हिंदी की श्रृंगार सतसईयां -
हिंदी की श्रृंगार सतसईयों में बिहारी सतसई, मतिराम सतसई,निधि सतसई, राम सतसई और विक्रम सतसई की गणना होती है।
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने हिंदी साहित्य में बिहारी सतसई से ही हिंदी की श्रृंगार परंपरा का प्रारंभ माना है कुछ विद्वानों का कहना है कि भले ही मतिराम सतसई के ग्रंथ का आकार बाद में किंतु बिहारी सतसई के आरंभ होने और समाप्त होने से पूर्व ही मतिराम अपनी सतसई के अधिकांश दोहों की रचना कर चुके थे ।मति राम के दोहों को सतसई का रूप बाद में प्राप्त होने से बिहारी सतसई को ही श्रृंगार सतसई परंपरा की पहली रचना माना जाता है।
मतिराम सतसई -
मतिराम सतसई के दोहों में उक्ति वैचित्र्य ,चमत्कार और कलात्मकता के स्थान पर स्वाभाविक भाव व्यंजना और रसोद्रेक को अधिक महत्वपूर्ण स्थान मिला है। प्रेम की सुकुमार व्यंजना , नारी सौंदर्य, वर्णन तथा संयोग और वियोग की नाना अवस्थाओं का मार्मिक चित्रण मतिराम सतसई की विशेषता है –
लिखही अवनितल चरण सों विहसत कमल कपोल !
अध निकरे मुख इन्दु तैं अमृत बिन्दु से बोल !!
रसनिधि सतसई-
रसनिधि सतसई कवि पृथ्वी सिंह रसनिधि के रतन हजारा नामक एक हजार दोहों का संक्षिप्त संस्करण है , इसका प्रधान विषय श्रृंगार है ।इनके दोनों से प्रेम की अनुभूति मिलती है, कला की दृष्टि से इस में अलंकार और चमत्कार की प्रवृत्ति देखने को मिलती है।
राम सतसईं -
काल क्रमानुसार रसनिधि सतसई के पश्चात कवि रामसहाय दास रचित राम सतसई का नाम आता है , इसमें श्रृंगार के विविध पक्षों का सरल और प्रसाद पूर्ण शैली में वर्णन किया गया है ।जो शैली और भाव की दृष्टि से मतिराम सतसई के वर्णन के समान हैं यदि वर्णन उतना मार्मिक नहीं हो सका है ।
विक्रम सतसई -
कवि विक्रम सिंह की विक्रम सतसई, बिहारी सतसई को आदर्श मानकर लिखी गई एक साधारण कोटि की रचना है। इसका प्रधान विषय शृंगार है।
हिंदी की आधुनिक सतसैया-
रीतिकालीन सतसई परंपरा के पश्चात आधुनिक काल में भी कुछ सदस्यों की रचना हुई है, इसमें राजस्थान के बूंदी प्रदेश के अमर कवि सूर्यमल की ‘वीर सतसई’ की और वियोगी हरि की ‘वीर सतसई’ है ।
सूर्यमल्ल कृत मलिक वीर सतसई सन 1857 के आसपास की रचना है जिसने कभी ने सोती हुई जनता को जगाने का प्रयत्न किया है , इसका एक दोहा इस प्रकार है-
सहनी सबरी हूं सखी दो उर उल्टी राह!
दूध लजानो पूत सम वलय लजानो नाह !!
श्री वियोगी हरि की वीर सतसई में वीर रस को व्यापक संदर्भ में लेते हुए दया वीर, दानवीर, धर्मवीर के साथ विरह वीर जैसे नए वीर रस को भी स्वीकार किया गया है और विरहिणी ब्रजांगनाओं को विरहवीर कहा गया है। इसमें पूरे सात दोहे हैं जिनका विभाजन सात शतकों में कर दिया गया है ।इसमें ब्रजभाषा का परिष्कृत और प्रौढ़ रूप देखने को मिलता है उनकी वीर सतसई से एक दोहा -
दल्यो अहिंसा अस्त्र ले दत्तुज दुख करि युद्ध!
अजय मोह गजकेसरी जयातु तथागत बुद्ध!!
इन रचनाओं के अतिरिक्त आधुनिक युग के साहित्य में काव्य की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण कुछ अन्य रचनाएं भी देखने को आई हैं । ये रचनाएं हैं -श्री रामेश्वर करुण कृत ‘करुण सतसई’, श्री रामचरित उपाध्याय कृत ‘बृज सतसई’, श्री महेश चंद्र प्रसाद कृत ‘स्वदेश सतसईं’ और श्री जगत सिंह सेंगर कृत ‘किसान सतसई ।‘इसमें हरिओध सतसई विशेष महत्वपूर्ण है।