नीलम कुलश्रेष्ठ
[ `कथादेश` के सुधा अरोड़ा जी के बेहद लोकप्रिय स्तम्भ `औरत की दुनियां `में प्रकाशित लेख का विस्तार ]
मेरी नानी रुक्मणि देवी के पिता कोटा में अपने आस-पास के लड़कों को मुफ़्त पढ़ाया करते थे । कुछ महीनों बाद वे हतप्रभ रह गए, जब एक दिन देखा कि उनकी बेटी शब्द मिलाकर एक किताब पढ़ रही है । उनके पूछने पर नानी बताया - वह दूसरे कमरे से छिप-छिपकर पढ़ना सीखती थीं । बाद में उन्हें बाकायदा शिक्षा दी गई । शादी के बाद भी हमारे नानाजी श्री कामताप्रसाद एडवोकेट ने अलीगढ़ में उनके लिए शिक्षिका नियुक्त की ।
इधर नानाजी ने सत्तर-अस्सी वर्ष पहले अलीगढ़ के अपने बेहद विशाल घर के एक विशाल हॉल के विशाल द्वार के ऊपर जालीदार झरोखों पर एक पत्थर जड़वाया- ‘रुक्मणि हॉल’ । अपने दो बेटों के साथ अपनी सात बेटियों के नाम के पत्थर भी जड़वाए गए ।
ये वे बेटियाँ थीं जो अशिक्षित वातावरण में परतंत्रता के समय अपनी पढ़ाई आरंभ कर चुकी थीं । बदनाम भी होने लगी थीं- ‘हाय! वकील साहब की लड़कियाँ दो चोटी करती हैं, सनीमा देखती हैं !’ हालाँकि ये बातें करना आज हास्यास्पद लगता है ।
मेरी एक डॉक्टर मौसी थीं- शानदार, बुद्धिजीवी, आकर्षक, फ़ैशनेबिल, समर्थ व समृद्ध महिला। मैंने उनकी शख्सियत से ही स्त्री के सामर्थ्य को पहचाना था। हम उनके साथ साइकिल रिक्शे या कार में होते तो चौकीदार अस्पताल का गेट खोलकर उन्हें सलाम करता। रास्ते में आते-जाते डॉक्टर, नर्स व अन्य लोग उन्हें इज्जत से नमस्ते करते जाते थे। उनका साथ कहीं भी एक छत्रछाया की तरह था जो हमें गौरवान्वित करता था। छोटे शहरों के लोग चालीस-पैंतालीस वर्ष पूर्व उन्हें कार चलाते देखकर, `इंदिरा गाँधी की जय` बोलते थे। ऐसे वातावरण में पली इन सात लड़कियों ने अच्छे पदों को सँभाला । एक तरह से यह वो पीढ़ी थी जो स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पुरुषशासित समाज में विस्मय व प्रतिस्पर्धा का कारण बनीं। रुक्मणि हॉल के एक कोने में पड़े पलँग पर लेटे मैंने उनके लटके चिंतातुर चेहरे देखे है, वकील पिता से उन्हें सलाह लेते देखा है, तनावों के कारण उनकी बददिमाग़ी देखी है । बदहवास इस शहर से उस शहर कोर्ट के लिए भागते देखा है । चाहे वह मैनेजिंग ट्रस्टी हो, या सरकार, जीत इन मौसियों की ही हुई, लेकिन स्वास्थ्य की कीमत लेकर । दो ने अपने मनपसंद यहाँ तक कि अंतर्जातीय विवाह किए ।
वे एस.एन. मेडिकल कॉलेज, आगरा के एम.बी.बी.एस. के दूसरे या तीसरे बैंच की तीन लड़कियों में से एक थीं । वैसे पाँच सीट लड़कियों के लिये आरक्षित थीं। वे अपनी सात बहिनों में दूसरे नम्बर की बहिन थीं। अपनी माँ व आस-पास की स्त्रियों को वे पचास वर्ष की आयु तक दस-दस बच्चे जनते, बेहाल होते, व्यक्तित्वहीन होते देख चुकी थीं इसलिये उन्होंने सबसे पहले अपनी बहिनों को परिवार नियोजन का ज्ञान देकर इस सज़ा से मुक्त किया। सभी बहिनों ने दो या फिर एक बच्चा पैदा होने के बाद परिवार नियोजित कर लिया। अलीगढ़ [उत्तर प्रदेश] की व कुलश्रेष्ठों में प्रथम डॉक्टर थीं। उनका विश्व के `हू इज़ हू `में नाम शामिल था। मैं अपनी पीढ़ी के लोगों के बीच अपने विचारों व रहन-सहन के कारण थोड़ा मिसफ़िट महसूस करती हूँ । (शायद वे भी) क्योंकि आज छोटे परिवारों में बच्चे जो ख़ुशहाली व समृद्धि भोग रहे हैं। हमारे समय के बच्चों को वह नसीब नहीं थी ।
वे कुशल स्त्री रोग विशेषज्ञ होने के साथ जीवन के हर रंग को जीना जानती थीं। अपनी नौकरी लगते ही परिवार को एक बेटे की तरह सहारा देना आरंभ कर दिया था क्योंकि परिवार में एक हादसा हो चुका था। घर की सबसे बड़ी बेटी आदर्श ने टीकमगढ़ में नौकरी करते हुए श्री यशपाल जैन जी से प्रेम विवाह कर लिया था। सारे अलीगढ़ में तहलका मच गया था। घर में किसी की मृत्यु के जैसा मातम छा गया था। परिवार ने बरसों बाद बड़ी बेटी से संबंध जोड़ा। मौसाजी दिल्ली में यशस्वी लेखक बनते चले गये।
समय सरक-सरक कर किस तरह विचार बदलता जाता है क्योंकि घर सबसे छोटी बेटी बंगलौर में मनोविज्ञान में डिप्लोमा करने गई तो उसे एक महाराष्ट्रीयन युवक से प्रेम विवाह करने की अनुमति ही मिल गई। आज हम उनके परिवार को ‘इंडिया फ़ेमिली’ कहते हैं क्योंकि उनकी बहू दक्षिण भारतीय है, दामाद बंगाली।
जिस भी शहर में डॉक्टर मौसी होतीं, परिवार के दो-तीन भाई-बहिनों के परिवार छुट्टियों में उनके यहाँ इकट्ठे होते। जब शाम को अपने बंगले के एक छोटे कमरे में वह कोई मरीज़ देख रही होतीं हम छोटे बहिन-भाई फ़र्श पर लेटकर पर्दे के नीचे से झाँकने की कोशिश करते कि आखिर वे एक औरत को अंदर ले जाकर करती क्या हैं ?
तब मुझे भी नहीं पता था बरसों बाद मैं भी लेबर रूम में ऐसे ही मेज़ पर उनके सामने लेटी हूँगी। शादी के बाद गर्भपात के बाद की ‘क्यूरेटिंग’ में की गई बड़ौदा की डॉक्टर की लापरवाही के कारण मैं एक महीने परेशान रही थी। आगरे में वे अपने साथ घर ले गई थीं। मेरे ग्लूकोज़ चढ़ रहा था। वे मेरे पैरों की तरफ़ बैठी दुर्गा पाठ कर रही थीं। उनके चेहरे व आँखों की दहशत देखकर मैं हैरान थी। बाद में उन्होंने बताया था, “कभी-कभी गर्भाशय में रह गये भ्रूण के छोटे-छोटे टुकड़े उसकी दीवारों से चिपक कर छेद कर देते हैं, यदि ऐसा हो जाता तो तू माँ बनने के काबिल नहीं रहती।”
जब मैं पांच छः साल की थी तो मुझे नाना जी अपने साथ हरदोई [उत्तर प्रदेश]ले गए थे जहाँ मौसी सरकारी अस्पातल में पोस्टेड थीं। वहाँ अस्पातल के एक क्वार्टर में ईसाई धर्म की प्रचारक नन सफ़ेद साड़ी में सर ढककर आकर हर शुक्रवार को आकर इस धर्म का प्रचार करतीं थीं। मुझे मौसी वहाँ भेज देतीं थीं वे दीवार पर एक सफ़ेद कपड़ा लगाकर उस पर किसी किताब से कटिंग की गई रंगीन तस्वीरों को चिपका कर ईसा मसीह की कहानी सुनातीं थीं व इस धर्म के गुणगान करतीं थीं। उन चित्रों का मोहक आकर्षण मुझे आज भी याद है -येरुशलम में ऊँट पर एक सितारे का पीछा करते लोग,चरागाह में ईसा मसीह का जन्म। प्रति सप्ताह वे हमें सुंदर सुंदर सचित्र किताबें व छोटे छोटे प्लास्टिक के खिलौने दे जातीं थीं. मुझे पहले बार नीली आँखों वाली सोती जागती गुड़िया मिली थी।
मैं उस गोदी में लेकर गला फाड़कर उनका सिखाया गीत गाती रहती थी। जो थोड़ा बहुत मुझे आज भी याद है ;
"यीशु का नाम है सारी ज़मीन पर
जिससे पापी पाते उद्धार
वो दुनियां में आया लहू बहाया, फिडिया जहां को दिया
हमको बचाने, मुक्ति दिलाने
यीशु सलीब पर मुआ। "
मैं नंस के रंग में पूरी तरह रंग गई थी,इतनी कि आगरा नहीं आना चाहती थी। सब मज़ाक उड़ाते थे,"तू तो क्रिश्चियन हो गई है। "
इतने बरसों बाद ये बात समझ में आई है की मिशनरी हों या मदरसे किस तरह दिलफ़रेब अंदाज़ में अपने धर्म का प्रचार करते हैं। मदरसे जैसे दूसरे धर्मों के विरोध में ज़हर घोलने का काम करते हैं, जेहादी बनाते हैं, धर्मांतरण का काम करते हैं, नन्हे मुस्लिम बच्चों को बहत्तर हूरों का लालच देते हैं ये एक अपराध है.
हरदोई में एक स्त्री के दो सिर वाला बच्चा पैदा हुआ, जो कि कुछ घंटे में मर गया था। उन्होंने उसके परिवार से अनुमति लेकर गरीब मरीज़ों के लिए फंड इकट्ठा करने की तरकीब निकाली उस बच्चे की आम जनता के लिये प्रदर्शनी की गई। कमरे के बाहर खड़े होकर अस्पताल के कर्मचारियों के साथ पाँच वर्ष की आयु में मैंने भी आवाज़ें लगाई, “भाईयों व बहिनों !इकन्नी में दो सिर वाला बच्चा देखिए, दो सिर वाला बच्चा सिर्फ़ इकन्नी में।”
जब मैं ग्यारह,बारह वर्ष की थी तो उनकी पोस्टिंग आगरा हो गई थी। आगरे के मनोरोग चिकित्सालय की अपनी पोस्टिंग के दौरान वे पागलों से सांस्कृतिक कार्यक्रम करवा कर पैसा इकट्ठा करती थीं। एक बहुत ख़ूबसूरत देल्ही की पंजाबिन पागल थी। जो हमेश टिप टॉप गहरी लिपस्टिक लगाए रहती थी। उसने एक ग़ालिब की ग़ज़ल एक डॉक्टर्स के साथ हारमोनियम पर गाई थी. पागलों के साथ मैंने भी कव्वाली में हिस्सा लिया था। मेरे मामाजी के पास बैठा कोई श्रोता मुझ पर तरस खा रहा था,"बिचारी कितनी छोटी उम्र में पागल हो गई है."
कुछ समूह नृत्य,कुछ गीत --शहर के गणमान्य जन बहुत तारीफ़ करते हुए निकले थे .
उधर किसी भी घरेलू महिला संगीत में हारमोनियम के साथ जच्चा, बन्ने, बन्नी गातीं थीं। उनका एक नृत्य बहुत पसंद किया जाता था जिसमें वे सिर पर दुपट्टा बाँधकर नाचती थीं, “कैसा कैसा कैसा रे परियों का नाच कैसा।”
“बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई, जिंदगी में अचानक बहार आ गई” जैसी गज़ल हो या राजनीति पर चर्चा या सर्दियों में एक के बाद एक स्वेटर बुनना या रसोई में शाही व्यंजन बनाना, वे सबमें दखल रखती थीं। आगरे में उनका नौकर कन्हई अपनी उगाई सब्ज़ियाँ लेकर हर महीने हमारे घर आता था तब उनके हाथ में होती थी ‘चंदामामा’। इसी से मेरा पत्रिकाओं से प्यार बढ़ा।
मेरी मम्मी व उनका अति निकट का संबंध था। यहाँ तक कि वे अपना २२ दिन का छोटे बेटे राहुल [ जो इजिप्ट से विदेशी प्रशासनिक सेवा से रिटायर हुये हैं ] को उनके साथ छोड़कर लखनऊ कॉन्फ़्रेंस में चलीं गईं थीं। वे भी हमारी हर मुसीबत में खड़ी रहतीं थीं। जब वर्षों बाद मम्मी का ऑपरेशन हुआ तो रात में मुझे सुला देतीं थीं,"तू सो जा,मैं डॉक्टर हूँ इसलिए मुझे तो जागने की आदत है। "
वे इतने बड़े परिवार में लोकप्रिय थीं क्योंकि वे सबकी सरपरस्ती के लिए तैयार रहतीं थीं।
कोई मनपसंद व योग्य वर न मिलने के कारण उनका विवाह नहीं हो पाया था। चौंतीस-पैंतीस वर्ष तक सब शानदार तरीके से चल रहा था। केम्पस में रहने वाले ही सजातीय विवाहित डॉक्टर से उनकी दोस्ती हो गई। हमने बचपन में सुना था उन लोगों ने मंदिर में विवाह किया था।
एक शख्स एक पुरुष जिसने अपनी पत्नी को अपने घर वालों के भरोसे छोड़ रखा था क्योंकि वह अल्पशिक्षित थी। दूसरी स्त्री को उसके सुदृढ़ व्यक्तित्व के कारण पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पा रहा था। खीज उतरती उनके नौकर कन्हई पर जिसके बनाये स्वादिष्ट खाने का स्वाद आज भी मेरी जिव्हा पर रखा है। वह कच्चे भरवां केले की सब्ज़ी बहुत अच्छी बनाता था। आज भी मेरे मेहमान इसे खाकर ख़ुश हो जाते हैं। अक्सर समय असमय उसे खाना बनाने का आदेश दिया जाता था। जनवरी-दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में उसे ग्यारह-बारह बजे सिगरेट लाने भेजा जाता था। मौसी कुछ कहती तो वे चिल्ला उठते, “ये मेरा भी नौकर है।”
उनकी ज़्यादतियों से तंग आकर मौसी के साथ शहर दर शहर घूमने वाले इस वफ़ादार नौकर ने इनकी नौकरी छोड़ दी।
उनका पुत्र छोटा ही था जब मौसा जी ने मंदिर की शादी का प्रमाण पत्र चालाकी से हथिया कर फाड़ने की कोशिश की थी।
अनपढ़ बीवी नहीं चाहिए, पढ़ी-लिखी बीवी का व्यक्तित्व व उपलब्धियाँ पुरुष अहं को चोट पहुँचाती हैं। क्या पुरुष इस दोहरी मानसिकता से आज भी मुक्त हो पाया है ? इसी कश्मकश से जूझते हुए अमेरिका रिटर्न्ड मेरे मौसाजी ने उनके साथ रहते हुए ही मनोरोगियों को नशे में रखने वाली दवा पीना आरंभ कर दिया। बाद में ये दवा ही शराब की तरह उन्हें पीती चली गई।
इन सब बातों से मौसी ने अपने को उनसे बिल्कुल अलग कर लिया बिलकुल वैसे ही जैसे कि उनकी तीसरी नम्बर की बहिन गायत्री ने किया। कलकत्ते में ऐय्याशी का जीवन जी रहे अपने पति से अलग होकर जबलपुर में अपना बेटा बड़ा करतीं रहीं। बाद में मौसाजी को पक्षाघात हुआ तो ये भारतीय पति परमेश्वर की तरह नौकरीशुदा पत्नी के आँचल का आश्रय लेने आये। मैं गर्व से लिख रही हूँ मौसी जी ने उनके परमेश्वर के घमंड को चूर-चूर कर दिया। वे जबलपुर में राजनीतिशास्त्र के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुईं।
आज स्त्री एन.जी.ओ. जिस घरेलू हिंसा की बात कर रही है या कहती है न घर मेरा, न बाहर मेरा, ये बातें प्रकाश में अभी पूरी तरह आई भी नहीं हैं। ताजातरीन एक महिला गोष्ठी में चर्चा हो रही थी कि आजकल प्रौढ़ या वृद्ध बीवी को मारकर अपनी सचिव या किसी अन्य महिला से विवाह के केस बढ़ते जा रहे हैं। किसी ने बताया कि एक पुरुष ने दूसरी स्त्री के लिये अपनी बीवी को पागल करार कर पागलखाने पहुँचा दिया। मेरी एक मित्र जो पच्चीस हज़ार माह कमाती है। उसने घबराकर कहा, “मेरे पति को ये मत बताना। उन्हें पता लग गया तो मुझे पागलखाने में भिजवा देंगे।”
ये सब क्या है ? शिक्षित होने के बावजूद मौसियों की जो संघर्ष कथा आरंभ हुई थी ऐसे ही भयानक मुकाम तक पहुँचती जा रही है। जिन बच्चियों ने अपने घर की सबको सेवा देती स्त्रियों की दुर्दशा देखी है, वे वाहन दौड़ाती कैरियर बनाने की प्रतिदिन बारह-चौदह घंटे की जी तोड़ कोशिश में जुटी हैं। धन, पद, प्रतिष्ठा, जायदाद ये सब किसी पुरुष की कमाई निजी संपदा है लेकिन ये भी कटु सत्य है। कुछ अपवादों को छोड़कर एक बड़ी मूर्खता भी उनका अविभाज्य अंग है। उन्हें पता ही नहीं है ‘पत्नी’ व ‘घर’ के रूप में उन्हें क्या नियामतें मिली हुई हैं ? सुधा-अरोड़ा जी ने लिखा है कि स्त्रियाँ पति की प्रताड़ना पर पर्दा डालती रहती हैं। मैं भी कुछ और आगे की बात लिख रही हूँ दरअसल ये पर्दा वे पति प्रेम के लिये नहीं अपने बच्चों के लालन-पालन व उनका भविष्य बनाने के लिये मजबूरन डालती रहती हैं- उन्हें समाज में अपने परिवार की सम्भ्रांत छवि जो बरक़रार रखनी होती है।
डॉक्टर मौसी अक्सर हमें पहाड़ों पर ले जाती थीं क्योंकि उनका बेटा,मेरा भाई नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में पढ़ रहा था जिसमें अमिताभ बच्चन पढ़े हैं। बदायुँ से काठगोदाम की उन ट्रेन की यात्राओं में आमने-सामने की बर्थ पर लेटे हुए, बैठे हुए मैंने अपनी जिज्ञासायें शांत की हैं। उनकी पन्ना, पुखराज, मूँगा की अंगूठियों को देखकर उनके इस अंधविश्वास के बारे में पूछा था। उस सशक्त व्यक्तित्व की अंदर की एक कमज़ोर औरत जैसे मेरे सामने उजागर हो गई थी, “जब किसी का कोई अपना सहारा नहीं होता तो वो इन सब में अपना सहारा ढूँढ़ता है।”
एक बार मुझे व मेरे भाई को वे जिम कार्बेट पार्क ले जा रही थीं। जिस कस्बे से वैन से जाना होता था, वहाँ जाकर पता लगा कि और टूरिस्ट ही नहीं हैं तो वह पूरी वैन का किराया देकर चल पड़ी थीं। उनके जीवन का मूलमंत्र था, “जब कदम बढ़ाया है तो पीछे क्या हटना।”
ऐसी ही मेरी मम्मी बोल्ड हैं। पापा की पोस्टिंग कानपुर के पास के गाँव में थी। बैंक में कुल जमा तीन कर्मचारी थे। मम्मी मुझे व भाई को लेकर छुट्टियों में वहाँ जाती थीं। एक दिन पापा सहित सब कर्मचारियों को कानपुर जाना पड़ा। रात होते ही बिना बिजली वाला गाँव लालटेन की रोशनी में वैसे ही सुनसान भयावना लगता था।
नीचे बैंक थी, प्रथम मंजिल पर हम रहते थे। उस रात पता नहीं कौन नीचे का दरवाज़ा बार-बार ज़ोर खटखटा कर भाग जाता था ? मम्मी काफ़ी देर तक सुनतीं रहीं, हम सहमते रहे । अचानक वे उठीं व दनदनाती हुई सीढ़ियाँ उतर गईं। नीचे का दरवाज़ा खोलकर अंधेरे में चिल्लाईं, “कौन दरवाज़ा खटखटा रहा है? ज़रा सामने तो आये।”
कहीं कोई प्रत्युत्तर नहीं था। दूर-दूर तक अंधेरा व सन्नाटा भाँय-भाँय कर रहा था। इसके बाद कभी किसी ने दरवाज़ा नहीं खटखटाया।मेरे पत्रकारिता कैरियर व निजी जीवन में मुझे भी ऐसी भयंकर धमकियाँ मिलतीं रहीं बड़ौदा में रहकर मुझे राजकीय परिवारों से मिलने का मौक़ा मिला तो साथ में मिला रॉयल शिकारीनुमा दुश्मन।. मैंने भी तनकर ऐसे ही इनका मुकाबला किया है।
डॉक्टर मौसी के बेटे, हमारे भाई की बर्थडे होती तो हम हर वर्ष उनके पास ऐसे जाते जैसे कि विवाह में सम्मिलित होने जा रहे हैं। एक दिन वहाँ संगीतज्ञ बुलाये जाते, एक दिन अस्पताल के सभी कर्मचारियों की पार्टी होती, असली वर्षगाँठ पर आर्केस्ट्रा के साथ पार्टी होती थी। एक स्थानीय रिपोर्टर ने स्थानीय समाचार पत्र में छाप दिया, “अस्पताल में रोगियों की हालत गंभीर, डॉक्टर अपने बेटे की बर्थडे के जश्न में मसरूफ़।” दूसरे दिन अस्पताल के कर्मचारियों की तरफ़ से खंडन प्रकाशित हुआ।
इनमें से छठे नम्बर वाली बहिन प्राचार्या कुसुम पर भी इसी तरह समाचार पत्र से हमला किया था। सेकंडरी स्कूलों के लिये वे स्थानीय लोगों से रुपया इकट्ठा करती थीं। उन्होंने सरवाड़, लखेरी(जिला बूँदी) में स्कूल की नई इमारतें बनवाई, निवाई (जिला टौंक) में स्कूल को भूमि खरीद कर दी।
एक स्कूल की इमारत का उद्घाटन करने शिक्षामंत्री आये तो उन्होंने ये पंक्तियाँ पढ़ी-
“आप आये बहार आई, जीवन में नई लहर आई।
जनता का गुलशन खिल उठा, जब होठों पर आप के मुस्कान आई”
उस समारोह में स्थानीय एम.एल.ए. भी उपस्थित थे। दो दिन बाद ही छैलाबाबू बनकर अविवाहिता मौसी जी के घर शाम को आ गये। मौसी के बेहद रूखे व्यवहार के कारण इतने आहत हुए कि समाचार पत्र में हैड लाइन छपवा दी, “प्राचार्या का शिक्षामंत्री को प्रेम निवेदन-‘आप आये बहार आई।’”
इतना ही नहीं उस समाचार पत्र को लेकर दनदनाते हुए ज़िला शिक्षा अधिकारी के पास शिकायत करने पहुँचे। ग़नीमत है वे एक महिला थीं। उन्होंने मामले की खोजबीन की तब उन एम.एल.ए. को डाँट पड़ी, “इस में क्या बेशर्मी है? बात जनता के संदर्भ में कही गई है।”
चँदौसी में भी कॉलेज की प्राचार्या शारदा मौसी को भी कॉलेज के एक सेठनुमा ट्रस्टी ने भद्दे संकेत देने आरंभ किये थे। मौसी के इंकार पर उन पर झूठा केस कर दिया था। चँदौसी की दीवारें मौसी के खिलाफ़ रंग दी गयी थीं । पुरुष की आदिम मानसिकता अखबारों के माध्यम से दीवारों के माध्यम से ‘चुड़ैल’ करार करने पर तुली हुई थी। बाद में मौसी केस जीतीं उस व्यक्ति को बेटे-बहू के हादसे झेले, उसकी भयंकर बीमारी से मृत्यु हुई।
युवा लड़कियों के लिये एक बात लिख रही हूँ जो कि इस बाज़ारनुमा युग में अपने को बाज़ार बनाना अपनी तौहीन समझती हैं। जब से औरत ने बाह्य दुनिया में कदम रखा है तबसे उसके लिये ये बाह्य व्यवस्था अपवादों को छोड़कर एक सम्भ्रांत वेश्यावृत्ति (डिग्नीफाइड प्रोस्टीट्यूशन) का आव्हान है। कहीं-कहीं प्रेम की चाशनी में डुबोकर परोसी जाती है। जब शिकारी को लगता है जाल कसता जा रहा है तो तुरंत जेब की या कला के नाम पर कुछ भी कर गुज़रने की ताकत दिखाने लगता है. यदि वे ‘अलर्ट’ नहीं रहीं तो शरीर सहित जा फँसेंगी।
यदि नहीं फँस पाईं तो तरह-तरह से उन्हें मानसिक, उनके कैरियर को यातनायें दी जाएँगी। बाद में वक़्त न्याय भी करता रहे तो क्या ? एक समान पद पर रहते हुए भी स्त्री-पुरुष के कैरिएर सम्बन्धी संघर्ष बिलकुल एक जैसे होते हैं।स्त्री के के जीवन को कठिन बनाने वाले दो और तनाव जुड़े होते हैं एक तोस्त्री शरीर को बचाने वाले,मस्तिष्क पर प्रहार करने वाले एक-एक शिरा झनझना देने वाले विकट तनाव,दूसरे घर की ज़िम्मेदारियाँ तो अधिक होती ही हैं।
नियति ने मुझे बचपन से ही तैयार कर दिया था । घर में था मेरा इकलौता भाई हेमंत, घर में रहनेवाले उपाध्याय अंकल का भतीजा जितेंद्र और मेरी मौसी का लड़का राहुल जो जब भी नैनीताल के शेरवुड कॉलेज की छुट्टियाँ होतीं तो अकेला बेटा होने के कारण अपनी चिकित्सक माँ के पास से हमारे घर भाग आता । मैं तीनों मैं बड़ी थी, इसलिए रौब मारना अपना फ़र्ज समझती थी । कभी लड़ाइयाँ होतीं तो कभी कोई पक्ष जीतता, कभी कोई । कभी दो-तीन दिन तक बोलचाल बंद, लेकिन फिर चैन कहाँ ? । शॉपिंग के समय राहुल आराम से मेरे बैग सँभालता चलता था ।
बाद में जितेंद्र चुना गया भारतीय वन्य विभाग की प्रशासनिक सेवाओं कि लिए, राहुल भारतीय विदेश सेवाओं के लिए, यानि भारत के दो श्रेष्ठ विभागों से, दो आई एफ़ एस से मैं झगड़कर, बहस कर बड़ी हुई । चाचओं-मामाओं से घिरे अपने सुरक्षित, स्वस्थ जीवन को याद करते हुए जब लेखिकाओं की आत्मकथाएँ पढ़ती हूँ तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं । पैंतीस वर्ष की आयु के लगभग मैं `चाईल्ड एब्यूज़ `शब्द से परिचित हो पाई थी।
डॉक्टर मौसी की एक शानदार समृद्धि अपने अंत की तरफ़ बढ़ चली थी। वे प्रदेश के उन बीस चिकित्सकों में से एक थीं जो केंद्र के लोगों को खुश नहीं रख पा रहे थे इसलिए वे पचास वर्ष की आयु में रिटायर कर दिये गये थे । मेरी माँ के बुआ के लड़के भी थे जिन्होंने चुपचाप नियति स्वीकार कर ली लेकिन मौसी एक ख़तरनाक निर्णय ले चुकीं थीं। सत्ता से, सरकार से लड़ने का। मैंने उन्हें व शारदा मौसी को ट्रस्टी के दायर किये केस के कारण लखनऊ व मुरादाबाद भागते देखा, उनके संघर्ष, उनकी चिंताये देखीं हैं, इन भयानक तनावों से उनका गिरता स्वास्थ्य देखा है।
जीत डॉक्टर मौसी की हुई उन्हें उनकी बीच के महींनो की तनख़्वाह मय हर्जाने के मिली। ज़ हीन बेटा बेहद ऊंची नौकरी के लिये चुना गया। उतने ही बड़े घराने में उसकी शादी हुई।
अपने इस पुत्र की जो हर छोट-बड़ी इच्छा पूरी करती रहीं थीं। पति के बाद उनके जीवन का ये दूसरा पुरुष भी उनका सहारा तो क्या नैतिक सहारा भी नहीं बन पाया।
रूस में जब कम्युनिज़्म था तब वह अपने बेटे के पास रहने मॉस्को गईं। वहाँ सुबह-शाम पार्क में घूमते हुए उनकी दो-तीन रूसी वृद्धाओं से दोस्ती हो गई जो उन्हें खूब मेकअप करने को प्रेरित करती थीं, उपहार भी बदले जाने लगे। मौसी ने बहुत आग्रह से उन्हें जब घर आने के लिये आमंत्रित किया तो वे चौंक गईं, “आपका बेटा इंडियन एम्बैसी में है ?हमें पता नहीं था।अगर हमने आपसे दोस्ती रखी तो जासूस हमारे पीछे लग जायेंगे।”
विदेश के इस एकाकीपन से घबराकर वे भारत लौट आई । एक प्राइवेट नर्सिंग होम में नौकरी आरंभ की लेकिन उन्हें विक्षिप्तता घेरने लगी। एक बार हल्का पक्षाघात का असर हुआ । उससे संभल गईं। बाद में होश खोती चली जा रही थी इसलिये मेरी मम्मी अपनी इस बहिन को उनके शहर से आगरा ले आईं। मेरी इकलौती भाभी रूपम उन क्षणों को याद करके आज भी सिहर जाती हैं, “दीदी ! मौसी को होश नहीं था मैं तीन-चार दिन में इनके बाल साफ कर पाई। ”
साड़ी बाँधने व संभालने का उन्हें होश नहीं था। उनके सूखे शरीर पर मैक्सी ही ठीक रहती थी। मेरी ज़ाँबाज़ मम्मी उन्हें बम्बई एक शादी में ले गईं। लौटते में वे लोग मेरे घर बड़ौदा रुके। कॉलोनी के कोई परिचित मेरे घर आये तो मैं ख़ैर मना रही थी मौसी उनके सामने न आयें वर्ना वे शक्ल से पहचान लेंगे, वे विक्षिप्त हैं। मुझे उनका करुण इतिहास बताना होगा।कहाँ मेरी वे शानदार मौसी जिनकी आगरा में मैं अक्सर मम्मी के एल्बम में मुग्ध होकर फ़ोटो देखा करती थी कटे हुए बालों में फूलों का गुच्छा लगाए गरारा पहने लाल काले मख़मली कालीन के फ़र्श पर अधलेटी अदा से किताब पढ़ती कोई राजकुमारी सी और कहाँ ये मैक्सी में निस्तेज आँखों से इधर उधर देखती ये सुखी सी काया ?
ऐसे ही शर्म मुझे तब आई थी जब मैं एम.एससी. में थी। अपने कक्ष के साथियों के साथ अपनी मित्र के बीमार पिता को देखने अस्पतालगई थी। उस सरकारी अस्पताल के जनरल वॉर्ड के पलंग पर मेरे अमेरिका रिटर्न्ड मौसाजी यानि डॉक्टर मौसी के पति पड़े थे। सारे बाल सफ़ेद हो गये थे, काले विकृत चेहरे पर उनकी लाल-लाल वहशी आँखें इधर-उधर देख रही थीं।
यही हाल गायत्री मौसी के पति का भी पक्षाघात के बाद होता चला गया था। इन दो पुरुषों ने पारिवारिक व्यवस्था पर चोट की तो उनकी भयंकर दुर्गति हुई । मैंने एकाकी जीवन जीने वाली व अविवाहित मौसियों के समृद्ध घरों में भयानक नीरवता तिरती देखी हैं। नादिरा बब्बर व उनकी साथिनें स्टार प्लस के धारावाहिकों के स्त्री पात्रों के विरोध में सेमिनार आयोजित करती हैं वहीं मेरा अटूट विश्वास ‘पार्वती’ व ‘तुलसी’ के किरदारों में है। समाज की पारिवारिक व्यवस्था में है। इन धारावाहिकों की कहानी कहीं से कहीं जा रही हो कामकाजी स्त्री के यही किरदार परिवार व समाज को संतुलित कर सकते हैं।
बाद में डॉक्टर मौसी के कूल्हे में मल्टीपल फ़्रेक्चर हुआ जिसमें बेडपेन भी नहीं लगाया जा सकता था। मौसी ने बिस्तर पर पड़े हुए मम्मी व भाभी ने उस नारकीय यातना को, पापा व भाई ने उन तनावों को तीन वर्ष कैसे झेला, ये तो वही जानें।
एक खूबसूरत शख्सियत का दर्दनाक अंत हुआ। इसे क्या कहें पुरुष व्यवस्था में ‘औरत की दुनिया’ या ‘नियति का क्रूर मज़ाक ?’
अपनी इन मौसी से एरिस्ट्रोकेसी, मम्मी से बोल्डनेस व सामाजिक व्यवहार का ज्ञान, कुसुम मौसी व इंदुबाला मौसी व सभी से स्टाइलिश बनकर जीना, संगीत व नृत्य, आदर्श मौसी से साहित्यिक रुझान, गायत्री मौसी से योग, शारदा मौसी से व्यंजन बनाना व कढ़ाई व पेंटिंग करना सीखा है। मैं और कुछ नहीं इन सात बहिनों का कोलाज भर हूँ।
नीलम कुलश्रेष्ठ
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