विषय के अनुसार या संख्या की दृष्टि से सौ या अधिक मुक्तकों के संग्रह होते आए हैं ,हिंदी का सतसई शब्द संस्कृत के सप्तशती का ही तद्भव या विकृत रूप है, अतएव हिंदी में सतसई वह रचना है इसमें किसी कवि के सात सौ या उसके लगभग मुक्तक हो या मुक्तकों का संकलन हो ।
बिहारी सतसई -
हिंदी की सतसई परंपरा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति बिहारी सतसई ही है। यह कृति महाकवि बिहारी की अप्रतिम लोकप्रियता का एकमात्र स्तंभ है और हिंदी साहित्य की सब विधाओं की कृतियों में महत्वपूर्ण स्थान की अधिकारिनी है। इसमें मुक्तक काव्य का चरम उत्कर्ष पाया जाता है ।बिहारी सतसई के संबंध में आचार्य पंडित रामचंद्र शुक्ल की निम्नलिखित सम्मति दी है जो अक्षरस: सत्य है “श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान बिहारी सतसई का हुआ उतना और किसी सतसई का नहीं ।इस का एक –एक दोहा हिंदी साहित्य का एक-एक रत्न माना जाता है।
परंपरा से प्रचलित निम्नलिखित उक्ति भी बिहारी के संबंध में पूर्ण सत्य है-
सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर ।
देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर।
बिहारी सतसई के सम्यक मूल्यांकन के लिए उसके विविध पक्षों पर विचार करना आवश्यक है। तभी हिंदी की सतसई परंपरा में उसके अप्रतिम और स्थान के विषय में कुछ निश्चित रूप दिया जा सकता है ।
विषय वस्तु -
बिहारी सतसई मुख्य रूप से श्रृंगार की रचना है, जिसमें कवि ने श्रृंगार के विविध पक्षों का सविस्तार वर्णन किया है। परंपरा से श्रृंगार के जितने वर्ण विषय रहे – नख शिख ,वय : संधि , प्रेमोदय, संयोग, वियोग! इसके साथ-साथ प्रेमी प्रेमिकाओं की अनेक क्रीडाओं का वर्णन किया जिसमें गुड्डी गुड़िया, पतंग उड़ाना भी सम्मिलित है ।
श्रृंगार के अतिरिक्त भक्ति और नीति में भी संबंधित कुछ दोहा भी बिहारी सतसई में है ।
भाव पक्ष -
प्रेम के पक्ष में बिहारी की प्रतिभा उसके विविध पक्षों का सम्यक उद्घाटन कर सकी है और इसीलिए उनका काव्य भावाभिव्यन्जना की दृष्टि से उत्कृष्ट बन पड़ा है ।
संयोग की अनेक क्रीडाओं का रसात्मक वर्णन बिहारी की कला का विषय बना है।
संयोग की एक क्रीडा दृष्टव्य हे -
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय!
सोंह करें भोंहन हंसें देंन कहें नट जायं !!
संयोग पक्ष में रूप वर्णन की प्रधानता बिहारी की विशेषता है ! उन्होंने अपनी सतसई में नारी सौंदर्य का मादक , उद्दीपक और भाव पेंशल सभी प्रकार का वर्णन किया है ।एक दोहे में सुकुमारता की व्यंजना दस्तावेज है। नायिका की उंगलियां अत्यंत कोमल और लाल-लाल है उनकी लालिमा ऐसी जान पड़ती है मानो बिछुओं के भार से उनमें रंग निचुड़ रहा हो -
अरुण वरुण तरुणी चरण अंगूरी अति सुकुमार !
चुवत सुरग रंग सो मनो चपि बिछुँअन के भार !!
विरह जन्य दुर्लभता का चित्र देखिए -
करके मीड कुसुम लो गई बिरह कुम्हलाय !
सदा समीपिन सखिन हूँ नीकी पिछानी जाय !.
बिहारी सतसई में विरह को भी थोड़ा स्थान मिला है, उनकी भक्ति में कोरी भक्ति की कथनी ना होकर भक्ति की रसीली युक्तियां भी मिलती हैं !जिनमें कविता , त्रिभंगी , वक्रोक्ति आदि का सुंदर समावेश मिलता है।
करो कूबत जग कुटिलता तजो न दीन दयाल !
दुखी होहुगे सरल हिय बसत त्रिभंगी लाल !!
सतसई हिंदी की समृद्ध परंपरा का हिस्सा है और उसमें बिहारी सतसई सिरमौर सतसई के रूप में जानी जाती हैं।
000