{ रवीन्द्रनाथ टैगोर और मेरे विद्यालयों की तुलना }“रवीन्द्रनाथ टैगोर ने हम लोगों को आत्माभिव्यक्ति के एक स्वाभाविक रूप में, पक्षियों की भाँति सहज ढंग से गीत गाना सिखाया।”
एक दिन प्रातः काल जब मैंने राँची के अपने विद्यालय के एक चौदह वर्षीय छात्र भोलानाथ के सुरीले गायन की प्रशंसा की, तो उसने यह बात बतायी। बीच-बीच में वह गाता ही रहता था। चाहे उसे कोई गाने के लिये कहे या न कहे, वह सुरीली तानों की झड़ी लगा देता था। मेरे विद्यालय में आने से पहले वह रवीन्द्रनाथ टैगोर के बोलपुर स्थित सुप्रसिद्ध शान्तिनिकेतन विद्यालय का छात्र रहा था।
मैंने उससे कहा: “रवीन्द्रनाथ के गीत बचपन से मेरे होठों पर रहे हैं। सारे बंगालियों को, यहाँ तक कि अनपढ़ किसानों को भी उनकी मनोहारी कविताओं में आनन्द आता है।”
भोला ने और मैंने साथ-साथ टैगोर के कई ध्रुवपद गाये। उन्होंने हज़ारों भारतीय गीतों को संगीत में ढाला है, जिनमें से कुछ तो उनकी अपनी रचनाएँ हैं, और कुछ प्राचीन गीत हैं।
हमारा गायन समाप्त होने के बाद मैंने कहाः “साहित्य के लिये रवीन्द्रनाथ को नोबेल पुरस्कार मिलने के शीघ्र बाद ही मैं उनसे मिला था। मुझे उनसे मिलने की इच्छा इसलिये हो रही थी कि अपने साहित्य के आलोचकों से निपटने में स्पष्टवादिता का उनका साहस मुझे बहुत अच्छा लगता था।” यह कहकर मैं हँस पड़ा!
भोला का कुतूहल जाग उठा। उसने पूरी कहानी सुनने की उत्सुकता प्रकट की।
मैंने बताना शुरू किया: “बंगाली काव्य में नयी शैली लाने के लिये विद्वानों ने टैगोर की कटु आलोचना की। उन्होंने पंडितों को अत्यन्त प्रिय लगने वाले निर्धारित नियमों को ठुकराकर लोकभाषा की पदावली को शास्त्रीय पदावली के साथ मिला दिया। उनके गीतों में मन को छू लेने वाले शब्दों में गहन दार्शनिक सत्य होता है; प्रचलित साहित्यिक ढंग की उन्होंने कोई परवाह नहीं की।
“एक प्रतिष्ठित समालोचक ने अत्यंत द्वेष के साथ अपनी गुटर गूँ को छापकर एक रुपये में बेचने वाला 'कपोत-कवि' कह कर रवीन्द्रनाथ का उल्लेख किया किन्तु टैगोर को भी अपना बदला लेने का अवसर जल्दी ही मिल गया। अपनी गीतांजलि का उन्होंने स्वयं ही जब अंग्रेजी में अनुवाद किया, तो सम्पूर्ण पाश्चात्य साहित्यिक जगत् ने उनके चरणों में अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर दिये। रेलवे की एक पूरी गाड़ी भर कर पंडित, जिनमें एक समय के उनके आलोचक भी शामिल थे, उनका अभिनन्दन करने के लिये शान्तिनिकेतन पहुँचे।
“जान-बूझकर उन्हें काफी देर तक बिठाकर रखने के बाद ही रवीन्द्रनाथ उनसे मिले और फिर निर्विकार भाव से, मौन रहकर उनकी प्रशंसा सुनते रहे। अंततः आलोचना के उनके ही प्रचलित अस्त्र को उन्होंने उन्हीं की ओर मोड़ दिया
“उन्होंने कहाः ‘सज्जनों, आप जिन गौरव-सुरभियों की वर्षा यहाँ मुझ पर कर रहे हैं, उसमें आपकी गतकालीन घृणा की दुर्गन्ध भी विसंगत रूप से मिली हुई है। मेरे नोबेल पुरस्कार मिलने और आप लोगों की प्रखर प्रशंसात्मक बुद्धि के अचानक जागृत होने के बीच कहीं कोई सम्बन्ध तो नहीं? मैं तो अभी भी वही कवि हूँ, जिसने आप लोगों को तब बड़ा ही नाराज़ कर दिया था, जब मैंने प्रथम बार बंगाल मन्दिर में अपने विनम्र काव्य सुमन अर्पित किये थे।’
“समाचार पत्रों ने टैगोर द्वारा सुनायी गयी निर्भीक फटकार का वृत्तान्त प्रकाशित किया। चापलूसी से सम्मोहित न हुए उस पुरुष के स्पष्टवादी शब्द मुझे बहुत पसन्द आये। कोलकाता में रवीन्द्रनाथ के सेक्रेटरी श्री सी. एफ. एण्ड्रयूज ने मेरा उनसे परिचय करा दिया। मैं जब वहाँ गया तो श्री एण्ड्रयूज केवल एक बंगाली धोती पहने हुए थे। वे टैगोर का उल्लेख प्रेम से 'गुरुदेव' कह कर करते थे।
“रवीन्द्रनाथ ने शिष्टतापूर्वक मेरा स्वागत किया। उनके व्यक्तित्व से मनमोहकता, सुसंस्कृतता तथा शालीनता टपक रही थी। उनकी साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने बताया कि वे मुख्यतः हमारे धार्मिक ग्रन्थों तथा चौदहवीं शताब्दी के एक लोकप्रिय कवि विद्यापति से प्रभावित रहे हैं।”
इन स्मृतियों से आह्लादित होकर मैं एक पुराने बंगाली गीत की टैगोर द्वारा की गयी पुनः प्रस्तुति, “आमार ए घरे, आपनार करे गृह-दीपखानि ज्वालो" (मेरी कुटिया में अपने कर-कमल से प्रेम का अपना दीप जला दो) को गाने लगा। भोला और मैं आनन्द में यह गीत गाते हुए विद्यालय के प्रांगण में टहलने लगे।
राँची में विद्यालय की स्थापना करने के लगभग दो वर्ष बाद शान्तिनिकेतन में आने के लिये मुझे रवीन्द्रनाथ का निमंत्रण मिला, ताकि हम दोनों अपने शैक्षणिक आदर्शों पर चर्चा कर सकें। मैं खुशी से वहाँ गया। जब मैं उनसे मिलने पहुँचा, तब वे अपने अध्ययन-कक्ष में बैठे हुए थे। पहली भेंट के समान ही, इस बार भी मुझे लगा कि उत्कृष्ट पुरुषत्व का चित्र बनाने के लिये यदि किसी चित्रकार को किसी मॉडल की आवश्यकता पड़े, तो उन से अधिक अच्छा मॉडल उसे नहीं मिल सकेगा। प्राचीन के कुलीन पुरुष की तरह तीखे नाक-नक्श का, सुन्दरताके साथ तराशा हुआ-सा उनका चेहरा, लहराते केश और लम्बी दाढ़ी के बीच सुशोभित था। विशाल दयार्द्र नेत्र, देवता सदृश सौम्य मुस्कराहट तथा बाँसुरी की ध्वनि की याद दिलाती आवाज जो सचमुच मंत्रमुग्ध कर देती थी मजबूत, सुदृढ़, लम्बे कद के गम्भीर मुद्रा के उनके व्यक्तित्व में करीब-करीब नारी-सुलभ कोमलता भी थी और शिशु-सुलभ हर्षोत्फुल्ल स्वयंस्फूर्ति भी। कवि दिखने में कैसा हो, इसकी आदर्श कल्पना इस सौम्य गायक की मूर्ति से अधिक अच्छी तरह साकार नहीं हो सकती।
टैगोर और मैं शीघ्र ही प्रचलित पद्धति से हटकर बनाये गये हमारे विद्यालयों के तुलनात्मक अध्ययन में मग्न हो गये। हमने दोनों विद्यालयों में कई बातों में समानता पायी। खुले आकाश के नीचे शिक्षा, सादगी, बच्चों की रचनात्मक प्रवृत्ति के विकास के लिये पर्याप्त अवसर रवीन्द्रनाथ ने साहित्य और काव्य के अध्ययन पर तथा संगीत और गायन के द्वारा आत्माभिव्यक्ति पर काफी जोर दिया था, जैसा कि भोला के मामले में मैं पहले ही देख चुका था। शान्तिनिकेतन के बच्चों के लिये मौन के विशिष्ट समय भी निर्धारित थे परन्तु उन्हें योग का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं दिया जाता था।
कविवर ने राँची में सभी छात्रों को सिखाये जाने वाले शक्तिसंचार के योगदा व्यायामों और एकाग्रता की यौगिक प्रविधियों के मेरे विवरण को अत्यंत ध्यान से सुना।
टैगोर ने मुझे अपने आरम्भ के शैक्षणिक संघर्ष के बारे में बताया। “पाँचवीं कक्षा के बाद मैं स्कूल से भाग निकला,” उन्होंने हँसते हुए कहा। स्कूली कक्षा के नीरस, अनुशासनात्मक वातावरण में उनके जन्मजात कविहृदय की कोमलता को कैसे झटके लगते होंगे, इसे मैं आसानी से समझ सकता था।
“इसीलिये मैंने छायादार वृक्षों और आकाश के सौन्दर्य के तले शान्तिनिकेतन की स्थापना की।” सुन्दर बगीचे में अध्ययन करते बच्चो के एक छोटे से गुट की ओर भावपूर्ण ढंग से इशारा करते हुए उन्होंने कहा: “बच्चा फूलों और गाते पक्षियों के बीच अपने स्वाभाविक वातावरण में रहता है। वहाँ वह अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा की गुप्त निधि को अधिक सरलता से व्यक्त कर सकता है। सच्ची शिक्षा को बाह्य साधनों द्वारा भरा या ठूंसा नहीं जा सकता, बल्कि सच्ची शिक्षा तो वह है जो भीतर में निहित अनंत ज्ञान भंडार को ऊपर ला सके।”¹
मैंने उनके साथ सहमति प्रकट की और कहा: “साधारण स्कूलों में बच्चों को आँकड़ों और ऐतिहासिक कालक्रम के अनन्य आहार पर रखकर उनकी आदर्शवादी और वीरपूजात्मक नैसर्गिक प्रवृत्तियों को भूखों मार दिया जाता है।”
कविवर अपने पिता देवेन्द्रनाथ के बारे में, जिन्होंने शान्तिनिकेतन शुरू करने की उन्हें प्रेरणा दी थी, अत्यंत प्रेम के साथ बोलने लगे। उन्होंने कहाः
“पिताजी ने यह उपजाऊ जमीन मुझे दे दी, जहाँ उन्होंने पहले ही एक अतिथिशाला और मन्दिर का निर्माण कर लिया था। मैंने १९०१ में यहाँ केवल १० बच्चों के साथ अपना शैक्षणिक प्रयोग आरम्भ किया। नोबेल पुरस्कार के साथ जो आठ हजार पौण्ड मिले, वह सब विद्यालय पर ही खर्च हो गये।”
दूर-दूर तक महर्षि के नाम से विख्यात देवेन्द्रनाथ टैगोर अत्यंत अद्भुत व्यक्ति थे, जैसा कि उनकी आटोबायोग्राफी से पता चलता है। अपनी युवावस्था के दो वर्ष उन्होंने हिमालय में ध्यान धारणा में व्यतीत किये थे। उनके पिताजी द्वारकानाथ टैगोर भी पूरे बंगाल में जनहितार्थ दानधर्म के लिये विख्यात थे इस गौरवशाली वंशवृक्ष से अनेक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का पूरा परिवार ही पैदा हुआ है। केवल अकेले रवीन्द्रनाथ ही नहीं, बल्कि उनके सभी सगे-सम्बन्धियों ने रचनात्मक अभिव्यक्ति में विशिष्टता दिखायी है। उनके भतीजे गगनेन्द्र और अवनीन्द्र भारत के शीर्षस्थ चित्रकारों में थे।² रवीन्द्रनाथ के भाई द्विजेन्द्र एक दार्शनिक थे, जिनसे पक्षी और जंगली पशु प्रेम करते थे।
रवीन्द्रनाथ ने मुझसे एक रात अतिथिशाला में रहने का आग्रह किया। शाम को आंगन में बैठे कविवर और बच्चों के दृश्य ने मेरा मन मोह लिया। मैं अतीत काल में पहुँच गया: मेरे सामने प्रस्तुत दृश्य प्राचीन काल के किसी आश्रम की तरह लग रहा था आनन्द में विभोर गायक और उसके चारों ओर बैठे उसके भक्तजन, सभी दिव्य प्रेम के प्रभामण्डल से घिरे हुए। टैगोर मित्रता की प्रत्येक गाँठ मनोमाधुर्य के धागे से बांधते थे। वे कभी भी अपनी बात पर जोर नहीं देते थे, एक दुर्निवार्य आकर्षण शक्ति से खींच कर हृदय जीत लेते थे। ईश्वर के उद्यान में खिला हुआ काव्य का यह दुर्लभ पुष्प दूसरों को एक नैसर्गिक सुगन्ध से आकर्षित कर लेता था।
अपनी मधुर आवाज में रवीन्द्रनाथ ने हमें अपनी कुछ अति उत्कृष्ट नवरचित कविताएँ पढ़ कर सुनायीं। अपने विद्यार्थियों को आनन्द देने के लिये रचे गये उनके अधिकांश गीतों एवं नाटकों की रचना उन्होंने शान्तिनिकेतन में ही की। मेरी दृष्टि में उनके पद्यों की सुन्दरता इसमें है कि लगभग प्रत्येक छंद में ईश्वर के नाम का उल्लेख किये बिना ईश्वर का जिक्र करने की उनकी अद्भुत कला उनमें प्रकट होती है। उन्होंने लिखा है: “सुरेर घोरे आपनाके जाई भुले, बन्धु बोले डाकि मोर प्रभुके।” “गाने के आनन्द में मैं अपने को इतना भूल जाता हूँ कि आपको भी मित्र कहने लगता है, जो मेरे प्रभु हैं।”
दूसरे दिन दोपहर के भोजन के पश्चात् मैंने अनिच्छापूर्वक ही कविवर से विदा ली। मुझे इस बात का आनन्द है कि उनका छोटा-सा विद्यालय अब एक अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, “विश्व-भारती”³ बन गया है, जहाँ अनेक देशों के छात्रों को आदर्श वातावरण प्राप्त होता है।
“जहाँ चित्त भयमुक्त और सिर ऊँचा हो;
जहाँ ज्ञान मुक्त हो;
जहाँ विश्व संकीर्ण आपसी दीवारों से छोटे-छोटे टुकड़ों में न बटा हो;
जहाँ शब्द सत्य की गहराइयों से आते हों;
जहाँ अथक कर्मधारा अपने हाथ पूर्णता की ओर फैलाती हो;
जहाँ विचारों का निर्मल स्रोत तुच्छ आचारों की रुक्ष मरुभूमि की बालु में खो न गया हो;
जहाँ मनको आप निरन्तर विस्तारित होते विचार एवं कर्म में ले जाते हों;
उस मुक्ति के स्वर्ग में, हे मेरे परमपिता, मेरे देश को जागृत करो!!”⁴ – रवीन्द्रनाथ टैगोर
¹ “बार-बार जन्म लेने के कारण या जैसा कि हिन्दुओं में कहा जाता है, ‘हजारों जन्मों में अस्तित्व का मार्गक्रमण करने’ के कारण आत्मा के लिये ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका उसे ज्ञान हुआ हो। तब इसमें क्या आश्चर्य है कि जो उसे पहले कभी ज्ञात था, उसे वह फिर याद कर सकती है, क्योंकि प्रश्न-विचार और शिक्षा प्राप्त करना, असल में केवल सारी स्मृतियों को जगाना ही है।” – इमर्सन "रिप्रेजेन्टेटिव मेन"
² अपने शाठ के दशक में रवीन्द्रनाथ भी चित्रकला के गहन अध्ययन में प्रवृत्त हो गये थे। कुछ वर्ष पूर्व उनके चित्र यूरोपीय राजधानियों एवं न्यूयॉर्क में प्रदर्शित किये गये।
³ यद्यपि १९४੧ में इस प्रिय कवि का देहावसान हो गया, किन्तु उनका विश्वभारती संस्थान आज भी फल-फूल रहा है। जनवरी १९५० में शान्तिनिकेतन के ६५ शिक्षकों एवं छात्रों ने रांची में योगदा विद्यालय की दस दिनों की यात्रा की।
⁴ गीतांजलि (मैकमिलन कं.)। कवि महोदय से संबंधित विस्तृत अध्ययन सुप्रसिद्ध विद्वान सर एस. राधाकृष्णन द्वारा लिखिष द फिलॉसॉफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर (मैकमिलन 1918) में उपलब्ध है।