अनायास ही सारे भ्रमों को या “डेविल के सभी कार्यों को नष्ट कर देता है।

गोचर जगत् की रचना में ही निहित होने के कारण माया "अनादि" ही है। परमतत्त्व की अपरिवर्तनीयता के विरोध स्वरूप गोचर जगत् नित्य परिवर्तनशील है।

¹ टालस्टाय और महात्मा गांधी के अनेक आदर्श एक समान थे। ये दोनों आपस में अहिंसा के विषय पर पत्र व्यवहार करते थे। टालस्टाय “ बुराई का प्रतिकार (बुराई से) मत करो” (मत्ती ५:३९, बाइबिल) को ईसा मसीह की मुख्य शिक्षा मानते थे। बुराई का प्रतिकार केवल उसके तर्कसंगत प्रभावी विपरीत गुण अच्छाई या प्रेम से ही किया जाना चाहिये।

² ऐसा प्रतीत होता है कि इस कहानी का ऐतिहासिक आधार है। एक सम्पादकीय टिप्पणी से पता चलता है कि बिशप जब आर्कऐंजल से नाव द्वारा स्लोवेट्स्की मठ को जा रहे थे, तब द्विना नदी के किनारे पर वे इन तीन वैरागियों से मिले थे।

³ प्रकरण 4 और 5 दृष्टव

⁴ महान आविष्कारक मार्कोनी ने सृष्टि के आदि कारण को ढूंढने में विज्ञान की असमर्थता को इन शब्दों में स्वीकार किया था: “जीवन के रहस्य को सुलझाने में विज्ञान पूर्णतः असमर्थ है। यदि श्रद्धा नहीं होती तो सचमुच यह बड़ा ही भयंकर तथ्य होता मनुष्य की बुद्धि के सामने खड़े होने वाले प्रश्नों में जीवन का रहस्य निश्चय ही सबसे बड़ा और सबसे अधिक जटिल प्रश्न है।”

⁵ यहेजकेल ४३:१-२ (बाइबिल)।

⁶ आइन्स्टाइन को यह पूर्ण विश्वास था कि गुरुत्वाकर्षण एवं विद्युत् चुंबकत्व के नियमों के बीच के परस्पर संबंध को एक गणितीय सूत्र (एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त) द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। जब यह पुस्तक लिखी गयी तब वे इसी पर कार्य कर रहे थे। अपना यह कार्य पूर्ण करने तक तो वे जीवित नहीं रहे, परन्तु आज के अनेक भौतिक विज्ञानी आइन्स्टाइन के इस मत से पूरी तरह सहमत हैं कि यह सम्बन्ध कभी न कभी अवश्य खोज लिया जायेगा। (प्रकाशक की टिप्पणी)

⁷ मैकमिलन कंपनी।

⁸ अर्थात् यह पदार्थ भी है और ऊर्जा भी।

⁹ कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस।

¹⁰ निर्गमन २०:३ (बाइबिल)।

¹¹ उत्पति १:३ (बाइबिल)।

¹² प्रकाशितवाक्य १:१४-१६ (बाइबिल)।