Bhartiy Rangmanch ka Itihas - 3 in Hindi Drama by शैलेंद्र् बुधौलिया books and stories PDF | भारतीय रंगमंच का इतिहास - 3

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भारतीय रंगमंच का इतिहास - 3

रंगमंच का इतिहास पाश्चात्य रंगमंच 3

 

पाश्चात्य रंगमंच का प्रादुर्भाव सर्वप्रथम यूनान देश में हुआ , जिसे इतिहासकारों ने थिएटर ऑफ डायोनिसियस की संज्ञा दी है। 

 सत्या भास-

  ड्रामा जीवन का दर्पण है यह सत्य हमारे सामने एक स्वाभाविक प्रश्न खड़ा करता है क्या ड्रामा का रंग अनुष्ठान दशक के लिए ऐसा शक्तिशाली सत्य आभास पैदा करता है कि वह यह विश्वास करने लगे कि जो कुछ वह मंच पर प्रस्तुत होते देख रहा है वह साक्षात जीवन है ।यह प्रश्न ड्रामा लेखकों  से अधिक दर्शक के व्यक्तित्व से संबंध रखता है ।विशेषकर दर्शक के मन से उसकी ग्रहण शक्ति से और सबसे अधिक उसकी कल्पना अथवा सर्जना शक्ति से ।

ड्रामा की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है कि ड्रामा जीवन के विषय में विचार व्यक्त करने की कला है और इस कला का रूप भी ऐसा कि जिस के विचारों को व्यवहारिक अभिव्यक्ति देने के लिए अभिनेता रंगशाला में बैठे हुए दर्शक गण के सामने दृस्य रूप में उसे उपस्थित करता है जो बाहर से अप्रत्याशित घटना है, कार्य व्यवहार है ।उसके अंत स्थल में ड्रामा अपनी राग आत्मक और काव्यात्मक दिशा में निरंतर विकसित होता दिख पड़े। यह ड्रामा की प्रकृति का बहुत बड़ा तत्व है।

ड्रामा की परिकल्पना प्रस्तुतीकरण स्तर पर जिस प्रकार बिना अभिनेता और दर्शक के असंभव है कि इसी प्रकार ड्रामा की रचना अपने सृजन के स्तर से बिना जिज्ञासा पूर्ण घटना संवेद स्थिति के कलात्मक चय न से कठिन है ऐसी घटनाएं स्थितियां कार्य व्यापार जो अपनी मौलिकता, अप्रत्याशितथा और अपने अनोखे पन तथा निराले पन में हमें मोहित कर ले ।कला में सत्य का स्थान हैं परंतु यह सत्य इतिहास की घटनाओं के समान नहीं वरन उसके कल्पना जगत की सत्यता है।

 इससे यह पता चलता है कि ड्रामा की कला एक कल्पना पूर्ण अनुकरण हैं जो जीवन के अंगो का कलात्मक चित्रण करता है ।इस केंद्रीय भाव में ड्रामा जीवन का सत्याभारती प्रतिबिंब प्रदर्शित करता है।

 यह सत्य है कि साहित्य और कला के समस्त प्रकारों में ड्रामा एक अलग प्रकार है, जिसका संबंध सीधे मंच अनुष्ठान के फलस्वरूप अभिनेता के माध्यम से रंग भवन में बैठे हुए दर्शक वर्ग से है। पर ऐसा भी देखा जाता है कि कुछ ड्रामा अपने साहित्य के स्तर पर निर्बल  होते हैं और रंगमंच के स्तर पर सशक्त ।   दूसरी ओर ठीक इसके विपरीत एक तीसरी और भी दिशा है ।एक ड्रामा रंगमंच के स्तर से निर्बल है और साहित्य के स्तर से सश्क्त , लेकिन किसी प्रस्तुतकर्ता ने सहसा उस ड्रामा को अपनी प्रस्तुतीकरण की कला से चमका दिया।

 ड्रामा के मूल्य निर्धारण की स्थिति कैसे पकड़ में आए? प्रश्न है कि दर्शक ड्रामा से केवल मनोरंजन मात्र चाहता है अथवा कुछ और! मूल्यवान सत्य! स्वभावतः  रुचि और सौंदर्य बोध के अनुकूल इस प्रश्न के अलग-अलग और भी उत्तर होंगे । बेन जॉनसन ने कहा है कि “ ड्रामा का मूल्य मनोरंजन और शिक्षा देने में है ।“

मोलियर ने कहा ‘ड्रामा आनंद और मनोरंजन मात्र के लिए है !”

अरस्तु ने ड्रामा को रेचन  सिद्धांत के अंतर्गत रखकर देखा है !

अरस्तु  ने ड्रामा के निम्नलिखित तत्व बताएं हैं-

कथा

 चरित्र अथवा पात्र

भाषा

 विचार

 संगीत

दृश्यता

 और इन सब के अंत में उसने स्पष्ट कहा यह कहा  “ड्रामा में सबसे आवश्यक तत्व है घटनाओं का चयन।“